शेषजी कहते हैं- अपनी राजधानीको देखकर भगवान् श्रीरामचन्द्रजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। इधर भरतने अपने मित्र एवं सचिव सुमुखको नागरिक उत्सवका प्रबन्ध करनेके लिये नगरके भीतर भेजा। भरतजी बोले-नगरके सब लोग शीघ्र ही श्रीरघुनाथजीके आगमनका उत्सव आरम्भ करें। घर घरमें सजावट की जाय, सड़कें झाड़-बुहारकर साफ की जायें और उनपर चन्दन-मिश्रित जलका छिड़काव करके उनके ऊपर फूल बिछा दिये जायें। हर एक घरके आँगनमें नाना प्रकारकी ध्वजाएँ फहरायी जायँ, प्रकाशका प्रबन्ध हो और सर्वतोभद्र आदि चित्र अंकित किये जायें। श्रीरामका आगमन सुनकर हर्षमें भरे हुए लोग मेरे कथनानुसार नगरकी शोभा बढ़ानेवाली भाँति भौतिकी रचना करें।शेषजी कहते हैं— भरतजीके ये वचन सुनकर मन्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ सुमुखने अयोध्यापुरीको अनेक प्रकारकी सजावट एवं तोरणोंसे सुशोभित करनेके लिये उसके भीतर प्रवेश किया। नगरमें जाकर उसने सब लोगों में श्रीरामके आगमन- महोत्सवकी घोषणा करा दी। लोगोंने जब सुना कि श्रीरघुनाथजी अयोध्यापुरीके निकट आ गये हैं, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ; क्योंकि वे पहले भगवान्के विरहसे दुःखी हो अपने सुखभोगका परित्याग कर चुके थे। वैदिक ज्ञानसे सम्पन्न पवित्र ब्राह्मण हाथोंमें कुश लिये धोती और चादरसे सुसज्जित हो श्रीरामचन्द्रजीके पास गये। जिन्होंने संग्राम भूमिमें अनेकों वीरोंपर विजय पायी थी, वे धनुष-बाण धारण करनेवाले श्रेष्ठ और सूरमा क्षत्रिय भी उनके समीप गये। धन-धान्यसे समृद्ध वैश्य भी सुन्दर वस्त्र पहनकरमहाराज श्रीरामके निकट उपस्थित हुए। उस समय उनके हाथ सोनेकी मुद्राओंसे सुशोभित हो रहे थे तथा शुद्र, जो ब्राह्मणोंके भक्त, अपने जातीय आचारमें हपूर्वक स्थित और धर्म-कर्मका फलन करनेवाले। अपुरी स्वामी श्रीरामचन्द्रजीके पास गये। व्यवसायी लोग जो अपने-अपने कर्ममें स्थित थे, वे सब भी भेंट देनेके लिये अपनी-अपनी वस्तु लेकर महाराज श्रीरामके समीप गये। इस प्रकार राजा भरतका संदेश पाकर आनन्दकी बागे दुबे हुए पुरवासीनाना प्रकारके कौतुकर्मि प्रवृत्त होकर अपने महाराजके विकट आये। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने भी अपने-अपने विमानपर बैठे हुए सम्पूर्ण देवताओंसे घिरकर मनोहर रचनासे सुशोभित अयोध्यापुरीमें प्रवेश किया। आकाशमार्गसे विचरण करनेवाले वानर भी उछलते-कूदते हुए श्रीरघुनाथजीके पीछे-पीछे उस उत्तम नगरमें गये। उस समय उन सबकी पृथक् पृथक् शोभा हो रही थी। कुछ दूर जाकर श्रीरामचन्द्रजी पुष्पक विमानसे उतर गये और शीघ्र ही श्रीसीताके साथ पालकीपर सवार हुए; उस समय वे अपने सहायक परिवारद्वारा चारों ओरसे घिरे हुए थे। जोर-जोरसे बजाये जाते हुए वीणा, पणव और भेरी आदि बाजोंके द्वारा उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। सूत, मागध और वन्दीजन उनकी स्तुति कर रहे थे; सब लोग कहते थे ' रघुनन्दन। आपकी जय हो, सूर्यकुलभूषण श्रीराम! आपकी जय हो, देव ! दशरथ नन्दन ! आपकी जय हो, जगत्के स्वामी श्रीरघुनाथजी! आपकी जय हो।' इस प्रकार हर्षमें भरे पुरवासियोंकी कल्याणमयी बातें भगवान्को सुनायी दे रही थीं। उनके दर्शनसे सब लोगोंके शरीरमें रोमांच हो आया था, जिससे वे बड़ी शोभा पा रहे थे। क्रमशः आगे बढ़कर भगवान्को सवारी गली और चौराहोंसे सुशोभित नगरके प्रधान मार्गपर जा पहुँची, जहाँ चन्दन-मिश्रित जलका छिड़काव हुआ था और सुन्दर फूल तथा पल्लव बिछे थे। उस समय नगरकी कुछ स्त्रियाँ खिड़कीके सामने की छज्जोंका सहारा लेकर भगवान्की मनोहर छवि निहारती हुई आपसमें कहने लगींपुरवासिनी स्त्रियाँ बोलीं-सखियो ! वनवासिनी भीलोंकी कन्याएँ भी धन्य हो गयीं, जिन्होंने अपने नीलकमलके समान लोचनोंद्वारा श्रीरामचन्द्रजीके मुखारविन्दका मकरन्द पान किया है। अपने सौभाग्यसे इन कन्याओंने महान् अभ्युदय प्राप्त किया है। अरी! वीरोचित तेजसे युक्त श्रीरघुनाथजीके मुखकी ओर तो देखो, जो कमलकी सुषमाको लज्जित करनेवाले सुन्दर नेत्रोंसे सुशोभित हो रहा है; उसे देखकर धन्य हो जाओगी। अहो ! ब्रह्मा आदि देवता भी जिनका दर्शन नहीं कर पाते, वे ही आज हमारी आँखोंके सामने हैं। अवश्य ही हमलोग अत्यन्त बड़भागिनी हैं। देखो, इनके मुखपर कैसी सुन्दर मुसकान है, मस्तकपर किरीट शोभा पा रहा है; ये लाल-लाल ओठ बन्धूक पुष्पकी अरुण प्रभाको अपनी शोभासे तिरस्कृत कर रहे हैं तथा इनकी ऊँची नासिका मनोहर जान पड़ती है। इस प्रकार अधिक प्रेमके कारण उपर्युक्त बातें कहनेवाली अवधपुरीकी रमणियाँ भगवान्के दर्शनकर प्रसन्न होने लगीं। तदनन्तर जिनका प्रेम बहुत बढ़ा हुआ था, उन पुरवासी मनुष्योंको अपने दृष्टिपातसे संतुष्टकरके सम्पूर्ण जगत्को मर्यादाका पाठ पढ़नेवाले श्रीरघुनाथजीने माताके भवनमें जानेका विचार किया। वे राजाओंके राजा तथा अच्छी नीतिका पालन करनेवाले थे अतः पालकीपर बैठे हुए ही सबसे पहले अपनी माता कैकेयीके घरमें गये। कैकेयी लज्जाके भारसे दबी हुई थी, अतः श्रीरामचन्द्रजीको सामने देखकर भी वह कुछ न बोली। बारंबार गहरी चिन्तामें डूबने लगी। सूर्यवंशकी पताका फहरानेवाले श्रीरामने माताको लज्जित देखकर उसे विनययुक्त वचनोंद्वारा सान्त्वना देते हुए कहा।
श्रीराम बोले- माँ! मैंने वनमें जाकर तुम्हारी आज्ञाका पूर्णरूपसे पालन किया है। अब बताओ, तुम्हारी आज्ञासे इस समय कौन-सा कार्य करूँ ? श्रीरामकी यह बात सुनकर भी कैकेयी अपने मुँहको ऊपर न उठा सकी, वह धीरे-धीरे बोली "बेटा राम ! तुम निष्पाप हो। अब तुम अपने महलमें जाओ।' माताका यह वचन सुनकर कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीने भी उन्हें नमस्कार किया और वहाँसे सुमित्राके भवनमें गये। सुमित्राका हृदय बड़ा उदार था, उन्होंने अपने पुत्र लक्ष्मणसहित श्रीरामचन्द्रजीको उपस्थित देख आशीर्वाद देते हुए कहा- 'बेटा! तुम चिरजीवी हो।' श्रीरामचन्द्रजीने भी माता सुमित्राके चरणोंमें प्रणाम करके बारंबार प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- 'माँ ! लक्ष्मण जैसे पुत्ररत्नको जन्म देनेके कारण तुम रत्नगर्भा हो; बुद्धिमान् लक्ष्मणने जिस प्रकार हमारी सेवा की है, जिस तरह इन्होंने मेरे कष्टोंका निवारण किया है वैसा कार्य और किसीने कभी नहीं किया। रावणने सीताको हर लिया। उसके बाद मैंने पुनः जो इन्हें प्राप्त किया है, वह सब तुम लक्ष्मणका ही पराक्रम समझो।' याँ कहकर तथा सुमित्राके दिये हुए आशीर्वादको शिरोधार्य करके वे देवताओंके साथ अपनी माता कौसल्याके महलमे गये। माताको अपने दर्शनके लिये उत्कण्ठित तथा हर्षमग्न देख भगवान् श्रीराम तुरंत ही पालकीसे उतर पड़े और निकट पहुँचकर उन्होंने माताके चरणोंको पकड़ लिया। माता कौसल्याका हृदय बेटेका मुँह देखनेके लियेउत्कण्ठासे विह्वल हो रहा था; उन्होंने अपने रामको बारंबार छातीसे लगाया और बहुत प्रसन्न हुई। उनके
शरीरमें रोमांच हो आया, वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आनन्दके आँसू प्रवाहित होकर चरणोंको भिगोने लगे। विनयशील श्रीरघुनाथजीने देखा कि 'माता अत्यन्त दुर्बल हो गयी है। मुझे देखकर ही इन्हें कुछ-कुछ हर्ष हुआ है।' उनकी इस अवस्थापर दृष्टिपात करके उन्होंने कहा ।
श्रीराम बोले- मैंने बहुत दिनोंतक तुम्हारे चरणोंकी सेवा नहीं की है, निश्चय ही मैं बड़ा भाग्यहीन हूँ; तुम मेरे इस अपराधको क्षमा करना। जो पुत्र अपने माता-पिताकी सेवाके लिये उत्सुक नहीं रहते, उन्हें रज-वीर्यसे उत्पन्न हुआ कीड़ा ही समझना चाहिये क्या करूँ, पिताजीकी आज्ञा में दण्डकारण्यमें चला गया था। वहाँसे रावण सीताको हरकर लंका में ले गया था; किन्तु तुम्हारी कृपासे उस राक्षसराजको मारकर मैंने पुनः इन्हें प्राप्त किया है। ये पतिव्रता सीता भी तुम्हारे चरणोंमें पड़ी हैं, इनका चित्त सदा तुम्हारे इन चरणोंमें ही लगा रहता है।श्रीरामचन्द्रजीकी बात सुनकर माता कौसल्याने अपने पैरोंपर पड़ी हुई पतिव्रता बहू सीताको आशीर्वाद देते हुए कहा - ' मानिनी सीते! तुम चिरकालतक अपने पतिकी जीवन संगिनी बनी रहो। मेरी पवित्र स्वभाव वाली बहू! तुम दो पुत्रोंकी जननी होकर अपने इस कुलको पवित्र करो। बेटी ! दुःख-सुखमें पतिका साथ देनेवाली तुम्हारी जैसी पतिव्रता स्त्रियाँ तीनों लोकोंमें कहीं भी दुःखकी भागिनी नहीं होतीं - यह सर्वथा सत्य है। विदेहकुमारी! तुमने महात्मा रामके चरणकमलोंका अनुसरण करके अपने ही द्वारा अपने कुलको पवित्र कर दिया।' सुन्दर नेत्रोंवाली श्रीरघुनाथपत्नी सीतासे यों कहकर माता कौसल्या चुप हो गयीं। हर्षके कारण पुनः उनका सर्वांग पुलकित हो गया ।
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीके भाई भरतने उन्हें पिताजीका दिया हुआ अपना महान् राज्य निवेदन कर दिया। इससे मन्त्रियोंको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने मन्त्रके जाननेवाले ज्योतिषियोंको बुलाकर राज्याभिषेकका मुहूर्त पूछा और उद्योग करके उनके बताये हुए उत्तम नक्षत्रसे युक्त अच्छे दिनको शुभ मुहूर्तमेंबड़े हर्षके साथ राजा श्रीरामचन्द्रजीका अभिषेक कराया। सुन्दर व्याघ्रचर्मके ऊपर सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका नकशा बनाकर राजाधिराज महाराज श्रीराम उसपर विराजमान हुए। उसी दिनसे साधु पुरुषोंके हृदयमें आनन्द छा गया। सभी स्त्रियाँ पतिके प्रति भक्ति रखती हुई पतिव्रत धर्मके पालनमें संलग्न हो गयीं। संसारके मनुष्य कभी मनसे भी पापका आचरण नहीं करते थे। देवता, दैत्य, नाग, यक्ष, असुर तथा बड़े बड़े सर्प- ये सभी न्यायमार्गपर स्थित होकर श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञाको शिरोधार्य करने लगे। सभी परोपकारमें लगे रहते थे। सबको अपने धर्मके अनुष्ठानमें ही सुख और संतोषकी प्राप्ति होती थी। विद्यासे ही सबका विनोद होता था। दिन-रात शुभ कर्मोंपर ही सबकी दृष्टि रहती थी। श्रीरामके राज्यमें चोरोंकी तो कहीं चर्चा ही नहीं थी। जोरसे चलनेवाली हवा भी राह चलते हुए पथिकोंके सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्त्रको भी नहीं उड़ाती थी। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजीका स्वभाव बड़ा दयालु था। वे याचकोंके लिये कुबेर थे।