तत्पश्चात् राजा दशरथने बड़ी प्रसन्नताके साथ पुरोहित वसिष्ठजीके द्वारा बालकका जातकर्म-संस्कार कराया। भगवान् वसिष्ठने उस समय बालकका बड़ा सुन्दर नाम रखा। वे बोले-'ये महाप्रभु कमलमें निवास करनेवाली श्रीदेवीके साथ रमण करनेवाले हैं, इसलिये इनका परम प्राचीन स्वतः सिद्ध नाम 'श्रीराम' होगा। यह नाम भगवान् विष्णुके सहस्र नामोंके समान है तथामनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। चैत मास श्रीविष्णुका मास है। इसमें प्रकट होनेके कारण यह विष्णु भी कहलायेंगे। *
इस प्रकार नाम रखकर महर्षि वसिष्ठने नाना प्रकारकी स्तुतियोंसे भगवान्का स्तवन किया और बालकके मंगलके लिये सहस्रनामका पाठ करके वे उस परम पवित्र राजभवनसे बाहर निकले। राजा दशरथनेश्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रसन्नतापूर्वक बहुत धन दिया तथा धर्मपूर्वक दस हजार गौएँ दान कीं। इतना ही नहीं, उन रघुकुलश्रेष्ठ राजाने श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये एक र लाख गाँव दान किये और दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा असंख्य धन देकर ब्राह्मणोंको तृप्त किया। महारानी 1 कौसल्याने जब अपने पुत्र श्रीरामकी और दृष्टिपात किया तो उनके श्रीचरणों और करकमलोंमें शंख, चक्र, 1 गदा, पद्म, ध्वजा और वज्र आदि चिह्न दिखायी दिये। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि और वनमाला सुशोभित थी। उनके श्रीअंगमें देवता, असुर और मनुष्यसहित सम्पूर्ण जगत् दृष्टिगोचर हुआ मुसकराते हुए मुखके भीतर चौदहों भुवन दिखायी देते थे। उनके निःश्वासमें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेद, जाँघोंमें द्वीप, समुद्र और पर्वत, नाभिमें ब्रह्मा तथा महादेवजी, कानोंमें सम्पूर्ण दिशाएँ, नेत्रोंमें अग्नि और सूर्य तथा नासिकामें महान् वेगशाली वायुदेव विराजमान थे। पार्वती। सम्पूर्ण उपनिषदोंके तात्पर्यभूत भगवान्को देखकर रानी कौसल्या भयभीत हो गयीं और बारंबार प्रणाम करके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाती हुई हाथ जोड़कर बोली 'देवदेवेश्वर! प्रभो! आपको पुत्ररूपमें पाकर मैं धन्य हो गयी। जगन्नाथ! अब मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे भीतर पुत्रस्नेहको जाग्रत् कीजिये।'
माताके ऐसा कहनेपर सर्वव्यापक श्रीहरि मायासे मानवभाव तथा शिशुभावको प्राप्त होकर रुदन करने लगे। फिर तो देवी कौसल्याने आनन्दमग्न होकर उत्तम लक्षणोंवाले अपने पुत्रको छाती से लगा लिया और उसके मुखमें स्तन डाल दिया। संसारका भरण-पोषण करनेवाले सनातन देवता महाप्रभु श्रीहरि बालकरूपसे माताकी गोदमें लेटकर उनका स्तनपान करने लगे। वह दिन बड़ा ही सुन्दर रमणीय और मनुष्योंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला था। नगर और प्रान्तके सब मनुष्योंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उस दिन भगवान्का जन्मोत्सव मनाया। तदनन्तर कैकेयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ। वे पांचजन्य शंखके अंशसे प्रकट हुए थे। इसके बाद महाभागा सुमित्राने उत्तम लक्षणोंवाले लक्ष्मणको तथा देवशत्रुओंको सन्ताप देनेवाले शत्रुघ्नको जन्म दिया। शत्रुपक्षके वीरोंका संहार करनेवाले श्रीलक्ष्मणभगवान् अनन्तके अंशसे और अमित पराक्रमी शत्रुघ्न सुदर्शनके अंशसे प्रकट हुए थे। वैवस्वत मनुके वंश जन्म लेनेवाले वे सभी बालक क्रमशः बड़े हुए। फिर महातेजस्वी महर्षि वसिष्ठने सबका विधिपूर्वक संस्कार किया। तदनन्तर सबने वेद-शास्त्रोंका अध्ययन किया। सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ होकर वे धनुर्वेदके भी प्रतिष्ठित विद्वान् हुए। श्रीराम आदि चारों भाई बड़े ही उदार और लोगोंका हर्ष बढ़ानेवाले थे। उनमें श्रीराम और लक्ष्मणकी जोड़ी एक साथ रहती थी और भरत तथा शत्रुघ्नकी जोड़ी एक साथ।
भगवान् के अवतार लेनेके पश्चात् जगदीश्वरी भगवती लक्ष्मी राजा जनकके भवनमें अवतीर्ण हुई। जिस समय राजा जनक किसी शुभक्षेत्रमें यज्ञके लिये हलसे भूमि जोत रहे थे, उसी समय सीता (हलके अग्रभाग) - से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात् लक्ष्मी ही थी उस वेदमयी कन्याको देख मिथिलापति राजा जनकने गोदमें उठा लिया और अपनी पुत्री मानकर उसका पालन-पोषण किया। इस प्रकार जगदीश्वरकी वल्लभा देवेश्वरी लक्ष्मी सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये राजा जनकके मनोहर भवनमें पल रही थीं।
इसी समय विश्वविख्यात महामुनि विश्वामित्रने गंगाजीके सुन्दर तटपर परम पुण्यमय सिद्धाश्रममें एक उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। जब यज्ञ होने लगा तो रावणके अधीन रहनेवाले कितने ही निशाचर उसमें विघ्न डालने लगे। इससे विश्वामित्र मुनिको बड़ी चिन्ता हुई। तब उन धर्मात्मा मुनिने लोकहितके लिये रघुकुलमें प्रकट हुए श्रीहरिको वहाँ ले आनेका विचार किया। फिर तो वे रघुवंशी क्षत्रियोंद्वारा सुरक्षित रमणीय नगरी अयोध्यामें गये और वहाँ राजा दशरथसे मिले कौशिक मुनिको उपस्थित देख राजा दशरथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये तथा उन्होंने अपने पुत्रोंके साथ मुनिवर विश्वामित्रके चरणोंमें मस्तक झुकाया और बड़े हर्षके साथ कहा 'मुने। आज आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया।' तत्पश्चात् उन्हें उत्तम आसनपर बिठाकर राजाने विधिपूर्वक सत्कार किया और पुनः प्रणाम करके पूछा- 'महर्षे! मेरे लिये क्या आज्ञा है?" तब महातपस्वी विश्वामित्र अत्यन्त प्रसन्न होकरबोले- 'राजन्! आप मेरे यज्ञकी रक्षाके लिये श्रीरामचन्द्रजीको मुझे दे दीजिये। इनके समीप रहनेसे मेरे यज्ञमें पूर्ण सफलता मिलेगी।' मुनिवर विश्वामित्रकी यह बात सुनकर सर्वज्ञों में श्रेष्ठ राजा दशरथने लक्ष्मणसहित श्रीरामको मुनिकी सेवामें समर्पित कर दिया। महातपस्वी विश्वामित्र उन दोनों रघुवंशी कुमारोंको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमपर गये। श्रीरामचन्द्रजीके जानेसे देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने भगवान्के ऊपर फूल बरसाये और उनकी स्तुति की। उसी समय महाबली गरुड़ सब प्राणियोंसे अदृश्य होकर वहाँ आये और उन दोनों भाइयोंको दो दिव्य धनुष तथा अक्षय बाणोंवाले दो तूणीर आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र देकर चले गये। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई महापराक्रमी वीर थे तपोवनमें पहुँचनेपर महात्मा कौशिकने विशाल वनके भीतर उन्हें एक भयंकर राक्षसीको दिखलाया, जिसका नाम ताड़का था। वह सुन्द नामक राक्षसकी स्त्री थी। मुनिकी प्रेरणासे उन दोनोंने दिव्य धनुषसे छूटे हुए बार्णोद्वारा ताड़काको मार डाला। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मारी जानेपर वह भयंकर राक्षसी अपने भयानक रूपको छोड़कर दिव्यरूपमें प्रकट हुई। उसका शरीर तेजसे उद्दीप्त हो रहा था तथा वह सब आभरणोंसे विभूषित दिखायी देती थी। राक्षसयोनिसे छूटकर श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करनेके पश्चात् वह श्रीविष्णुलोको चली गयी।
ताड़काको मारकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीने महात्मा लक्ष्मणके साथ विश्वामित्रके शुभ आश्रम में प्रवेश किया। उस समय समस्त मुनि बड़े प्रसन्न हुए। वे आगे बढ़कर श्रीरामचन्द्रजीको ले गये और उत्तम आसनपर बिठाकर सबने अर्घ्य आदिके द्वारा उनका पूजन किया। द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने विधिपूर्वक यज्ञकी दीक्षा ले मुनियोंके साथ उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। उस महायज्ञका प्रारम्भ होते ही मारीच नामक राक्षस अपने भाई सुबाहुके साथ उसमें विघ्न डालनेके लिये उपस्थित हुआ। उन भयंकर राक्षसोंको देखकर विपक्षी वीरोंका संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने राक्षसराज सुबाहुको एक ही बाणसे मौतके घाट उतार दिया और महान् । नास्त्रका प्रयोग करके मारीच नामक निशाचरकोसमुद्रके तटपर इस प्रकार फेंक दिया, जैसे हवा सूखे पसेको उड़ा ले जाती है। श्रीरामचन्द्रजीके इस महान् पराक्रमको देखकर राक्षसश्रेष्ठ मारीचने हथियार फेंक दिया और एक महान् आश्रममें वह तपस्या करनेके लिये चला गया। महान् यज्ञके समाप्त होनेके बाद महातेजस्वी विश्वामित्रने प्रसन्नचित्तसे श्रीरघुनाथजीका पूजन किया। वे मस्तकपर काकपक्ष धारण किये हुए थे। उनके शरीरका वर्ण नील कमलदलके समान श्याम था तथा क्षेत्र कमलदलके समान विशाल थे। मुनिश्रेष्ठ कौशिकने उन्हें छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा और स्तवन किया।
इसी बीचमें मिथिलाके सम्राट् राजा जनकने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा वाजपेययज्ञ आरम्भ किया। विश्वामित्र आदि सब महर्षि उस यज्ञको देखनेके लिये गये। उनके साथ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण भी थे। मार्ग में महात्मा श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका स्पर्श हो जानेसे बहुत बड़ी शिलाके रूपमें पड़ी हुई गौतमपत्नी अहल्या शुद्ध हो गयी। पूर्वकालमें वह अपने स्वामी गौतमके शापसे पत्थर हो गयी थी; किन्तु श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्पर्श होनेसे शुद्ध हो वह शुभ गतिको प्राप्त हुई तदनन्तर दोनों रघुकुमारोंके साथ मिथिला नगरीमें पहुँचकर सभी मुनिवरोंका मन प्रसन्न हो गया। महाबली राजा जनकने महान् सौभाग्यशाली महर्षियोंको आया देख आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम और पूजन किया। कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले, नील कमलदलके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, कोमलांग, कोटि कन्दपक सौन्दर्यको मात करनेवाले, समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित रघुवंशनाथ श्रीरामचन्द्रजीको देखकर मिथिलानरेश जनकके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दशरथनन्दन श्रीरामको परमेश्वरका ही स्वरूप समझा और अपनेको धन्य मानते हुए उनका पूजन किया। राजाके मनमें श्रीरामचन्द्रजीको अपनी | कन्या देनेका विचार उत्पन्न हुआ। 'ये दोनों कुमार रघुकुलमें उत्पन्न हुए हैं।' इस प्रकार दोनों भाइयोंका परिचय पाकर राजाने उत्तम वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा धर्मपूर्वक उनका सत्कार किया और मधुपर्क आदिकी विधिसे सम्पूर्ण महर्षियोंका भी पूजन किया। तत्पश्चात्यज्ञ समाप्त होनेपर कमलनयन श्रीरामने शंकरजीके दिव्य धनुषको भंग करके जनककिशोरी सीताको जीत लिया। उस पराक्रमरूपी महान् शुल्कसे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर मिथिलानरेशने सीताको श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें देनेका निश्चय कर लिया।
तत्पश्चात् राजा जनकने महाराज दशरथके पास दूत भेजा। धर्मात्मा राजा दशरथ अपने दोनों पुत्र भरत और शत्रुघ्नको साथ लेकर वसिष्ठ, वामदेव आदि महर्षियों और सेनाके साथ मिथिलामें आये और जनकके सुन्दर भवनमें उन्होंने जनवासा किया। फिर शुभ समयमें मिथिलानरेशने श्रीरामका सीताके साथ और लक्ष्मणका उर्मिलाके साथ विवाह कर दिया। उनके भाई कुशध्वजके दो सुन्दरी कन्याएँ थीं, जो माण्डवी और श्रुतकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध थीं। वे दोनों सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं। उनमेंसे माण्डवीके साथ भरतका और श्रुतकीर्तिके साथ शत्रुघ्नका विवाह किया। इस प्रकार वैवाहिक उत्सव समाप्त होनेपर महाबली राजा दशरथ मिथिलानरेशसे पूजित हो दहेजका सामान ले पुत्रों, पुत्रवधुओं, सेवकों, अश्व-गज आदि सैनिकों तथा नगर और प्रान्तके लोगोंके साथ अयोध्याको प्रस्थित हुए। मार्गमें महापराक्रमी तथा परम प्रतापी परशुरामजी मिले, जो हाथमें फरसा लेकर क्रोधमें भरे हुए सिंहकी भाँति खड़े थे। वे क्षत्रियोंके लिये कालरूप थे और श्रीरामचन्द्रजीके पास युद्धको इच्छासे आ रहे थे। रघुनाथजीको सामने पाकर परशुरामजीने इस प्रकार कहा - 'महाबाहु श्रीराम ! मेरी बात सुनो। मैं युद्धमें बहुत से महापराक्रमी राजाओंका वध करके ब्राह्मणोंको भूमिदान दे तपस्या करनेके लिये चला गया था किन्तु तुम्हारे वीर्य और बलकी ख्याति सुनकर यहाँ तुमसे युद्ध करनेके लिये आया हूँ। यद्यपि इक्ष्वाकुवंशके वे क्षत्रिय जो मेरे नानाके कुलमें उत्पन्न हुए हैं, मेरे वध्य नहीं हैं; तथापि किसी भी क्षत्रियका बल और पराक्रम सुनकर मेरे लिये उसका सहन करना असम्भव है; इसलिये उदार रघुवंशी वीर! तुम मुझे युद्धका अवसर दो। सुना है, तुमने शंकरजीके दुर्धर्षधनुषको तोड़ डाला है। यह वैष्णव धनुष भी उसीके समान शत्रुओंका संहार करनेवाला है। तुम अपने पराक्रमसे इसकी प्रत्यंचा चढ़ा दो तो मैं तुमसे हार मान लूँगा अथवा यदि मुझे देखकर तुम्हारे मनमें भय समा गया हो तो मुझ बलवान् के आगे अपने हथियार नीचे डाल दो और मेरी शरणमें आ जाओ।'
परशुरामजीके ऐसा कहनेपर परम प्रतापी श्रीरामचन्द्रजीने वह धनुष ले लिया। साथ ही उनसे अपनी वैष्णवी शक्तिको भी खींच लिया। शक्तिसे वियोग होते ही पराक्रमी परशुराम कर्मभ्रष्ट ब्राह्मणकी भाँति वीर्य और तेजसे हीन हो गये। उन्हें तेजोहीन देखकर समस्त क्षत्रिय साधु-साधु कहते हुए बारंबार श्रीरामचन्द्रजीकी सराहना करने लगे। रघुनाथजीने उस महान् धनुषको हाथमें लेकर अनायास ही उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दी और बाणका सन्धान करके विस्मयमें पड़े हुए परशुरामजी से पूछा- 'ब्रह्मन् ! इस श्रेष्ठ बाणसे आपका कौन-सा कार्य करूँ? आपके दोनों लोकोंका नाश कर दूँ या आपके पुण्योंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोकका ही अन्त कर डालूँ ?'
उस भयंकर बाणको देखकर परशुरामजीको यह मालूम हो गया कि ये साक्षात् परमात्मा हैं। ऐसा जानकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने लोकरक्षक श्रीरघुनाथजीको नमस्कार करके अपने सौ यज्ञोंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोक और अपने अस्त्र-शस्त्र उनकी सेवामें समर्पित कर दिये। तब महातेजस्वी रघुनाथजीने महामुनि परशुरामजीको प्रणाम किया तथा पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय आदिके द्वारा उनकी विधिपूर्वक पूजा की। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा पूजित होकर महातपस्वी परशुरामजी भगवान् नर नारायणके रमणीय आश्रममें तपस्या करनेके लिये चले गये। तत्पश्चात् महाराज दशरथने पुत्रों और बहुओंके साथ उत्तम मुहूर्तमें अपनी पुरी अयोध्याके भीतर प्रवेश किया। श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न चारों भाई अपनी-अपनी पत्नीके साथ प्रसन्नचित्त होकर रहने लगे। धर्मात्मा श्रीरघुनाथजीने सीताके साथ बारह वर्षों तक विहार किया।