श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब गीताके पंद्रहवें अध्यायका माहात्म्य सुनो। गौडदेशमें कृपाण नरसिंह नामक एक राजा थे, जिनकी तलवारकी धारसे युद्धमें देवता भी परास्त हो जाते थे। उनका बुद्धिमान् सेनापति शस्त्र और शास्त्रकी कलाओंका भण्डार था। उसका नाम था सरभ- मेरुण्ड। उसकी भुजाओंमें प्रचण्ड बल था। एक समय उस पापीने राजकुमारोंसहित महाराजका वध करके स्वयं ही राज्य करनेका विचार किया। इस निश्चयके कुछ ही दिनों बाद वह हैजेका शिकार होकर मर गया। थोड़े समयमें वह पापात्मा अपने पूर्वकर्मके कारण सिन्धुदेश एक तेजस्वी घोड़ा हुआ। उसका पेट सटा हुआ था। घोड़ेके लक्षणोंका ठीक-ठीक ज्ञान रखनेवाले किसी वैश्यके पुत्रने बहुत सा मूल्य देकर उस अश्वको खरीद लिया और बड़े यत्नके साथ उसे राजधानीतक वह ले आया। वैश्य कुमार वह अश्व राजाको देनेके लिये लाया था। यद्यपि राजा उससे परिचित थे, तथापि द्वारपालने जाकर उसके आगमनकी सूचना की। राजाने पूछा 'किसलिये आये हो?' तब उसने स्पष्ट शब्दोंमें उत्तर दिया- 'देव! सिन्धुदेशमें एक उत्तम लक्षणोंसे सम्पन्न अश्व था, जिसे तीनों लोकोंका एक रत्न समझकर मैंने बहुत-सा मूल्य देकर खरीद लिया है।' राजाने आज्ञा दी - 'उस अश्वको यहाँ ले आओ।'
वास्तवमें वह घोड़ा गुणोंमें उच्चैः श्रवाके समान था। सुन्दर रूपका तो मानो घर ही था। शुभ लक्षणोंका समुद्र जान पड़ता था। वैश्य घोड़ा ले आया और राजाने उसेदेखा। अश्वका लक्षण जाननेवाले अमात्योंने उसकी बड़ी प्रशंसा की। सुनकर राजा अपार आनन्दमें निमग्न हो गये और उन्होंने वैश्यको मुँहमाँगा सुवर्ण देकर तुरंत ही उस अश्वको खरीद लिया। कुछ दिनोंके बाद एक समय राजा शिकार खेलनेके लिये उत्सुक हो उसी घोड़ेपर चढ़कर वनमें गये। वहाँ मृगोंके पीछे इन्होंने अपना घोड़ा बढ़ाया। पीछे-पीछे सब ओरसे दौड़कर आते हुए समस्त सैनिकोंका साथ छूट गया। वे हिरनोंद्वारा आकृष्ट होकर बहुत दूर निकल गये। प्यासने उन्हें व्याकुल कर दिया। तब वे घोड़ेसे उतरकर जलकी खोज करने लगे। घोड़ेको तो उन्होंने वृक्षकी डालीमें बाँध दिया और स्वयं एक चट्टानपर चढ़ने लगे। कुछ दूर जानेपर इन्होंने देखा कि एक पत्तेका टुकड़ा हवासे उड़कर शिलाखण्डपर गिरा है। उसमें गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा हुआ था। राजा उसे बाँचने लगे। उनके मुखसे गीताके अक्षर सुनकर घोड़ा तुरंत गिर पड़ा और अश्वयोनिसे उसकी मुक्ति हो गयी तथा तुरंत ही दिव्य विमानपर बैठकर वह स्वर्गलोकको चला गया। तत्पश्चात् राजाने पहाड़पर चढ़कर एक उत्तम आश्रम देखा, जहाँ नागकेसर, केले, आम और नारियलके वृक्ष लहरा रहे थे। आश्रमके भीतर एक ब्राह्मण बैठे हुए थे, जो संसारकी वासनाओंसे मुक्त थे। राजाने उन्हें प्रणाम करके बड़ी भक्तिके साथ पूछा- 'ब्रह्मन् ! मेरा अश्व जो अभी अभी स्वर्गको चला गया है, उसमें क्या कारण है ? ' राजाकी बात सुनकर त्रिकालदर्शी, मन्त्रवेत्ता एवं महापुरुषोंमें श्रेष्ठ विष्णुशर्मा नामक ब्राह्मणने कहाराजन्! पूर्वकालमें तुम्हारे यहाँ जो 'सरभ मेरुण्ड' नामक सेनापति था, वह तुम्हें पुत्रांसहित मारकर स्वयं राज्य हड़प लेनेको तैयार था। इसी बीचमें हैजेका शिकार होकर वह मृत्युको प्राप्त हो गया। उसके बाद वह उसी पापसे घोड़ा हुआ था। यहाँ कहीं गीताके पंद्रहवें अध्यायका आधा श्लोक लिखा मिल गया था, उसे ही तुम बाँचने लगे। उसीको तुम्हारे मुखसे सुनकर वह अश्व स्वर्गको प्राप्त हुआ है।'
तदनन्तर राजाके पार्श्ववर्ती सैनिक उन्हें ढूँढ़ते हुए वहाँ आ पहुँचे। उन सबके साथ ब्राह्मणको प्रणाम करके राजा प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे चले और गीताके पंद्रहवें अध्यायके श्लोकाक्षरोंसे अंकित उसी पत्रको बाँच-बाँचकर प्रसन्न होने लगे। उनके नेत्र हर्षसे खिल उठे थे। घर आकर उन्होंने मन्त्रवेत्ता मन्त्रियोंके साथ अपने पुत्र सिंहबलको राज्यसिंहासनपर अभिषिक्त किया और स्वयं पंद्रहवें अध्यायके जपसे विशुद्धचित्त होकर मोक्ष प्राप्त कर लिया।
श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! अब मैं गीताके सोलहवें अध्यायका माहात्म्य बताऊँगा, सुनो। गुजरातमें सौराष्ट्र नामक एक नगर है वहाँ खड्गबहु नामके राजा राज्य करते थे, जो दूसरे इन्द्रके समान प्रतापी थे। उनके एक हाथी था, जो मद बहाया करता और सदा मदसे उन्मत्त रहता था। उस हाथीका नाम अरिमर्दन था। एक दिन रातमें वह हठात् साँकलों और लोहेके खम्भोंको तोड़-फोड़कर बाहर निकला। हाथीवान उसके दोनों ओर अंकुश लेकर डरा रहे थे, किन्तु क्रोधवश उन सबकी अवहेलना करके उसने अपने रहनेके स्थान हथिसारको ढहा दिया। उसपर चारों ओरसे भालोंकी मार पड़ रही थी। फिर भी हाथीवान ही डरे हुए थे, हाथीको तनिक भी भय नहीं होता था। इस कौतूहलपूर्ण घटनाको सुनकर राजा स्वयं हाथीको मनानेकी कलामें निपुण राजकुमारोंके साथ वहाँ आये। आकर उन्होंने उस बलवान् दैतैले हाथीको देखा। नगरके निवासी अन्य काम-धंधोंकी चिन्ता छोड़ अपने बालकको भयसे बचाते हुए बहुत दूर खड़े होकर उस महाभयंकर गजराजको देखते रहे। इसी समय कोई ब्राह्मण तालाब से नहाकर उसी मार्गसे लौटे। वे गीताके सोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोंका जप कर रहे थे। पुरवासियों और पीलवानोंने उन्हें बहुत मना किया; किन्तु उन्होंने किसीकी न मानी। उन्हें हाथीसे भय नहीं था इसीलिये वे विचलित नहीं हुए। उधर हाथी अपने फूत्कारसे चारों दिशाओंको व्याप्त करता हुआ लोगोंको कुचल रहा था। वे ब्राह्मण उसके बहते हुए मदको हाथसे छूकर कुशलपूर्वक निकल गये। इससे वहाँ राजा तथा देखनेवाले पुरवासियोंके मनमें इतना विस्मय हुआ कि उसका वर्णन नहीं हो सकता। राजाके कमलनेत्र चकित हो उठे थे। उन्होंने ब्राह्मणको बुला सवारीसे उतरकर उन्हें प्रणाम किया और पूछा 'ब्रह्मन् आज आपने यह महान् अलौकिक कार्य किया है, क्योंकि इस कालके समान भयंकर गजराजके सामनेसे आप सकुशल लौट आये हैं। प्रभो। आप किस देवताका पूजन तथा किस मन्त्रका जप करते हैं? बताइये, आपने कौन सी सिद्धि प्राप्त की है?' ब्राह्मणने कहा- राजन् ! मैं प्रतिदिन गीताकेसोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोंका जप किया करता हूँ, उसीसे ये सारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई हैं।
श्रीमहादेवजी कहते हैं - तब हाथीका कौतूहल देखनेकी इच्छा छोड़कर राजा ब्राह्मणदेवताको साथ ले अपने महलमें आये। वहाँ शुभ मुहूर्त देखकर एक लाख स्वर्ण मुद्राओंकी दक्षिणा दे उन्होंने ब्राह्मणको संतुष्ट किया और उनसे गीता - मन्त्रकी दीक्षा ली। गीताके सोलहवें अध्यायके कुछ श्लोकोंका अभ्यास कर लेनेके बाद उनके मनमें हाथीको छोड़कर उसके कौतुक देखनेकी इच्छा जाग्रत् हुई। फिर तो एक दिन सैनिकोंके साथ बाहर निकलकर राजाने हाथीवानोंसे उसी मत्त गजराजका बन्धन खुलवाया। उन्हें भयकी बात भूल गयी । राज्यके सुख-विलासके प्रति आदरका भाव नहीं रहा। वे अपना जीवन तृणवत् समझकर हाथीके सामने चले गये। साहसी मनुष्योंमें अग्रगण्य राजा खड्गबाहु मन्त्रपर विश्वास करके हाथीके समीप गये और मदकी अनवरत धारा बहाते हुए उसके गण्डस्थलको हाथसे छूकर सकुशल लौट आये। कालके मुखसे धार्मिक और खलके मुखसे साधु पुरुषकी भाँति राजा उस गजराजके मुखसे बचकर निकल आये।नगरमें आनेपर उन्होंने अपने राजकुमारको राज्यपर अभिषिक्त कर दिया तथा स्वयं गीताके सोलहवें अध्यायका जप करके परमगति प्राप्त की।