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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 102 - Khand 4, Adhyaya 102

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श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना

शेषजी कहते हैं- एक बार एक नीचके मुखसे श्रीसीताजीके अपमानकी बात सुनकर धोबीके आक्षेपपूर्ण वचनसे प्रभावित होकर श्रीरघुनाथजीने अपनी पत्नीका परित्याग कर दिया। इसके बाद वे सीतासे रहित एकमात्र पृथ्वीका, जो उनके आदेश से ही सुरक्षित थी, धर्मानुसार पालन करने लगे। एक दिन महामति श्रीरामचन्द्रजी राजसभामें बैठे हुए थे, इसी समय मुनियोंमें श्रेष्ठ अगस्त्य ऋषि जो बहुत बड़े महात्मा थे, वहाँ पधारे समुद्रको सोख लेनेवाले उन अद्भुत महर्षिको आया देख महाराज श्रीरामचन्द्रजी अर्घ्य लिये सम्पूर्ण सभासदों तथा गुरु वसिष्ठके साथउठकर खड़े हो गये। फिर स्वागत-सत्कारके द्वारा उन्हें सम्मानित करके भगवान्ने उनकी कुशल पूछी और जब वे सुखपूर्वक आसनपर बैठकर विश्राम कर चुके तो श्रीरघुनन्दनने उनसे वार्तालाप आरम्भ किया।

श्रीरामने कहा- महाभाग कुम्भज! आपका स्वागत है। तपोनिधे! निश्चय ही आज आपके दर्शनसे हम सब लोग कुटुम्बसहित पवित्र हो गये। इस भूमण्डलपर कहीं कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है जो आपकी तपस्या में विघ्न डाल सके। आपकी सहधर्मिणी लोपामुद्रा भी बड़ी सौभाग्यशालिनी हैं, जिनके पातिव्रत्य धर्मके प्रभावसे सब कुछ शुभ ही होता है। मुनीश्वर ! आप धर्मके साक्षात् विग्रह और करुणाके सागर हैं। लोभ तो आपको छू भी नहीं गया है। बताइये, मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ? महामुने! यद्यपि आपकी तपस्याके प्रभावसे ही सब कुछ सिद्ध हो जाता है, आपके संकल्पमात्र से ही बहुत कुछ हो सकता है; तथापि मुझपर कृपा करके ही मेरे लिये कोई सेवा बतलाइये।

शेषजी कहते हैं- मुने! राजाओंके भी राजा परम बुद्धिमान् जगद्गुरु श्रीरामचन्द्रजीके ऐसा कहनेपर महर्षि अगस्त्यजी अत्यन्त विनययुक्त वाणीमें बोले । अगस्त्यजीने कहा—स्वामिन्! आपका दर्शन देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; यही सोचकर मैं यहाँ आया हूँ। राजाधिराज ! मुझे अपने दर्शनके लिये ही आया हुआ समझिये कृपानिधे! आपने रावण नामक असुरका, जो समस्त लोकोंके लिये कण्टकरूप था, वध कर डाला - यह बहुत अच्छा हुआ। अब देवगणसुखी और विभीषण राजा हुए यह बड़े सौभाग्यको बात है। श्रीराम ! आज आपका दर्शन पाकर मेरे मनका खाली खजाना भर गया। मेरे सारे पाप नष्ट हो गये।

यों कहकर महर्षि कुम्भन चुप हो गये भगवान्के दर्शनजनित आह्यदसे उनका चित्त विह्वल हो रहा था। उस समय श्रीरघुनाथजीने उन ज्ञान-विशारद मुनिसे पुनः इस प्रकार प्रश्न किया-'मुने मैं आपसे कुछ बातें पूछ रहा हूँ, आप उन्हें विस्तारपूर्वक बतलायें। देवताओंको पीड़ा देनेवाला वह रावण, जिसे मैंने मारा है, कौन था? तथा उस दुरात्माका भाई कुम्भकर्ण भी कौन था ? उसकी जाति-उसके बन्धुबान्धव कौन थे ? सर्वज्ञ! आप इन सब बातोंको विस्तारके साथ जानते है. अतः मुझे सब बताइये। भगवान्‌की ये बातें सुनकर तपोनिधि कुम्भज ऋषिने इन सबका उत्तर देना आरम्भ किया- "राजन्। सम्पूर्ण जगत्‌को सृष्टि करनेवाले जो ब्रह्माजी हैं, उनके पुत्र महर्षि पुलस्त्य हुए। पुलस्त्यजीसे मुनिवर विश्रवाका जन्म हुआ, जो वेदविद्यामें अत्यन्त प्रयोग थे। उनकी दो पलियाँ थीं, जो बड़ी पतिव्रता) और सदाचारिणी थीं। उनमेंसे एकका नाम मन्दाकिनी था और दूसरी कैकसी नामसे प्रसिद्ध थी पहली स्त्री मन्दाकिनीके गर्भसे कुबेरका जन्म हुआ, जो लोकपालके पदको प्राप्त हुए हैं। उन्होंने भगवान् शंकरके प्रसादसे लंकापुरीको अपना निवास स्थान बनाया था। कैकसी विद्युन्माली नामक दैत्यकी पुत्री थी, उसके गर्भसे रावण, कुम्भकर्ण तथा पुण्यात्मा विभीषण- ये तीन महाबली पुत्र उत्पन्न हुए महामते। इनमें रावण और कुम्भकर्णकी बुद्धि अधर्ममें निपुण हुई; क्योंकि ये दोनों जिस गर्भसे उत्पन्न हुए थे, उसकी स्थापना मध्यकालमें हुई थी।

एक समयकी बात है, कुबेर परम शोभायमान पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो माता पिताका दर्शन करनेके लिये उनके आश्रम में गये। वहाँ जाकर वे अधिक कालतक माता-पिताके चरणों पड़े रहे। उस समय उनका हृदय हर्षसे विहल हो रहा था और सम्पूर्ण रोमांच हो आया था। वे बोले-'माता और पिताजी! आजका दिन मेरे लिये बहुत ही सुन्दर तथामहान् सौभाग्यजनक फलको प्रकट करनेवाला है;

क्योंकि इस समय मुझे आपके इन युगल चरणोंका दर्शन मिला है जो अत्यन्त पुण्य प्रदान करनेवाला है।' इस प्रकार स्तुतियुक्त पदोंसे माता-पिताका स्तवन करके कुबेर पुनः अपने भवनको लौट गये। रावण बड़ा बुद्धिमान् था, उसने कुबेरको देखकर अपनी मातासे पूछा- 'माँ! ये कौन हैं, जो मेरे पिताजीके चरणोंकी सेवा करके फिर लौट गये हैं? इनका विमान तो वायुके समान वेगवान् है। इन्हें किस तपस्यासे ऐसा विमान प्राप्त हुआ है ?"

शेषजी कहते हैं— मुने! रावणका वचन सुनकर उसकी माता रोषसे विकल हो उठी और कुछ आँखें टेढ़ी करके अनमनी होकर बेटेसे बोली-'अरे! मेरी बात सुन, इसमें बहुत शिक्षा भरी हुई है। जिनके विषयमें तू पूछ रहा है, वे मेरी सौतकी कोखके रत्न-कुबेर यहाँ उपस्थित हुए थे; जिन्होंने अपनी माताके विमल वंशको अपने जन्मसे और भी उज्ज्वल बना दिया है। परन्तु तू तो मेरे गर्भका कीड़ा है, केवल अपना पेट भरनेमें ही लगा हुआ है। कुबेरने तपस्यासे भगवान् शंकरको सन्तुष्ट करके लंकाका निवास, मनके समान वेगशाली विमानतथा राज्य और सम्पत्तियाँ प्राप्त की हैं। संसारमें वही माता धन्य, सौभाग्यवती तथा महान् अभ्युदयसे सुशोभित होनेवाली है, जिसके पुत्रने अपने गुणोंसे महापुरुषोंका पद प्राप्त कर लिया हो।' रावण दुरात्माओंमें सबसे श्रेष्ठ था, उसने अपनी माताके क्रोधपूर्ण वचन सुनकर तपस्या करनेका निश्चय किया और उससे कहा।

रावण बोला- माँ! कीड़ेकी-सी हस्ती रखने वाला वह कुबेर क्या चीज है? उसकी थोड़ी-सी तपस्या किस गिनतीमें है? लंकाकी क्या बिसात है? तथा बहुत थोड़े सेवकोंवाला उसका राज्य भी किस कामका है? यदि मैं अन्न, जल, निद्रा और क्रीड़ाका सर्वदा परित्याग करके ब्रह्माजीको सन्तुष्ट करनेवाली दुष्कर तपस्याके द्वारा सम्पूर्ण लोकोंको अपने वशमें न कर लूँ तो मुझे पितृलोकके विनाशका पाप लगे।

तत्पश्चात् कुम्भकर्ण और विभीषणने भी तपस्याका निश्चय किया। फिर रावण अपने भाइयोंको साथ लेकर पर्वतीय वनमें चला गया। वहाँ उसने सूर्यकी ओर ऊपर दृष्टि लगाये एक पैरसे खड़ा होकर दस हजार वर्षोंतक घोर तपस्या की। कुम्भकर्णने भी बड़ा कठोर तप किया।विभीषण तो धर्मात्मा थे; अतः उन्होंने उत्तम तपस्याका अनुष्ठान किया। तदनन्तर देवाधिदेव भगवान् ब्रह्माजीने प्रसन्न होकर रावणको बहुत बड़ा राज्य दिया और उसका स्वरूप तीनों लोकोंमें प्रकाशमान एवं सुन्दर बना दिया, जो देवता और दानव दोनोंसे सेवित था। कुबेरकी बुद्धि सदा धर्ममें ही लगी रहती थी। रावणने वर पानेके अनन्तर अपने भाई कुबेरको बहुत सताया। उनका विमान छीन लिया तथा उनकी लंकानगरीपर भी हठात् अधिकार जमा लिया। उसने समस्त लोकोंको सन्ताप पहुँचाया। देवता स्वर्गसे भाग गये। उस निशाचरने ब्राह्मण वंशका भी विनाश किया और मुनियोंकी तो वह जड़ ही काटता फिरता था। तब उसके अत्याचारसे अत्यन्त दुःखी होकर इन्द्र आदि समस्त देवता ब्रह्माजीके पास गये तथा दण्डवत् प्रणाम करके उनकी स्तुति करने लगे। जब सबने आदरपूर्वक प्रिय वचनद्वारा उनका स्तवन किया तो भगवान् ब्रह्माने प्रसन्न होकर कहा - 'देवगण! मैं तुम्हारा कौन-सा कार्य करूँ ?' तब देवताओंने ब्रह्माजीसे अपना अभिप्राय निवेदन किया रावणसे प्राप्त होनेवाले अपने कष्ट और पराजयका वर्णन किया। उनकी बातें सुनकर ब्रह्माजीने क्षणभर विचार किया, फिर देवताओंको साथ लेकर वे कैलास पर्वतपर गये। उस पर्वतके पास पहुँचकर इन्द्र आदि देवता वहाँको विचित्रता देखकर मुग्ध हो गये और खड़े होकर उन्होंने शंकरजीकी इस प्रकार स्तुति की- भगवन्! आप भव (उत्पादक), सर्व (संहारक) तथा नीलग्रीव (कण्डमें नील चिह्न धारण करनेवाले) आदि नामसे प्रसिद्ध हैं, आपको नमस्कार है। स्थूल और सूक्ष्मरूप धारण करनेवाले आपको प्रणाम है तथा अनेकों रूपोंमें प्रतीत होनेवाले आपको नमस्कार है।"

सब देवताओंके मुखसे यह स्तुतियुक्त वाणी सुनकर भगवान् शंकरने नन्दीसे कहा-'देवताओंको मेरे पास बुला लाओ।' आज्ञा पाकर नन्दीने उसी समय देवताओंको बुलाया। अन्तःपुरमें पहुँचकर उन्होंने आश्चर्यचकित दृष्टिसे भगवान्का दर्शन किया। देवताओंके साथ प्रणाम करके ब्रह्माजी शिवजीके सामनेबड़े हो गये और उन देवदेवेश्वरसे बोले 'शरणागतवत्सल महादेव! आप देवताओंकी अवस्था पर दृष्टि डालिये और इनके ऊपर कृपा कीजिये। दुष्ट राक्षस रावणका वध करनेके लिये जो उद्योग हो सके, क कीजिये। ब्रह्माजीके दैन्य और शोकसे वचन सुनकर शंकरजी भी देवताओंके साथ भगवान् श्रीविष्णुक स्थानपर आये। वहाँ देवता नाग किन्नर और मुनि सबने मिलकर भगवान्की स्तुति की-देवताओंक स्वामी माधव! आपकी जय हो, भक्तजनोंका दुःख दूर करनेवाले परमेश्वर! आपकी जय हो, महादेव! हमपर कृपा कीजिये और अपने इन सेवकॉपर दृष्टि डालिये।'

रुद्र आदि सम्पूर्ण देवताओंने जब इस प्रकार उब्ब-स्वरसे स्तवन किया तो उनके वचन सुनकर देवाधिदेव श्रीविष्णुने देवसमुदायके दुःखपर अच्छी तरह विचार किया। तत्पश्चात् वे मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनका शोक करते हुए बाल ब्रह्म स्द्र और इन्द्र आदि देवताओ! मैं आपलोगों के हितकी बात बता रहा है, सुनिये रावणके द्वारा जो आपको भय प्राप्त हुआ है, उसे मैं जानता अब अवतार धारण करके में उस भयका नाश |करूँगा भूमण्डलमें एक अयोध्या नामकी पूरी है, जो बड़े-बड़े दान और यज्ञ आदि शुभ कर्मोंका अनुष्ठान करनेवाले सूर्यवंशी राजाओंद्वारा सुरक्षित है; वह अपनी रजतमयी भूमिसे सुशोभित हो रही है। उस पुरीमें दशरथ नामसे प्रसिद्ध एक राजा हैं जो इस समय दसों दिशाओंको जीतकर पृथ्वीके राज्यका पालन कर रहे हैं। यद्यपि वे राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न और शक्तिशाली हैं, तथापि अभीतक उन्हें कोई सन्तान नहीं है। महान बलशाली राजा दशरथ पुत्र प्राप्तिको इच्छासे वन्दनीय ऋयभृंगमुनिको प्रार्थनापूर्वक बुलावेंगे और उनके आचार्यत्वमें विधिपूर्वक पुत्रेष्टि यज्ञका अनुष्ठान करेंगे। तदनन्तर मैं आपलोगों के हितके लिये राजाकी तीन रानियोंके गर्भसे चार स्वरूपोंमें प्रकट होऊंगा राजा भी पूर्व जन्ममें तपस्या करके मुझसे इस बातके लिये प्रार्थना कर चुके हैं। मेरे चारों स्वरूप क्रमशः, राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नके नामसे प्रसिद्ध होंगे। उस समय मैं रावणका बल, वाहन और जड़-मूलसहित संहार कर डालूँगा। आपलोग भी अपने-अपने अंशसे भालू और वानरके रूपमें प्रकट होकर पृथ्वीपर सर्वत्र विचरते रहिये।

इस प्रकार आकाशवाणी करके भगवान् मौन हो गये। उनका वचन सुनकर सब देवताओंका चित्त प्रसन्न हो गया। परम मेधावी देवाधिदेव भगवान्ने जैसा कहा था, उसीके अनुसार देवताओंने कार्य किया। उन्होंने अपने-अपने अंशसे ऋक्ष और वानरका रूप धारण करके समूची पृथ्वीको भर दिया। महाराज देवताओंका दुःख दूर करनेवाले जो महान् देव श्रीविष्णु कहलाते हैं, वे आप ही हैं। आप ही मानवशरीरधारी भगवान् हैं। महामते ! ये भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न आपहीके अंश हैं। आपने देवताओंको पीड़ा देनेवाले दशाननका वध किया है। उस दैत्यकी ब्रह्म राक्षस जाति थी, उसीका आपके द्वारा वध हुआ है। नरश्रेष्ठ! आप जगत्के उत्पत्ति-स्थान और सम्पूर्ण विश्वके आत्मा हैं। आपके राजा होनेसे देवता, असुर और मनुष्योंसहित समस्त संसारको सुख प्राप्त हुआ है पापके स्पर्शसे रहित श्रीरघुनाथजी! आपने जो कुछ पूछा है, वह सब मैंने बतला दिया।"

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान