View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 62 - Khand 2, Adhyaya 62

Previous Page 62 of 266 Next

श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-नृपश्रेष्ठ! अब मैं पुनः नैमित्तिक दानका वर्णन करता हूँ। जो सत्पात्रको हाथी, घोड़ा और रथ दान करता है, वह भृत्योंसहित पुण्यमय प्रदेशका राजा होता है। राजा होनेके साथ ही वह धर्मात्मा, विवेकी, बलवान्, उत्तम बुद्धिसे युक्त, सम्पूर्ण प्राणियोंके लिये अजेय और महान तेजस्वी होता है। महाराज ! जो महान् पर्व आनेपर भूमिदान अथवा गोदान करता है, वह सब भोगोंका अधीश्वर होता है। जो पर्व आनेपर तीर्थमें गुप्त दान देता है, उसे शीघ्र ही अक्षय निधियोंकी प्राप्ति होती है जो तीथोंमें महापर्वके प्राप्त होनेपर ब्राह्मणको सुन्दर वस्त्र और सुवर्णका महादान देता है, उसके बहुत से सद्गुणी और वेदोंके पारगामी पुत्र उत्पन्न होते हैं वे सभी आयुष्मान्, पुत्रवान् यशस्वी, पुण्यात्मा यज्ञ करनेवाले तथा तत्वज्ञानी होते हैं। महामते दान करनेवालेको सुख, पुण्य एवं धनकी प्राप्ति होती है। महाराज! कपिला गौका दान करनेवाले पुरुष महान् सुख भोगते हैं; ब्रह्माकी आयुपर्यन्त वे भी ब्रह्मलोकमें निवास करते हैं। सुशील ब्राह्मणको वस्त्रसहित सुवर्णका दान देकर मनुष्य अग्निके समान तेजस्वी होता है और अपनी इच्छाकेअनुसार वैकुण्ठ धाममें निवास करता है। अब आभ्युदयिक दानका वर्णन करता हूँ।

नृपश्रेष्ठ यज्ञ आदिमें जो दान दिया जाता है, वह यदि शुद्धभावसे दिया गया हो तो उससे मनुष्यकी बुद्धि बढ़ती है तथा दाताको कभी दुःख नहीं उठाना पड़ता। वह जीवनभर सुख भोगता है और मृत्युके पश्चात् दिव्य गतिको प्राप्त होकर इन्द्रलोकके भोगोंका अनुभव करता है। इतना ही नहीं, वह हजार कल्पांतकके लिये अपने कुलको स्वर्गमें ले जाता है। अब दूसरे प्रकारका दान बताता हूँ। शरीरको बुढ़ापेसे पीड़ित और क्षीण जानकर मनुष्यको [अपने कल्याणके लिये ] दान अवश्य करना चाहिये, उसे किसीकी भी आशा नहीं रखनी चाहिये। 'मेरे मर जानेपर ये मेरे पुत्र तथा अन्यान्य स्वजन सम्बन्धी, बन्धु-बान्धव कैसे रहेंगे; मेरे बिना मेरे मित्रोंकी क्या दशा होगी ?' इत्यादि बातें सोचकर उनके मोहसे मुग्ध हुआ मनुष्य कुछ भी दान नहीं कर पाता । ऐसा जीव यमलोकके मार्गमें पहुँचकर बहुत दुःखी हो जाता है; वह भूख-प्याससे व्याकुल तथा नाना प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित रहता है । संसारमें कोई भी किसीका नहीं है; अतः जीते-जी स्वयं ही अपने लिये दान करनाचाहिये। अन्न, जल, सोना, बछड़ेसहित उत्तम गौ, भूमि तथा नाना प्रकारके फल दान करने चाहिये। यदि अधिक शुभ फलकी इच्छा हो तो पैरोंको आराम देनेवाले जूते भी दान देने चाहिये।

बेनने पूछा भगवन् पुत्र, पत्नी, माता, पिता और गुरु ये सब तीर्थ कैसे हैं इस विषयका विस्तारके साथ वर्णन कीजिये।

भगवान् श्रीविष्णु बोले- [ राजन् ! पहले इस बातको सुनो कि पत्नी कैसे तीर्थ है।] काशी नामकी एक बहुत बड़ी पुरी है, जो गंगासे सटकर बसी होनेके कारण बहुत सुन्दर दिखायी देती है। उसमें एक वैश्य रहते थे, जिनका नाम था कृकल उनकी पत्नी परम साध्वी तथा उत्तम व्रतका पालन करनेवाली थी। वह सदा धर्माचरणमें रत और पतिव्रता थी। उसका नाम था सुकला। सुकलाके अंग पवित्र थे। वह सुयोग्य पुत्रोंकी जननी, सुन्दरी, मंगलमयी, सत्यवादिनी, शुभा और शुद्ध स्वभाववाली थी। उसकी आकृति देखने में बड़ी मनोहर थी। व्रतोंका पालन करना उसे अत्यन्त प्रिय था। इस प्रकार वह मनोहर मुसकानवाली सुन्दरी अनेक गुणोंसे युक्त थी। वे वैश्य भी उत्तम वक्ता, धर्मज्ञ, विवेक-सम्पन्न और गुणी थे। वैदिक तथा पौराणिक धर्मोक श्रवणमें उनकी बड़ी लगन थी। उन्होंने तीर्थयात्राके प्रसंगमें यह बात सुनी थी कि "तीथका सेवन बहुत पुण्यदायक है, वहाँ जानेसे पुण्यके साथ ही मनुष्यका कल्याण भी होता है।' इस बातपर उनके मनमें श्रद्धा तो थी ही, ब्राह्मणों और व्यापारियोंका साथ भी मिल गया। इससे वे धर्मके मार्गपर चल दिये। उन्हें जाते देख उनकी पतिव्रता पत्नी पतिके स्नेहसे मुग्ध होकर बोली।सुकलाने कहा - प्राणनाथ! मैं आपकी धर्मपत्नी हूँ, अतः आपके साथ रहकर पुण्य करनेका मेरा अधिकार है। मैं आपके मार्गपर चलती हूँ। इस सद्भावके कारण मैं कभी आपको अपनेसे अलग नहीं कर सकती। आपकी छायाका आश्रय लेकर मैं पातिव्रत्यके उत्तम व्रतका पालन करूंगी, जो नारियोंके पापका नाशक और उन्हें सद्गति प्रदान करनेवाला है। जो स्त्री पतिपरायणा होती है, वह संसारमें पुण्यमयी कहलाती है। युवतियोंके लिये पतिके सिवा दूसरा कोई ऐसा तीर्थ नहीं हैं, जो इस लोकमें सुखद और परलोकमें स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाला हो। साधुश्रेष्ठ! स्वामीके दाहिने चरणको प्रयाग समझिये और बायेंको पुष्कर जो स्त्री ऐसा मानती है तथा इसी भावनाके अनुसार पतिके चरणोदकसे स्नान करती है, उसे उन तीथोंमें स्नान करनेका पुण्य प्राप्त होता है। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि स्त्रियोंके लिये पतिके चरणोदकका अभिषेक प्रयाग और पुष्करतीर्थमें स्नान करनेके समान है। पति समस्त तीर्थोंके समान है। पति सम्पूर्ण धर्मोका स्वरूप है। यज्ञकी दीक्षा लेनेवाले पुरुषको यज्ञोंके अनुष्ठानसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वही पुण्य साध्वी स्त्री अपने पतिकी पूजा करके तत्काल प्राप्त कर लेती है। * अतः प्रियतम! मैं भी आपकी सेवा करती हुई तीर्थोंमें चलूँगी और आपकी ही छायाका अनुसरण करती हुई लौट आऊंगी।

कृकलने अपनी पत्नीके रूप, शील, गुण भक्ति और सुकुमारता देखकर बारंबार उसपर विचार किया 'यदि मैं अपनी पत्नीको साथ ले लूँ तो मैं तो अत्यन्त दुःखदायी दुर्गम मार्गपर भी चल सकूँगा, किन्तु वहाँ सर्दी और धूपके कारण इस बेचारीका तो हुलिया हीबिगड़ जायगा। रास्तेमें कठोर पत्थरोंसे ठोकर खाकर इसके कोमल चरणोंको बड़ी पीड़ा पीड़ा होगी। उस अवस्थामें इसका चलना असम्भव हो जायगा। भूख-प्यास से जब इसके शरीरको कष्ट पहुँचेगा तो न जाने इसकी क्या दशा होगी। यह सदा मुझे प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय है तथा नित्य निरन्तर मेरे गार्हस्थ्यधर्मका यही एक आधार है। यह बाला यदि मर गयी तो मेरा तो सर्वनाश ही हो जायगा। यही मेरे जीवनका अवलम्बन है, यही मेरे प्राणोंकी अधीश्वरी है। अतः मैं इसे तीथोंमें नहीं ले जाऊँगा, अकेला ही यात्रा करूंगा।'

यह सोचकर उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा- मैं तेरा कभी त्याग नहीं करूँगा। पता दिये बिना ही वे चुपके से साथियोंके साथ चले गये। महाभाग कुकल बड़े पुण्यात्मा थे उनके चले जानेपर सुन्दरी सुकला देवाराधनको बेलामें पुण्यमय प्रभातके समय जब सोकर उठी, तब उसने स्वामीको घरमें नहीं देखा। फिर तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठी और अत्यन्त शोकसे पीड़ित होकर रोने लगी। वह बाला अपने पतिके साथियोंके पास जा जाकर पूछने लगी-महाभागगण! आपलोग मेरे बन्धु हैं, मेरे प्राणनाथ कृकल मुझे छोड़कर कहीं चले गये हैं; यदि आपने उन्हें देखा हो तो बताइये। जिन महात्माओंने मेरे पुण्यात्मा स्वामीको देखा हो, वे मुझे बतानेकी कृपा करें।' उसकी बात सुनकर जानकार लोगोंने उससे परम बुद्धिमान् कृकलके विषयमें इस प्रकार कहा-'शुभे तुम्हारे स्वामी कृकल धार्मिक यात्राके प्रसंगसे तीर्थसेवनके लिये गये हैं। तुम शोक क्यों करती हो? भद्रे ! वे बड़े-बड़े तीर्थोंकी यात्रा पूरी करके फिर लौट आयेंगे।'

राजन्! विश्वासी पुरुषोंके द्वारा इस प्रकार विश्वास दिलाये जानेपर सुकला पुनः अपने घरमें गयी और करुण स्वरसे फूट-फूटकर रोने लगी। वह पतिपरायणा नारी थी। उसने यह निश्चय कर लिया कि 'जबतक मेरे स्वामी लौटकर नहीं आयेंगे, तबतक मैं भूमिपर चटाई बिछाकर सोऊँगी। घी, तेल और दूध-दही नहीं खाऊँगी। पान और नमकका भीग कर दूंगी। गुड़ आदि मीठी वस्तुकोभी छोड़ दूंगी। जबतक मेरे स्वामीका पुनः यहाँ आगमन नहीं होगा, तबतक एक समय भोजन करूँगी अथवा उपवास करके रह जाऊँगी।'

इस प्रकार नियम लेकर सुकता बड़े दुःखसे दिन बिताने लगी। उसने एक वेणी धारण करना आरम्भ कर दिया। एक ही अँगियासे वह अपने शरीरको ढकने लगी। उसका वेष मलिन हो गया। वह एक ही मलिन वस्त्र धारण करके रहती और अत्यन्त दुःखित हो लंबी साँस खींचती हुई हाहाकार किया करती थी। विरहाग्निसे दग्ध होनेके कारण उसका शरीर काला पड़ गया। उसपर मैल जम गया। इस तरह दुःखमय आचारका पालन करनेसे वह अत्यन्त दुबली हो गयी। निरन्तर पतिके लिये व्याकुल रहने लगी। दिन-रात रोती रहती थी। रातको उसे कभी नींद नहीं आती थी और न भूख ही लगती थी ।

सुकलाकी यह अवस्था देख उसकी सहेलियोंने आकर पूछा- 'सखी सुकला! तुम इस समय रो क्यों रही हो ? सुमुखि हमें अपने दुःखका कारण बताओ।'

सुकला बोली- सखियो ! मेरे धर्मपरायण स्वामी मुझे छोड़कर धर्म कमाने गये हैं। मैं निर्दोष, साध्वी, सदाचार-परायणा और पतिव्रता हूँ। फिर भी मेरे प्राणाधार मेरा त्याग करके तीर्थ-यात्रा कर रहे हैं; इसीसे मैं दुःखी हूँ। उनके वियोगसे मुझे बड़ी पीड़ा हो रही है। सखी! प्राण त्याग देना अच्छा है, किन्तु प्राणाधार स्वामीका त्यागना कदापि अच्छा नहीं है। प्रतिदिनका यह दारुण वियोग अब मुझसे नहीं सहा जाता। सखियो ! यही मेरे दुःखका कारण है। नित्यके विरहसे ही मैं कष्ट पा रही हूँ।

सखियोंने कहा- बहिन ! तुम्हारे पति तीर्थ-यात्राके लिये गये हैं। यात्रा पूरी होनेपर वे घर लौट आयेंगे। तुम व्यर्थ ही शोक कर रही हो वृथा ही अपने शरीरको सुखा रही हो तथा अकारण ही भोगोंका परित्याग कर रही हो। अरी! मौजसे खाओ-पीयो; क्यों कष्ट उठाती हो । कौन किसका स्वामी, कौन किसके पुत्र और कौन किसके सगे-सम्बन्धी हैं? संसारमें कोई किसीका नहीं है किसीके साथ भी नित्य सम्बन्ध नहीं है। वाले!खाना-पीना और मौज उड़ाना, यही इस संसारका फल है मनुष्यके मर जानेपर कौन इस फलका उपभोग करता है और कौन उसे देखने आता है।

सुकला बोली- सखियो। तुमलोगोंने जो बात कही है, वह वेदोंको मान्य नहीं है। जो नारी अपने स्वामीसे पृथक् होकर सदा अकेली रहती है, उसे पापिनी समझा जाता है। श्रेष्ठ पुरुष उसका आदर नहीं करते। वेदोंमें सदा यही बात देखी गयी है कि पतिके साथ नारीका सम्बन्ध पुण्यके संसर्गसे ही होता है और किसी कारणसे नहीं [अतः उसे सदा पतिके ही साथ रहना चाहिये।] शास्त्रोंका वचन है कि पति ही सदा नारियोंके लिये तीर्थ है इसलिये स्त्रीको उचित है कि वह सच्चे भावसे पति सेवामें प्रवृत्त होकर प्रतिदिन मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा पतिका ही आवाहन करे और सदा पतिका ही पूजन करे पति स्त्रीका दक्षिण अंग है। उसका वाम पार्श्व ही पत्नीके लिये महान् तीर्थ है। गृहस्थ नारी पतिके वाम भागमें बैठकर जो दान-पुण्य और यज्ञ करती है, उसका बहुत बड़ा फल बताया गया है; काशीकी गंगा, पुष्कर तीर्थ, द्वारकापुरी, उज्जैन तथा केदार नामसे प्रसिद्ध महादेवजीके तीर्थमें स्नान करनेसे भी वैसा फल नहीं मिल सकता। यदि स्त्री अपने पतिको साथ लिये बिना ही कोई यज्ञ करती है, तो उसे उसका फल नहीं मिलता। पतिव्रता स्त्री उत्तम सुख, पुत्रका सौभाग्य, स्नान, दान, वस्त्र, आभूषण, सौभाग्य, रूप,तेज, फल, यश, कीर्ति और उत्तम गुण प्राप्त करती है। पतिकी प्रसन्नतासे उसे सब कुछ मिल जाता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो स्त्री पतिके रहते हुए उसकी सेवाको छोड़कर दूसरे किसी धर्मका अनुष्ठान करती है, उसका वह कार्य निष्फल होता है। तथा लोकमें वह व्यभिचारिणी कही जाती है। नारियोंका यौवन, रूप और जन्म-सब कुछ पतिके लिये होते हैं; इस भूमण्डलमें नारीकी प्रत्येक वस्तु उसके पतिकी आवश्यकता पूर्तिका ही साधन है। जब स्त्री पतिहीन हो जाती है, तब उसे भूतलपर सुख, रूप, यश, कीर्ति और पुत्र कहाँ मिलते हैं। वह तो संसारमें परम दुर्भाग्य और महान् दुःख भोगती है। पापका भोग ही उसके हिस्सेमें पड़ता है। उसे सदा दुःखमय आचारका पालन करना पड़ता है। पतिके संतुष्ट रहनेपर समस्त देवता स्त्रीसे संतुष्ट रहते । ऋषि और मनुष्य भी प्रसन्न रहते हैं। राजन् ! पति ही स्त्रीका स्वामी, पति ही गुरु, पति ही देवताओंसहित उसका इष्टदेव और पति ही तीर्थ एवं पुण्य है। पतिके बाहर चले जानेपर यदि स्त्री शृंगार करती है तो उसका रूप, वर्ण-सब कुछ भाररूप हो जाता है। पृथ्वीपर लोग उसे देखकर कहते हैं कि यह निश्चय ही व्यभिचारिणी है, इसलिये किसी भी पत्नीको अपने सनातन धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये। सखियो! इस विषयमें एक पुराना इतिहास सुना जाता है, जिसमें रानी सुदेवाके पापनाशक एवं पवित्र चरित्रका वर्णन है।

Previous Page 62 of 266 Next

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य