भगवान् शिव कहते हैं- पार्वती ! अब मैं सातवें अध्यायका माहात्म्य बतलाता हूँ, जिसे सुनकर कानोंमें अमृत राशि भर जाती है। पाटलिपुत्र नामक एक दुर्गम नगर है, जिसका गोपुर (द्वार) बहुत ही ऊँचा है। उस नगरमें शंकुकर्ण नामक एक ब्राह्मण रहता था; उसने वैश्यवृत्तिका आश्रय लेकर बहुत धन कमाया, किन्तु न तो कभी पितरोंका तर्पण किया और म देवताओंका पूजन ही। वह धनोपार्जनमें तत्पर होकर राजाओंको ही भोज दिया करता था। एक समयकी बात है, उस ब्राह्मणने अपना चौथा विवाह करनेके लिये पुत्रों और बन्धुओंके साथ यात्रा की। मार्ग में आधी रातके समय जब वह सो रहा था, एक सर्पने कहींसे आकर उसकी बाँहमें काट लिया। उसके काटते ही ऐसी अवस्था हो गयी कि मणि, मन्त्र और ओषधि आदिसे भी उसके शरीरकी रक्षा असाध्य जान पड़ी। तत्पश्चात् कुछ ही क्षणोंमें उसके प्राण पखेरू उड़ गये। फिर बहुत समयके बाद वह प्रेत सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ। उसका चित्त धनकी वासनामें बँधा था। उसने पूर्व वृत्तान्तको स्मरण करके सोचा- 'मैंने जी भरके बाहर करोड़ोंकी संख्या में अपना धन गाड़रखा है, उससे इन पुत्रोंको वंचित करके स्वयं ही उसकी रक्षा करूँगा।' एक दिन साँपकी योनिसे पीड़ित होकर पिताने स्वप्नमें अपने पुत्रोंके समक्ष आकर अपना मनोभाव बताया, तब उसके निरंकुश पुत्रोंने सबेरे उठकर बड़े विस्मयके साथ एक-दूसरेसे स्वप्नकी बातें कहीं। उनमेंसे मझला पुत्र कुदाल हाथमें लिये घरसे निकला और जहाँ उसके पिता सर्पयोनि धारण करके रहते थे, उस स्थानपर गया। यद्यपि उसे धनके स्थानका ठीक-ठीक पता नहीं था तो भी उसने चिह्नोंसे उसका ठीक निश्चय कर लिया और लोभबुद्धिसे वहाँ पहुँचकर बाँबीको खोदना आरम्भ किया। तब उस बाँबीसे बड़ा भयानक साँप प्रकट हुआ और बोला- ओ मूढ़! तू कौन है, किसलिये आया है, क्यों बिल खोद रहा है, अथवा किसने तुझे भेजा है ? ये सारी बातें मेरे सामने बता।'
पुत्र बोला- मैं आपका पुत्र हूँ। मेरा नाम शिव है। मैं रात्रिमें देखे हुए स्वप्नसे विस्मित होकर यहाँका सुवर्ण लेनेके कौतूहलसे आया हूँ।
पुत्रकी यह लोकनिन्दित वाणी सुनकर वह साँप हँसता हुआ उच्चस्वरसे इस प्रकार स्पष्ट वचनबोला- 'यदि तू मेरा पुत्र है तो मुझे शीघ्र ही बन्धनसे मुक्त कर मैं पूर्वजन्मके गाड़े हुए धनके ही लिये सर्पयोनिमें उत्पन्न हुआ हूँ।'
पुत्रने पूछा- पिताजी! आपकी मुक्ति कैसे होगी? इसका उपाय मुझे बताइये; क्योंकि मैं इस रातमें सब लोगोंको छोड़कर आपके पास आया हूँ।
पिताने कहा- बेटा! गीताके अमृतमय सप्तम अध्यायको छोड़कर मुझे मुक्त करनेमें तीर्थ, दान, तप और यह भी सर्वथा समर्थ नहीं हैं। केवल गीताका सातवाँ अध्याय ही प्राणियोंके जरा मृत्यु आदि दुःखको दूर करनेवाला है। पुत्र! मेरे श्राद्धके दिन सप्तम अध्यायका पाठ करनेवाले ब्राह्मणको श्रद्धापूर्वक भोजन कराओ। इससे निस्सन्देह मेरी मुक्ति हो जायगी। वत्स ! अपनी शक्तिके अनुसार पूर्ण श्रद्धा के साथ वेद-विद्यामै प्रवीण अन्य ब्राह्मणोंको भी भोजन कराना।
सर्पयोनिमें पड़े हुए पिताके ये वचन सुनकर सभी पुत्रोंने उसकी आज्ञाके अनुसार तथा उससे भी अधिक किया तब शंकुकर्णने अपने सर्पशरीरको त्यागकर दिव्य देह धारण किया और सारा धन पुत्रोंके अधीन करदिया। पिताने करोड़ोंकी संख्या में जो धन बाँटकर दिया था, उससे वे सदाचारी पुत्र बहुत प्रसन्न हुए। उनकी बुद्धि धर्ममें लगी हुई थी इसलिये उन्होंने बावली, कुआँ, पोखरा, यज्ञ तथा देवमन्दिरके लिये उस धनका उपयोग किया और अन्नशाला भी बनवायी। तत्पश्चात् सातवें अध्यायका सदा जप करते हुए उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। पार्वती! यह तुम्हें सातवें अध्याय का माहात्म्य बताया गया है; जिसके श्रवणमात्रसे मानव सब पातकोंसे मुक्त हो जाता है।
भगवान् शिव कहते हैं-देवि ! अब आठवें अध्याय का माहात्म्य सुनो! उसके सुननेसे तुम्हें बड़ी प्रसन्नता होगी। [लक्ष्मीजीके पूछनेपर भगवान् विष्णुने उन्हें इस प्रकार अष्टम अध्यायका माहात्म्य बतलाया था।] दक्षिणमें आमर्दकपुर नामक एक प्रसिद्ध नगर है। वहाँ भावशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था, जिसने वेश्याको पत्नी बनाकर रखा था। वह मांस खाता, मदिरा पीता, साधुओंका धन चुराता, परायी स्त्रीसे व्यभिचार करता और शिकार खेलनेमें दिलचस्पी रखता था। वह बड़े भयानक स्वभावका था और मनमें बड़े-बड़े हौसले रखता था। एक दिन मदिरा पीनेवालोंका समाज जुटा था। उसमें भावशर्माने भर पेट ताड़ी पी खूब गलेतक उसे चढ़ाया; अतः अजीर्णसे अत्यन्त पीड़ित होकर वह पापात्मा कालवश मर गया और बहुत बड़ा ताड़का वृक्ष हुआ। उसकी घनी और ठण्डी छायाका आश्रय लेकर ब्रह्मराक्षसभावको प्राप्त हुए कोई पति-पत्नी वहीं रहा करते थे।
उनके पूर्वजन्मकी घटना इस प्रकार है। एक कुशीबल नामक ब्राह्मण था, जो वेद-वेदांगके तत्त्वोंका जाता, सम्पूर्ण शास्त्रोंके अर्थका विशेषज्ञ और सदाचारी था। उसकी स्त्रीका नाम कुमति था। वह बड़े खोटे विचारकी थी। वह ब्राह्मण विद्वान् होनेपर भी अत्यन्त लोभवश अपनी स्त्रीके साथ प्रतिदिन भैंस, कालपुरुष और घोड़े आदि बड़े दानोंको ग्रहण किया करता था परन्तु दूसरे ब्राह्मणों को दानमें मिली हुई कौड़ी भी नहीं देता था। वे ही दोनों पति-पत्नी कालवशमृत्युको प्राप्त होकर ब्रह्मराक्षस हुए। वे भूख और प्याससे पीड़ित हो इस पृथ्वीपर घूमते हुए उसी ताड़-वृक्षके पास आये और उसके मूलभागमें विश्राम करने लगे। इसके बाद पत्नीने पतिसे पूछा- नाथ! हमलोगोंका यह महान् दुःख कैसे दूर होगा तथा इस ब्रह्मराक्षसयोनिसे किस प्रकार हम दोनोंकी मुक्ति होगी ?' तब उस ब्राह्मणने कहा— 'ब्रह्मविद्याके उपदेश, अध्यात्मतत्त्वके विचार और कर्मविधिके ज्ञान बिना किस प्रकार संकटसे छुटकारा मिल सकता है।'
यह सुनकर पत्नीने पूछा- 'किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम' (पुरुषोत्तम! वह ब्रह्म क्या है? अध्यात्म क्या है और कर्म कौन सा है ?) उसकी पत्नीके इतना कहते ही जो आश्चर्यकी घटना घटित हुई, उसको सुनो। उपर्युक्त वाक्य गीताके आठवें अध्यायका आधा श्लोक था। उसके श्रवणसे वह वृक्ष उस समय ताड़के रूपको त्यागकर भावशर्मा नामक ब्राह्मण हो गया। तत्काल ज्ञान होनेसे विशुद्धचित्त होकर वह पापके चोलेसे मुक्त हो गया तथा उस आधे श्लोकके ही माहात्म्यसे वे पति-पत्नी भी मुक्त हो गये। उनके मुखसे दैवात् ही आठवें अध्यायका आधा श्लोक निकल पड़ा था। तदनन्तर आकाशसे एक दिव्य विमान आया और वे दोनों पति-पत्नी उस विमानपर आरूढ़ होकर स्वर्गलोकको चले गये। वहाँका यह सारा वृत्तान्त अत्यन्त आश्चर्यजनक था ।
उसके बाद उस बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्माने आदरपूर्वक उस आधे श्लोकको लिखा और देवदेव जनार्दनकी आराधना करनेकी इच्छासे वह मुक्तिदायिनी काशीपुरीमें चला गया। वहाँ उस उदार बुद्धिवाले ब्राह्मणने भारी तपस्या आरम्भ की। उसी समय क्षीरसागरकी कन्या भगवती लक्ष्मीने हाथ जोड़कर देवताओंके भी देवता जगत्पति जनार्दनसे पूछा 'नाथ! आप सहसा नींद त्यागकर खड़े क्यों हो गये ?' बोले-देवि !
श्रीभगवान् काशीपुरीमेंभागीरथीके तटपर बुद्धिमान् ब्राह्मण भावशर्मा मेरे भक्तिरससे परिपूर्ण होकर अत्यन्त कठोर तपस्या कर रहा है। वह अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके गीताके आठवें अध्यायके आधे श्लोकका जप करता है। मैं उसकी तपस्यासे बहुत सन्तुष्ट हूँ। बहुत देरसे उसकी तपस्याके अनुरूप फलका विचार कर रहा था। प्रिये! इस समय वह फल देनेको मैं उत्कण्ठित हैं।
पार्वतीजीने पूछा- भगवन्! श्रीहरि सदा प्रसन्न होनेपर भी जिसके लिये चिन्तित हो उठे थे, उस भगवद्भक्त भावशर्माने कौन-सा फल प्राप्त किया ?
श्रीमहादेवजी बोले- देवि द्विजश्रेष्ठ भावशर्मा प्रसन्न हुए भगवान् विष्णुके प्रसादको पाकर आत्यन्तिक सुख (मोक्ष) को प्राप्त हुआ तथा उसके अन्य वंशज भी, जो नरक यातनामें पड़े थे, उसीके शुभकर्मसे भगवद्धामको प्राप्त हुए। पार्वती यह आठवें अध्यायका माहात्म्य थोड़े में ही तुम्हें बताया है। इसपर सदा विचार करते रहना चाहिये।