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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 254 - Khand 5, Adhyaya 254

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श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह

तत्पश्चात् राजा दशरथने बड़ी प्रसन्नताके साथ पुरोहित वसिष्ठजीके द्वारा बालकका जातकर्म-संस्कार कराया। भगवान् वसिष्ठने उस समय बालकका बड़ा सुन्दर नाम रखा। वे बोले-'ये महाप्रभु कमलमें निवास करनेवाली श्रीदेवीके साथ रमण करनेवाले हैं, इसलिये इनका परम प्राचीन स्वतः सिद्ध नाम 'श्रीराम' होगा। यह नाम भगवान् विष्णुके सहस्र नामोंके समान है तथामनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेवाला है। चैत मास श्रीविष्णुका मास है। इसमें प्रकट होनेके कारण यह विष्णु भी कहलायेंगे। *

इस प्रकार नाम रखकर महर्षि वसिष्ठने नाना प्रकारकी स्तुतियोंसे भगवान्का स्तवन किया और बालकके मंगलके लिये सहस्रनामका पाठ करके वे उस परम पवित्र राजभवनसे बाहर निकले। राजा दशरथनेश्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रसन्नतापूर्वक बहुत धन दिया तथा धर्मपूर्वक दस हजार गौएँ दान कीं। इतना ही नहीं, उन रघुकुलश्रेष्ठ राजाने श्रीविष्णुकी प्रसन्नताके लिये एक र लाख गाँव दान किये और दिव्य वस्त्र, दिव्य आभूषण तथा असंख्य धन देकर ब्राह्मणोंको तृप्त किया। महारानी 1 कौसल्याने जब अपने पुत्र श्रीरामकी और दृष्टिपात किया तो उनके श्रीचरणों और करकमलोंमें शंख, चक्र, 1 गदा, पद्म, ध्वजा और वज्र आदि चिह्न दिखायी दिये। वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न, कौस्तुभमणि और वनमाला सुशोभित थी। उनके श्रीअंगमें देवता, असुर और मनुष्यसहित सम्पूर्ण जगत् दृष्टिगोचर हुआ मुसकराते हुए मुखके भीतर चौदहों भुवन दिखायी देते थे। उनके निःश्वासमें इतिहाससहित सम्पूर्ण वेद, जाँघोंमें द्वीप, समुद्र और पर्वत, नाभिमें ब्रह्मा तथा महादेवजी, कानोंमें सम्पूर्ण दिशाएँ, नेत्रोंमें अग्नि और सूर्य तथा नासिकामें महान् वेगशाली वायुदेव विराजमान थे। पार्वती। सम्पूर्ण उपनिषदोंके तात्पर्यभूत भगवान्‌को देखकर रानी कौसल्या भयभीत हो गयीं और बारंबार प्रणाम करके नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहाती हुई हाथ जोड़कर बोली 'देवदेवेश्वर! प्रभो! आपको पुत्ररूपमें पाकर मैं धन्य हो गयी। जगन्नाथ! अब मुझपर प्रसन्न होइये और मेरे भीतर पुत्रस्नेहको जाग्रत् कीजिये।'

माताके ऐसा कहनेपर सर्वव्यापक श्रीहरि मायासे मानवभाव तथा शिशुभावको प्राप्त होकर रुदन करने लगे। फिर तो देवी कौसल्याने आनन्दमग्न होकर उत्तम लक्षणोंवाले अपने पुत्रको छाती से लगा लिया और उसके मुखमें स्तन डाल दिया। संसारका भरण-पोषण करनेवाले सनातन देवता महाप्रभु श्रीहरि बालकरूपसे माताकी गोदमें लेटकर उनका स्तनपान करने लगे। वह दिन बड़ा ही सुन्दर रमणीय और मनुष्योंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाला था। नगर और प्रान्तके सब मनुष्योंने बड़ी प्रसन्नताके साथ उस दिन भगवान्‌का जन्मोत्सव मनाया। तदनन्तर कैकेयीके गर्भसे भरतका जन्म हुआ। वे पांचजन्य शंखके अंशसे प्रकट हुए थे। इसके बाद महाभागा सुमित्राने उत्तम लक्षणोंवाले लक्ष्मणको तथा देवशत्रुओंको सन्ताप देनेवाले शत्रुघ्नको जन्म दिया। शत्रुपक्षके वीरोंका संहार करनेवाले श्रीलक्ष्मणभगवान् अनन्तके अंशसे और अमित पराक्रमी शत्रुघ्न सुदर्शनके अंशसे प्रकट हुए थे। वैवस्वत मनुके वंश जन्म लेनेवाले वे सभी बालक क्रमशः बड़े हुए। फिर महातेजस्वी महर्षि वसिष्ठने सबका विधिपूर्वक संस्कार किया। तदनन्तर सबने वेद-शास्त्रोंका अध्ययन किया। सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ होकर वे धनुर्वेदके भी प्रतिष्ठित विद्वान् हुए। श्रीराम आदि चारों भाई बड़े ही उदार और लोगोंका हर्ष बढ़ानेवाले थे। उनमें श्रीराम और लक्ष्मणकी जोड़ी एक साथ रहती थी और भरत तथा शत्रुघ्नकी जोड़ी एक साथ।

भगवान् के अवतार लेनेके पश्चात् जगदीश्वरी भगवती लक्ष्मी राजा जनकके भवनमें अवतीर्ण हुई। जिस समय राजा जनक किसी शुभक्षेत्रमें यज्ञके लिये हलसे भूमि जोत रहे थे, उसी समय सीता (हलके अग्रभाग) - से एक सुन्दरी कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात् लक्ष्मी ही थी उस वेदमयी कन्याको देख मिथिलापति राजा जनकने गोदमें उठा लिया और अपनी पुत्री मानकर उसका पालन-पोषण किया। इस प्रकार जगदीश्वरकी वल्लभा देवेश्वरी लक्ष्मी सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षाके लिये राजा जनकके मनोहर भवनमें पल रही थीं।

इसी समय विश्वविख्यात महामुनि विश्वामित्रने गंगाजीके सुन्दर तटपर परम पुण्यमय सिद्धाश्रममें एक उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। जब यज्ञ होने लगा तो रावणके अधीन रहनेवाले कितने ही निशाचर उसमें विघ्न डालने लगे। इससे विश्वामित्र मुनिको बड़ी चिन्ता हुई। तब उन धर्मात्मा मुनिने लोकहितके लिये रघुकुलमें प्रकट हुए श्रीहरिको वहाँ ले आनेका विचार किया। फिर तो वे रघुवंशी क्षत्रियोंद्वारा सुरक्षित रमणीय नगरी अयोध्यामें गये और वहाँ राजा दशरथसे मिले कौशिक मुनिको उपस्थित देख राजा दशरथ हाथ जोड़कर खड़े हो गये तथा उन्होंने अपने पुत्रोंके साथ मुनिवर विश्वामित्रके चरणोंमें मस्तक झुकाया और बड़े हर्षके साथ कहा 'मुने। आज आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया।' तत्पश्चात् उन्हें उत्तम आसनपर बिठाकर राजाने विधिपूर्वक सत्कार किया और पुनः प्रणाम करके पूछा- 'महर्षे! मेरे लिये क्या आज्ञा है?" तब महातपस्वी विश्वामित्र अत्यन्त प्रसन्न होकरबोले- 'राजन्! आप मेरे यज्ञकी रक्षाके लिये श्रीरामचन्द्रजीको मुझे दे दीजिये। इनके समीप रहनेसे मेरे यज्ञमें पूर्ण सफलता मिलेगी।' मुनिवर विश्वामित्रकी यह बात सुनकर सर्वज्ञों में श्रेष्ठ राजा दशरथने लक्ष्मणसहित श्रीरामको मुनिकी सेवामें समर्पित कर दिया। महातपस्वी विश्वामित्र उन दोनों रघुवंशी कुमारोंको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ अपने आश्रमपर गये। श्रीरामचन्द्रजीके जानेसे देवताओंको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने भगवान्के ऊपर फूल बरसाये और उनकी स्तुति की। उसी समय महाबली गरुड़ सब प्राणियोंसे अदृश्य होकर वहाँ आये और उन दोनों भाइयोंको दो दिव्य धनुष तथा अक्षय बाणोंवाले दो तूणीर आदि दिव्य अस्त्र-शस्त्र देकर चले गये। श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाई महापराक्रमी वीर थे तपोवनमें पहुँचनेपर महात्मा कौशिकने विशाल वनके भीतर उन्हें एक भयंकर राक्षसीको दिखलाया, जिसका नाम ताड़का था। वह सुन्द नामक राक्षसकी स्त्री थी। मुनिकी प्रेरणासे उन दोनोंने दिव्य धनुषसे छूटे हुए बार्णोद्वारा ताड़काको मार डाला। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मारी जानेपर वह भयंकर राक्षसी अपने भयानक रूपको छोड़कर दिव्यरूपमें प्रकट हुई। उसका शरीर तेजसे उद्दीप्त हो रहा था तथा वह सब आभरणोंसे विभूषित दिखायी देती थी। राक्षसयोनिसे छूटकर श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करनेके पश्चात् वह श्रीविष्णुलोको चली गयी।

ताड़काको मारकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजीने महात्मा लक्ष्मणके साथ विश्वामित्रके शुभ आश्रम में प्रवेश किया। उस समय समस्त मुनि बड़े प्रसन्न हुए। वे आगे बढ़कर श्रीरामचन्द्रजीको ले गये और उत्तम आसनपर बिठाकर सबने अर्घ्य आदिके द्वारा उनका पूजन किया। द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने विधिपूर्वक यज्ञकी दीक्षा ले मुनियोंके साथ उत्तम यज्ञ आरम्भ किया। उस महायज्ञका प्रारम्भ होते ही मारीच नामक राक्षस अपने भाई सुबाहुके साथ उसमें विघ्न डालनेके लिये उपस्थित हुआ। उन भयंकर राक्षसोंको देखकर विपक्षी वीरोंका संहार करनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने राक्षसराज सुबाहुको एक ही बाणसे मौतके घाट उतार दिया और महान् । नास्त्रका प्रयोग करके मारीच नामक निशाचरकोसमुद्रके तटपर इस प्रकार फेंक दिया, जैसे हवा सूखे पसेको उड़ा ले जाती है। श्रीरामचन्द्रजीके इस महान् पराक्रमको देखकर राक्षसश्रेष्ठ मारीचने हथियार फेंक दिया और एक महान् आश्रममें वह तपस्या करनेके लिये चला गया। महान् यज्ञके समाप्त होनेके बाद महातेजस्वी विश्वामित्रने प्रसन्नचित्तसे श्रीरघुनाथजीका पूजन किया। वे मस्तकपर काकपक्ष धारण किये हुए थे। उनके शरीरका वर्ण नील कमलदलके समान श्याम था तथा क्षेत्र कमलदलके समान विशाल थे। मुनिश्रेष्ठ कौशिकने उन्हें छातीसे लगाकर उनका मस्तक सूँघा और स्तवन किया।

इसी बीचमें मिथिलाके सम्राट् राजा जनकने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा वाजपेययज्ञ आरम्भ किया। विश्वामित्र आदि सब महर्षि उस यज्ञको देखनेके लिये गये। उनके साथ रघुकुलश्रेष्ठ श्रीराम और लक्ष्मण भी थे। मार्ग में महात्मा श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंका स्पर्श हो जानेसे बहुत बड़ी शिलाके रूपमें पड़ी हुई गौतमपत्नी अहल्या शुद्ध हो गयी। पूर्वकालमें वह अपने स्वामी गौतमके शापसे पत्थर हो गयी थी; किन्तु श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्पर्श होनेसे शुद्ध हो वह शुभ गतिको प्राप्त हुई तदनन्तर दोनों रघुकुमारोंके साथ मिथिला नगरीमें पहुँचकर सभी मुनिवरोंका मन प्रसन्न हो गया। महाबली राजा जनकने महान् सौभाग्यशाली महर्षियोंको आया देख आगे बढ़कर उन्हें प्रणाम और पूजन किया। कमलके समान विशाल नेत्रोंवाले, नील कमलदलके समान श्यामवर्ण, पीताम्बरधारी, कोमलांग, कोटि कन्दपक सौन्दर्यको मात करनेवाले, समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न तथा सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित रघुवंशनाथ श्रीरामचन्द्रजीको देखकर मिथिलानरेश जनकके मनमें बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने दशरथनन्दन श्रीरामको परमेश्वरका ही स्वरूप समझा और अपनेको धन्य मानते हुए उनका पूजन किया। राजाके मनमें श्रीरामचन्द्रजीको अपनी | कन्या देनेका विचार उत्पन्न हुआ। 'ये दोनों कुमार रघुकुलमें उत्पन्न हुए हैं।' इस प्रकार दोनों भाइयोंका परिचय पाकर राजाने उत्तम वस्त्र और आभूषणोंके द्वारा धर्मपूर्वक उनका सत्कार किया और मधुपर्क आदिकी विधिसे सम्पूर्ण महर्षियोंका भी पूजन किया। तत्पश्चात्यज्ञ समाप्त होनेपर कमलनयन श्रीरामने शंकरजीके दिव्य धनुषको भंग करके जनककिशोरी सीताको जीत लिया। उस पराक्रमरूपी महान् शुल्कसे अत्यन्त सन्तुष्ट होकर मिथिलानरेशने सीताको श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें देनेका निश्चय कर लिया।

तत्पश्चात् राजा जनकने महाराज दशरथके पास दूत भेजा। धर्मात्मा राजा दशरथ अपने दोनों पुत्र भरत और शत्रुघ्नको साथ लेकर वसिष्ठ, वामदेव आदि महर्षियों और सेनाके साथ मिथिलामें आये और जनकके सुन्दर भवनमें उन्होंने जनवासा किया। फिर शुभ समयमें मिथिलानरेशने श्रीरामका सीताके साथ और लक्ष्मणका उर्मिलाके साथ विवाह कर दिया। उनके भाई कुशध्वजके दो सुन्दरी कन्याएँ थीं, जो माण्डवी और श्रुतकीर्तिके नामसे प्रसिद्ध थीं। वे दोनों सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थीं। उनमेंसे माण्डवीके साथ भरतका और श्रुतकीर्तिके साथ शत्रुघ्नका विवाह किया। इस प्रकार वैवाहिक उत्सव समाप्त होनेपर महाबली राजा दशरथ मिथिलानरेशसे पूजित हो दहेजका सामान ले पुत्रों, पुत्रवधुओं, सेवकों, अश्व-गज आदि सैनिकों तथा नगर और प्रान्तके लोगोंके साथ अयोध्याको प्रस्थित हुए। मार्गमें महापराक्रमी तथा परम प्रतापी परशुरामजी मिले, जो हाथमें फरसा लेकर क्रोधमें भरे हुए सिंहकी भाँति खड़े थे। वे क्षत्रियोंके लिये कालरूप थे और श्रीरामचन्द्रजीके पास युद्धको इच्छासे आ रहे थे। रघुनाथजीको सामने पाकर परशुरामजीने इस प्रकार कहा - 'महाबाहु श्रीराम ! मेरी बात सुनो। मैं युद्धमें बहुत से महापराक्रमी राजाओंका वध करके ब्राह्मणोंको भूमिदान दे तपस्या करनेके लिये चला गया था किन्तु तुम्हारे वीर्य और बलकी ख्याति सुनकर यहाँ तुमसे युद्ध करनेके लिये आया हूँ। यद्यपि इक्ष्वाकुवंशके वे क्षत्रिय जो मेरे नानाके कुलमें उत्पन्न हुए हैं, मेरे वध्य नहीं हैं; तथापि किसी भी क्षत्रियका बल और पराक्रम सुनकर मेरे लिये उसका सहन करना असम्भव है; इसलिये उदार रघुवंशी वीर! तुम मुझे युद्धका अवसर दो। सुना है, तुमने शंकरजीके दुर्धर्षधनुषको तोड़ डाला है। यह वैष्णव धनुष भी उसीके समान शत्रुओंका संहार करनेवाला है। तुम अपने पराक्रमसे इसकी प्रत्यंचा चढ़ा दो तो मैं तुमसे हार मान लूँगा अथवा यदि मुझे देखकर तुम्हारे मनमें भय समा गया हो तो मुझ बलवान् के आगे अपने हथियार नीचे डाल दो और मेरी शरणमें आ जाओ।'

परशुरामजीके ऐसा कहनेपर परम प्रतापी श्रीरामचन्द्रजीने वह धनुष ले लिया। साथ ही उनसे अपनी वैष्णवी शक्तिको भी खींच लिया। शक्तिसे वियोग होते ही पराक्रमी परशुराम कर्मभ्रष्ट ब्राह्मणकी भाँति वीर्य और तेजसे हीन हो गये। उन्हें तेजोहीन देखकर समस्त क्षत्रिय साधु-साधु कहते हुए बारंबार श्रीरामचन्द्रजीकी सराहना करने लगे। रघुनाथजीने उस महान् धनुषको हाथमें लेकर अनायास ही उसकी प्रत्यंचा चढ़ा दी और बाणका सन्धान करके विस्मयमें पड़े हुए परशुरामजी से पूछा- 'ब्रह्मन् ! इस श्रेष्ठ बाणसे आपका कौन-सा कार्य करूँ? आपके दोनों लोकोंका नाश कर दूँ या आपके पुण्योंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोकका ही अन्त कर डालूँ ?'

उस भयंकर बाणको देखकर परशुरामजीको यह मालूम हो गया कि ये साक्षात् परमात्मा हैं। ऐसा जानकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने लोकरक्षक श्रीरघुनाथजीको नमस्कार करके अपने सौ यज्ञोंद्वारा उपार्जित स्वर्गलोक और अपने अस्त्र-शस्त्र उनकी सेवामें समर्पित कर दिये। तब महातेजस्वी रघुनाथजीने महामुनि परशुरामजीको प्रणाम किया तथा पाद्य, अर्घ्य और आचमनीय आदिके द्वारा उनकी विधिपूर्वक पूजा की। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा पूजित होकर महातपस्वी परशुरामजी भगवान् नर नारायणके रमणीय आश्रममें तपस्या करनेके लिये चले गये। तत्पश्चात् महाराज दशरथने पुत्रों और बहुओंके साथ उत्तम मुहूर्तमें अपनी पुरी अयोध्याके भीतर प्रवेश किया। श्रीराम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न चारों भाई अपनी-अपनी पत्नीके साथ प्रसन्नचित्त होकर रहने लगे। धर्मात्मा श्रीरघुनाथजीने सीताके साथ बारह वर्षों तक विहार किया।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार