श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती दक्षिणदिशामें कोल्हापुर नामका एक नगर है, जो सब प्रकारके सुखोंका आधार, सिद्ध-महात्माओंका निवासस्थान तथा सिद्धि प्राप्तिका क्षेत्र है। वह पराशक्ति भगवती लक्ष्मीका प्रधान पीठ है। सम्पूर्ण देवता उसका सेवन करते हैं। वह पुराणप्रसिद्ध तीर्थ भोग एवं मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वहाँ करोड़ों तीर्थ और शिवलिंग हैं। स्वगया भी वहीं है। वह विशाल नगर लोगोंमें बहुत विख्यात है। एक दिन कोई युवक पुरुष उस नगरमें आया। [ वह कहाँका राजकुमार था।] उसके शरीरका रंग गोरा, नेत्रसुन्दर, ग्रीवा शंखके समान, कंधे मोटे, छाती चौड़ी तथा भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं। नगरमें प्रवेश करके सब ओर महलोंकी शोभा निहारता हुआ वह देवेश्वरी महालक्ष्मीके दर्शनार्थ उत्कण्ठित हो मणिकण्ठ तीर्थमें गया और वहाँ स्नान करके उसने पितरोंका तर्पण किया। फिर महामाया महालक्ष्मीजीको प्रणाम करके भक्तिपूर्वक स्तवन करना आरम्भ किया।
राजकुमार बोला- जिसके हृदयमें असीम दया भरी हुई है, जो समस्त कामनाओंको देती तथा अपने कटाक्षमात्रसे सारे जगत्की सृष्टि, पालन और संहारकरती है, उस जगन्माता महालक्ष्मीकी जय हो! जिस उ शक्तिके सहारे उसीके आदेशके अनुसार परमेष्ठी ब्रह्मा सृष्टि करते हैं, भगवान् अच्युत जगत्का पालन करते हैं तथा भगवान् रुद्र अखिल विश्वका संहार करते हैं, उस सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिसे सम्पन्न भगवती पराशक्तिका मैं भजन करता हूँ।
कमले ! योगिजन तुम्हारे चरणकमलोंका चिन्तन करते हैं। कमलालये! तुम अपनी स्वाभाविक सत्तासे ही हमारे समस्त इन्द्रियगोचर विषयोंको जानती हो। तुम्हीं कल्पनाओंके समूहको तथा उसका संकल्प करनेवाले मनको उत्पन्न करती हो। इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति- ये सब तुम्हारे ही रूप हैं। तुम परासंवित् (परम ज्ञान ) - रूपिणी हो। तुम्हारा स्वरूप निष्कल, निर्मल, नित्य, निराकार, निरंजन, अन्तररहित आतंकशून्य, आतम्बहीन तथा निरामय है। देवि! तुम्हारी महिमाका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है जो षट्चक्रोंका भेदन करके अन्तःकरणके बारह स्थानोंमें विहार करती है, अनाहत ध्वनि, बिन्दु, नाद और कला -ये जिसके स्वरूप हैं, उस माता महालक्ष्मीको मैं प्रणाम करता हूँ। माता! तुम अपने [मुखरूपी] पूर्ण चन्द्रमासे प्रकट होनेवाली अमृत राशिको बहाया करती हो। तुम्हीं परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी नामक वाणी हो। मैं तुम्हें नमस्कार करता हूँ देवि! तुम जगत्की रक्षाके लिये अनेक रूप धारण किया करती हो । अम्बिके! तुम्हीं ब्राह्मी, वैष्णवी तथा माहेश्वरी शक्ति हो। वाराही, महालक्ष्मी, नारसिंही, ऐन्द्री, कौमारी, चण्डिका, जगत्को पवित्र करनेवाली लक्ष्मी, जगन्माता सावित्री, चन्द्रकला तथा रोहिणी भी तुम्हीं हो। परमेश्वरि ! तुम भक्तोंका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये कल्पलताके समान हो मुझपर प्रसन्न हो जाओ।
उसके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती महालक्ष्मी अपना साक्षात् स्वरूप धारण करके बोलीं- 'राजकुमार !
मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। तुम कोई उत्तम वर माँगो ।' राजपुत्र बोला- माँ! मेरे पिता राजा बृहद्रथअश्वमेध नामक महान् यज्ञका अनुष्ठान कर रहे थे। वे दैवयोगसे रोगग्रस्त होकर स्वर्गगामी हो गये। इसी बीचमें यूपमें बँधे हुए मेरे यहसम्बन्धी घोड़ेको, जो समूची पृथ्वीकी परिक्रमा करके लौटा था, किसीने रात्रिमें बन्धन काटकर कहीं अन्यत्र पहुँचा दिया। उसकी खोजमें मैंने कुछ लोगोंको भेजा था; किन्तु वे कहीं भी उसका पता न पाकर जब खाली हाथ लौट आये हैं, तब मैं सब ऋत्विजोंसे आज्ञा लेकर तुम्हारी शरणमें आया हूँ देवि! यदि तुम मुझपर प्रसन्न हो तो मेरे यज्ञका घोड़ा मुझे मिल जाय, जिससे यज्ञ पूर्ण हो सके। तभी मैं अपने पिता महाराजका ऋण उतार सकूँगा । शरणागतोंपर दया करनेवाली जगज्जननी लक्ष्मी जिससे मेरा यज्ञ पूर्ण हो, वह उपाय करो।
भगवती लक्ष्मीने कहा- राजकुमार ! मेरे मन्दिरके दरवाजेपर एक ब्राह्मण रहते हैं, जो लोगों में सिद्धसमाधिके नामसे विख्यात हैं। वे मेरी आज्ञासे तुम्हारा सब काम पूरा कर देंगे।
महालक्ष्मीके इस प्रकार कहनेपर राजकुमार उस स्थानपर आये, जहाँ सिद्धसमाधि रहते थे। उनकेचरणोंमें प्रणाम करके राजकुमार चुपचाप हाथ जोड़ खड़े हो गये। तब ब्राह्मणने कहा—' -'तुम्हें माताजीने यहाँ भेजा है। अच्छा, देखो; अब मैं तुम्हारा सारा अभीष्ट कार्य सिद्ध करता हूँ।' यों कहकर मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणने सब देवताओंको वहीं खींचा। राजकुमारने देखा, उस समय सब देवता हाथ जोड़े थर-थर काँपते हुए वहाँ उपस्थित हो गये। तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणने समस्त देवताओंसे कहा—'देवगण! इस राजकुमारका अश्व, जो यज्ञके लिये निश्चित हो चुका था, रातमें देवराज इन्द्रने चुराकर अन्यत्र पहुँचा दिया है; उसे शीघ्र ले आओ।'
तब देवताओंने मुनिके कहनेसे यज्ञका घोड़ा लाकर दे दिया। इसके बाद उन्होंने उन्हें जानेकी आज्ञा दी। देवताओंका आकर्षण देखकर तथा खोये हुए अश्वको पाकर राजकुमारने मुनिके चरणों में प्रणाम करके कहा—' महर्षे! आपका यह सामर्थ्य आश्चर्यजनक है। आप ही ऐसा कार्य कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं। ब्रह्मन् ! मेरी प्रार्थना सुनिये, मेरे पिता राजा बृहद्रथ अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान आरम्भ करके दैवयोगसे मृत्युको प्राप्त हो गये हैं। अभीतक उनका शरीर तपाये हुए तेलमें सुखाकरमैंने रख छोड़ा है। साधुश्रेष्ठ ! आप उन्हें जीवित पुनः कर दीजिये।'
यह सुनकर महामुनि ब्राह्मणने किंचित् मुसकराकर कहा- 'चलो, जहाँ यज्ञमण्डपमें तुम्हारे पिता मौजूद हैं, चलें।' तब सिद्धसमाधिने राजकुमारके साथ वहाँ जाकर जल अभिमन्त्रित किया और उसे उस शवके मस्तकपर रखा। उसके रखते ही राजा सचेत होकर उठ बैठे। फिर उन्होंने ब्राह्मणको देखकर पूछा 'धर्मस्वरूप ! आप कौन हैं?' तब राजकुमारने महाराजसे पहलेका सारा हाल कह सुनाया। राजाने अपनेको पुनः जीवन-दान देनेवाले ब्राह्मणको नमस्कार करके पूछा- 'ब्रह्मन् ! किस पुण्यसे आपको यह अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई है ?' उनके यों कहनेपर ब्राह्मणने मधुर वाणीमें कहा- ' - राजन् ! मैं प्रतिदिन आलस्यरहित होकर गीताके बारहवें अध्यायका जप करता हूँ; उसीसे मुझे यह शक्ति मिली है, जिससे तुम्हें जीवन प्राप्त हुआ है।' यह सुनकर ब्राह्मणोंसहित राजाने उन ब्रह्मर्षिसे गीताके बारहवें अध्यायका अध्ययन किया। उसके माहात्म्यसे उन सबकी सद्गति हो गयी। दूसरे दूसरे जीव भी उसके पाठसे परम - मोक्षको प्राप्त हो चुके हैं।