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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 216 - Khand 5, Adhyaya 216

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श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब मैं आदर पूर्वक नवम अध्यायके माहात्म्यका वर्णन करूँगा, तुम स्थिर होकर सुनो। नर्मदाके तटपर माहिष्मती नामकी एक नगरी है। वहाँ माधव नामके एक ब्राह्मण रहते थे, जो वेद-वेदांगोंके तत्त्वज्ञ और समय-समयपर आनेवाले अतिथियोंके प्रेमी थे। उन्होंने विद्याके द्वारा बहुत धन कमाकर एक महान् यज्ञका अनुष्ठान आरम्भ किया। उस यज्ञमें बलि देनेके लिये एक बकरा मँगाया गया। जब उसके शरीरकी पूजा हो गयी, तब सबको आश्चर्यमें डालते हुए उस बकरेने हँसकर उच्चस्वरसे कहा- 'ब्रह्मन्! इन बहुत से यज्ञोंद्वारा क्या लाभ है। इनका फल तो नष्ट हो जानेवाला है। तथा ये जन्म, जरा और मृत्युके भी कारण हैं। यह सब करनेपर भी मेरी जो वर्तमान दशा है, इसे देख 'लो।' बकरेके इस अत्यन्त कौतूहलजनक वचनको सुनकर यज्ञमण्डपमें रहनेवाले सभी लोग बहुत ही विस्मित हुए। तब वे यजमान ब्राह्मण हाथ जोड़ अपलक नेत्रोंसे देखते हुए बकरेको प्रणाम करके श्रद्धा और आदरके साथ पूछने लगे।

ब्राह्मण बोले- आप किस जातिके थे? आपका स्वभाव और आचरण कैसा था? तथा किस कर्मसे आपको बकरेकी योनि प्राप्त हुई ? यह सब मुझे बताइये।

बकरा बोला- ब्रह्मन् ! मैं पूर्वजन्ममें ब्राह्मणोंके अत्यन्त निर्मल कुलमें उत्पन्न हुआ था। समस्त यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाला और वेद-विद्यामें प्रवीण था। एक दिन मेरी स्त्रीने भगवती दुर्गाकी भक्तिसे विनम्र होकर अपने बालकके रोगकी शान्तिके लिये बलि देनेके निमित्त मुझसे एक बकरा माँगा। तत्पश्चात् जब चण्डिकाके मन्दिरमें वह बकरा मारा जाने लगा, उस समय उसकी माताने मुझे शाप दिया- 'ओ ब्राह्मणोंमें नीच, पापी तू मेरे बच्चेका वध करना चाहता है इसलिये तू भी बकरेकी योनिमें जन्म लेगा।' द्विजश्रेष्ठ तब कालवश मृत्युको प्राप्त होकर मैं बकरा हुआ यद्यपिमैं पशुयोनिमें पड़ा हूँ, तो भी मुझे अपने पूर्वजन्मोंका स्मरण बना हुआ है। ब्रह्मन् ! यदि आपको सुननेकी उत्कण्ठा हो, तो मैं एक और भी आश्चर्यकी बात बताता हूँ। कुरुक्षेत्र नामका एक नगर है, जो मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वहाँ चन्द्रशर्मा नामक एक सूर्यवंशी राजा राज्य करते थे। एक समय जब कि सूर्यग्रहण लगा था, राजाने बड़ी श्रद्धाके साथ कालपुरुषका दान करनेकी तैयारी की। उन्होंने वेद-वेदांगोंके पारगामी एक विद्वान् ब्राह्मणको बुलवाया और पुरोहितके साथ वे तीर्थके पावन जलसे स्नान करनेको चले। तीर्थके पास पहुँचकर राजाने स्नान किया और दो वस्त्र धारण किये। फिर पवित्र एवं प्रसन्नचित्त होकर उन्होंने श्वेत चन्दन लगाया और बगलमें खड़े हुए पुरोहितका हाथ पकड़कर तत्कालोचित मनुष्योंसे घिरे हुए अपने स्थानपर लौट आये। आनेपर राजाने यथोचित विधिसे भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको कालपुरुषका दान किया।

तब कालपुरुषका हृदय चीरकर उसमेंसे एक पापात्मा चाण्डाल प्रकट हुआ। फिर थोड़ी देरके बाद निन्दा भी चाण्डालीका रूप धारण करके कालपुरुषके शरीरसे निकली और ब्राह्मणके पास आ गयी। इस प्रकार चाण्डालोंकी वह जोड़ी आँखें लाल किये निकली और ब्राह्मणके शरीरमें हठात् प्रवेश करने लगी। ब्राह्मण मन-ही-मन गीताके नवम अध्यायका जप करते थे और राजा चुपचाप यह सब कौतुक देखने लगे। ब्राह्मणके अन्तःकरणमें भगवान् गोविन्द शयन करते थे। वे उन्हींका ध्यान करने लगे। ब्राह्मणने [जब गीताके नवम अध्यायका जप करते हुए] अपने आश्रयभूत भगवान्का ध्यान किया, उस समय गीताके अक्षरोंसे प्रकट हुए विष्णुदूतोंद्वारा पीड़ित होकर वे दोनों चाण्डाल भाग चले। उनका उद्योग निष्फल हो गया। इस प्रकार इस घटनाको प्रत्यक्ष देखकर राजाके नेत्र आश्चर्यसे चकित हो उठे। उन्होंने ब्राह्मणसे पूछा-'विप्रवर। इस महाभयंकर आपत्तिको आपने कैसे पार किया? आप किस मन्त्रकाजप तथा किस देवताका स्मरण कर रहे थे? वह पुरुष तथा वह स्त्री कौन थी? वे दोनों कैसे उपस्थित हुए? फिर वे शान्त कैसे हो गये ? यह सब मुझे बतलाइये।'

ब्राह्मणने कहा- राजन् ! चाण्डालका रूप धारण करके भयंकर पाप ही प्रकट हुआ था तथा वह स्त्री निन्दाकी साक्षात् मूर्ति थी मैं इन दोनोंको ऐसा ही समझता हूँ। उस समय मैं गीताके नवें अध्यायके मन्त्रोंकी माला जपता था। उसीका माहात्म्य है कि सारा संकट दूर हो गया। महीपते! मैं नित्य ही गीताके नवम अध्यायका जप करता हूँ। उसीके प्रभावसे प्रतिग्रहजनित आपत्तियोंके पार हो सका यह सुनकर राजाने उसी ब्राह्मणसे गीताके नवम अध्यायका अभ्यास किया, फिर वे दोनों ही परमशान्ति (मोक्ष) को प्राप्त हो गये।

[यह कथा सुनकर ब्राह्मणने बकरेको बन्धनसे मुक्त कर दिया और गीताके अभ्याससे परमगतिको प्राप्त किया।]

भगवान् शिव कहते हैं— सुन्दरि ! अब तुम दशम अध्यायके माहात्म्यको परम पावन कथा सुनी,जो स्वर्गरूपी दुर्गगे जानेके लिये सुन्दर सोपान और प्रभावकी चरम सीमा है काशीपुरबुद्ध नागरी विख्यात एक ब्राह्मण था जो मुझमें नन्दीके समान भक्ति रखता था वह पावन कीर्तिके अर्जनमें तत्पर रहनेवाला, शान्तचित्त और हिंसा कठोरता एवं दुः दूर रहनेवाला था। जितेन्द्रिय होनेके कारण वह निवृत्तिमार्गमें ही स्थित रहता था। उसने वेदरूपी समुद्रका पार पा लिया था वह सम्पूर्ण शास्त्रोंके तात्पर्यका ज्ञाता था उसका चित्त सदा मेरे ध्यानमें संलग्न रहता था। वह मनको अन्तरात्मामें लगाकर सदा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार किया करता था अतः जब वह चलने लगता तो मैं प्रेमवश उसके पीछे दौड़-दौड़कर उसे हाथका सहारा देता रहता था।

यह देख मेरे पार्षद भृंगिरिटिने पूछा भगवन्! इस प्रकार भला, किसने आपका दर्शन किया होगा इस महात्माने कौन-सा तप, होम अथवा जप किया है कि स्वयं आप ही पद पदपर इसे हाथका सहारा देते चलते हैं?

भृंगिरिटिका यह प्रश्न सुनकर मैंने इस प्रकार उत्तरदेना आरम्भ किया। एक समयकी बात है, कैलास पर्वतके पार्श्वभागमें पुन्नाग वनके भीतर चन्द्रमाकी अमृतमयी किरणोंसे धुली हुई भूमिमें एक वेदीका आश्रय लेकर मैं बैठा हुआ था। मेरे बैठनेके क्षणभर बाद ही सहसा बड़े जोरकी आँधी उठी, वहाँके वृक्षोंकी शाखाएँ नीचे-ऊपर होकर आपसमें टकराने लगीं, कितनी ही टहनियाँ टूट-टूटकर बिखर गर्यो । पर्वतकी अविचल छाया भी हिलने लगी। इसके बाद वहाँ महान् भयंकर शब्द हुआ। जिससे पर्वतकी कन्दराएँ प्रतिध्वनित हो उठीं। तदनन्तर आकाशसे कोई विशाल पक्षी उतरा, जिसकी कान्ति काले मेघके समान थी। वह कज्जलकी राशि, अन्धकारके समूह अथवा पंख कटे हुए काले पर्वत-सा जान पड़ता था। पैरोंसे पृथ्वीका सहारा लेकर उस पक्षीने मुझे प्रणाम किया और एक सुन्दर नवीन कमल मेरे चरणोंमें रखकर स्पष्ट वाणीमें स्तुति करनी आरम्भ की।

पक्षी बोला- देव! आपकी जय हो। आप चिदानन्दमयी सुधाके सागर तथा जगत्के पालक हैं। सदा सद्भावनासे युक्त एवं अनासक्तिकी लहरोंसे उल्लसित हैं। आपके वैभवका कहीं अन्त नहीं है। आपकी जय हो वासनासे परिपूर्ण बुद्धिके द्वारा आप त्रिविध मलोंसे रहित हैं। आप जितेन्द्रिय भक्तोंके अधीन रहते हैं तथा ध्यानमें आपके स्वरूपका साक्षात्कार होता है। आप अविद्यामय उपाधि रहित, नित्यमु निराकार, निरामय, असीम, अहंकारशून्य आवरणरहित और निर्गुण हैं। आपके चरणकमल शरणागत भक्तोंकी रक्षा करनेमें प्रवीण हैं। अपने भयंकर ललाटरूपी महासर्पकी विष ज्वालासे आपने कामदेवको भस्म किया है। आपकी जय हो। आप प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे दूर होते हुए भी प्रामाण्यस्वरूप हैं। आपको बारंबार नमस्कार है। चैतन्यके स्वामी तथा त्रिभुवनरूप धारी आपको प्रणाम है। मैं श्रेष्ठ योगियोंद्वारा चुम्बित आपके उन चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो अपार भव पापके समुद्रसे पार उतारनेमें अद्भुत शक्तिशाली हैं। महादेव! साक्षात् बृहस्पति भी आपकी स्तुति करनेकीधृष्टता नहीं कर सकते। सहस्र मुखोंवाले नागराज शेषमें भी इतनी चातुरी नहीं है कि वे आपके गुणोंका वर्णन कर सकें। फिर मेरे जैसे छोटी बुद्धिवाले पक्षीकी तो बिसात ही क्या है।

उस पक्षीके द्वारा किये हुए इस स्तोत्रको सुनकर मैंने उससे पूछा- 'विहंगम! तुम कौन हो और कहाँसे आये हो? तुम्हारी आकृति तो हंस जैसी है, मगर रंग कौएका मिला है। तुम जिस प्रयोजनको लेकर यहाँ आये हो, उसे बताओ।'

पक्षी बोला - देवेश ! मुझे ब्रह्माजीका हंस जानिये । धूर्जटे! जिस कर्मसे मेरे शरीरमें इस समय कालिमा आ गयी है, उसे सुनिये। प्रभो! यद्यपि आप सर्वज्ञ हैं। [ अतः आपसे कोई भी बात छिपी नहीं है] तथापि यदि आप पूछते हैं तो बतलाता हूँ। सौराष्ट्र (सूरत) नगरके पास एक सुन्दर सरोवर है, जिसमें कमल लहलहाते रहते थे। उसीमेंसे बालचन्द्रमाके टुकड़े-जैसे श्वेत मृणालोंके ग्रास लेकर मैं बड़ी तीव्र गतिसे आकाशमें उड़ रहा था। उड़ते-उड़ते सहसा वहाँसे पृथ्वीपर गिर पड़ा। जब होशमें आया और अपने गिरनेका कोई कारण न देख सका तो मन-ही-मन सोचने लगा- 'अहो ! यह मुझपर क्या आ पड़ा? आज मेरा पतन कैसे हो गया? पके हुए कपूरके समान मेरे श्वेत शरीरमें यह कालिमा कैसे आ गयी ?' इस प्रकार विस्मित होकर मैं अभी विचार ही कर रहा था कि उस पोखरेके कमलोंमेंसे मुझे ऐसी वाणी सुनायी दी - 'हंस ! उठो, मैं तुम्हारे गिरने और काले होनेका कारण बताती हूँ।' तब मैं उठकर सरोवरके बीचमें गया और वहाँ पाँच कमलोंसे युक्त एक सुन्दर कमलिनीको देखा। उसको प्रणाम करके मैंने प्रदक्षिणा की और अपने पतनका सारा कारण पूछा।

कमलिनी बोली- कलहंस ! तुम आकाशमार्गसे मुझे लाँघकर गये हो, उसी पातकके परिणामवश तुम्हें पृथ्वीपर गिरना पड़ा है तथा उसीके कारण तुम्हारे शरीरमें कालिमा दिखायी देती है। तुम्हें गिरा देख मेरे हृदयमें दया भर आयी और जब मैं इस मध्यम कमलकेद्वारा बोलने लगी हूँ, उस समय मेरे मुखसे निकली हुई सुगन्धको सूंघकर साठ हजार भँवरे स्वर्गलोकको प्राप्त हो गये हैं पक्षिराज! जिस कारण मुझमें इतना वैभव—ऐसा प्रभाव आया है, उसे बतलाती हूँ ; सुनो! इस जन्मसे पहले तीसरे जन्ममें मैं इस पृथ्वीपर एक ब्राह्मणकी कन्याके रूपमें उत्पन्न हुई थी। उस समय मेरा नाम सरोजवदना था। मैं गुरुजनोंकी सेवा करती हुई सदा एकमात्र पातिव्रत्यके पालनमें तत्पर रहती थी। एक दिनकी बात है, मैं एक मैनाको पढ़ा रही थी इससे पतिसेवा में कुछ विलम्ब हो गया। इससे पतिदेवता कुपित हो गये और उन्होंने शाप दिया- 'पापिनी ! तू मैना हो जा।' मरनेके बाद यद्यपि मैं मैना ही हुई, तथापि पातिव्रत्यके प्रसादसे मुनियोंके ही घरमें मुझे आश्रय मिला। किसी मुनिकन्याने मेरा पालन-पोषण किया। मैं जिनके घरमें थी, वे ब्राह्मण प्रतिदिन प्रातः काल विभूतियोग नामसे प्रसिद्ध गीताके दसवें अध्यायका पाठ करते थे और मैं उस पापहारी अध्यायको सुना करती थी। विहंगम! काल आनेपर मैं मैनाका शरीर छोड़कर दशम अध्यायके माहात्म्यसे स्वर्गलोकमें अप्सरा हुई।मेरा नाम पद्मावती हुआ और मैं पद्माकी प्यारी सखी हो गयी। एक दिन मैं विमानसे आकाशमें विचर रही थी। उस समय सुन्दर कमलोंसे सुशोभित इस रमणीय सरोवरपर मेरी दृष्टि पड़ी और इसमें उतरकर ज्यों ही मैंने जलक्रीड़ा आरम्भ की, त्यों ही दुर्वासा मुनि आ धमके। उन्होंने वस्त्रहीन अवस्थामें मुझे देख लिया। उनके भयसे मैंने स्वयं ही यह कमलिनीका रूप धारण कर लिया। मेरे दोनों पैर दो कमल हुए। दोनों हाथ भी दो कमल हो गये और शेष अंगोंके साथ मेरा मुख भी एक कमल हुआ। इस प्रकार में पाँच कमलोंसे युक्त हुई। मुनिवर दुर्वासाने मुझे देखा। उनके नेत्र क्रोधाग्निसे जल रहे थे। वे बोले-'पापिनी । तू इसी रूपमें सौ वर्षोंतक पड़ी रह ।' यह शाप देकर वे क्षणभरमें अन्तर्धान हो गये। कमलिनी होनेपर भी विभूति योगाध्यायके माहात्म्यसे मेरी वाणी लुप्त नहीं हुई है। मुझे लाँघनेमात्रके अपराधसे तुम पृथ्वीपर गिरे हो। पक्षिराज ! यहाँ खड़े हुए तुम्हारे सामने ही आज मेरे शापकी निवृत्ति हो रही है, क्योंकि आज सौ वर्ष पूरे हो गये। मेरे द्वारा गाये जाते हुए उस उत्तम अध्यायको तुम भी सुन लो । उसके श्रवणमात्रसे तुम भी आज ही मुक्त हो जाओगे।

यों कहकर पद्मिनीने स्पष्ट एवं सुन्दर वाणीमें दसवें अध्यायका पाठ किया और वह मुक्त हो गयी। उसे सुननेके बाद उसीके दिये हुए इस उत्तम कमलको लाकर मैंने आपको अर्पण किया है।

इतनी कथा सुनाकर उस पक्षीने अपना शरीर त्याग दिया। यह एक अद्भुत-सी घटना हुई। वही पक्षी अब दसवें अध्यायके प्रभावसे ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुआ है। जन्मसे ही अभ्यास होनेके कारण शैशवावस्थासे ही इसके मुखसे सदा गीताके दसवें अध्यायका उच्चारण हुआ करता है। दसवें अध्यायके अर्थ-चिन्तनका यह परिणाम हुआ है कि यह सब भूतोंमें स्थित शंख चक्रधारी भगवान् विष्णुका सदा ही दर्शन करता रहता है। इसकी स्नेहपूर्ण दृष्टि जब कभी किसी देहधारीके शरीरपर पड़ जाती है, तो वह चाहे शराबी और ब्रह्महत्यारा ही क्यों न हो, मुक्त हो जाता है तथापूर्वजन्ममें अभ्यास किये हुए दसवें अध्यायके माहात्म्यसे इसको दुर्लभ तत्त्वज्ञान प्राप्त है तथा इसने जीवन्मुक्ति भी पा ली है अतः जब यह रास्ता चलने लगता है। तो मैं इसे हाथका सहारा दिये रहता हूँ। भृंगिरिटे ! यह सब दसवें अध्यायकी ही महामहिमा है।पार्वती! इस प्रकार मैंने भृंगिरिटिके सामने जो पापनाशक कथा कही थी, वही यहाँ तुमसे भी कही है। नर हो या नारी, अथवा कोई भी क्यों न हो, इस दसवें अध्यायके श्रवणमात्रसे उसे सब आश्रमोंके पालनका फल प्राप्त होता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार