श्रीपार्वती बोलीं- विश्वेश्वर! प्रभो। भगवान् श्रीविष्णुका माहात्म्य अद्भुत है, जिसे सुनकर फिर कभी संसार बन्धन नहीं प्राप्त होता आप पुनः उसका वर्णन कीजिये।
महादेवजीने का सुन्दरी! मैं भगवान् श्रीविष्णुके उत्तम माहात्म्यका वर्णन करता हूँ, सुनो इसे सुनकर मनुष्य पुण्य प्राप्त करता है और अन्तमें उसे मोक्षकी प्राप्ति होती है। महाप्राज्ञ देवव्रत, जो इन्द्र आदि देवताओंके लिये भी दुर्धर्ष थे, कुरुक्षेत्रकी पुण्यभूमिमें ध्यानयोगपरायण हो रहे थे। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके आश्रय थे। उन्होंने अपनी इन्द्रियोंको वशमें कर लिया था। उनमें पापका लेश भी नहीं था। वे सत्यप्रतिज्ञ थे और क्रोधको जीतकर समतामें प्रतिष्ठित हो चुके थे। संसारके स्वामी और सबको शरण देनेवाले भक्तवत्सल भगवान् नारायणमें मन, वाणी, शरीर और क्रियाके द्वारा वे परम निष्ठाको प्राप्त थे। ऐसे शान्तचित्त तथा समस्त गुणके आश्रयभूत कुरु पितामह भीष्मको पृथ्वीपर मस्तक झुकाकर राजा युधिष्ठिरने प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा।युधिष्ठिर बोले- समस्त शास्त्र-वेत्ताओंमें श्रेष्ठ, धर्मके ज्ञाता पितामह। कोई तो धर्मको सबसे श्रेष्ठ बतलाते हैं और कोई धनको कोई दानकी प्रशंसा करते हैं, तो कोई संग्रहके गीत गाते हैं। कुछ लोग सांख्यके समर्थक हैं, तो दूसरे लोग योगके। कोई यथार्थ ज्ञानको उत्तम मानते हैं, तो कोई वैराग्यको कुछ लोग अग्निष्टोम आदि कर्मको ही सबसे श्रेष्ठ समझते हैं, तो कुछ लोग उस आत्मज्ञानको बड़ा मानते हैं, जिसे पाकर मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णमें समबुद्धि हो जाती है। कुछ लोगोंके मतमें मनीषी पुरुषोंद्वारा बताये हुए यम और नियम ही सबसे उत्तम हैं। कुछ लोग दयाको श्रेष्ठ बताते हैं, तो कुछ तपस्वी महात्मा अहिंसाको ही सर्वोत्तम कहते हैं। कुछ मनुष्य शौचाचारको श्रेष्ठ बतलाते हैं, तो कुछ देवार्चनको। इस विषय में पाप कर्मोंसे मोहित चित्तवाले मानव चक्कर खा जाते हैं-वे कुछ निर्णय नहीं कर पाते। इन सबमें जो सर्वोत्तम कृत्य हो, जिसका महात्मा पुरुष भी अनुष्ठान कर सकें, उसे बतानेकी कृपा कीजिये।
भीष्मजी बोले- धर्मनन्दन! सुनो, यह अत्यन्त गूढ़ विषय है, जो संसारबन्धनसे मोक्ष दिलानेवाला है। यह विषय तुम्हें भलीभाँति सुनना और जानना चाहिये। पुण्डरीक नामके एक परम बुद्धिमान् और वेदविद्यासे सम्पन्न ब्राह्मण थे, जो ब्रह्मचर्य आश्रम में निवास करते हुए सदा गुरुजनोंकी आज्ञाके अधीन रहा करते थे। वे जितेन्द्रिय, क्रोधजयी, संध्योपासनमें तत्पर, वेद वेदांगोंके ज्ञानमें निपुण और शास्त्रोंकी व्याख्या करनेमें कुशल थे। प्रतिदिन सायंकाल और प्रात: काल समिधाओंसे अग्निको प्रज्वलित करके उत्तम हविष्यसे होम किया करते थे। जगत्पति भगवान् विष्णुका ध्यान करके विधिपूर्वक उनकी आराधनामें लगे रहते थे। तपस्या और स्वाध्यायमें तत्पर रहकर वे साक्षात् ब्रह्माजीके पुत्रकी भाँति जान पड़ते थे। जल, समिधा और फूल आदि लाकर निरन्तर गुरुकी पूजामें प्रवृत्त रहते थे। उनके मनमें माता-पिताके प्रति भी पूर्ण सेवाका भाव था। वे भिक्षाका आहार करते और दम्भ-द्वेपसे दूर रहतेथे। ब्रह्मविद्या (उपनिषद्)- ) का स्वाध्याय करते और प्राणायामके अभ्यासमें संलग्न रहते थे। उनके हृदयमें सबके प्रति आत्मभाव था। संसारकी ओरसे वे निःस्पृह हो गये थे। एक बार उनके मनमें संसार सागरसे तारनेवाला विचार उत्पन्न हुआ; फिर तो वे । माता-पिता, भाई, सुहृद्, मित्र, सखा, सम्बन्धी, बन्धु बान्धव, वंशपरम्परासे प्राप्त एवं धन-धान्यसे परिपूर्ण गृह, सब प्रकारके अन्नकी पैदावारके योग्य बहुमूल्य खेत तथा उनकी तृष्णा छोड़कर महान् धैर्यसे सम्पन्न और परम सुखी होकर पैदल ही पृथ्वीपर विचरने लगे। 'यह यौवन, रूप, आयु और धनका संग्रह सब अनित्य है'- याँ विचारकर उनका मन तीनों लोकोंकी ओरसे फिर गया। पाण्डुनन्दन ! महायोगी पुण्डरीक पुराणोक्त मार्गसे यथासमय समस्त तीर्थोंमें विधिपूर्वक विचरने लगे।
एक समय धीर तपस्वी महाभाग पुण्डरीक अपने पूर्वकर्मकि अधीन हो घूमते-घामते शालग्रामतीर्थमे जा पहुँचे, जो उपस्थाके धनी एवं तत्यवेता मुनियोंके द्वारा सेवित था। उस परम पुण्यमय क्षेत्रमें सरस्वती नदीके देवहद नामक तीर्थमें स्नान करके उत्तम व्रतका पालन करनेवाले वे महाबुद्धिमान् ब्राह्मण वहाँके जातिस्मरी, चक्रकुण्ड, चक्र नदीसे सम्बन्ध रखनेवाले अन्य कुण्ड तथा अन्यान्य तीर्थोंमें भी घूमने लगे। तीर्थसेवनसे उनका अन्तःकरण अत्यन्त शुद्ध हो चुका था, अतः उन्होंने ध्यानयोगमें प्रवृत्त होकर वहीं अपना आश्रम बना लिया। उसी तीर्थमें शास्त्रोक्त विधि तथा परम भक्तिके साथ भगवान् गरुडध्वजकी आराधना करके वे सिद्धि पाना चाहते थे; इसलिये शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वोंसे रहित एवं जितेन्द्रिय हो दीर्घ कालतक अकेले ही वहाँ निवास करते रहे। शाक, मूल और फल यही उनका भोजन था। वे सदा संतुष्ट रहते और सबमें समान दृष्टि रखते थे । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिके द्वारा आलस्यरहित हो सदा विधिपूर्वक योगाभ्यास करते थे। उनके सारे पाप दूर हो चुके थे; वे वैदिक, तान्त्रिक तथा पौराणिक मन्त्रोंसे सर्वेश्वर भगवान् विष्णुको आराधना करते थे अतःउन्होंने भलीभाँति शुद्धि प्राप्त कर ली थी। राग-द्वेषसे मुक्त हो मूर्तिवान् स्वधर्मको भाँत चित्रावृत्तियोंको भगवान् लगाकर वे निरन्तर उनकी आराधनामें संलग्न रहते थे।
तदनन्तर किसी समय परमार्थ-तत्त्वके ज्ञाता साक्षात् सूर्यके समान महातेजस्वी, विष्णुभक्तिसे परिपूर्ण हृदयवाले तथा वैष्णवोंके हितमें तत्पर रहनेवाले देवर्षि नारदजी तपोनिधि पुण्डरीकको देखनेके लिये उस स्थानपर आये। नारदजीको आया देख पुण्डरीक प्रसन्न चित्तसे उठे और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम किया। तत्पश्चात् विधिपूर्वक अर्घ्य निवेदन करके उन्होंने पुनः नारदजीको मस्तक झुकाया। फिर मन ही मन विचार किया ये अद्भुत आकार और मनोहर वेष धारण करनेवाले तेजस्वी पुरुष कौन हैं। इनके हाथमें वीणा है तथा मुखपर प्रसन्नता छा रही है। यह सोचते हुए वे उन परम तेजस्वी नारदजीसे बोले 'महाद्युते! आप कौन हैं? और कहाँसे इस आश्रमपर पधारे हैं? भगवन्! इस पृथ्वीपर आपका दर्शन तो प्रायः दुर्लभ ही है। मेरे लिये जो आज्ञा हो, उसे बताने की कृपा कीजिये।'
नारदजीने कहा- ब्रह्मन् ! मैं नारद हूँ। तुम्हेंदेखनेकी उत्कण्ठासे यहाँ आया हूँ। द्विजश्रेष्ठ! भगवान्का भक्त यदि चाण्डाल हो तो भी वह स्मरण, वार्तालाप अथवा पूजन करनेपर सबको पवित्र कर देता है।" जो अपने हाथोंमें शार्ङ्ग नामक धनुष, पांचजन्य शंख, सुदर्शन चक्र और कौमोदकी गदा धारण करते हैं तथा जो त्रिभुवनके नेत्र हैं, उन देवाधिदेव भगवान्का मैं दास हूँ।
पुण्डरीक बोले- देवर्षे ! आपका दर्शन पाकर देहधारियोंमें धन्य हो गया, देवताओंके लिये भी परम पूजनीय बन गया। मेरे माता-पिता कृतार्थ हो गये और आज मैंने जन्म लेनेका फल पा लिया। नारदजी ! मैं आपका भक्त हूँ, मुझपर अनुग्रह कीजिये। मुझे परम गुढ़ रहस्यसे भरे हुए कर्तव्यका उपदेश दीजिये।
नारदजीने कहा- ब्रह्मन् ! इस पृथ्वीपर अनेक शास्त्र, बहुत-से कर्म और नाना प्रकारके धर्म हैं; इसीलिये संसारमें ऐसी विलक्षणता दिखायी देती है। अन्यथा सभी प्राणियोंको या तो केवल सुख ही सुख प्राप्त होता या केवल दुःख ही दुःख। [कोई सुखी और कोई दुःखी-ऐसा अन्तर देखनेमें नहीं आता ।] कुछ लोगोंके मतमें यह जगत् क्षणिक, विज्ञानमात्र, चेतन आत्मासे रहित तथा बाह्य पदार्थों की अपेक्षासे शून्य है।' दूसरे लोग ऐसा कहते हैं कि 'यह जगत् सदा नित्य अव्यक्त (मूल प्रकृति) से उत्पन्न होता है। तथा उसीमें लीन होता है, अतः उपादानकी नित्यताके अनुसार यह भी नित्य ही है। कुछ लोग तत्त्वके विचारमें प्रवृत्त होकर ऐसा निश्चय करते हैं कि 'आत्मा अनेक, नित्य एवं सर्वगत है।' दूसरे लोग इस निश्चयपर पहुँचे हैं कि 'जितने शरीर हैं, उतने ही आत्मा हैं।' इस मतके अनुसार हाथी और कीड़े आदिके शरीरमें तथा [ब्रह्माण्डरूपी ] महान् अण्डमें भी आत्माकी सत्ता मौजूद है। कुछ लोगोंका कहना है कि 'आज इस जगत्की जैसी अवस्था है, वैसी ही कालान्तरमें भी रहती है। संसारका यह [अनादि] प्रवाह नित्य ही बना रहता है,भला इसका कर्ता कौन है।' कुछ अन्य व्यक्तियोंकी रायमें 'जो-जो वस्तु प्रत्यक्ष उपलब्ध होती है, उसके सिवा और किसी वस्तुकी सत्ता नहीं है; फिर स्वर्ग आदि कहीं हैं। कुछ लोग जगत्को ईश्वरकी सत्तासे रहित समझते हैं और कुछ लोग इसमें ईश्वरको व्यापक मानते हैं। इस प्रकार एक-दूसरेसे अत्यन्त भिन्न विचार रखनेवाले ये सभी लोग सत्यसे विमुख हो रहे हैं। इसी तरह भिन्न-भिन्न मतका मायाजाल फैलानेवाले दूसरे लोग भी बुद्धि और विद्याके अनुसार अपनी-अपनी युक्तियोंको स्थापित करते हुए भेदपूर्ण विचारोंको लेकर भाँति-भाँति बातें करते हैं
तपोधन! अब मैं तर्कमें स्थित होकर वास्तविक तत्त्वकी बात कहता हूँ। यह परमार्थज्ञान परम पुण्यमय और भयंकर संसारबन्धनका नाश करनेवाला है। देवता आदिसे लेकर मनुष्यपर्यन्त सब लोग उसीको प्रामाणिक मानते हैं, जो परमार्थज्ञानमूलक प्रतीत होता है। किन्तु जो अज्ञानसे मोहित हो रहे हैं, वे लोग अनागत (भविष्य), अतीत (भूत) और दूरवर्ती वस्तुको प्रमाणरूपमें नहीं स्वीकार करते। उन्हें प्रत्यक्ष वर्तमान वस्तुकी ही प्रामाणिकता मान्य है । परन्तु मुनियोंने प्रत्यक्ष और अनुमानके सिवा उस आगमको भी प्रमाण माना है, जो पूर्वपरम्परासे एक ही रूपमें चला आ रहा हो। वास्तवमें ऐसे आगमको ही परमार्थ वस्तुके साधनमें प्रमाण मानना चाहिये। द्विजश्रेष्ठ ! आगम उस शास्त्रका नाम है, जिसके अभ्यासके बलसे राग-द्वेषरूपी मलका नाश करनेवाला उत्तम ज्ञान उत्पन्न होता हो। जो कर्म और उसके फलरूपसे प्रसिद्ध है, जिसका तत्त्व ही विज्ञान और दर्शन नाम धारण करता है, जो सर्वत्र व्यापक और जाति आदिकी कल्पनासे रहित है, जिसे आत्मसंवेदन (आत्मानुभव)-रूप, नित्य, सनातन, इन्द्रियातीत, चिन्मय, 'अमृत ज्ञेय, अनन्त, अजन्मा, अविकारी, व्यक्त और अव्यक्तरूपमें स्थित, निरंजन (निर्मल), सर्वव्यापी श्रीविष्णु के नामसे विख्यात तथा वाणीद्वारा वर्णित समस्तवस्तुओंसे भिन्नरूपमें स्थित माना गया है, वह परमात्मा ही आगमका दूसरा लक्षण है। तात्पर्य यह कि साधन भूत ज्ञान और साध्यस्वरूप ज्ञेय दोनों ही आगम हैं। वह ज्ञेय परमात्मा योगियोंद्वारा ध्यान करनेयोग्य है। परमार्थसे विमुख मनुष्यों द्वारा उसका ज्ञान होना असम्भव है। भिन्न-भिन्न बुद्धियोंसे वह यद्यपि भिन्न-सा लक्षित होता है, तथापि आत्मासे भिन्न नहीं है तात पुण्डरीक ध्यान देकर सुनो। सुव्रत ! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मेरे पूछनेपर जिस ताका उपदेश किया था, वही तुम्हें बतलाता हूँ। एक समय अज, अविनाशी पितामह ब्रह्माजी ब्रह्मलोकमें विराजमान थे। उस समय मैंने विधिपूर्वक उनके चरणोंमें प्रणाम करके पूछा 'ब्रह्मन् ! कौन-सा ज्ञान सबसे उत्तम बताया गया है ? तथा कौन-सा योग सर्वश्रेष्ठ माना गया है? यह सब यथार्थरूपसे मुझे बताइये।'
ब्रह्माजीने कहा - तात! सावधान होकर परम उत्तम ज्ञानयोगका श्रवण करो। यह थोड़े-से वाक्योंमें कहा गया है, किन्तु इसका अर्थ बहुत विस्तृत है। इसकी उपासनामें कोई क्लेश या परिश्रम नहीं है। जिन्हें गुरु परम्परासे पंचविंशक पुरुष बतलाया गया है, वे ही सम्पूर्ण भूतक आत्मा है, इसलिये उन्हींको सम्पूर्ण जगत्के निवासरूप सनातन परमात्मा नारायण कहा जाता है। वे ही संसारको सृष्टि, संहार और पालनमें लगे रहते हैं। ब्रहान्। ब्रह्मा, शिव और विष्णु-इन तीनों रूपोंमें एक ही देवाधिदेव सनातन पुरुष विराज रहे हैं। अपना हित चाहनेवाले पुरुषको सदा उन्हींकी आराधना करनी चाहिये जो निःस्पृह नित्य संतुष्ट, ज्ञानी, जितेन्द्रिय ममता- अहंकारसे रहित, राग-द्वेषसे शून्य, शान्तचित्त और सब प्रकारको आसक्तियोंसे पृथक् हो ध्यानयोग प्रवृत्त रहते हैं, वे ही उन अक्षय जगदीश्वरको देखते और प्राप्त करते हैं। जो लोग भगवान् नारायणकी शरण ग्रहण कर चुके हैं तथा जिनके मन-प्राण उन्हींके चिन्तनमें लगे हैं, वे ही ज्ञानदृष्टिसे संसारकी वर्तमानअवस्थाको, कालान्तरमें होनेवाली अवस्थाको, भूत, भविष्य, वर्तमान और दूरको स्थूल और सूक्ष्मको तथा अन्य ज्ञातव्य बातोंको यथार्थरूपसे देख पाते हैं। इसके विपरीत जिनकी बुद्धि मन्द और अन्तःकरण दूषित है तथा जिनका स्वभाव कुतर्क और अज्ञानमे दुष्ट हो रहा है, ऐसे लोगोंको सब कुछ उलटा ही प्रतीत होता है।
नारदजी कहते हैं- पुण्डरीक! अब मैं दूसरा प्रसंग सुनाता हूँ, इसे भी सुनो पूर्वकालमें जगत्के कारणभूत ब्रह्माजीने ही इसका भी उपदेश किया था। एक बार इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा ऋषियोंके पूछनेपर उत्तम व्रतका पालन करनेवाले ब्रह्माजीने उनके हितकी बात इस प्रकार बतायी थी।
ब्रह्माजीने कहा- देवताओ। भगवान् नारायण ही सबके आश्रय हैं। सनातन लोक, यज्ञ तथा नाना प्रकारके शास्त्रोंका भी पर्यवसान नारायणमें ही होता है। छहाँ अंगोंसहित वेद तथा अन्य आगम सर्वव्यापीविश्वेश्वर श्रीहरिके ही स्वरूप हैं। पृथ्वी आदि पाँचों भूत भी वे ही अविनाशी परमेश्वर हैं। देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत्को श्रीविष्णुमय ही जानना चाहिये; तथापि पापी मनुष्य मोहग्रस्त होनेके कारण इस बातको नहीं समझते। यह समस्त चराचर जगत् उन्हींकी मायासे व्याप्त है। जो मनसे भगवान्का ही चिन्तन करता है, जिसके प्राण भगवान्में ही लगे रहते हैं, वह परमार्थतत्त्वका ज्ञाता पुरुष ही इस रहस्यको जानता है। सम्पूर्ण भूतक ईश्वर भगवान् विष्णु ही तीनों लोकोंका पालन करनेवाले हैं। यह सारा संसार उन्हींमें स्थित है और उन्होंसे उत्पन्न होता है। वे ही रुद्ररूप होकर जगत्का संहार करते हैं। पालनके समय उन्हींको श्रीविष्णु कहते हैं तथा सृष्टिकालमें मैं (ब्रह्मा) और अन्यान्य लोकपाल भी उन्हींके स्वरूप हैं। वे सबके आधार हैं, परन्तु उनका आधार कोई नहीं है। ये सम्पूर्ण कलाओंसे युक्त होते हुए भी उनसे रहित हैं। वे ही छोटे-बड़े तथा उनसे भिन्न हैं। साथ ही इन सबसे विलक्षण भी हैं; अतः देवताओ! सबका संहार करनेवाले उन श्रीहरिकी ही शरणमें जाओ। वे ही हमारे जन्मदाता पिता हैं। उन्हींको मधुसूदन कहा गया है।
नारदजी कहते हैं— कमलयोनि ब्रह्माजीके याँ कहनेपर सब देवताओंने सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी सर्वव्यापी देव भगवान् जनार्दनकी शरण होकर उन्हें प्रणाम किया; अतः विप्रर्षे! तुम भी श्रीनारायणकी आराधनामें लग जाओ। उनके सिवा दूसरा कौन ऐसा परम उदार देवता है, जो भक्तकी माँगी हुई वस्तु दे सके। ये पुरुषोत्तम ही पिता और माता हैं। सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी देवताओंके भी देवता और जगदीश्वर हैं। तुम उन्हींकी परिचर्या करो। प्रतिदिन आलस्यरहित हो अग्निहोत्र, भिक्षा, तपस्या और स्वाध्यायके द्वारा उनदेवदेवेश्वर गुरुको ही संतुष्ट करना चाहिये। ब्रह्मर्णे उन्हीं पुरुषोत्तम नारायणको तुम सब तरहसे अपनाओ।
उन बहुत से मन्त्रों और उन बहुत से व्रतोंके द्वारा क्या लेना है। 'ॐ नमो नारायणाय' यह मन्त्र ही सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थकी सिद्धि करनेवाला है। द्विजश्रेष्ठ ! ब्राह्मण चीरवस्त्र पहनकर जटा रखा ले या दण्ड धारण करके मुँड़ मुँड़ा ले अथवा आभूषणोंसे विभूषित रहे; ऊपरी चिह्न धर्मका कारण नहीं होता। जो भगवान् नारायणकी शरण ले चुके हैं, वे क्रूर, दुरात्मा और सदा ही पापाचारी रहे हों तो भी परमपदको प्राप्त होते हैं। जिनके पाप दूर हो गये हैं, ऐसे वैष्णव पुरुष कभी पापसे लिप्त नहीं होते। वे अहिंसाभावके द्वारा अपने मनको काबू किये रहते हैं और सम्पूर्ण संसारको पवित्र करते हैं। *
क्षत्रबन्धु नामके राजाने, जो सदा प्राणियोंकी हिंसामें ही लगा रहता था, भगवान् केशवकी शरण लेकर श्रीविष्णुके परमधामको प्राप्त कर लिया। महान् धैर्यशाली राजा अम्बरीषने अत्यन्त कठोर तपस्या की थी और भगवान् पुरुषोत्तमकी आराधना करके उनका साक्षात्कार किया था। राजाओंके भी राजा मित्रासन बड़े तत्त्ववेत्ता थे। उन्होंने भी भगवान् हृषीकेशकी आराधना करके ही उनके वैकुण्ठधामको प्राप्त किया था। उनके सिवा बहुत से ब्रहार्षि भी, जो तीक्ष्ण व्रतोंका पालन करनेवाले और शान्तचित्त थे, परमात्मा विष्णुका ध्यान करके परम सिद्धि (मोक्ष) को प्राप्त हुए। पूर्वकालमें परम आह्लादसे भरे हुए प्रह्लाद भी सम्पूर्ण जीवोंके आश्रयभूत श्रीहरिका सेवन, पूजन और ध्यान करते थे; अतः भगवान्ने ही उनकी संकटोंसे रक्षा की परम धर्मात्मा और तेजस्वी राजा भरतने भी दीर्घकालतक इन श्रीविष्णुभगवान्की उपासना करके परम मोक्ष प्राप्त कर लिया था।ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ अथवा संन्यासी कोई भी क्यों न हो, भगवान् केशवकी आराधनाको छोड़कर परमगतिको नहीं प्राप्त हो सकता। हजारों जन्म लेनेके पश्चात् जिसकी ऐसी बुद्धि होती है कि 'मैं भगवान् विष्णुके भक्तोंका दास हूँ, वह समस्त पुरुषार्थीका साधक होता है। वह पुरुष भी निस्सन्देह श्रीविष्णुधाममें जाता है। फिर जो कठोर व्रतोंका पालन करनेवाले पुरुष भगवान् विष्णुमें ही मन-प्राण लगाये रहते हैं, उनकी उत्तम गतिके विषयमें क्या कहना है। अतः तत्त्वका चिन्तन करनेवाले पुरुषोंको चाहिये कि वे नित्य निरन्तर अनन्यचित्तसे विश्वव्यापी सनातन परमात्मा नारायणका ध्यान करते रहें। *
भीष्मजी कहते हैं—यों कहकर परोपकारपरायण परमार्थवेत्ता देवर्षि नारद वहीं अन्तर्धान हो गये। नारायणकी शरणमें पड़े हुए धर्मात्मा पुण्डरीक भी 'ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षरमन्त्रका जप करने लगे। वे अपने हृदयकमलमें अमृतस्वरूप गोविन्दकी स्थापना करके मुखसे सदा यही कहा करते थे कि 'हे विश्वात्मन्! आप मुझपर प्रसन्न होइये।' द्वन्द्व और परिग्रहसे रहित हो तपोधन पुण्डरीकने उस निर्मल शालग्रामतीर्थमें अकेले ही चिरकालतक निवास किया। स्वप्नमें भी उन्हें केशवके सिवा और कुछ नहीं दिखायी देता था। उनकी निद्रा भी पुरुषार्थ सिद्धिकी विरोधिनी नहीं थी। तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा विशेषतः शौचाचारके पालनसे, जन्म-जन्मान्तरोंके विशुद्ध संस्कारसे तथा सर्वलोकसाक्षी देवाधिदेव श्रीविष्णुके प्रसादसे पापरहित पुण्डरीकने परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि प्राप्त कर ली। वे सदा हाथोंमें शंख, चक्र और गदा लिये कमलके समान नेत्रोंवाले श्यामसुन्दर पीताम्बरधारी भगवान् अच्युतकी ही झाँकी किया करते थे मृगों और प्राणियोंकी हिंसा करनेवाले सिंह, व्याघ्रतथा अन्यान्य जीव अपना स्वाभाविक विरोध छोड़कर उनके समीप आते और इच्छानुसार विचरा करते थे। उनकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ प्रसन्न रहती थीं। उनके हृदयमें एक-दूसरेके हितसाधनका मनोरम भाव भर जाता था। वहाँके जलाशय और नदियोंके जल स्वच्छ हो गये थे। सभी ऋतुओंमें वहाँ प्रसन्नता छायी रहती थी। सबकी इन्द्रिय-वृत्तियाँ शुद्ध हो गयी थीं हवा ऐसी चलती थी. जिसका स्पर्श सुखदायक जान पड़े। वृक्ष फूल और फलोंसे लदे रहते थे। परम बुद्धिमान् पुण्डरीकके लिये सभी पदार्थ अनुकूल हो गये थे। देवदेवेश्वर भक्तवत्सल गोविन्दके प्रसन्न होनेपर उनके लिये समस्त चराचर जगत् प्रसन्न हो गया था।
तदनन्तर एक दिन बुद्धिमान् पुण्डरीकके सामने भगवान् जगन्नाथ प्रकट हुए। हाथोंमें शंख, चक्र औरगदा शोभा पा रहे थे। तेजोमयी आकृति, कमलके समान बड़े-बड़े नेत्र और चन्द्रमण्डलके समान कान्तिमान् सुख कमरमें करधनी, कानोंमें कुण्डल, गलेमें हार बाहुअर्मि भुजबन्द, वक्षःस्थलमें श्रीवत्सका चिह्न और श्याम शरीरपर पीतवस्त्र शोभा पा रहे थे। भगवान् कौस्तुभमणिसे विभूषित थे। वनमालासे उनका सारा अंग व्याप्त था। मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे। दमकते हुए यज्ञोपवीत और नीचेतक लटकती हुई मोतियोंकी मालासे उनकी शोभा और भी बढ़ गयी थी। देव, सिद्ध, देवेन्द्र, गन्धर्व और मुनि चैवर तथा व्यजन आदिसे भगवान्की सेवा कर रहे थे पापरहित पुण्डरीकने स्वयं उन देवदेवेश्वर महात्मा जनार्दनको वहाँ उपस्थित देख पहचान लिया और प्रसन्न चित्तसे हाथ जोड़ प्रणाम करके स्तुति करना आरम्भ किया।
पुण्डरीक बोले सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र नेत्र आप भगवान् विष्णुको नमस्कार है। आप निरंजन (निर्मल), नित्य, निर्गुण एवं महात्मा है; आपको नमस्कार है। आप समस्त प्राणियोंके ईश्वर है भोंका भय एवं पीड़ा दूर करनेके लिये गोविन्द तथा गरुडध्वजरूप धारण करते हैं। जीवोंपर अनुग्रह करनेके लिये अनेक आकार धारण करनेवाले आपको नमस्कार है। यह सम्पूर्ण विश्व आपमें ही स्थित है। केवल आप ही इसके उपादान कारण हैं। आपने ही जगत्का निर्माण किया है। नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले आप भगवान् पद्मनाभको बारंबार नमस्कार है। समस्त वेदान्तोंमें जिनकी आत्मविभूतिका ही श्रवण किया जाता है, उन परमेश्वरको नमस्कार है। नारायण! आप ही सम्पूर्ण देवताओंके स्वामी और जगत् के कारण हैं। मेरे हृदयमन्दिरमें निवास करनेवाले भगवान् शंख-चक्र-गदाधर! मुझपर प्रसन्न होइये। समस्त प्राणियोंके आदिभूत, इस पृथ्वीको धारण करनेवाले, अनेक रूपधारी तथा सबकी उत्पत्तिके कारण श्रीविष्णुको नमस्कार है। ब्रह्मा आदि देवता और सुरेश्वर भी जिनकी महिमाको नहीं जानते,जिनकी महिमाका तपस्यासे ही अनुमान हो सकता है, उन परमात्माको नमस्कार है। भगवन्। आपकी महिमा वाणीका विषय नहीं है, उसे कहना असम्भव है। आप जाति आदिकी कल्पनासे दूर हैं, अतः सदा तत्त्वतः ध्यान करनेके योग्य हैं। पुरुषोत्तम! आप एक अद्वितीय होते हुए भी भक्तोंपर कृपा करनेके लिये भेदरूपसे मत्स्य कूर्म आदि अवतार धारण करके दर्शन देते हैं।
भीष्मजी कहते हैं- इस प्रकार जगत्के स्वामी वीरवर भगवान् पुरुषोत्तमकी स्तुति करके पुण्डरीक उन्हींको निहारने लगे; क्योंकि चिरकालसे वे उनके दर्शनकी लालसा रखते थे तब तीन पर्गोंसे त्रिलोकीको नापनेवाले तथा नाभिसे कमल प्रकट करनेवाले भगवान् विष्णुने महाभाग पुण्डरीकसे गम्भीर वाणीमें कहा 'बेटा पुण्डरीक! तुम्हारा कल्याण हो। मैं तुमपर बहुत प्रसन्न हूँ। महामते तुम्हारे मनमें जो भी कामना हो, उसे वरके रूपमें माँगो मैं अवश्य दूँगा।'
पुण्डरीक बोले- देवेश्वर! कहाँ मैं अत्यन्त खोटी बुद्धिवाला मनुष्य और कहाँ मेरे परम हितैषी आप माधव जिसमें मेरा हित हो, उसे आप ही दीजिये।
पुण्डरीकके यों कहनेपर भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होकर बोले- 'सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो। आओ, मेरे ही साथ चलो। तुम मेरे परम उपकारी और सदा मुझमें ही मन लगाये रखनेवाले हो अतः सर्वदा मेरे साथ ही रहो।'
भीष्मजी कहते हैं- भक्तवत्सल भगवान् श्रीधरने प्रसन्नतापूर्वक जब इस प्रकार उसी समय आकाशमें देवताओंकी दुंदुभी बज उठी और आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी। ब्रह्मा आदि देवता साधुवाद देने लगे सिद्ध गन्धर्व और किन्नर गान करने लगे। समस्त लोकोंद्वारा वन्दित देवदेव जगदीश्वरने वहीं पुण्डरीकको अपने साथ ले लिया और गरुड़पर आरूढ़ हो वे परमधामको चले गये; इसलिये राजेन्द्र युधिष्ठिरतुम भी भगवान् विष्णुकी भक्तिमें लग जाओ। उन्हीं में मन, प्राण लगाये रहो और सदा उनके भक्तोंके हितमें तत्पर रहो। यथायोग्य अर्चना करके पुरुषोत्तमका भजन करो और सब पापोंका नाश करनेवाली भगवान्की पवित्र कथा सुनो। राजन्! जिस उपायसे भी भक्तपूजित विश्वात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हों, वह विस्तारके साथ करो। जो मनुष्य भगवान् नारायणसे विमुख होते हैं, वे सौ अश्वमेध और सौ वाजपेययज्ञोंका अनुष्ठान करके भी उन्हें नहीं पा सकते। जिसने एक बार भी 'हरि' इन दो अक्षरोंका उच्चारण कर लिया, उसने मोक्षतक पहुँचनेके लिये मानो कमर कस ली। जिनके हृदयमें नीलकमलके समान श्यामसुन्दर भगवान् जनार्दन विराजमान हैं, उन्हींको लाभ है, उन्हींकी विजय है; उनकी पराजय कैसे हो सकती है। * जो एकाग्रचित्त होकर प्रतिदिन इसे सुनता या पढ़ता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो भगवान् विष्णुके धाममें जाता है।