भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मर्षे ! श्रीरामचन्द्रजीने कान्यकुब्ज देशमें भगवान् श्रीवामनको प्रतिष्ठा किस प्रकार की, उन्हें श्रीवामनजीका विग्रह कहाँ प्राप्त हुआ- इन सब बातोंका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये। भगवन्! श्रीरामचन्द्रजीके कीर्तनसे सम्बन्ध रखनेवाली कथा बड़ी ही मधुर, पावन तथा मनोरम होती है। आपने जो यह कथा सुनायी है, उससे मेरे हृदय और कानको बड़ा सुख मिला है। सारा संसार भगवान् श्रीरामको प्रेम और अनुरागसे देखता है; वे बड़े ही धर्मज्ञ थे। वे जब पृथ्वीका राज्य करते थे, उस समय सभी वृक्ष फल और रससे भरे रहते थे। पृथ्वी बिना जोते ही अन्न देती थी। उन महात्माका इस भूमण्डलपर कोई शत्रु नहीं था। अतः मुनिवर ! मैं उन भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का सारा चरित्र सुनना चाहता हूँ।
पुलस्त्यजी बोले- महाराज! धर्मके मार्गपर स्थित रहनेवाले श्रीरामचन्द्रजीने कुछ कालके पश्चात् जो महत्त्वपूर्ण कार्य किया, उसे एकाग्र मनसे सुनो। एक दिन श्रीरघुनाथजी मन-ही-मन इस बातका विचार करने लगे कि 'राक्षस कुलोत्पन्न राजा विभीषण लंकामें रहकर सदा ही राज्य करते रहें-उसमें किसी प्रकारकी विघ्न-बाधा न पड़े, इसके लिये क्या उपाय हो सकता है। मुझे चलकर उन्हें हितकी बात बतानी चाहिये, जिससे उनका राज्य सदा कायम रहे।' अमित तेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार विचार कर रहे थे, उसी समय भरतजी वहाँ आये और श्रीरामको विचारमग्न देख र्यो बोले- 'देव! आप क्या सोच रहे हैं? यदि कोई गुप्त बात न हो तो मुझे बतानेकी कृपा 'करें। श्रीरघुनाथजीने कहा- 'मेरी कोई भी बात तुमसे छिपानेयोग्य नहीं है। तुम और महायशस्वीलक्ष्मण मेरे बाहरी प्राण हो। मेरे मनमें इस समय सबसे बड़ी चिन्ता यह है कि विभीषण देवताओंके साथ कैसा बर्ताव करते हैं; क्योंकि देवताओंके हितके लिये ही मैंने रावणका वध किया था। इसलिये वत्स! जहाँ विभीषण हैं, वहाँ मैं जाना चाहता हूँ। लंकापुरीको देखकर राक्षसराजको उनके कर्तव्यका उपदेश करूँगा।'
भगवान् श्रीरामके ऐसा कहनेपर हाथ जोड़कर खड़े हुए भरतने कहा- 'मैं भी आपके साथ 'चलूँगा।' श्रीरघुनाथजी बोले-'महाबाहो ! अवश्य चलो।' फिर वे लक्ष्मणसे बोले- 'वीर! तुम नगरमें रहकर हम दोनोंके लौटनेतक इसकी रक्षा करना।' लक्ष्मणको इस प्रकार आदेश देकर कौसल्याका आनन्द बढ़ानेवाले श्रीरामचन्द्रजीने पुष्पक विमानका स्मरण किया।विमानके आ जानेपर वे दोनों भाई उसपर आरूढ़ हुए। सबसे पहले वह विमान गान्धार देशमें गया, वहाँ भगवान्ने भरतके दोनों पुत्रोंसे मिलकर उनकी राजनीतिका निरीक्षण किया। इसके बाद पूर्व दिशामें जाकर वे लक्ष्मण पुत्र मिले। उनके नगरोंमें राते व्यतीत | करके दोनों भाई राम और भरत दक्षिण दिशाकी ओर गंगा-यमुनाके संगम स्थान प्रयाग में जाकर महर्षि भरद्वाजको प्रणाम करके वे अत्रिमुनिके आश्रमपर ये यहाँ अत्रिमुनिसे बातचीत करके दोनों भाइयोंने स्थानकी यात्रा की [जनस्थानमें प्रवेश करते हुए] श्रीरामचन्द्रजी बोले-" भरत! यही वह स्थान है, जहाँ दुरात्मा रावणने गृधराज जटायुको मारकर सीताका हरण किया था। जटायु हमारे पिताजीके मित्र थे। इस स्थानपर हमलोगोंका दुष्ट बुद्धिवाले कबन्धके साथ महान् युद्ध हुआ था। कबन्धको मारकर हमने उसे आगमें जला दिया था। मरते समय उसने बताया कि सीता रावणके घरमें हैं। उसने यह भी कहा कि 'आप यमूक पर्वतपर जाइये। वहाँ सुग्रीव नामके वानर रहते हैं, वे आपके साथ मित्रता करेंगे।' यही वह पम्पा सरोवर है. जहाँ शबरी नामकी तपस्विनी रहती थी। यही वह स्थान है, जहाँ सुग्रीवके लिये मैंने वालिको मारा था वीर 'वालिको राजधानी किष्किन्धापुरी यह दिखायी दे रही है। इसीमें धर्मात्मा वानरराज सुग्रीव अन्यान्य वानरोंके साथ निवास करते हैं।' सुग्रीव उस समय अपने सभा भवनमें विराजमान थे। इतनेमें ही भरत और श्रीरामचन्द्रजी किष्किन्धापुरीमें जा पहुँचे। उन दोनों भाइयोंको उपस्थित देख सुग्रीवने उनके चरणोंमें प्रणाम किया। फिर उन दोनों भाइयोंको सिंहासनपर बिठाकर सुग्रीवने अर्घ्य निवेदन किया और साथ ही अपने-आपको भी उनके चरणोंमें अर्पित कर दिया। इस प्रकार जब परम धर्मात्मा श्रीरघुनाथजी सभामें विराजमान हुए तब अंगद, हनुमान्, नल, नील, पाटल और ऋक्षराज जाम्बवान् आदि सभी वानर-वीर सेनाओं सहित वहाँ आये। अन्तःपुरकी सभी सिरमा और तारा आदि भी उपस्थित हुई। । अनुपम आनन्द प्राप्त हुआ। सब लोग भगवान्कोसाधुवाद देने लगे और सबने भगवान्का दर्शन करके प्रेमाश्रुओंसे गद्गद हो उन्हें प्रणाम किया।"
सुग्रीव बोले- महाराज आप दोनोंने किस कार्यसे यहाँ पधारनेकी कृपा की है, यह शीघ्र बताइये। सुग्रीवके इस प्रकार पूछनेपर श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे भरतने लंकायात्राकी बात बतायी। तब सुग्रीवने कहा-'मैं भी आप दोनोंके साथ राक्षसराज विभीषणसे मिलनेके लिये लंकापुरीमें चलूँगा।' सुग्रीवके ऐसा कहनेपर श्रीरघुनाथजीने कहा- 'चलो।' फिर सुग्रीव, श्रीराम और भरत ये तीनों पुष्पक विमानपर बैठे। तुरंत ही वह विमान समुद्रके उत्तर- तटपर जा पहुँचा। उस समय श्रीरामने भरतसे कहा- 'यही वह स्थान है, जहाँ राक्षसराज विभीषण अपने चार मन्त्रियोंको साथ लेकर प्राण बचानेके लिये मेरे पास आये थे उसी समय लक्ष्मणने लंकाके राज्यपर उनका अभिषेक किया था। यहाँ मैं समुद्रके इस पार तीन दिनतक इस आशासे ठहरा रहा कि यह मुझे दर्शन देगा और [सगरका पुत्र होनेके नाते ] अपना कुटुम्बी समझकर मेरा कार्य करेगा। किन्तु तबतक इसने मुझे दर्शन नहीं दिया। यह देखकर चौथे दिन मैंने बड़े वेगसे धनुष चढ़ाकर हाथमें दिव्यास्त्र लेलिया। यह देख समुद्रको बड़ा भय हुआ और वह शरणार्थी होकर लक्ष्मणके पास पहुँचा। सुग्रीवने भी बहुत अनुनय-विनय की और कहा-'प्रभो! इसे क्षमा कर दीजिये।' तब मैंने वह बाण मरुदेशमें फेंक दिया। इसके बाद समुद्रने मुझसे कहा- 'रघुनन्दन ! आप मेरे ऊपर पुल बाँधकर जलराशिसे पूर्ण महासागरके पार चले जाइये।' तब मैंने वरुणके निवास स्थान समुद्रपर यह महान् पुल बाँधा था। श्रेष्ठ वानरोंने मिलकर तीन ही दिनोंमें यह कार्य पूरा किया था। पहले दिन उन्होंने चौदह योजनतक पुल बाँधा, दूसरे दिन छत्तीस योजनतक और तीसरे दिन सौ योजनतकका पूरा पुल तैयार कर दिया। देखो, यह लंका दिखायी दे रही है। इसका परकोटा और नगरद्वार- सब सोनेके बने हुए हैं। यहाँ वानरवीरोंने बहुत बड़ा घेरा डाला था। यहाँ नीलने राक्षसश्रेष्ठ प्रहस्तका वध किया था। इसी स्थानपर हनुमानजीने धूम्राक्षको मार गिराया था। यहीं सुग्रीवने महोदर और अतिकायको मौतके घाट उतारा था। इसी स्थानपर मैंने कुम्भकर्णको और लक्ष्मणने इन्द्रजितको मारा था तथा यहीं मैंने राक्षसराज दशग्रीवका वध किया था। यहाँ लोकपितामह ब्रह्माजी मुझसे वार्तालाप करनेके लिये पधारे थे। उनके साथ पार्वतीसहित त्रिशूलधारी भगवान् शंकर भी थे हमारे पिता महाराज दशरथ भी स्वर्गलोकसे यहाँ पधारे थे। जानकीको शुद्धि चाहनेवाले उन सभी लोगोंके समक्ष सीताने इस स्थानपर अग्निमें प्रवेश किया था और वे सर्वथा शुद्ध प्रमाणित हुई थीं। लंकापुरीके अधिष्ठाता देवताओंने भी सीताकी अग्नि परीक्षा देखी थी पिताजीकी आजा मैंने सीताको स्वीकार किया। उसके बाद महाराजने मुझसे कहा- बेटा! अब अयोध्याको जाओ।"
श्रीरामचन्द्रजी जब इस प्रकार बात कर रहे थे, पुष्पक विमान वहीं ठहरा रहा। उसी समय प्रधान-प्रधान राक्षसोंने, जो वहाँ उपस्थित थे, तुरंत ही विभीषणके पास जा बड़े हर्षमें भरकर निवेदन किया-'राक्षसराज सुग्रीवके साथ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं, उनके साथ उन्हीं की-सी आकृतिवाले एक दूसरे पुरुष भी हैं।'श्रीरामचन्द्रजी नगरके समीप आ गये हैं, यह समाचार सुनकर विभीषणने [प्रियं संवाद सुनानेवाले] उन दूतका विशेष सत्कार किया तथा उन्हें धन देकर उनके सभी मनोरथ पूर्ण किये। फिर लंकापुरीको सजानेकी आज्ञा देकर वे मन्त्रियोंके साथ बाहर निकले। मेरु पर्वतपर उदित हुए सूर्यकी भाँति भगवान् श्रीरामको विमानपर बैठे देख विभीषणने उन्हें साष्टांग प्रणाम किया और कहा-'भगवन्! आज मेरा जन्म सफल हुआ, मेरे सभी मनोरथ पूर्ण हो गये; क्योंकि आज मुझे आपके विश्व वन्द्य चरणोंका दर्शन मिला है।' इस प्रकार श्रीरघुनाथजीका अभिवादन करके वे भरत और सुग्रीवसे भी गले लगकर मिले। तदनन्तर उन्होंने स्वर्गसे भी बढ़कर सुशोभित लंकापुरीमें सबको प्रवेश कराया और सब प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित रावणके जगमगाते हुए भवनमें उन्हें ठहराया। जब श्रीरामचन्द्रजी आसनपर विराजमान हो गये, तब विभीषणने अयं निवेदन करके हाथ जोड़कर सुग्रीव और भरतसे कहा- 'यहाँ पधारे हुए भगवान् श्रीरामको भेंट करनेयोग्य कोई वस्तु मेरे पास नहीं है। यह लंकापुरी तो स्वयं भगवान्ने ही त्रिलोकीके लिये कष्टकरूप पापी शत्रुको मारकर मुझेप्रदान की है। यह पुरी ही नहीं, ये स्त्रियाँ, वे पुत्र तथा स्वयं मैं - यह सब कुछ भगवान्की सेवामें अर्पित है। भगवन्! आपको नमस्कार है; आप इसे स्वीकार करें।'
तदनन्तर राजा विभीषणका मन्त्रिमण्डल और लंकाके निवासी श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनके लिये उत्सुक हो यहाँ आये और विभीषणसे बोले-'प्रभो! हमें श्रीरामजीका दर्शन करा दीजिये।' विभीषणने महाराज श्रीरामचन्द्रजीसे उनका परिचय कराया और श्रीरामकी आज्ञासे भरतने उन राक्षस पतियोंके द्वारा भेंटमें दिये हुए धन और रत्नराशिको ग्रहण किया। इस प्रकार राक्षसराजके भवनमें श्रीरघुनाथजीने तीन दिनतक निवास किया। चौथे दिन जब श्रीरामचन्द्रजी राजसभामें विराजमान थे, राजमाता कैकसीने विभीषणसे कहा-'बेटा! मैं भी अपनी बहुओंके साथ चलकर श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करूँगी, तुम उन्हें सूचना दे दो ये महाभाग श्रीरघुनाथजी चार मूर्तियोंमें प्रकट हुए सनातन भगवान् श्रीविष्णु हैं तथा परम सौभाग्यवती सीता साक्षात् लक्ष्मी हैं। तुम्हारा बड़ा भाई उनके स्वरूपको नहीं पहचान पाया था। तुम्हारे पिताने देवताओंके सामने पहले ही कह दिया था कि भगवान् श्रीविष्णु रघुकुलमें राजा दशरथके पुत्ररूपसे अवतार लेंगे। वे ही दशग्रीव रावणका विनाश करेंगे।'
विभीषण बोले- माँ तुम श्रीरघुनाथजीके समीप अवश्य जाओ। मैं पहले जाकर उन्हें सूचना देता हूँ। यों कहकर विभीषण जहाँ श्रीरामचन्द्रजी थे, वहाँ गये और वहाँ भगवान्का दर्शन करनेके लिये आये हुए सब लोगोंको विदा करके उन्होंने सभाभवनको सर्वथा एकान्त बना दिया। फिर श्रीरामके सम्मुख खड़े होकर कहा- 'महाराज! मेरा निवेदन सुनिये रावणको, कुम्भकर्णको तथा मुझको जन्म देनेवाली मेरी माता कैकसी आपके चरणोंका दर्शन चाहती है; आप कृपा करके उसे दर्शन दें।'
श्रीरामने कहा- 'राक्षसराज! [तुम्हारी माता मेरी भी माता ही हैं,] मैं माताका दर्शन करनेकी इच्छासे स्वयं ही उनके पास चलूँगा। तुम शीघ्र मेरे आगे-आगे चलो।'ऐसा कहकर वे सिंहासनसे उठे और चल पड़े। कैकसीके पास पहुँचकर उन्होंने मस्तकपर अंजलि बाँध उसे प्रणाम करते हुए कहा-'देवि मैं आपको प्रणाम करता है। [मित्रकी माता होनेके नाते] आप धर्मतः मेरी माता हैं। जैसे कौसल्या मेरी माता हैं, उसी प्रकार आप भी हैं।'
कैकसी बोली- वत्स तुम्हारी जय हो, तुम चिरकालतक जीवित रहो। वीर! मेरे पतिने कहा था कि 'भगवान् श्रीविष्णु देवताओंका हित करनेके लिये रघुकुलमें मनुष्य रूपसे अवतार लेंगे। वे रावणका विनाश करके विभीषणको राज्य प्रदान करेंगे। वे दशरथनन्दन श्रीराम बालिका वध और समुद्रपर पुल बाँधने आदिका कार्य भी करेंगे!' इस समय स्वामीके वचनोंका स्मरण करके मैंने तुम्हें पहचान लिया। सीता लक्ष्मी हैं, तुम श्रीविष्णु हो और वानर देवता हैं। अच्छा, बेटा! तुम्हें अमर यश प्राप्त हो।
[विभीषणकी पत्नी] सरमाने कहा- भगवन्। "यहीं अशोक वाटिकामें आपकी प्रिया श्रीजानकी देवीकी मैंने पूरे एक वर्षतक सेवा की थी, वे मेरी सेवासे यहाँ सुखपूर्वक रही हैं। परंतप में प्रतिदिन श्रीसीताके चरणोंका स्मरण करती हूँ रात दिन यही सोचती रहतीहूँ कि कब उनका दर्शन होगा। आप श्रीजनकनन्दिनीको अपने साथ ही यहाँ क्यों नहीं लेते आये ? उनके बिना अकेले आपकी शोभा नहीं हो रही है। आपके निकट सीता शोभा पाती हैं और सीताके समीप आप जब सरमा इस प्रकार बात कर रही थी, उस समय भरत मन ही मन सोचने लगे-'यह कौन स्त्री है जो श्रीरघुनाथजीसे वार्तालाप कर रही है?' श्रीरामचन्द्रजी भरतका अभिप्राय ताड़ गये, वे तुरंत ही बोले - 'ये विभीषणकी पत्नी हैं, इनका नाम सरमा है। ये सीताकी प्रिय सखी हैं। वे इन्हें बहुत मानती हैं।' इतना कहकर वे सरमासे बोले-'कल्याणी! अब तुम भी जाओ और पतिके गृहकी रक्षा करो।' इस प्रकार सीताकी प्यारी सखी सरमाको विदा करके श्रीरामने विभीषणसे कहा 'निष्पाप विभीषण! तुम सदा देवताओंका प्रिय कार्य करना, कभी उनका अपराध न करना, तुम्हें देवराजके आज्ञानुसार ही चलना चाहिये। यदि लंकामें किसी तरह कोई मनुष्य चला आये तो राक्षसोंको उसका वध नहीं करना चाहिये, वरं मेरी ही भाँति उसका स्वागत सत्कार करना चाहिये।'
विभीषणने कहा— नरश्रेष्ठ! आपकी आज्ञाके अनुसार ही मैं सारा कार्य करूँगा।' विभीषण जब इस प्रकार कह रहे थे, उसी समय वायुदेवताने आकर श्रीरामसे कहा— 'महाभाग ! यहाँ भगवान् श्रीविष्णुकी वामनमूर्ति है, जिसने पूर्वकालमें राजा बलिको बाँधा था। आप उसे ले जायँ और कान्यकुब्ज देशमें स्थापित कर दें।' वायुदेवताके प्रस्तावमें श्रीरामचन्द्रजीकी सम्मति जान विभीषण श्रीवामनभगवान्के विग्रहको सब प्रकारके रत्नोंसे विभूषित किया और लाकर भगवान् श्रीरामको समर्पित कर दिया। फिर उन्होंने इस प्रकार कहा - 'रघुनन्दन! जिस समय मेघनादने इन्द्रको परास्त किया था, उस समय विजय चिह्नके रूपमें वह इस वामनमूर्तिको (इन्द्रलोकसे] उठा लाया था देवदेव अब आप इन भगवान्को ले जाइये और यथास्थान इन्हें स्थापित कीजिये।'
'तथास्तु' कहकर श्रीरघुनाथजी पुष्पक विमानपर आरूढ हुए। उनके पीछे असंख्य धन, रत्न और देवश्रेष्ठवामनजीको लेकर सुग्रीव और भरत भी विमानपर चढ़े। आकाशमें जाते समय श्रीरामने विभीषणसे कहा 'तुम यहीं रहो।' यह सुनकर विभीषणने श्रीरामचन्द्रजीसे कहा - 'प्रभो! आपने मुझे जो-जो आज्ञाएँ दी हैं, उन सबका मैं पालन करूँगा। परन्तु महाराज! इस सेतुके मार्गसे पृथ्वीके समस्त मानव यहाँ आकर मुझे सतायेंगे। ऐसी परिस्थितिमें मुझे क्या करना चाहिये ?' विभीषणकी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने हाथमें धनुष ले सेतुके दो टुकड़े कर दिये। फिर तीन विभाग करके बीचका दस योजन उड़ा दिया। उसके बाद एक स्थानपर एक योजन और तोड़ दिया। तदनन्तर वेलावन (वर्तमान रामेश्वरक्षेत्र) में पहुँचकर श्रीरामचन्द्रजीने श्रीरामेश्वरके नामसे देवाधिदेव महादेवजीकी स्थापना की तथा उनका विधिवत् पूजन किया।
भगवान् रुद्र बोले – रघुनन्दन। मैं इस समय यहाँ साक्षात् रूपसे विराजमान हूँ। जबतक यह संसार, यह पृथ्वी और यह आपका सेतु कायम रहेगा, तबतक मैं भी यहाँ स्थिरतपूर्वक निवास करूँगा। श्रीरामने कहा- भक्तको अभय करनेवाले देवदेवेश्वर! आपको नमस्कार है-दक्ष यज्ञकाविध्वंस करनेवाले गौरीपते! आपको नमस्कार है। आप ही शर्व, रुद्र, भवरे और वरद आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। आपको नमस्कार है। आप पशुओं (जीवों)-के स्वामी, नित्य उग्रस्वरूप तथा जटाजूट धारण करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है। आप ही महादेव, भीम' और त्र्यम्बक ( त्रिनेत्रधारी) कहलाते हैं, आपको नमस्कार है। प्रजापालक, सबके ईश्वर, भग देवताके नेत्र फोड़नेवाले तथा अन्धकासुरका वध करनेवाले भी आप ही हैं; आपको नमस्कार है। आप नीलकण्ठ, भीम, वेधा (विधाता), ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत, कुमार कार्तिकेयके शत्रुका विनाश करनेवाले, कुमारको जन्म देनेवाले, विलोहित 6, धूम्र 7, शिव8', क्रथन, नीलशिखण्ड -10 शूली (त्रिशूलधारी), दिव्यशायी, 11 उग्र और त्रिनेत्र आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। सोना और धन आपका वीर्य है। आपका स्वरूप किसीके चिन्तनमें नहीं आ सकता। आप देवी पार्वतीके स्वामी हैं। सम्पूर्ण देवता आपकी स्तुति करते हैं। आप शरण लेनेयोग्य, कामना करने योग्य और सद्योजात 12 नामसे प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है। आपकी ध्वजामें वृषभका चिह्न है। आप मुण्डित भी हैं और जटाधारी भी। आप ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करनेवाले, तपस्वी, शान्त, ब्राह्मणभक्त, जयस्वरूप,विश्वके आत्मा, संसारकी सृष्टि करनेवाले तथा सम्पूर्ण विश्वको व्याप्त करके स्थित हैं; आपको नमस्कार है। आप दिव्यस्वरूप, शरणागतका कष्ट दूर करनेवाले, भक्तोंपर सदा ही दया रखनेवाले तथा विश्वके तेज और मनमें व्याप्त रहनेवाले हैं; आपको बारम्बार नमस्कार है । ll 13 ll
पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार स्तुति करनेपर देवाधिदेव महादेवजीने अपने सामने खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीसे कहा—'रघुनन्दन ! आपका कल्याण हो । कमलनयन परमेश्वर ! आप देवताओंके भी आराध्य देव और सनातन पुरुष हैं। नररूपमें छिपे हुए साक्षात् नारायण हैं। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये ही आपने अवतार ग्रहण किया था, सो अब इस अवतारका सारा कार्य आपने पूर्ण कर दिया है। आपके बनाये हुए मेरे इस स्थानपर समुद्रके समीप आकर जो मनुष्य मेरा दर्शन करेंगे, वे यदि महापापी होंगे तो भी उनके सारे पाप नष्ट हो जायँगे। ब्रह्महत्या आदि जो कोई भी घोर पाप हैं, वे मेरे दर्शनमात्रसे नष्ट हो जाते हैं, इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है । 14 अच्छा, अब आप जाइये और गंगाजीके तटपर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना कीजिये । पृथ्वीके आठ भाग करके [उन्हेंपुत्रोंको सौंप दीजिये और स्वयं] अपने परम धामको पधारिये। भगवन्! आपको नमस्कार है।"
तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी भगवान् शंकरको प्रणाम करके वहाँसे चल दिये। ऊपर-ही-ऊपर जब वे पुष्कर तीर्थके सामने पहुँचे तो उनके विमानकी गति रुक गयी। अब वह आगे नहीं बढ़ पाता था। तब श्रीरामचन्द्रजीने कहा-'सुग्रीव! इस निराधार आकाशमें स्थित होकर भी यह विमान कैसे आबद्ध हो गया है?' इसका कुछ कारण अवश्य होगा, तुम नीचे जाकर पता लगाओ।' श्रीरघुनाथजीके आज्ञानुसार सुग्रीव विमानसे उतरकर जब पृथ्वीपर आये तो क्या देखते हैं कि देवताओं, सिद्धों और ब्रह्मर्षियोंके समुदायके साथ चारों वेदोंसे युक्त भगवान् ब्रह्माजी विराजमान हैं। यह देख वे विमानपर जाकर श्रीरामचन्द्रजीसे बोले- 'भगवन् ! यहाँ समस्त लोकोंके पितामह ब्रह्माजी लोकपालों, वसुओं, आदित्यों और मरुद्गणोंके साथ विराजमान हैं। इसीलिये पुष्पक विमान उन्हें लाँघकर नहीं जा रहा है।' तब श्रीरामचन्द्रजी सुवर्णभूषित पुष्पक विमानसे उतरे और देवी गायत्रीके साथ बैठे हुए भगवान् ब्रह्माको साष्टांग प्रणाम किया। इसके बाद वे प्रणतभावसे उनकी स्तुति करने लगे।श्रीरामचन्द्रजीने कहा- मैं प्रजापतियों और देवताओंसे पूजित लोककर्त्ता ब्रह्माजीको नमस्कार करता हूँ। समस्त देवताओं, लोकों एवं प्रजाओंके स्वामी जगदीश्वरको प्रणाम करता हूँ। देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। देवता और असुर दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। आप भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनों कालोंके स्वामी हैं। आप ही संहारकारी रुद्र हैं। आपके नेत्र भूरे रंगके हैं। आप ही बालक और आप ही वृद्ध हैं। गलेमें नीला चिह्न धारण करनेवाले महादेवजी तथा लम्बे उदरवाले गणेशजी भी आपके ही स्वरूप हैं। आप वेदोंके कर्ता, नित्य, पशुपति (जीवोंके स्वामी), अविनाशी, हाथोंमें कुश धारण करनेवाले, हंससे चिह्नित ध्वजावाले, भोक्ता, रक्षक, शंकर, विष्णु, जटाधारी, मुण्डित, शिखाधारी एवं दण्ड धारण करनेवाले, महान् यशस्वी, भूतोंके ईश्वर, देवताओंके अधिपति, सबके आत्मा, सबको उत्पन्न करनेवाले, सर्वव्यापक, सबका संहार करनेवाले, सृष्टिकर्ता, जगद्गुरु, अविकारी, कमण्डलु धारण करनेवाले देवता, स्रुक् स्रुवा आदि धारण करनेवाले, मृत्यु एवं अमृतस्वरूप, पारियात्र पर्वतरूप, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, ब्रह्मचारी, व्रतधारी, हृदय-गुहामें निवास करनेवाले, उत्तम कमल धारण करनेवाले, अमर, दर्शनीय, बालसूर्यके समान अरुण कान्तिवाले, कमलपर वास करनेवाले, षड्विध ऐश्वर्यसे परिपूर्ण, सावित्रीके पति, अच्युत, दानवोंको वर देनेवाले, विष्णुसे वरदान प्राप्त करनेवाले, कर्मकर्ता, पापहारी, हाथमें अभय मुद्रा धारण करनेवाले, अग्निरूप मुखवाले, अग्निमय ध्वजा धारण करनेवाले, मुनिस्वरूप, दिशाओंके अधिपति, आनन्दरूप, वेदोंकी सृष्टि करनेवाले, धर्मादि चारों पुरुषार्थोंके स्वामी, वानप्रस्थ, वनवासी, आश्रमोंद्वारा पूजित, जगत्को धारण करनेवाले, कर्ता, पुरुष, शाश्वत, ध्रुव, धर्माध्यक्ष, विरूपाक्ष, मनुष्योंके गन्तव्य मार्ग, भूतभावन, ऋक्, साम और यजुः- इन तीनों वेदोंको धारण करनेवाले, अनेक रूपोंवाले, हजारों सूर्योके समान तेजस्वी, अज्ञानियोंको विशेषतः दानवको मोह और बन्धनमें डालनेवाले,देवताओंके भी आराध्यदेव, देवताओंसे बढ़े- चढ़े, कमलसे चिह्नित जटा धारण करनेवाले, धनुर्धर, भीमरूप और धर्मके लिये पराक्रम करनेवाले हैं।
ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीकी जब इस प्रकार स्तुति की गयी, तब वे विनीतभावसे खड़े हुए श्रीरामचन्द्रजीका हाथ पकड़कर बोले—' रघुनन्दन ! आप साक्षात् श्रीविष्णु हैं। देवताओंका कार्य करनेके लिये इस पृथ्वीपर मनुष्यरूपमें अवतीर्ण हुए हैं। प्रभो! आप देवताओंका सम्पूर्ण कार्य कर चुके हैं। अब गंगाजीके दक्षिण किनारे श्रीवामनभगवान्की प्रतिमाको स्थापित करके आप अयोध्यापुरीको लौट जाइये और वहाँसे परमधामको सिधारिये।' ब्रह्माजीसे आज्ञा पाकर श्रीरामचन्द्रजीने उन्हें प्रणाम किया और पुष्पक विमानपर चढ़कर वहाँसे मथुरापुरीकी यात्रा की। वहाँ पुत्र और स्त्रीसहित शत्रुघ्नजीसे मिलकर श्रीरामचन्द्रजी भरत और सुग्रीवके साथ बहुत सन्तुष्ट हुए। शत्रुघ्नने भी अपनेभाइयोंको उपस्थित देख उनके चरणोंमें मस्तक नवाकर प्रणाम किया। उनके पाँचों अंग (दोनों हाथ, दोनों घुटने और मस्तक) धरतीका स्पर्श करने लगे। श्रीरामचन्द्रजीने भाईको उठाकर छातीसे लगा लिया। तदनन्तर भरत और सुग्रीव भी शत्रुघ्नसे मिले। जब श्रीरामचन्द्रजी आसनपर विराजमान हुए, तब शत्रुघ्नने फुर्तीसे अर्घ्य निवेदन करके सेना मन्त्री आदि आठों अंगोंसे युक्त अपने राज्यको उनके चरणोंमें अर्पित कर दिया। श्रीरामचन्द्रजीके आगमनका समाचार सुनकर समस्त मथुरावासी, जिनमें ब्राह्मणोंकी संख्या अधिक थी, उनके दर्शनके लिये आये। भगवान्ने समस्त सचिवों, वेदके विद्वानों और ब्राह्मणोंसे बातचीत करके, पाँच दिन मथुरामें रहकर वहाँसे जानेका विचार किया। उस समय श्रीरामने अत्यन्त प्रसन्न होकर शत्रुघ्नसे कहा - 'तुमने जो कुछ मुझे अर्पण किया है, वह सब मैंने तुम्हें वापस दिया। अब मथुराके राज्यपर अपने दोनों पुत्रोंका अभिषेक करो।' ऐसा कहकर भगवान् श्रीराम वहाँसे चल दिये और दोपहर होते-होते गंगातटपर महोदय तीर्थपर जा पहुँचे। वहाँ भगवान् वामनजीको स्थापित करके वे ब्राह्मणों एवं भावी राजाओंसे बोले 'यह मैंने धर्मका सेतु बनाया है, जो ऐश्वर्य एवं कल्याणकी वृद्धि करनेवाला है। समयानुसार इसका पालन करते रहना चाहिये। किसी प्रकार इसका उल्लंघन करना उचित नहीं है।' इसके बाद भगवान् श्रीराम वानरराज सुग्रीवको किष्किन्धा भेजकर अयोध्या लौट आये और पुष्पक विमानसे बोले-'अब तुम्हें यहाँ आनेकी आवश्यकता नहीं होगी; जहाँ धनके स्वामी कुबेर हैं, वहीं रहना।' तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी सम्पूर्ण कार्योंसे निवृत्त हो गये। अब उन्होंने अपने लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं समझा। भीष्म ! इस प्रकार मैंने श्रीरामकी कथाके प्रसंगसे भगवान् श्रीवामनके प्राकट्यकी वार्ता भी तुम्हें कह दी।