श्रीमहादेवजी कहते हैं-पार्वती। इसी समय राजा दशरथने अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामको प्रेमवश युवराजपदपर अभिषिक्त करना चाहा किन्तु उनकी छोटी रानी कैकेयीने, जिसे पहले वरदान दिया जा चुका था, महाराजसे दो वर माँगे भरतका राज्याभिषेक और रामका चौदह वर्षोंके लिये वनवास राजा दशरथने सत्य वचनमें बँधे होनेके कारण अपने पुत्र श्रीरामको राज्यसे निर्वासित कर दिया। उस समय राजा मारे दुःखके अचेत हो गये तथा रामचन्द्रजीने पिताके वचनोंकी रक्षा करनेके लिये धर्म समझकर राज्यको त्याग दिया और लक्ष्मण तथा सीताके साथ वे वनको चले गये। वहाँ जानेका उद्देश्य था रावणका वध करना। इधर राजा दशरथ पुत्रवियोगसे शोकग्रस्त हो मर गये। उस समय मन्त्रियोंने भरतको राज्यपर बिठानेकी चेष्टा की, किन्तु धर्मात्मा भरतने राज्य लेनेसे इनकार कर दिया। उन्होंने उत्तम भ्रातृ-प्रेमका परिचय देते हुए वनमें आकर श्रीरामसे राज्य ग्रहण करनेके लिये प्रार्थना की; किन्तु पिताकी आज्ञाका पालन करनेके कारण रघुनाथजीने राज्य लेनेकी इच्छा नहीं की। उन्होंने भरतके अनुरोध करनेपर उन्हें अपनी चरणपादुकाएँ दे दीं। भरतने भी भक्तिपूर्वक उन्हें स्वीकार किया और उन पादुकाओंको ही राजसिंहासनपर स्थापित करके गन्ध-पुष्प आदिसे वे प्रतिदिन उनका पूजन करने लगे। महात्मा रघुनाथजीके लौटनेतक के लिये भरतजी तपस्या करते हुए वहाँ रहने लगे तथा समस्त पुरवासी भी तबतकके लिये भाँति भौतिके व्रतोंका पालन करने लगे।
श्रीरघुनाथजी चित्रकूट पर्वतपर भरद्वाज मुनिके उत्तम आश्रमके निकट मन्दाकिनीके किनारे लक्ष्मीस्वरूपा विदेह राजकुमारी सीताके साथ रहने लगे। एक दिन महामना श्रीराम जानकीजीकी गोदमें मस्तक रखकर सो रहे थे। इतनेहीमें इन्द्रका पुत्र जयन्त कौएके रूपमें वहाँ आकर विचरने लगा। वह जानकीजीको देखकर उनकी और झपटा और अपने तीखे पंजोंसे उसने उनके स्तनपर आघात किया। उस कौएको देखकर श्रीरामने। एक कुश हाथमें लिया और उसे ब्रह्मास्त्रसे अभिमन्त्रित करके उसकी ओर फेंका। वह तृण प्रज्वलित अग्निकेसमान अत्यन्त भयंकर हो गया। उससे आगकी लपटें निकलने लगीं। उसे अपनी ओर आता देख वह कौआ कातर स्वरमें काँव-काँव करता हुआ भाग चला। श्रीरामका छोड़ा हुआ वह भयंकर अस्व कौएका पीछा करने लगा। कौआ भयसे पीड़ित हो तीनों लोकोंमें घूमता फिरा वह जहाँ-जहाँ शरण लेनेके लिये जाता, वहीं-वहीं वह भयानक अस्त्र तुरंत पहुँच जाता था। उस कौएको देखकर रुद्र आदि समस्त देवता, दानव और मनीषी मुनि यही उत्तर देते थे कि 'हमलोग तुम्हारी रक्षा करनेमें असमर्थ हैं।' इसी समय तीनों लोकोंके स्वामी भगवान् ब्रह्माने कहा- 'कौआ ! तू भगवान् श्रीरामकी ही शरण में जा। वे करुणाके सागर और सबके रक्षक हैं। उनमें क्षमा करनेकी शक्ति है। वे बड़े ही दयालु हैं। शरणमें आये हुए जीवोंकी रक्षा करते हैं। वे ही समस्त प्राणियोंके ईश्वर हैं। सुशीलता आदि गुणोंसे सम्पन्न हैं और समस्त जीवसमुदायके रक्षक, पिता, माता, सखा और सुहृद हैं। उन देवेश्वर श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें जा, उनके सिवा और कहीं भी तेरे लिये शरण नहीं है।'
ब्रह्माजीके ऐसा कहनेपर वह कौआ भयसे व्याकुल हो सहसा श्रीरघुनाथजीकी शरणमें आकर पृथ्वीपर गिर पढ़ा। कौएको प्राणसंकटमें पड़ा देख जानकीजीने बड़ी विनयके साथ अपने स्वामीसे कहा-'नाथ! इसे बचाइये, बचाइये।' कौआ सामने धरतीपर पड़ा था। सीताने उसके मस्तकको भगवान् श्रीरामके चरणोंमें लगा दिया। तब करुणारूपी अमृतके सागर भगवान् श्रीरामने कौएको अपने हाथसे उठाया और दयासे द्रवित होकर उसकी रक्षा की। दयानिधि श्रीरघुनाथजीने कौएसे कहा-'काक ! डरो मत, मैं तुम्हें अभयदान देता हूँ। अब तुम सुखपूर्वक अपने स्थानको जाओ।' तब वह कौआ श्रीराम और सीताको बारंबार प्रणाम करके श्रीरघुनाथजीके द्वारा सुरक्षित हो शीघ्र ही स्वर्गलोकको चला गया। फिर श्रीरामचन्द्रजी सीता और लक्ष्मणके साथ महर्षियोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए चित्रकूट पर्वतपर रहने लगे। कुछ कालके पश्चात् एक दिन श्रीरघुनाथजी
अत्रिमुनिके विशाल आश्रमपर गये। उन्हें आया देख
मुनिश्रेष्ठ धर्मात्मा अत्रिने बड़ी प्रसन्नताके साथ आगेजाकर उनकी अगवानी की और सीतासहित स् श्रीरामचन्द्रजीको सुन्दर आसनपर विराजमान करके उन्हें उ प्रेमपूर्वक अर्घ्य, पाद्य, आचमनीय, भाँति-भाँति वस्त्र, मधुपर्क और आभूषण आदि समर्पण किये मुनिकी पत्नी अनसूयादेवीने भी प्रसन्नतापूर्वक सीताको परम उत्तम दिव्य वस्त्र और चमकीले आभूषण भेंट किये। फिर दिव्य अन्न, पान और भक्ष्यभोज्य आदिके द्वारा मुनिने तीनोंको भोजन कराया। मुनिके द्वारा पराभक्तिसे पूजित होकर लक्ष्मणसहित श्रीराम वहाँ बड़ी प्रसन्नता f साथ एक दिन रहे। सबेरे उठकर उन्होंने महामुनिसे विदा माँगी और उन्हें प्रणाम करके वे जानेको तैयार हुए। मुनिने आज्ञा दे दी। तब कमलनयन श्रीराम महर्षियोंसे 2 भरे हुए दण्डक वनमें गये। वहाँ अत्यन्त भयंकर विराध नामक राक्षस निवास करता था। उसे मारकर वे शरभंगमुनिके उत्तम आश्रमपर गये। शरभंगने श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन किया। इससे तत्काल पापमुक्त होकर वे ब्रह्मलोकको चले गये तत्पश्चात् श्रीरघुनाथजी क्रमशः सुतीक्ष्ण, अगस्त्य तथा अगस्त्यके भाईके आश्रमपर गये। उन सबने उनका भलीभाँति सत्कार किया। इसके बाद वे गोदावरीके उत्तम तटपर जा पंचवटीमें रहने लगे। वहाँ उन्होंने दीर्घकालतक बड़े सुखसे निवास किया। धर्मका अनुष्ठान करनेवाले तपस्वी मुनिवर वहाँ जाकर अपने स्वामी राजीवलोचन श्रीरामका पूजन किया करते थे। उन मुनियोंने राक्षसोंसे प्राप्त होनेवाले अपने भयकी भी भगवान्को सूचना दी। भगवान्ने उन्हें सान्त्वना देकर अभयकी दक्षिणा दी। श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा सत्कार पाकर सब मुनि अपने-अपने आश्रममें चले आये। पंचवटीमें रहते हुए श्रीरामके तेरह वर्ष व्यतीत हो गये। एक समय भयंकर रूप धारण करनेवाली दुर्धर्ष राक्षसी सूर्पणखाने, जो रावणकी बहिन थी, पंचवटी प्रवेश किया। वहाँ कोटि कन्दर्पके समान मनोहर कान्तिवाले श्रीरघुनाथजीको देखकर वह राक्षसी कामदेवके बाणसे पीड़ित हो गयी और उनके पास जाकर बोली 'तुम कौन हो, जो इस दण्डकारण्यके भीतर तपस्वीके बेचमें रहते हो? तपस्वियोंके लिये तो इस वनमें आना बहुत ही कठिन है। तुम किसलिये यहाँ आये हो? येसब बातें शीघ्र ही सच-सच बताओ। झूठ न बोलना ?' उसके इस प्रकार पूछने पर श्रीरामचन्द्रजीने हँसकर कहा—'मैं राजा दशरथका पुत्र हूँ। मेरा नाम राम है। वे मेरे छोटे भाई धनुर्धर लक्ष्मण हैं। ये मेरी पत्नी सीता हैं। इन्हें मिथिलानरेश जनककी प्यारी पुत्री समझो। मैं पिताके आदेशका पालन करनेके लिये इस वनमें आया हूँ। हम तीनों महर्षियोंका हित करनेकी इच्छासे इस महान् वनमें विचरते हैं। सुन्दरी! तुम मेरे आश्रमपर किसलिये आयी हो? तुम कौन हो और किसके कुलमें उत्पन्न हुई हो ? ये सारी बातें सच सच बताओ।'
राक्षसी बोली- मैं मुनिवर विश्रवाकी पुत्री और रावणकी बहिन हूँ। मेरा नाम शूर्पणखा है मैं तीनों लोकॉमें विख्यात हूँ। मेरे भाईने यह दण्डकारण्य मुझे दे दिया है। मैं इस महान् वनमें ऋषि महर्षियोंको खाती हुई विचरती रहती हूँ। तुम एक श्रेष्ठ राजा जान पड़ते हो तुम्हें देखकर में कामदेवके बाणोंसे पीड़ित हो रही हूँ और तुम्हारे साथ बेखटके रमण करनेके लिये यहाँ आयी हूँ। नृपश्रेष्ठ ! तुम मेरे पति हो जाओ। मैं तुम्हारी इस सती सीताको अभी खा जाऊँगी।
ऐसा कहकर वह राक्षसी सीताको खा जानेके लिये उद्यत हुई। यह देख श्रीरामचन्द्रजीने तलवार उठाकर उसके नाक-कान काट लिये। तब विकराल मुखवाली वह राक्षसी भयभीत हो रोती हुई शीघ्र ही खर नामक निशाचरके घर गयी और वहाँ उसने श्रीरामकी सारी करतूत कह सुनायी। यह सुनकर खर कई हजार राक्षसों और दूषण तथा त्रिशिराको साथ ले शत्रुसूदन श्रीरामचन्द्रजीसे युद्ध करनेके लिये आया; किन्तु श्रीरामने उस भयानक वनमें काल और अन्तकके समान प्राणान्तकारी बाणोंद्वारा उन विशालकाय राक्षसोंका अनायास ही संहार कर डाला। विषैले साँपोंके समान तीखे सायकोंद्वारा उन्होंने युद्धमें खर मिशिरा और महाबली दूषणको भी मार गिराया। इस प्रकार दण्डकारण्यवासी समस्त राक्षसोंका यथ करके श्रीरामचन्द्रजी देवताओं द्वारा पूजित हुए और महर्षि भी उनकी स्तुति करने लगे। तत्पश्चात् भगवान् श्रीराम सीता और लक्ष्मणके साथ दण्डकारण्यमें रहने लगे। शूर्पणखासे राक्षसोंके मारे जानेका समाचार सुनकररावण क्रोधसे मूच्छित हो उठा और दुरात्मा मारीचको साथ लेकर जनस्थानमें आया। पंचवटीमें पहुँचकर दशशीश रावणने मारीचको मायामय मृगके रूपमें रामके आश्रमपर भेजा। वह राक्षस अपने पीछे आते हुए दोनों दशरथकुमारोंको आश्रमसे दूर हटा ले गया। इसी बीच में रावणने अपने वधकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी सीताजीको हर लिया।
सीताजीको हरी जाती हुई देख गृधोंके राजा महावली जटायुने श्रीरामचन्द्रजीके प्रति स्नेह होनेके कारण उस राक्षसके साथ युद्ध किया। किन्तु शत्रुविजयी रावणने अपने बाहुबलसे जटायुको मार गिराया और राक्षसों से घिरी हुई लंकापुरीमें प्रवेश किया। वहीं अशोकवाटिकामें सीताको रखा और श्रीरामचन्द्रजीके बाणोंसे मृत्युकी अभिलाषा रखकर वह अपने महलमें चला गया। इधर श्रीरामचन्द्रजी मृगरूपधारी मारीच नामक राक्षसको मारकर भाई लक्ष्मणके साथ जब पुनः आश्रम में आये, तब उन्हें सीता नहीं दिखायी दीं। सीताको कोई राक्षस हर ले गया, यह जानकर दशरथनन्दन श्रीरामको बहुत शोक हुआ और वे सन्तप्त होकर विलाप करने लगे। वनमें घूम-घूमकर उन्होंने सीताकी खोज आरम्भ की। उसी समय मार्गमें महाबली जटायु पृथ्वीपर पड़े दिखायी दिये। उनके पैर और पंख कट गये थे तथा सारा अंग लहूलुहान हो रहा था। उनको इस अवस्थामें देख श्रीरामचन्द्रजीको बड़ा विस्मय हुआ उन्होंने पूछा- 'अहो किसने तुम्हारा वध किया है ?"
जटायुने श्रीरामचन्द्रजीको देखकर धीरे-धीरे कहा रघुनन्दन! आपकी पत्नीको महाबली रावणने हर लिया है, उसी राक्षसके हाथसे में युद्धमें मारा गया हूँ।' इतना कहकर जटायुने प्राण त्याग दिया। श्रीरामने वैदिक विधिसे उनका दाह संस्कार किया और उन्हें अपना सनातन धाम प्रदान किया; जो योगियोंको ही प्राप्त योग्य है। श्रीरघुनाथजी प्रसादसे गोधको भी परमपदकी प्राप्ति हुई। उन पक्षिराजको श्रीहरिका सारूप्य मोक्ष मिला। तदनन्तर माल्यवान् पर्वतपर जाकर मातंग मुनिके आश्रमपर वे महाभागा धर्म-परायणा शबरीसे मिले। वह - भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थी। उसने श्रीराम-लक्ष्मणको आते देख आगे बढ़कर उनका स्वागत किया और प्रणामकरके आश्रम में कुशके आसनपर उन्हें बिठाया। फिर चरण धोकर वनके सुगन्धित फूलोंसे भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया। उस समय शबरीका हृदय आनन्दमग्न हो रहा था। वह दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी। उसने दोनों रघुकुमारोंको सुगन्धित एवं मधुर फल मूल निवेदन किये। उन फलोंको भोग लगाकर भगवान्ने शबरीको मोक्ष प्रदान किया। पम्पासरोवरकी ओर जाते समय उन्होंने मार्गमें भयानक रूपधारी कबन्ध नामक राक्षसका वध किया। उसको मारकर महापराक्रमी श्रीरामने उसे जला दिया, इससे वह स्वर्गलोकमें चला गया। इसके बाद महाबली श्रीरघुनाथजीने शबरीतीर्थको अपने शार्ङ्गधनुषकी कोटिसे गंगा और गयाके समान पवित्र बना दिया। 'यह महान् भगवद्भक्तोंका तीर्थ है, इसका जल जिसके उदरमें पड़ेगा, उसका शरीर सम्पूर्ण जगत्के लिये वन्दनीय हो जायगा। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
ऐसा कहकर श्रीरामचन्द्रजी ऋष्यमूक पर्वतपर गये। वहाँ पम्पासरोवर के तटपर हनुमान् नामक वानरसे उनकी भेंट हुई हनुमान्जीके कहने से उन्होंने सुग्रीवके साथ मित्रता की और सुग्रीवके अनुरोधसे वानरराज बालिको मारकर सुग्रीवको ही उसके राज्यपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् जानकीजीका पता लगानेके लिये वानरराज सुग्रीवने हनुमान् आदि वानर वीरोंको भेजा पवननन्दन हनुमानजीने समुद्रको लांघकर लंका नगरीमें प्रवेश किया और दृढ़तापूर्वक पातिव्रत्यका पालन करनेवाली सीताजीको देखा। वे उपवास करनेके कारण दुर्बल, दीन और अत्यन्त शोकग्रस्त थीं। उनके शरीरपर मैल जम गयी थी तथा वे मलिन वस्त्र पहने हुए थीं। उन्हें श्रीरामचन्द्रजीकी दी हुई पहचान देकर हनुमानजीने उनसे भगवान्का समाचार निवेदन किया। फिर विदेहराजकुमारीको भलीभाँति आश्वासन दे उन्होंने उस सुन्दर उद्यानको नष्ट कर डाला। तदनन्तर दरवाजेका खम्भा उखाड़कर उससे हनुमान्जीने वनकी रक्षा करनेवाले सेवकों, पाँच सेनापतियों, सात मन्त्रिकुमारों तथा रावणके एक पुत्रको मार डाला। इसके बाद रावणके दूसरे पुत्र मेघनादके द्वारा वे स्वेच्छासे बँध गये। फिर राक्षसराज रावणसे मिलकर हनुमान्जीने उससे वार्तालाप किया और अपनी पूँछमें लगायी हुई आगसे समूचीलंकापुरीको दग्ध कर डाला। फिर सीताजीके दिये हुए चिह्नको लेकर वे लौट आये और कमलनयन श्रीरामचन्द्रजीसे मिलकर सारा हाल बताते हुए बोले 'मैंने सीताजीका दर्शन किया है।'
इसके बाद सुग्रीवसहित श्रीरामचन्द्रजी बहुत-से वानरोंके साथ समुद्रके तटपर गये। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी सेनाका पड़ाव डाल दिया। रावणके एक छोटे भाई थे, जो विभीषण के नामसे प्रसिद्ध थे सत्यप्रतिज्ञ और महान् भगवद्भक्तोंमें श्रेष्ठ थे। श्रीरामचन्द्रजीको आया जान विभीषण अपने बड़े भाई रावणको, राज्यको तथा पुत्र और स्त्रीको भी छोड़कर उनकी शरण में चले गये। हनुमान्जीके कहने से श्रीरामचन्द्रजीने विभीषणको अपनाया और उन्हें अभयदान देकर राक्षसोंके राज्यपर अभिषिक्त किया। तत्पश्चात् समुद्रको पार करनेकी इच्छासे श्रीरामचन्द्रजी उसकी शरणमें गये, किन्तु प्रार्थना करनेपर भी उसकी गतिविधिमें कोई अन्तर होता न देख महाबली ओरामने धनुष हाथमें लिया और बामसमूहकी वर्षा करके समुद्रको सुखा दिया। तब सरिताओंके स्वामी समुद्रने करुणासागर भगवान्की शरण में जा उनका विधिवत् पूजन किया। इससे श्रीरघुनाथजीने वारुणास्त्रका प्रयोग करके पुनः सागरको जलसे भर दिया। फिर समुद्रके ही कहनेसे उन्होंने उसपर वानरोंके लाये हुए पर्वतोंके द्वारा पुल बँधवाया। उसीसे सेनासहित लंकापुरीमें जाकर अपनी बहुत बड़ी सेनाको ठहराया।
उसके बाद वानरों और राक्षसोंमें खूब युद्ध हुआ। तदनन्तर रावणके पुत्र महाबली इन्द्रजित् नामक राक्षसने नागपाशसे श्रीराम और लक्ष्मण दोनों भाइयोंको बाँध लिया। उस समय गरुड़ने आकर उन्हें उन अस्त्रोंके बन्धन से मुक्त किया। महाबली वानरोंके द्वारा बहुत-से राक्षस मारे गये। रावणका छोटा भाई कुम्भकर्ण बड़ा बलवान् वीर था। उसको श्रीरामने युद्धमें अग्निशिखाके समान तेजस्वी वाणोंसे मौतके घाट उतार दिया। तब इन्द्रजितको बड़ा क्रोध हुआ और उसने ब्रह्मास्त्रके द्वारा वानरोंको मार गिराया। उस समय हनुमानजी श्रेष्ठ ओषधियोंसे युक्त पर्वतको उठा ले आये। उसको छूकर बहनेवाली वायुके स्पर्शसे सभी वानर जी उठे तब परम उदार लक्ष्मणने अपने तीखे बाणोंसे जैसे इन्द्रनेमसूरको मारा था, उसी प्रकार इन्द्रजितको मार गिराया अब स्वयं रावण ही संग्राम में श्रीरामचन्द्रजीके साथ युद्ध करनेके लिये निकला। उसके साथ चतुरंगिणी सेना और महाबली मन्त्री भी थे। फिर तो वानरों और राक्षसोंमें तथा लक्ष्मणसहित श्रीराम और रावणमें भयंकर युद्ध छिड़ गया। उस समय राक्षसराज रावणने शक्तिका प्रहार करके लक्ष्मणको रणभूमिमें गिरा दिया। इससे महातेजस्वी रघुनाथजी, जो राक्षसोंके काल थे, कुपित हो उठे और काल एवं मृत्युके समान तीखे बाणोंसे राक्षस वोरोंका संहार करने लगे। उन्होंने कालदण्डके समान सहस्रों तेजस्वी बाण मारकर राक्षसराज रावणको ढक दिया। श्रीरघुनाथजीके बाणोंसे उस निशाचरके सारे अंग बिंध गये और वह भयभीत होकर रणभूमिसे लंकामें भाग गया। उसे सारा संसार श्रीराममय दिखायी देता था; अतः वह खिन्न होकर घरमें घुस गया। इसके बाद हनुमानजी श्रेष्ठ ओषधियोंसे युक्त महान् पर्वत उठा ले आये इससे लक्ष्मणजीको तुरंत ही चेत हो गया। उधर रावणने विजयकी इच्छासे होम करना आरम्भ किया; किन्तु बड़े-बड़े वानरोंने जाकर शत्रुके उस अभिचारात्मक यज्ञका विध्वंस कर दिया। तब रावण पुनः श्रीरामचन्द्रजीसे युद्ध करनेके लिये निकला। उस समय वह दिव्य रथपर बैठा था और बहुत-से राक्षस उसके साथ थे यह देख इन्द्रने भी अपने दिव्य अश्वोंसे जुते हुए सारधिसाहित दिव्य रथको श्रीरामचन्द्रजीके लिये भेजा। मातलिके लाये हुए उस रथपर बैठकर श्रीरघुनाथजी देवताओंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए राक्षसके साथ युद्ध करने लगे। तदनन्तर श्रीराम और रावणमें भयंकर शस्त्रास्त्रोंद्वारा सात दिन और सात रातोंतक घोर युद्ध हुआ सब देवता विमानोंपर बैठकर उस महाबुद्धको देख रहे थे।
रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीने अनेकों बार रावणके मस्तक काटे, किन्तु मेरे (महादेवजीके) वरदानसे उसके फिर नये-नये मस्तक निकल आते थे। तब श्रीरघुनाथजीने। उस दुरात्माका वध करनेके लिये महाभयंकर और कालाग्निके समान तेजस्वी ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया। श्रीरामचन्द्रजीका छोड़ा हुआ वह अस्त्र रावणकी छाती छेदकर धरती को चीरता हुआ रसातलमें चला गया। वहाँसपने उस वाणका पूजन किया। वह महाराक्षस प्राणहीन होकर पृथ्वीपर गिरा और भर गया। इससे सम्पूर्ण देवताओंका हृदय हर्षसे भर गया। वे सम्पूर्ण जगत्के गुरु महात्मा श्रीरामपर फूलों की वर्षा करने लगे। गन्ध गाने और अप्सराएँ नाचने लगीं। पवित्र वा चलने लगी और सूर्यकी प्रथा स्वच्छ हो गयी। मुनि, सिद्ध, देवता, गन्धर्व और किन्नर भगवान्की स्तुति करने लगे। श्रीरघुनाथजीने लंकाके राज्यपर विभीषणको अभिषिक्त करके अपनेको कृतार्थ सा माना और इस प्रकार कहा 'विभीषण! जबतक सूर्य, चन्द्रमा और पृथ्वी रहेगी तथा जबतक यहाँ मेरी कथाका प्रचार रहेगा, तबतक तुम्हारा राज्य कायम रहेगा। महाबल! यहाँ राज्य करके तुम पुनः अपने पुत्र, पौत्र तथा गणोंके साथ योगियोंको प्राप्त होनेयोग्य मेरे सनातन दिव्य धाममें पहुँच जाओगे।'
इस प्रकार विभीषणको वरदान दे महाबली श्रीरामचन्द्रजीने मिथिलेशकुमारी सीताको पास बुलवाया। यद्यपि वे सर्वथा पवित्र थीं, तो भी श्रीरामने भरी सभा में उनके प्रति बहुत-से निन्दित वचन कहे। पतिके द्वारा निन्दित होनेपर सती-साध्वी सीता अग्नि प्रज्वलित करके उसमें प्रवेश करने लगीं। माता जानकीको अग्निमें प्रवेश करते देख शिव और ब्रह्मा आदि सभी देवता भयसे व्याकुल हो उठे और श्रीरघुनाथजीके पास आ हथ जोड़कर बोले-'महाबाहु श्रीराम! आप अत्यन्त पराक्रमी हैं। हमारी बात सुनें। सीताजी अत्यन्त निर्मल हैं. साध्वी हैं और कभी भी आपसे विलग होनेवाली नहीं हैं। जैसे सूर्य अपनी प्रभाको नहीं छोड़ सकते, उसी प्रकार आपके द्वारा भी ये त्यागनेयोग्य नहीं हैं। ये सम्पूर्ण जगत्की माता और सबको आश्रय देनेवाली हैं: संसारका कल्याण करनेके लिये ही ये भूतलपर प्रकट हुई हैं। रावण और कुम्भकर्ण पहले आपके ही भक्त थे, वे सनकादिकोंके शापसे इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। उनीको मुक्ति के लिये ये विदेहराजकुमारी दण्डकारण्य में गयीं। इन्हींको निमित्त बनाकर वे दोनों श्रेष्ठ राक्षस आपके हाथसे मारे गये हैं। अब इस राक्षसयोनिसे मुक्त होकर का पुत्र, पौत्रों और सेवकोंसहित स्वर्गमें गये हैं। सदा शुद्ध आचरणवाली सती-साध्वी सीताको हो ग्रहण कीजिये। ठीक उसी तरह जैसेपूर्वकालमें आपने समुद्रसे निकलनेपर लक्ष्मीरूपमें इन्हें ग्रहण किया था।'
इसी समय लोकसाक्षी अग्निदेव सीताको लेकर प्रकट हुए। उन्होंने देवताओंके समीप ही श्रीजानकीजीको श्रीरामजीकी सेवामें अर्पण कर दिया और कहा 'प्रभो! सीता सर्वथा निष्कलंक और शुद्ध आचरणवाली हैं। यह बात मैं सत्य सत्य निवेदन करता हूँ। आप इन्हें बिना विलम्ब किये ग्रहण कीजिये।' अग्निदेवके इस कथनसे रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामने प्रसन्नताके साथ सीताको स्वीकार किया। फिर सब देवता भगवान्का पूजन करने लगे। उस युद्धमें जो-जो श्रेष्ठ वानर राक्षसोंके हाथसे मारे गये थे, वे ब्रह्माजीके वरसे शीघ्र ही जी उठे। तत्पश्चात् राक्षसराज विभीषणने सूर्यके समान तेजस्वी पुष्पकविमानको, जिसे रावणने कुबेरसे छीन लिया था, श्रीरघुनाथजीको भेंट किया। साथ ही बहुत से वस्त्र और आभूषण भी दिये। विभीषणसे पूजित होकर परम प्रतापी श्रीरामचन्द्रजी अपनी धर्मपत्नी विदेहकुमारी सीताके साथ उस श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ हुए। इसके बाद शूरवीर भाई लक्ष्मण, वानर और भालुओं के समुदायसहित वानरराज सुग्रीव तथा महाबली राक्षसों सहित शूरवीर विभीषण भी उसपर सवार हुए। वानर, भालू और राक्षस-सबके साथ सवार हो श्रीरामचन्द्रजी श्रेष्ठ देवताओंके द्वारा अपनी स्तुति सुनते हुए अयोध्याकी ओर प्रस्थित हुए। भरद्वाज मुनिके आश्रमपर जाकर सत्यपराक्रमी श्रीरामने हनुमान्जीको भरतके पास भेजा। वे निषादोंके गाँव (श्रृंगवेरपुर ) - में जाकर श्रीविष्णुभक्त गुहसे मिले और उनसे श्रीरामचन्द्रजीके आनेका समाचार कहकर नन्दिग्रामको चले गये। वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई भरतसे मिलकर उन्होंने श्रीरामचन्द्रजीके शुभागमनका समाचार कह सुनाया। हनुमान्जीके द्वारा श्रीरघुनाथजीके शुभागमनकी बात सुनकर भाई तथा सुहृदोंके साथ भरतजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। फिर वायुनन्दन हनुमानजी पुनः श्रीरामचन्द्रजीके पास लौट आये और भरतका समाचार उनसे कह सुनाया।
तत्पश्चात् श्रीरामचन्द्रजीने अपने छोटे भाई लक्ष्मण और सीताके साथ तपस्वी भरद्वाज मुनिको प्रणाम किया। फिर मुनिने भी पकवान, फल, मूल, वस्त्र औरआभूषण आदिके द्वारा भाईसहित श्रीरामका स्वागत सत्कार किया। उनसे सम्मानित होकर श्रीरघुनाथजीने उन्हें प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले पुनः लक्ष्मणसहित पुष्पक विमानपर आरूढ़ हो सुहृदोंसहित नन्दिग्राममें आये। उस समय कैकेयीनन्दन भरतने भाई शत्रुघ्न, मन्त्रियों, नगरके मुख्य-मुख्य व्यक्तियों तथा सेनासहित अनेक राजाओंको साथ ले प्रसन्नतापूर्वक आगे आकर बड़े भाईकी अगवानी की। रघुकुलश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीके निकट पहुँचकर भरतने अनुयायियोंसहित उन्हें प्रणाम किया। फिर शत्रुओंको ताप देनेवाले श्रीरघुनाथजीने विमानसे उतरकर भरत और शत्रुघ्नको छातीसे लगाया। तत्पश्चात् पुरोहित वसिष्ठजी, माताओं, बड़े-बूढ़ों तथा बन्धु-बान्धवोंको महातेजस्वी श्रीरामने सीता और लक्ष्मणके साथ प्रणाम किया। इसके बाद भरतजीने विभीषण, सुग्रीव, जाम्बवान्, अंगद, हनुमान् और सुषेणको गले लगाया। वहाँ भाइयों और अनुचरोंसहित भगवान्ने मांगलिक स्नान करके दिव्य माला और दिव्य वस्त्रधारण किये, फिर दिव्य चन्दन लगाया। इसके बाद वे सीता और लक्ष्मणके साथ सुमन्त्र नामक सारथिसे संचालित दिव्य रथपर बैठे। उस समय देवगण उनकी स्तुति कर रहे थे। फिर भरत, सुग्रीव, शत्रुघ्न, विभीषण, अंगद, सुषेण, जाम्बवान्, हनुमान्, नील, नल, सुभग, शरभ, गन्धमादन, अन्यान्य कपि, निषादराज गुह, महापराक्रमी राक्षस और महाबली राजा भी बहुत-से घोड़े, हाथी और रथोंपर आरूढ़ हुए। उस समय नाना प्रकारके मांगलिक बाजे बजने लगे तथा नाना प्रकारके स्तोत्रोंका गान होने लगा। इस प्रकार वानर, भालू, राक्षस, निषाद और मानव सैनिकोंके साथ महातेजस्वी श्रीरघुनाथजीने अपने अविनाशी नगर साकेतधाम (अयोध्या) में प्रवेश किया। मार्गमें उस राजनगरीकी शोभा देखते हुए श्रीरघुनाथजीको बारंबार अपने पिता महाराज दशरथकी याद आने लगी। तत्पश्चात् सुग्रीव, हनुमान् और विभीषण आदि भगवद्भक्तोंके पावन चरणोंके पड़नेसे पवित्र हुए राजमहलमें उन्होंने प्रवेश किया।