श्रीमहादेवजी कहते हैं—प्रिये! गीताके वर्णनसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा एवं विश्वरूप अध्यायके पावन माहात्म्यको श्रवण करो। विशाल नेत्रोंवाली पार्वती! इस अध्यायके माहात्म्यका पूरा-पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके सम्बन्धमें सहस्रों कथाएँ हैं उनमेंसे एक यहाँ कही जाती है। प्रणीता नदीके तटपर मेघंकर नामसे विख्यात एक बहुत बड़ा नगर है। उसके प्राकार और गोपुर बहुत ऊँचे हैं। वहाँ बड़ी-बड़ी विश्रामशालाएँ हैं, जिनमें सोनेके खंभे शोभा दे रहे हैं। उस नगरमें श्रीमान् सुखी, शान्त, सदाचारी तथा जितेन्द्रिय मनुष्योंका निवास है। वहाँ हाथमें शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले जगदीश्वर भगवान् विष्णु विराजमान हैं। वे परब्रह्मके साकार स्वरूप हैं। संसारके नेत्रोंको जीवन प्रदान करनेवाले हैं। उनका गौरवपूर्ण श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मी क्षेत्र-कमल पूजित होता है। भगवान्की वह झाँकी वामन अवतारकी है। मेघके समान उनका श्यामवर्ण तथा कोमल आकृति है। वक्षःस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न शोभा पाता है। वे कमल और वनमालासे विभूषित हैं। अनेक प्रकारके आभूषणोंसे सुशोभित हो भगवान् वामन रत्नयुक्त समुद्रके सदृश जान पड़ते हैं। पीताम्बरसे उनके श्याम विग्रहकी कान्ति ऐसी प्रतीत होती है, मानो चमकती हुई बिजलीसे घिरा हुआ स्निग्ध मेघ शोभा पा रहा हो। उन भगवान् वामनका दर्शन करके जीव जन्म एवं संसारके बन्धन से मुक्त हो जाता है। उस नगरमें मेखला नामक महान् तीर्थ है, जिसमें स्नान करके मनुष्य शाश्वत वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। वहाँ जगत्के स्वामी करुणासागर भगवान्नृसिंहका दर्शन करनेसे मनुष्य सात जन्मोंके किये घोर पापसे छुटकारा पा जाता है। जो मनुष्य हुए मेखलामें गणेशजीका दर्शन करता है, वह सदा दुस्तर विघ्नोंके भी पार हो जाता है।
उसी मेघंकर नगरमें कोई श्रेष्ठ ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्यपरायण, ममता और अहंकारसे रहित, वेद शास्त्रोंमें प्रवीण, जितेन्द्रिय तथा भगवान् वासुदेवके शरणागत थे। उनका नाम सुनन्द था। प्रिये! वे शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान्के पास गीताके ग्यारहवें अध्याय - विश्वरूपदर्शनयोगका पाठ किया करते थे। उस अध्यायके प्रभावसे उन्हें ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति हो गयी थी। परमानन्द - सन्दोहसे पूर्ण उत्तम ज्ञानमयी समाधिके द्वारा इन्द्रियोंके अन्तर्मुख हो जानेके कारण वे निश्चल स्थितिको प्राप्त हो गये थे और सदा जीवन्मुक्त योगीकी स्थितिमें रहते थे। एक समय जब बृहस्पति सिंहराशिपर स्थित थे, महायोगी सुनन्दने गोदावरीतीर्थकी यात्रा आरम्भ की। वे क्रमशः विरजतीर्थ, तारातीर्थ, कपिलासंगम, अष्टतीर्थ, कपिलाद्वार, नृसिंहवन, अम्बिकापुरी तथा करस्थानपुर आदि क्षेत्रोंमें स्नान और दर्शन करते हुए विवाहमण्डप नामक नगर में आये। वहाँ उन्होंने प्रत्येक घरमें जाकर अपने ठहरनेके लिये स्थान माँगा, परन्तु कहीं भी उन्हें स्थान नहीं मिला। अन्तमें गाँवके मुखियाने उन्हें एक बहुत बड़ी धर्मशाला दिखा दी। ब्राह्मणने साथियों सहित उसके भीतर जाकर रातमें निवास किया। सबेरा होनेपर उन्होंने अपनेको तो धर्मशालाके बाहर पाया, किन्तु उनके और साथी नहीं दिखायी दिये। वे उन्हें खोजनेके लिये चले, इतनेमें हीग्रामपाल ( मुखिये) - से उनकी भेंट हो गयी। ग्रामपालने कहा - 'मुनिश्रेष्ठ ! तुम सब प्रकारसे दीर्घायु जान पड़ते हो सौभाग्यशाली तथा पुण्यवान् पुरुषोंमें तुम सबसे पवित्र हो। तुम्हारे भीतर कोई लोकोत्तर प्रभाव विद्यमान है। तुम्हारे साथी कहाँ गये ? और कैसे इस भवनसे बाहर हुए? इसका पता लगाओ। मैं तुम्हारे सामने इतना ही कहता हूँ कि तुम्हारे जैसा तपस्वी मुझे दूसरा कोई नहीं दिखायी देता विप्रवर तुम्हें किस महामन्त्रका ज्ञान है ? किस विद्याका आश्रय लेते हो तथा किस देवताकी दयासे तुममें अलौकिक शक्ति आ गयी है? भगवन्! कृपा करके इस गाँवमें रहो! मैं तुम्हारी सब सेवा-शुश्रूषा करूँगा ।'
यों कहकर ग्रामपालने मुनीश्वर सुनन्दको अपने गाँवमें ठहरा लिया। वह दिन-रात बड़ी भक्तिसे उनकी सेवा टहल करने लगा। जब सात-आठ दिन बीत गये, तब एक दिन प्रातः काल आकर वह बहुत दुःखी हो महात्माके सामने रोने लगा और बोला- 'हाय ! आज रातमें राक्षसने मुझ भाग्यहीनके बेटेको चबा लिया है। मेरा पुत्र बड़ा ही गुणवान् और भक्तिमान् था।' ग्रामपालके इस प्रकार कहनेपर योगी सुनन्दने पूछा- 'कहाँ है वह राक्षस ? और किस प्रकार उसने तुम्हारे पुत्रका भक्षण किया है?'
ग्रामपाल बोला- ब्रह्मन् ! इस नगरमें एक बड़ा भयंकर नरभक्षी राक्षस रहता है। वह प्रतिदिन आकर इस नगरके मनुष्योंको खा लिया करता था। तब एक दिन समस्त नगरवासियोंने मिलकर उससे प्रार्थना की— राक्षस! तुम हम सब लोगोंकी रक्षा करो हम तुम्हारे लिये भोजनकी व्यवस्था किये देते हैं। यहाँ बाहरके जो पथिक रातमें आकर नींद लेने लर्गे, उनको खा जाना।' इस प्रकार नागरिक मनुष्योंने गाँवके (मुझ) मुखियाद्वारा इस धर्मशालामें भेजे हुए पथिकों को ही राक्षसका आहार निश्चित किया अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये ही उन्हें ऐसा करना पड़ा। तुम भी अन्य राहगीरोंके साथ इस घरमें आकर सोचे थे किन्तु राक्षसने उन सर्वोको तो खा लिया केवल तुम्हें छोड़ दिया है। द्विजोत्तम! तुममें ऐसाक्या प्रभाव है, इस बातको तुम्हीं जानते हो। इस समय मेरे पुत्रका एक मित्र आया था, किन्तु मैं उसे पहचान न सका। वह मेरे पुत्रको बहुत ही प्रिय था; किन्तु अन्य राहगीरोंके साथ उसे भी मैंने उसी धर्मशालामें भेज दिया। मेरे पुत्रने जब सुना कि मेरा मित्र भी उसमें प्रवेश कर गया है, तब वह उसे वहाँसे ले आनेके लिये गया। परन्तु राक्षसने उसे भी खा लिया। आज सबेरे मैंने बहुत दुःखी होकर उस पिशाचसे पूछा- 'ओ दुष्टात्मन्! तूने रातमें मेरे पुत्रको भी खा लिया। तुम्हारे पेटमें पड़ा हुआ मेरा पुत्र जिससे जीवित हो सके, ऐसा कोई उपाय यदि हो तो बता ।'
राक्षसने कहा- ग्रामपाल धर्मशालाके भीतर घुसे हुए तुम्हारे पुत्रको न जाननेके कारण मैंने भक्षण किया है। अन्य पथिकोंके साथ तुम्हारा पुत्र भी अनजानमें ही मेरा ग्रास बन गया है। वह मेरे उदरमें जिस प्रकार जीवित और रक्षित रह सकता है, वह उपाय स्वयं विधाताने ही कर दिया है। जो ब्राह्मण सदा गीताके ग्यारहवें अध्यायका पाठ करता हो, उसके प्रभावसे मेरी मुक्ति होगी और मरे हुओं को पुनः जीवन प्राप्त होगा। यहाँ कोई ब्राह्मण रहते हैं, जिनको मैंने एक दिन धर्मशालेसे बाहर कर दिया था। वे निरन्तर गीताके ग्यारहवें अध्यायका जप किया करते हैं। इस अध्यायके मन्त्रसे सात बार अभिमन्त्रित करके यदि वे मेरे ऊपर जलका छींटा दें तो निस्सन्देह मेरा शापसे उद्धार हो जायगा। इस प्रकार उस राक्षसका सन्देश पाकर मैं तुम्हारे निकट आया हूँ।
ब्राह्मणने पूछा- ग्रामपाल ! जो रातमें सोये हुए मनुष्योंको खाता है, वह प्राणी किस पापसे राक्षस हुआ है?
ग्रामपाल बोला- ब्रह्मन् ! पहले इस गाँवमें कोई किसान ब्राह्मण रहता था। एक दिन वह अगहनीके खेतकी क्यारियोंकी रक्षा करनेमें लगा था। यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक बहुत बड़ा गिद्ध किसी राहीको मारकर खा रहा था। उसी समय एक तपस्वी कहींसे आ निकले, जो उस राहीको बचाने के लिये दूरसे ही दया दिखाते आ रहेथे। गिद्ध उस राहीको खाकर आकाशमें उड़ गया। तब तपस्वीने कुपित होकर उस किसानसे कहा- 'ओ दुष्ट हलवाहे ! तुझे धिक्कार है। तू बड़ा ही कठोर और निर्दयी है। दूसरेकी रक्षासे मुँह मोड़कर केवल पेट पालनेके धंधे में लगा है। तेरा जीवन नष्टप्राय है। अरे! जो चोर, दाढ़वाले जीव, सर्प, शत्रु, अग्नि, विष, जल, गीध, राक्षस, भूत तथा बेताल आदिके द्वारा घायल हुए मनुष्योंकी शक्ति होते हुए भी उपेक्षा करता है, वह उनके वधका फल पाता है। जो शक्तिशाली होकर भी चोर आदिके चंगुलमें फँसे हुए ब्राह्मणको छुड़ानेकी चेष्टा नहीं करता, वह घोर नरकमें पड़ता और पुनः भेड़ियेकी योनिमें जन्म लेता है। जो वनमें मारे जाते हुए तथा गृध्र और व्याघ्रकी दृष्टिमें पड़े हुए जीवकी रक्षाके लिये 'छोड़ो, छोड़ो' की पुकार करता है, वह परम गतिको प्राप्त होता है। जो मनुष्य गौओंकी रक्षाके लिये व्याघ्र, भील तथा दुष्ट राजाओंके हाथसे मारे जाते हैं, वे भगवान् विष्णुके उस परमपदको पाते हैं जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है। सहस्र अश्वमेध और सौ वाजपेययज्ञ मिलकर शरणागत रक्षाकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हो सकते। दीन तथा भयभीत जीवकी उपेक्षा करनेसे पुण्यवान् पुरुष भी समय आनेपर कुम्भीपाक नामक नरकमें पकाया जाता है तूने दुष्ट गिद्ध के द्वारा खाये जाते हुए राहीको देखकर उसे बचानेमें समर्थ होते हुए भी जो उसकी रक्षा नहीं की, इससे तु निर्दयी जान पड़ता तू है; अतः तू राक्षस हो जा ?'
हलवाहा बोला- महात्मन्! मैं यहाँ उपस्थित अवश्य था, किन्तु मेरे नेत्र बहुत देरसे खेतकी रक्षामें लगे थे, अतः पास होनेपर भी गिद्धके द्वारा मारे जाते हुए इस मनुष्यको मैं नहीं जान सका । अतः मुझ दीनपर आपको अनुग्रह करना चाहिये । तपस्वी ब्राह्मणने कहा—जो प्रतिदिन गीताकेग्यारहवें अध्यायका जप करता है, उस मनुष्यके द्वारा अभिमन्त्रित जल जब तुम्हारे मस्तकपर पड़ेगा, उस समय तुम्हें शापसे छुटकारा मिल जायगा ।
यह कहकर तपस्वी ब्राह्मण चले गये और वह हलवाहा राक्षस हो गया; अतः द्विजश्रेष्ठ ! तुम चलो और ग्यारहवें अध्यायसे तीर्थके जलको अभिमन्त्रित करो। फिर अपने ही हाथसे उस राक्षसके मस्तकपर उसे छिड़क दो।
ग्रामपालकी यह सारी प्रार्थना सुनकर ब्राह्मणका हृदय करुणासे भर आया। वे 'बहुत अच्छा' कहकर उसके साथ राक्षसके निकट गये। वे ब्राह्मण योगी थे। उन्होंने विश्वरूपदर्शन नामक ग्यारहवें अध्यायसे जल अभिमन्त्रित करके उस राक्षसके मस्तकपर डाला। गीताके अध्यायके प्रभावसे वह शापसे मुक्त हो गया। उसने राक्षस- देहका परित्याग करके चतुर्भुजरूप धारण कर लिया तथा उसनेजिन सहस्रों पथिकोंका भक्षण किया था, वे भी शंख, चक्र • एवं गदा धारण किये चतुर्भुजरूप हो गये। तत्पश्चात् वे सभी विमानपर आरूढ़ हुए। इतनेमें ही शामपालने राक्षससे कहा- 'निशाचर! मेरा पुत्र कौन है? उसे दिखाओ।' उसके यों कहनेपर दिव्य बुद्धिवाले राक्षसने कहा- 'ये जो तमालके समान श्याम, चार भुजाधारी, माणिक्यमय मुकुटसे सुशोभित तथा दिव्य मणियोंके बने हुए कुण्डलोंसे अलंकृत हैं, हार पहननेके कारण जिनके कंधे मनोहर प्रतीत होते हैं, जो सोनेके भुजबंदोंसे विभूषित, कमलके समान नेत्रवाले, स्निग्धरूप तथा हाथमें कमल लिये हुए हैं और दिव्य विमानपर बैठकर देवत्वको प्राप्त हो चुके हैं, इन्हींको अपना पुत्र समझो।' यह सुनकर ग्रामपालने उसी रूपमें अपने पुत्रको देखा और उसे अपने घर ले जाना चाहा। यह देख उसका पुत्र हँस पड़ा और इस प्रकार कहने लगा।
पुत्र बोला - ग्रामपाल ! कई बार तुम भी मेरे पुत्र हो चुके हो। पहले मैं तुम्हारा पुत्र था, किन्तु अब देवता हो गया हूँ। इन ब्राह्मणदेवताके प्रसादसे वैकुण्ठधामको जाऊँगा। देखो, यह निशाचर भी चतुर्भुजरूपको प्राप्त हो गया। ग्यारहवें अध्यायके माहात्म्यसे यह सब लोगोंके साथ श्रीविष्णुधामको जा रहा है; अत: तुम भी इन ब्राह्मणदेवसे गीताके ग्यारहवें अध्यायका अध्ययन करेऔर निरन्तर उसका जप करते रहो। इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारी भी ऐसी ही उत्तम गति होगी। तात ! मनुष्योंके लिये साधु पुरुषोंका संग सर्वथा दुर्लभ है। वह भी इस समय तुम्हें प्राप्त है; अतः अपना अभीष्ट सिद्ध करो। धन, भोग, दान, यज्ञ, तपस्या और पूर्तकमसे क्या लेना है। विश्वरूपाध्यायके पाठसे ही परम कल्याणकी प्राप्ति हो जाती है। पूर्णानन्दसन्दोह स्वरूप श्रीकृष्ण नामक ब्रह्मके मुखसे कुरुक्षेत्रमें अपने मित्र अर्जुनके प्रति जो अमृतमय उपदेश निकला था, वही श्रीविष्णुका परम तात्त्विक रूप है। तुम उसीका चिन्तन करो। वह मोक्षके लिये प्रसिद्ध रसायन है। संसार - भयसे डरे हुए मनुष्योंकी आधि-व्याधिका विनाशक तथा अनेक जन्मके दुःखोंका नाश करनेवाला है। मैं उसके सिवा दूसरे किसी साधनको ऐसा नहीं देखता, अतः उसीका अभ्यास करो।
श्रीमहादेवजी कहते हैं—यों कहकर वह सबके साथ श्रीविष्णुके परमधामको चला गया। तब ग्रामपालने ब्राह्मणके मुखसे उस अध्यायको पढ़ा। फिर वे दोनों ही उसके माहात्म्यसे विष्णुधामको चले गये। पार्वती ! इस प्रकार तुम्हें ग्यारहवें अध्यायकी माहात्म्य - कथा सुनायी है। इसके श्रवणमात्रसे महान् पातकोंका नाश हो जाता है।