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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 253 - Khand 5, Adhyaya 253

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श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग

श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! पूर्वकालकी बात है, स्वायम्भुव मनु शुभ एवं निर्मल तीर्थ नैमिषारण्यमें गोमती नदीके तटपर द्वादशाक्षर महामन्त्रका जप करते थे। उन्होंने एक हजार वर्षतक लक्ष्मीपति भगवान् श्रीहरिका पूजन किया तब भगवान्ने प्रकट होकर कहा - 'राजन् ! मुझसे वर माँगो।' तब स्वायम्भुव मनुनेबड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- 'अच्युत ! देवेश्वर ! आप तीन जन्मोंतक मेरे पुत्र हों। मैं पुत्रभावसे आप पुरुषोत्तमका भजन करना चाहता हूँ।' उनके ऐसा कहनेपर भगवान् लक्ष्मीपति बोले- 'नृपश्रेष्ठ ! तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा है, वह अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारा पुत्र होनेमें मुझे भी बड़ी प्रसन्नता है। जगत्के पालनतथा धर्मकी रक्षाका प्रयोजन उपस्थित होनेपर भिन्न भिन्न समयमें तुम्हारे जन्म लेनेके पश्चात् मैं भी तुम्हारे यहाँ अवतार लूंगा। अनघ साधु पुरुषोंकी रक्षा, पापियोंका विनाश और धर्मकी स्थापना करनेके लिये मैं प्रत्येक युगमें अवतार लेता हूँ।*

इस प्रकार स्वायम्भुव मनुको वरदान दे श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये। उन स्वायम्भुव मनुका पहला जन्म रघुकुलमें हुआ। वहाँ वे राजा दशरथके नामसे प्रसिद्ध हुए। दूसरी बार वे वृष्णिवंशमें वसुदेवरूपसे प्रकट हुए। फिर जब कलियुगके एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो जायँगे तो सम्भल नामक गाँवमें वे हरिगुप्त ब्राह्मणके रूपमें उत्पन्न होंगे। उनकी पत्नी भी प्रत्येक जन्ममें उनके साथ रहीं। अब मैं पहले श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रका वर्णन करता हूँ, जिसके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो जाती है। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य दूसरा जन्म धारण करनेपर महाबली कुम्भकर्ण और रावण हुए मुनिवर पुलस्त्यके विश्रवा नामके एक धार्मिक पुत्र हुए, जिनकी पत्नी राक्षसराज सुमालीकी कन्या थी उसकी माताका नाम सुकेशी था। उसका नाम केकशी था। केकशी दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाली थी किन्तु एक दिन कामवेगकी अधिकतासे सन्ध्याके समय उसने महामुनि विश्रवाके साथ रमण किया; अतः समयके दोषसे उसके गर्भसे दो तमोगुणी पुत्र उत्पन्न हुए, जो बहुत ही बलवान् थे। संसारमें वे रावण और कुम्भकर्णके नामसे विख्यात हुए। केकशीके गर्भसे एक शूर्पणखा नामकी कन्या भी हुई, जिसका मुख बड़ा ही विकराल था कुछ कालके पश्चात् उससे विभीषणका जन्म हुआ, जो सुशील, भगवद्भक्त, सत्यवादी, धर्मात्मा और परम पवित्र थे ।

रावण और कुम्भकर्ण हिमालय पर्वतपर अत्यन्त कठोर तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करने लगे। रावण बड़ा दुष्टात्मा था। उसने बड़ा कठोर कर्म करके अपने मस्तकरूपी कमलोंसे मेरी पूजा की। तब मैंने प्रसन्नचित्त होकर उससे कहा- 'बेटा तुम्हारे मनमें जो कुछ हो, उसके अनुसार वर माँगो' तब वह दुष्टात्मा बोला

'देव! मैं सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पाना चाहता हूँ। अतःआप मुझे देवता, दानव और राक्षसोंके द्वारा भाव | कर दीजिये।' पार्वती। मैंने उसके कथनानुसार दान | दे दिया। वरदान पाकर उस महापराक्रमी राक्षसको गर्व हो गया। वह देवता, दानव और मनुष्य ताना लोकोंके। प्राणियोंको पीड़ा देने लगा। उसके सताये हुए ब्रह्मा आदि देवता भयसे आतुर हो भगवान् लक्ष्मीपतिकी शरणये गये। सनातन प्रभुने देवताओंके कष्ट और उसके दूर होनेके उपायको भलीभाँति जानकर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंसे कहा- 'देवगण में रघुकुलमें राजा दशरथके यहाँ अवतार धारण करूँगा और दुरात्मा रावणको बन्धु बान्धवोंसहित मार डालूँगा। मानवशरीर धारण करके मैं देवताओंके इस कण्टकको उखाड़ फेंकूँगा। ब्रह्माजीके शापसे तुमलोग भी गन्धर्वो और अप्सराओंसहित वानर योनिमें उत्पन्न हो मेरी सहायता करो।'

देवाधिदेव श्रीविष्णुके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता इस पृथ्वीपर वानररूपमें प्रकट हुए। उधर सूर्यवंशमे वैवस्वत मनुके पुत्र राजा इक्ष्वाकु हुए, जो समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ, महाबलवान् और सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंकी कुल परम्परामें महातेजस्वी तथा बलवान् राजा दशरथ हुए, जो महाराज अजके पुत्र, सत्यवादी, सुशील एवं पवित्र आचार-विचारवाले थे। उन्होंने अपने पराक्रमसे समस्त भूमण्डलका पालन किया और सब राजाओंको अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। कोशलनरेशके एक सर्वांगसुन्दरी कन्या थी, जिसका नाम कौसल्या था राजा दशरथने उसीके साथ विवाह किया। तदनन्तर मगधराजकुमारी सुमित्रा उनकी द्वितीय पत्नी हुई केकयनरेशकी कन्या कैकेयी, जिसके नेत्र कमलदलके समान विशाल थे, महाराज दशरथकी तीसरी भार्या हुई। इन तीनों धर्मपत्नियोंके साथ धर्मपरायण होकर राजा दशरथ पृथ्वीका पालन करने लगे। अयोध्या नामकी नगरी, जो सरयूके तीरपर बसी हुई है, महाराजकी राजधानी थी। वह सब प्रकारके रत्नोंसे भरी पूरी और धन-धान्यसे सम्पन्न थी वह सोनेकी चहारदीवारीसे घिरी हुई और ऊँचे-ऊँचे गोपुरों (नगरद्वारों) से सुशोभित थी। धर्मात्मा राजा दशरथ अनेक मुनिवरों और अपने पुरोहित महात्मा वसिष्ठजीके साथ उस पुरीमें निवासकरते थे। उन्होंने वहाँ अकण्टक राज्य किया। वहाँ f भगवान् पुरुषोत्तम अवतार धारण करनेवाले थे, अतएव वह पवित्र नगरी अयोध्या कहलायी। परमात्माके उस नगरका नाम भी परम कल्याणमय है। जहाँ भगवान् विष्णु विराजते हैं, वही स्थान परमपद हो जाता है। वहाँ सब कर्मोका बन्धन काटनेवाला मोक्ष सुलभ होता है।

राजा दशरथने समस्त भूमण्डलका पालन करते हुए पुत्रकामनासे वैष्णवयागके द्वारा श्रीहरिका यजन किया। सबको वर देनेवाले सर्वव्यापक लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु उक्त यज्ञद्वारा राजा दशरथसे पूजित होनेपर वहाँ अग्निकुण्डमें प्रकट हुए। जाम्बूनदके समान उनकी श्याम कान्ति थी। वे हाथोंमें शंख, चक्र और गदा लिये हुए थे। उनके शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहा था। वाम अंकमें भगवती लक्ष्मीजीके साथ वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हुए भक्तवत्सल परमेश्वर राजा दशरथसे बोले - 'राजन् ! मैं वर देनेके लिये आया हूँ।' सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् विष्णुका दर्शन पाकर राजा दशरथ आनन्दमग्न हो गये। उन्होंने पत्नीके साथ प्रसन्नचित्तसे भगवान्‌के चरणोंमें प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणीमें कहा 'भगवन्! आप मेरे पुत्रभावको प्राप्त हों।' तब भगवान्ने प्रसन्न होकर राजासे कहा-'नृपश्रेष्ठ ! मैं देवलोकका हित, साधुपुरुषोंकी रक्षा, राक्षसोंका वध, लोगोंको मुक्ति प्रदान और धर्मकी स्थापना करनेके लिये तुम्हारे यहाँ अवतार लूँगा।'

ऐसा कहकर श्रीहरिने सोनेके पात्रमें रखा हुआदिव्य खीर, जो लक्ष्मीजीके हाथमें मौजूद था, राजाको दिया और स्वयं वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजा दशरथने वहाँ बड़ी रानी कौसल्या और छोटी रानी कैकेयीको उपस्थित देख इन्हीं दोनोंमें उस दिव्य खीरको बाँट दिया। इतनेहीमें मझली रानी सुमित्रा भी पुत्रकी कामनासे राजाके समीप आयीं। उन्हें देख कौसल्या और कैकेयीने तुरंत ही अपने-अपने खीरमेंसे आधा-आधा निकालकर उनको दे दिया। उस दिव्य खीरको खाकर तीनों ही रानियाँ गर्भवती हुईं। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उन्हें कई बार सपनेमें शंख, चक्र और गदा लिये तथा पीताम्बर पहने देवेश्वर भगवान् विष्णु दर्शन दिया करते थे। तदनन्तर समयानुसार जब चैतका मनोरम मधुमास आया तो शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको पुनर्वसु नक्षत्रमें दोपहर के समय रानी कौसल्याने पुत्रको जन्म दिया। उस समय उत्तम लग्न था और सभी ग्रह शुभ स्थानोंमें स्थित थे। कौसल्याके पुत्ररूपमें सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी साक्षात् श्रीहरि ही अवतीर्ण हुए थे, जो योगियोंके ध्येय, सनातन प्रभु, सम्पूर्ण उपनिषदोंके प्रतिपाद्य तत्त्व, अनन्त, संसारकी सृष्टि, रक्षा और प्रलयके हेतु, रोग-शोकसे रहित, सब प्राणियोंको शरण देनेवाले और सर्वभूतस्वरूप परमेश्वर हैं। जगदीश्वरका अवतार होते ही आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं। श्रेष्ठ देवताओंने फूल बरसाये। प्रजापति आदि देवगण विमानपर बैठकर मुनियोंके साथ हर्षगद्गद हो स्तुति करने लगे।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार