श्रीहरि बोले- ब्रह्मन् मैं तुम्हारी इस तपस्या, पुण्य, सत्य तथा पावन स्तोत्रसे बहुत सन्तुष्ट हूँ। मुझसे कोई वर माँगो
सोमशर्माने कहा – प्रभो! पहले तो आप मुझे भलीभाँति निश्चित किया हुआ एक वर यह दीजिये कि मैं प्रत्येक जन्ममें आपकी भक्ति करता रहूँ। दूसरा यह कि मुझे मोक्ष प्रदान करनेवाले अपने अविचल परमधामका दर्शन कराइये। तीसरे वरके रूपमें मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो अपने वंशका उद्धारक, दिव्य लक्षणोंसे सम्पन्न, विष्णुभक्तिपरायण, मेरे कुलको धारण करनेवाला, सर्वज्ञ, सर्वस्व दान करनेवाला, जितेन्द्रिय, तप और तेजसे युक्त, देवता, ब्राह्मण तथा इस जगत्का पालन करनेवाला, श्रीभगवान् (आप) का पुजारी और शुभ संकल्पवाला हो। इसके सिवा, श्रीकेशव ! आप मेरी दरिद्रता हर लीजिये।
श्रीहरि बोले- दिजश्रेष्ठ ऐसा ही होगा, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। मेरे प्रसादसे तुमको सुयोग्य पुत्रकी प्राप्ति होगी, जो तुम्हारे वंशका उद्धार करनेवाला होगा। तुम इस मनुष्यलोकमें भी परम उत्तम दिव्य एवं मनुष्योचित भोगोंका उपभोग करोगे। तदनन्तर तुम परमगतिको प्राप्त होगे।
इस प्रकार भगवान् श्रीहरि स्त्रीसहित ब्राह्मणको वरदान देकर अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्मा अपनी पत्नी सुमनाके साथ नर्मदाके पुण्यदायक तटपर उस परमपावन उत्तम तीर्थ अमरकण्टकमें रहकर दान-पुण्य करने लगे। इस प्रकार बहुत समय व्यतीत हो जानेपर एक दिन सोमशर्मा कपिला और नर्मदाके संगममें स्नान करके निकले और घर आकर ब्राह्मणोचित कर्ममें लग गये। उस दिन व्रतसे शोभा पानेवाली परम सौभाग्यवती सुमनाने पतिके सहवाससे गर्भ धारण किया। समय आनेपर उस बड़भागिनीने देवताओंके समान कान्तिमान् उत्तम पुत्रको जन्म दिया, जिसके शरीरसे तेजोमयी किरणें छिटक रही थीं। उसके जन्मके समय आकाशमें बारंबार देवताओंके नगारे बजने लगे। तत्पश्चात् ब्रह्माजी देवताओंको साथ लेकर वहाँ आये और स्वस्थ चित्तसे उस बालकका नाम उन्होंने 'सुव्रत' रखा। नामकरण करके महाबली देवता स्वर्गको चले गये।उनके
जानेके पश्चात् द्विजश्रेष्ठ * भूमिख सोमशर्माने बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये। उस बड़भागी पुत्र सुव्रतके, जो भगवान्की कृपासे प्राप्त हुआ था, जन्म लेनेपर ब्राह्मणके घरमें धन-धान्यसे परिपूर्ण महालक्ष्मी निवास करने लगी। हाथी, घोड़े, भैंसें, गरें, सोने और रत्न आदि किसी भी वस्तुको कमी न रही। सोमशर्माका घर रत्नराशिसे कुबेर भवनकी भाँति शोभा पाने लगा। ब्राह्मणने दान-पुण्य आदि धर्मोका अनुष्ठान किया। तीर्थोंमें जाकर वे नाना प्रकारके पुण्यों में लगे रहे और भी जो-जो दान पुण्य हो सकते हैं, उन सबका उन्होंने अनुष्ठान किया। मेधावी सोमशर्माका सारा जीवन ही ज्ञान और पुण्यके उपार्जनमें लगा रहा। उन्होंने बड़े हर्षके साथ पुत्रका विवाह किया। फिर पुत्रके भी पुत्र उत्पन्न हुए, जो बड़े ही पुण्यात्मा और उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न थे। भी सदा सत्यवादी, धर्मात्मा तपस्वी तथा दान धर्ममें संलग्न थे। उन पौत्रोंके भी पुण्यसंस्कार " सोमशर्माने ही सम्पन्न किये। सुमना और सोमशर्मा दोनों ही सौभाग्यशाली थे वे महान् अभ्युदयसे युद्ध होकर सदा हर्षमें भरे रहते थे।सूतजी कहते हैं- एक समय महर्षि व्यासने अत्यन्त विस्मित होकर लोकनाथ ब्रह्माजीसे सुव्रतका सारा उपाख्यान पूछा।
ब्रह्माजीने कहा-सुव्रत बड़ा मेधावी बालक था। वह बाल्यकालसे ही भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करने लगा। उसने गर्भमें ही पुरुषोत्तम भगवान् श्रीनारायणका दर्शन किया था। पूर्वकर्मोके प्रभावसे वह सदा भगवान्के ध्यानमें लगा रहता था। वह गान, विद्याभ्यास और अध्यापन करते समय भी शंख-चक्रधारी, उत्तम पुण्यदायी भगवान् श्रीपद्यनाभका ध्यान और चिन्तन किया करता था। इस प्रकार वह द्विजश्रेष्ठ सदा श्रीभगवान्का ध्यान करते हुए ही बच्चोंके साथ खेला करता था। वह मेधावी, पुण्यात्मा और पुण्यमें प्रेम रखनेवाला था। उसने अपने साथी बालकोंका नाम अपनी ओरसे परमात्मा श्रीहरिके नामपर ही रख दिया था। वह महामुनि था और भगवान्के ही नामसे अपने मित्रोंको भी पुकारा करता था। 'ओ केशव ! यहाँ आओ, चक्रधारी माधव बचाओ, पुरषोत्तम ! तुम्हीं मेरे साथ खेलो मधुसूदन! हम दोनोंको वनमें ही चलना चाहिये।' इस प्रकार श्रीहरिके नाम ले-लेकर वह ब्राह्मणबालक मित्रोंको बुलाया करता था । खेलने, पढ़ने, हँसने, सोने, गीत गाने, देखने, चलने, बैठने, ध्यान करने, सलाह करने, ज्ञान अर्जन करने तथा शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करनेके समय भी वह श्रीभगवानको ही देखता और जगन्नाथ, जनार्दन आदि नामोंका उच्चारण किया करता था। विश्वके एकमात्र स्वामी श्रीपरमेश्वरका ध्यान करता रहता था। तृण, काष्ठ, पत्थर तथा सूखे और गीले सभी पदार्थोंमें वह धर्मात्मा बालक श्री केशवको ही देखता, कमललोचन श्रीगोविन्दका ही साक्षात्कार किया करता था। सुमनाका पुत्र ब्राह्मण सुव्रत बड़ा बुद्धिमान् था यह आकाशमें, पृथ्वीपर, पर्वतोंमें, वनोंमें, जल, । थल और पाषाणमें तथा सम्पूर्ण जीवोंके भीतर भी भगवान् श्रीनृसिंहका ही दर्शन करता था। *इस प्रकार बालकोंके साथ खेलमें सम्मिलित होकर वह प्रतिदिन खेलता तथा मधुर अक्षर और उत्तम रागसे युक्त गीतोंद्वारा श्रीकृष्णका गुणगान किया करता था। उसके गीत- ताल, लय, उत्तम स्वर और मूर्च्छनासे युक्त होते थे। सुव्रत कहता- 'सम्पूर्ण देवता सदा भगवान् श्रीमुरारिका ध्यान करते हैं। जिनके श्रीअंगोंके भीतर सम्पूर्ण जगत् स्थित है, जो योगके स्वामी, पापका नाश करनेवाले और शरणागतोंके रक्षक हैं, उन भगवान् श्रीमधुसूदनका मैं भजन करता हूँ। जो सम्पूर्ण जगत् के भीतर सदा जागते और व्याप्त रहते हैं, जिनमें समस्त गुणवानोंका निवास है तथा जो सब दोषोंसे रहित हैं, उन परमेश्वरका चिन्तन करके मैं सदा उनके युगल चरणोंमें मस्तक झुकाता हूँ। जो गुणोंके अधिष्ठान हैं, जिनके पराक्रमका अन्त नहीं है, वेदान्तज्ञानसे विशुद्ध बुद्धिवाले पुरुष जिनका सदा स्तवन किया करते हैं, इस अपार, अनन्त और दुर्गम संसारसागरसे पार होनेके लिये जो नौकाके समान हैं, उन सर्वस्वरूप भगवान् श्रीनारायणकी मैं शरण लेता हूँ। मैं श्रीभगवान्के उन निर्मल युगल चरणोंको प्रणाम करता हूँ, जो योगीश्वरोंके हृदयमें निवास करते हैं, जिनका शुद्ध एवं पूर्ण प्रभाव सदा और सर्वत्र विख्यात है। देव! मैं दीन हूँ, आप अशुभके भयसे मेरी रक्षा कीजिये। संसारका पालन करनेके लिये जिन्होंने धर्मको अंगीकार किया है, जो सत्यसे युक्त, सम्पूर्ण लोकोंके गुरु, देवताओंके स्वामी, लक्ष्मीजीके एकमात्र निवासस्थान, सर्वस्वरूप और सम्पूर्ण विश्वके आराध्य हैं;उन भगवान्के सुयशका मेँ सुमधुर रससे युक्त संगीत एवं ताल-लयके साथ गान करता हूँ। में अखिल भुवनके स्वामी भगवान् श्रीविष्णुका ध्यान करता हूँ, जो इस लोकमें दुःखरूपी अन्धकारका नाश करनेके लिये चन्द्रमाके समान हैं। जो अज्ञानमय तिमिरका ध्वंस करनेके लिये साक्षात् सूर्यके तुल्य हैं तथा आनन्दके अखण्ड मूल और महिमासे सुशोभित हैं, जो अमृतमय आनन्दसे परिपूर्ण, समस्त कलाओंके आधार तथा गीतके कौशल हैं, उन श्रीभगवान्का मेँ अनन्य अनुरागसे गान करता हूँ। जो उत्तम योगके साधनों से युक्त हैं, जिनकी दृष्टि परमार्थकी ओर लगी रहती है, जो सम्पूर्ण चराचर जगत्को एक साथ देखते रहते हैं। तथा पापी लोगोंको जिनके स्वरूपका दर्शन नहीं होता, उन एकमात्र भगवान् श्रीकेशवकी मैं सदाके लिये शरण लेता हूँ।'
इस प्रकार सुमनाका पुत्र सुव्रत दोनों हाथोंसे ताली बजाकर ताल देते हुए श्रीकृष्णके सुयशका गान करता और बालकोंके साथ सदा प्रसन्न रहता था। प्रतिदिन बालस्वभावके अनुसार खेलता और भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें लगा रहता था। अपने सुलक्षण पुत्र सुव्रतको खेलते देख माता सुमना कहती- 'बेटा! आ, कुछ भोजन कर ले; तुझे भूख सता रही होगी।' यह सुनकर वह बुद्धिमान् बालक सुमनाको उत्तर देता – ' माँ! भगवान्का ध्यान महान् अमृतके तुल्य है, मैं उसीसे तृप्त रहता हूँ- मुझे भूख नहीं सताती।' भोजनके आसनपर बैठकर जब वह अपने सामने मिष्टान्न परोसा हुआदेखत तब कहता-इस अन्नसे भगवान् विष्णु तृप्त हो।' वह धर्मात्मा बालक जब सोनेके लिये जाता, तब वहाँ भी श्रीकृष्णका चिन्तन करते हुए कहता-'मैं योगनिद्रापरायण भगवान् श्रीकृष्णकी शरणमें आया हूँ।' इस प्रकार भोजन करते, वस्त्र पहनते, बैठते और सोते समय भी वह श्रीवासुदेवका चिन्तन करता और उन्हींको सब वस्तुएँ समर्पित कर देता था। धर्मात्मा सुव्रत युवावस्था आनेपर काम-भोगका परित्याग करके वैडूर्य पर्वतपर जा भगवान् श्रीविष्णुके ध्यानमें लग गया। वहीं उस मेधावीने श्रीविष्णुका चिन्तन करते हुए तपस्या आरम्भ कर दी। उस श्रेष्ठ पर्वतपर सिद्धेश्वर नामक स्थानके पास वह निर्जन वनमें रहता और काम-क्रोध आदि सम्पूर्ण दोषोंका परित्याग करके इन्द्रियोंको संयममें रखते हुए तपस्या करता था। उसने अपने मनको एकाग्र करके भगवान् श्रीविष्णुके साथ जोड़ दिया। इस प्रकार परमात्माके ध्यानमें सौ वर्षोंतक लगे रहनेपर उसके ऊपर शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीजगन्नाथ बहुत प्रसन्न हुए तथा लक्ष्मीजीके साथ उसके सामने प्रकट होकर बोले 'धर्मात्मा सुव्रत। अब ध्यानसे उठो, तुम्हारा कल्याण हो; मैं विष्णु तुम्हारे पास आया हूँ, मुझसे वर माँगो ।' मेधावी सुव्रत भगवान् श्रीविष्णुके ये उत्तम वचन सुनकर अत्यन्त हर्षमें भर गये। उन्होंने आँख खोलकर देखा, जनार्दन सामने खड़े हैं; फिर तो दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने श्रीभगवान्को प्रणाम किया और उनकी स्तुति करने लगे
सुव्रत बोले-
संसारसागरमतीय गभीरपारं
दुःखोर्मिभिर्विविधमोहमयैस्तरङ्गैः
सम्पूर्णमस्ति निजदोषगुणैस्तु प्राप्तं
तस्मात् समुद्धर जनार्दन मां सुदीनम्
जनार्दन ! यह संसार-समुद्र अत्यन्त गहरा है, इसका पार पाना कठिन है। यह दुःखमयी लहरों और मोहमयी भाँति-भाँति की तरंगों से भरा है। मैं अत्यन्त दीन हूँ और अपने ही दोषों तथा गुणोंसे पाप-पुण्योंसे प्रेरित होकर इसमें आ फैसा हूँ: अतः आप मेरा इससे उद्धार कीजिये।
कर्माम्बुदे महति गर्जति वर्षतीव
विद्युल्लतोल्लसति पातकसञ्चयै ।
मोहान्धकारपटलैर्मम नष्टदृष्टे
दीनस्य तस्य मधुसूदन देहि हस्तम् ॥
कर्मरूपी बादलोंकी भारी घटा घिरी हुई है, जो गरजती और बरसती भी है। मेरे पातकोंकी राशि विद्युल्लताकी भाँति उसमें थिरक रही है। मोहरूपी अन्धकार समूहसे मेरी दृष्टि-विवेकशक्ति नष्ट हो गयी है, मैं अत्यन्त दीन हो रहा हूँ; मधुसूदन! मुझे अपने हाथका सहारा दीजिये।
संसारकाननवर बहुदुःखवृक्षैः
संसेव्यमानमपि मोहमयैश्च सिंहः l
संदीप्तमस्ति करुणाबहुवनितेजः
संतप्यमानमनर्स परिपाहि कृष्ण ॥
यह संसार एक महान् वन है, इसमें बहुत से दुःख ही वृक्षरूपमें स्थित हैं। मोहरूपी सिंह इसमें निर्भय होकर निवास करते हैं इसके भीतर शोकरूपी प्रचण्ड दावानल प्रज्वलित हो रहा है, जिसकी आँचसे मेरा चित्त सन्तप्त हो उठा है। कृष्ण! इससे मुझे बचाइये।
संसारवृक्षमतिजीर्णमपीह उच्च
मायासुकन्दकरुणाबहुदुः खशाखम्
जायादिसङ्घछदनं फलितं मुरारे
तं चाधिरूढपतितं भगवन् हि रक्ष
संसार एक वृक्षके समान है, यह अत्यन्त पुराना होनेके साथ बहुत ऊँचा भी है: माया इसकी जड़ है, शोक तथा नाना प्रकारके दुःख इसकी शाखाएँ हैं, पत्नी आदि परिवारके लोग पत्ते हैं और इसमें अनेक प्रकारके फल लगे हैं। मुरारे! मैं इस संसार वृक्षपर चढ़कर गिर रहा हूँ; भगवन्! इस समय मेरी रक्षा कीजिये- मुझे बचाइये।
दुःखानलैर्विविधमोहमयैः सुधूमैः
शोकैर्वियोगमरणान्तकसंनिभैश्च
दग्धोऽस्मि कृष्ण सततं मम देहि मोक्षं
ज्ञानाम्बुनाथ परिषिच्य सदैव मां त्वम्
कृष्ण मैं दुःखरूपी अग्नि, विविध प्रकारके मोहरूपी धुएँ तथा वियोग, मृत्यु और कालके समानशोकोंसे जल रहा हूँ; आप सर्वदा ज्ञानरूपी जलसे सींचकर मुझे सदाके लिये संसार-बन्धनसे छुड़ा दीजिये ।
मोहान्धकारपटले महतीव गर्ते
संसारनाम्नि सततं पतितं हि कृष्ण ।
कृत्वा तरीं मम हि दीनभयातुरस्य
तस्माद् विकृष्य शरणं नय मामितस्त्वम् ॥
कृष्ण! मैं मोहरूपी अन्धकार - राशिसे भरे हुए संसार नामक महान् गड्ढे में सदासे गिरा हुआ हूँ, दीन हूँ और भयसे अत्यन्त व्याकुल हूँ; आप मेरे लिये नौका बनाकर मुझे उस गड्ढेसे निकालिये, वहाँसे खींचकर अपनी शरणमें ले लीजिये।
त्वामेव ये नियतमानसभावयुक्ता
ध्यायन्त्यनन्यमनसा पदवीं लभन्ते ।
नत्वैव पादयुगलं च महत्सुपुण्यं
ये देवकिन्नरगणाः परिचिन्तयन्ति ॥
जो संयमशील हृदयके भावसे युक्त होकर अनन्य चित्तसे आपका ध्यान करते हैं। वे आपकी पदवीको प्राप्त हो जाते हैं तथा जो देवता और किन्नरगण आपके दोनों परम पवित्र चरणोंको प्रणाम करके उनका चिन्तन करते वे भी आपकी पदवीको प्राप्त होते हैं।
नान्यं वदामि न भजामि न चिन्तयामि
त्वत्पादपद्मयुगलं सततं नमामि ।
एवं हि मामुपगतं शरणं च रक्ष
दूरेण यान्तु मम पातकसञ्चयास्ते ।
दासोऽस्मि भृत्यवदहं तव जन्म जन्म
त्वत्पादपद्मयुगलं सततं नमामि ॥
(21 । 20-27)
मैं न तो दूसरेका नाम लेता हूँ न दूसरेको भजता हूँ और न दूसरेका चिन्तन ही करता हूँ; नित्य निरन्तर आपके युगल चरणोंको प्रणाम करता रहता हूँ। इस प्रकार मैं आपकी शरणमें आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें, मेरे पातकसमूह शीघ्र दूर हो जायँ। मैं नौकरकी भाँति जन्म-जन्म आपका दास बना रहूँ। भगवन्! आपके युगल चरण-कमलोंको सदा प्रणाम करता हूँ।
श्रीकृष्ण! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं, तो मुझे यह उत्तम वरदान दीजिये-मेरे माता-पिताको सशरीर अपने परमधाममें पहुँचाइये। मेरे ही साथ मेरी पत्नीको भी अपने लोकमें ले चलिये।
श्रीहरि बोले- ब्रह्मन् ! तुम्हारी यह उत्तम कामना अवश्य पूर्ण होगी।
इस प्रकार सुव्रतकी भक्तिसे सन्तुष्ट होकर भगवान् श्रीविष्णु उन्हें उत्तम वरदान दे दाह और प्रलयसे रहित वैष्णवधामको चले गये। सुव्रतके साथ ही सुमना और सोमशर्मा भी वैकुण्ठधामको प्राप्त हुए।