श्रीमहादेवजी कहते हैं- पार्वती! पूर्वकालकी बात है, स्वायम्भुव मनु शुभ एवं निर्मल तीर्थ नैमिषारण्यमें गोमती नदीके तटपर द्वादशाक्षर महामन्त्रका जप करते थे। उन्होंने एक हजार वर्षतक लक्ष्मीपति भगवान् श्रीहरिका पूजन किया तब भगवान्ने प्रकट होकर कहा - 'राजन् ! मुझसे वर माँगो।' तब स्वायम्भुव मनुनेबड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- 'अच्युत ! देवेश्वर ! आप तीन जन्मोंतक मेरे पुत्र हों। मैं पुत्रभावसे आप पुरुषोत्तमका भजन करना चाहता हूँ।' उनके ऐसा कहनेपर भगवान् लक्ष्मीपति बोले- 'नृपश्रेष्ठ ! तुम्हारे मनमें जो अभिलाषा है, वह अवश्य पूर्ण होगी। तुम्हारा पुत्र होनेमें मुझे भी बड़ी प्रसन्नता है। जगत्के पालनतथा धर्मकी रक्षाका प्रयोजन उपस्थित होनेपर भिन्न भिन्न समयमें तुम्हारे जन्म लेनेके पश्चात् मैं भी तुम्हारे यहाँ अवतार लूंगा। अनघ साधु पुरुषोंकी रक्षा, पापियोंका विनाश और धर्मकी स्थापना करनेके लिये मैं प्रत्येक युगमें अवतार लेता हूँ।*
इस प्रकार स्वायम्भुव मनुको वरदान दे श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये। उन स्वायम्भुव मनुका पहला जन्म रघुकुलमें हुआ। वहाँ वे राजा दशरथके नामसे प्रसिद्ध हुए। दूसरी बार वे वृष्णिवंशमें वसुदेवरूपसे प्रकट हुए। फिर जब कलियुगके एक हजार दिव्य वर्ष व्यतीत हो जायँगे तो सम्भल नामक गाँवमें वे हरिगुप्त ब्राह्मणके रूपमें उत्पन्न होंगे। उनकी पत्नी भी प्रत्येक जन्ममें उनके साथ रहीं। अब मैं पहले श्रीरामचन्द्रजीके चरित्रका वर्णन करता हूँ, जिसके स्मरणमात्रसे पापियोंकी भी मुक्ति हो जाती है। हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य दूसरा जन्म धारण करनेपर महाबली कुम्भकर्ण और रावण हुए मुनिवर पुलस्त्यके विश्रवा नामके एक धार्मिक पुत्र हुए, जिनकी पत्नी राक्षसराज सुमालीकी कन्या थी उसकी माताका नाम सुकेशी था। उसका नाम केकशी था। केकशी दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाली थी किन्तु एक दिन कामवेगकी अधिकतासे सन्ध्याके समय उसने महामुनि विश्रवाके साथ रमण किया; अतः समयके दोषसे उसके गर्भसे दो तमोगुणी पुत्र उत्पन्न हुए, जो बहुत ही बलवान् थे। संसारमें वे रावण और कुम्भकर्णके नामसे विख्यात हुए। केकशीके गर्भसे एक शूर्पणखा नामकी कन्या भी हुई, जिसका मुख बड़ा ही विकराल था कुछ कालके पश्चात् उससे विभीषणका जन्म हुआ, जो सुशील, भगवद्भक्त, सत्यवादी, धर्मात्मा और परम पवित्र थे ।
रावण और कुम्भकर्ण हिमालय पर्वतपर अत्यन्त कठोर तपस्याके द्वारा मेरी आराधना करने लगे। रावण बड़ा दुष्टात्मा था। उसने बड़ा कठोर कर्म करके अपने मस्तकरूपी कमलोंसे मेरी पूजा की। तब मैंने प्रसन्नचित्त होकर उससे कहा- 'बेटा तुम्हारे मनमें जो कुछ हो, उसके अनुसार वर माँगो' तब वह दुष्टात्मा बोला
'देव! मैं सम्पूर्ण लोकोंपर विजय पाना चाहता हूँ। अतःआप मुझे देवता, दानव और राक्षसोंके द्वारा भाव | कर दीजिये।' पार्वती। मैंने उसके कथनानुसार दान | दे दिया। वरदान पाकर उस महापराक्रमी राक्षसको गर्व हो गया। वह देवता, दानव और मनुष्य ताना लोकोंके। प्राणियोंको पीड़ा देने लगा। उसके सताये हुए ब्रह्मा आदि देवता भयसे आतुर हो भगवान् लक्ष्मीपतिकी शरणये गये। सनातन प्रभुने देवताओंके कष्ट और उसके दूर होनेके उपायको भलीभाँति जानकर ब्रह्मा आदि सम्पूर्ण देवताओंसे कहा- 'देवगण में रघुकुलमें राजा दशरथके यहाँ अवतार धारण करूँगा और दुरात्मा रावणको बन्धु बान्धवोंसहित मार डालूँगा। मानवशरीर धारण करके मैं देवताओंके इस कण्टकको उखाड़ फेंकूँगा। ब्रह्माजीके शापसे तुमलोग भी गन्धर्वो और अप्सराओंसहित वानर योनिमें उत्पन्न हो मेरी सहायता करो।'
देवाधिदेव श्रीविष्णुके ऐसा कहनेपर सम्पूर्ण देवता इस पृथ्वीपर वानररूपमें प्रकट हुए। उधर सूर्यवंशमे वैवस्वत मनुके पुत्र राजा इक्ष्वाकु हुए, जो समस्त राजाओंमें श्रेष्ठ, महाबलवान् और सम्पूर्ण धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ थे। उन्होंकी कुल परम्परामें महातेजस्वी तथा बलवान् राजा दशरथ हुए, जो महाराज अजके पुत्र, सत्यवादी, सुशील एवं पवित्र आचार-विचारवाले थे। उन्होंने अपने पराक्रमसे समस्त भूमण्डलका पालन किया और सब राजाओंको अपने-अपने राज्यपर स्थापित किया। कोशलनरेशके एक सर्वांगसुन्दरी कन्या थी, जिसका नाम कौसल्या था राजा दशरथने उसीके साथ विवाह किया। तदनन्तर मगधराजकुमारी सुमित्रा उनकी द्वितीय पत्नी हुई केकयनरेशकी कन्या कैकेयी, जिसके नेत्र कमलदलके समान विशाल थे, महाराज दशरथकी तीसरी भार्या हुई। इन तीनों धर्मपत्नियोंके साथ धर्मपरायण होकर राजा दशरथ पृथ्वीका पालन करने लगे। अयोध्या नामकी नगरी, जो सरयूके तीरपर बसी हुई है, महाराजकी राजधानी थी। वह सब प्रकारके रत्नोंसे भरी पूरी और धन-धान्यसे सम्पन्न थी वह सोनेकी चहारदीवारीसे घिरी हुई और ऊँचे-ऊँचे गोपुरों (नगरद्वारों) से सुशोभित थी। धर्मात्मा राजा दशरथ अनेक मुनिवरों और अपने पुरोहित महात्मा वसिष्ठजीके साथ उस पुरीमें निवासकरते थे। उन्होंने वहाँ अकण्टक राज्य किया। वहाँ f भगवान् पुरुषोत्तम अवतार धारण करनेवाले थे, अतएव वह पवित्र नगरी अयोध्या कहलायी। परमात्माके उस नगरका नाम भी परम कल्याणमय है। जहाँ भगवान् विष्णु विराजते हैं, वही स्थान परमपद हो जाता है। वहाँ सब कर्मोका बन्धन काटनेवाला मोक्ष सुलभ होता है।
राजा दशरथने समस्त भूमण्डलका पालन करते हुए पुत्रकामनासे वैष्णवयागके द्वारा श्रीहरिका यजन किया। सबको वर देनेवाले सर्वव्यापक लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु उक्त यज्ञद्वारा राजा दशरथसे पूजित होनेपर वहाँ अग्निकुण्डमें प्रकट हुए। जाम्बूनदके समान उनकी श्याम कान्ति थी। वे हाथोंमें शंख, चक्र और गदा लिये हुए थे। उनके शरीरपर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहा था। वाम अंकमें भगवती लक्ष्मीजीके साथ वहाँ प्रत्यक्ष प्रकट हुए भक्तवत्सल परमेश्वर राजा दशरथसे बोले - 'राजन् ! मैं वर देनेके लिये आया हूँ।' सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी भगवान् विष्णुका दर्शन पाकर राजा दशरथ आनन्दमग्न हो गये। उन्होंने पत्नीके साथ प्रसन्नचित्तसे भगवान्के चरणोंमें प्रणाम किया और हर्षगद्गद वाणीमें कहा 'भगवन्! आप मेरे पुत्रभावको प्राप्त हों।' तब भगवान्ने प्रसन्न होकर राजासे कहा-'नृपश्रेष्ठ ! मैं देवलोकका हित, साधुपुरुषोंकी रक्षा, राक्षसोंका वध, लोगोंको मुक्ति प्रदान और धर्मकी स्थापना करनेके लिये तुम्हारे यहाँ अवतार लूँगा।'
ऐसा कहकर श्रीहरिने सोनेके पात्रमें रखा हुआदिव्य खीर, जो लक्ष्मीजीके हाथमें मौजूद था, राजाको दिया और स्वयं वहाँसे अन्तर्धान हो गये। राजा दशरथने वहाँ बड़ी रानी कौसल्या और छोटी रानी कैकेयीको उपस्थित देख इन्हीं दोनोंमें उस दिव्य खीरको बाँट दिया। इतनेहीमें मझली रानी सुमित्रा भी पुत्रकी कामनासे राजाके समीप आयीं। उन्हें देख कौसल्या और कैकेयीने तुरंत ही अपने-अपने खीरमेंसे आधा-आधा निकालकर उनको दे दिया। उस दिव्य खीरको खाकर तीनों ही रानियाँ गर्भवती हुईं। उस समय उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उन्हें कई बार सपनेमें शंख, चक्र और गदा लिये तथा पीताम्बर पहने देवेश्वर भगवान् विष्णु दर्शन दिया करते थे। तदनन्तर समयानुसार जब चैतका मनोरम मधुमास आया तो शुक्लपक्षकी नवमी तिथिको पुनर्वसु नक्षत्रमें दोपहर के समय रानी कौसल्याने पुत्रको जन्म दिया। उस समय उत्तम लग्न था और सभी ग्रह शुभ स्थानोंमें स्थित थे। कौसल्याके पुत्ररूपमें सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी साक्षात् श्रीहरि ही अवतीर्ण हुए थे, जो योगियोंके ध्येय, सनातन प्रभु, सम्पूर्ण उपनिषदोंके प्रतिपाद्य तत्त्व, अनन्त, संसारकी सृष्टि, रक्षा और प्रलयके हेतु, रोग-शोकसे रहित, सब प्राणियोंको शरण देनेवाले और सर्वभूतस्वरूप परमेश्वर हैं। जगदीश्वरका अवतार होते ही आकाशमें देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं। श्रेष्ठ देवताओंने फूल बरसाये। प्रजापति आदि देवगण विमानपर बैठकर मुनियोंके साथ हर्षगद्गद हो स्तुति करने लगे।