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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 47 - Khand 1, Adhyaya 47

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संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण

संजयने पूछा- ब्रह्मन् सात्विक पुरुष मनुष्यों में आदिके लक्षणोंको कैसे जान सकते हैं? नाथ! असुर मेरे इस संशयको दूर कीजिये।

व्यासजी बोले- द्विजों तथा अन्य जातियोंमें अपने पूर्वकृत पापके अनुरूप असुर, राक्षस और प्रेत भी जन्म ग्रहण करते हैं; किन्तु वे अपना स्वभाव नहीं छोड़ते। मनुष्योंमें जो असुर जन्मते हैं, वे सदा ही लड़ाई-झगड़ा करनेको उत्सुक रहते हैं। जो मायावी, दुराचारी और क्रूर हो, उन्हें इस पृथ्वीपर राक्षस समझना चाहिये।

इसके विपरीत एक भी बुद्धिमान् एवं सुयोग्य पुत्र हो तो उसके द्वारा समूचे कुलकी रक्षा होती है। एक भी वैष्णव पुत्र अपने कुलकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। जो पुण्यतीर्थों और मुक्तिक्षेत्र में ज्ञानपूर्वक मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे संसारसागरसे तर जाते हैं। और जो ब्रह्मज्ञानी होते हैं, वे स्वयं तो तरते ही हैं, दूसरोंको भी तार देते हैं। एक पतिव्रता स्त्री अपने कुलकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार कर देती है। इसी प्रकार द्विज और देवताओंके पूजनमें तत्पर रहनेवाला धर्मात्मा जितेन्द्रिय पुरुष भी अपने कुलका उद्धार करता है। कलियुगके अन्तमें जब शहर और गाँवोंमें धर्मका नाश हो जाता है, तब एक ही धर्मात्मा पुरुषसमस्त पुर, ग्राम, जनसमुदाय और कुलकी रक्षा करता है।

जो मनुष्य अपवित्र एवं दुर्गन्धयुक्त पदार्थोंके भक्षणमें आनन्द मानता है, बराबर पाप करता है और रातमें घूम-घूमकर चोरी करता रहता है, उसे विद्वान् पुरुषोंको वंचक समझना चाहिये। जो सम्पूर्ण कर्तव्य कार्योंसे अनभिज्ञ तथा सब प्रकारके कर्मोंसे अपरिचित है, जिसे समयोचित सदाचारका ज्ञान नहीं है, वह मूर्ख वास्तवमें पशु ही है। जो हिंसक, सजातीय मनुष्योंको उद्वेजित करनेवाला, कलह-प्रिय, कायर और उच्छिष्ट भोजनका प्रेमी है, वह मनुष्य कुत्ता कहा गया है। जो स्वभावसे ही चंचल, भोजनके लिये सदा लालायित रहनेवाला, कूद-कूदकर चलनेवाला और जंगलमें रहनेका प्रेमी है, उस मनुष्यको इस पृथ्वीपर बंदर समझना चाहिये। जो वाणी और बुद्धिद्वारा अपने कुटुम्बियों तथा दूसरे लोगोंकी भी चुगली खाता और सबके लिये उद्वेगजनक होता है, वह पुरुष सर्पके समान माना गया है। जो बलवान्, आक्रमण करनेवाला, नितान्त निर्लज्ज, दुर्गन्धयुक्त मांसका प्रेमी और भोगासक्त होता है, वह मनुष्योंमें सिंह कहा गया है। उसकी आवाज सुनते ही दूसरे भेड़िये आदिकी श्रेणीमें गिनेजानेवाले लोग भयभीत और दुःखी हो जाते हैं। जिनकी दृष्टि दूतक नहीं जाती, ऐसे लोग हाथी माने जाते हैं। इसी क्रमसे मनुष्योंमें अन्य पशुओंका विवेक कर लेना चाहिये।

अब हम नररूपमें स्थित देवताओंका लक्षण बतलाते हैं। जो द्विज, देवता, अतिथि, गुरु, साधु और तपस्वियोंके पूजनमें संलग्न रहनेवाला, नित्य तपस्यापरायण, धर्मशास्त्र एवं नीति में स्थित, क्षमाशील, क्रोधजयी, सत्यवादी जितेन्द्रिय लोभहीन, प्रिय बोलनेवाला, शान्त धर्मशास्त्रप्रेमी, दयालु, लोकप्रिय, मिष्टभाषी, वाणीपर अधिकार रखनेवाला, सब कार्योंमें दक्ष, गुणवान्, महाबली, साक्षर, विद्वान्, आत्मविद्या आदिके लिये उपयोगी कार्योंमें संलग्न, घी और गायके दूध दही आदिमें तथा निरामिष भोजनमें रुचि रखनेवाला, अतिथिको दान देने और पार्वण आदि कर्मोंमें प्रवृत्त रहनेवाला है, जिसका समय स्नान-दान आदि शुभ कर्म, व्रत, यज्ञ, देवपूजन तथा स्वाध्याय आदिमें ही व्यतीत होता है, कोई भी दिन व्यर्थ नहीं जाने पाता, वही मनुष्य देवता है। यही मनुष्योंका सनातन सदाचार है। श्रेष्ठ मुनियोंने मानवोंका आचरण देवताओंके ही समान बतलाया है। अन्तर इतना ही है कि देवता सत्वगुणमें बड़े-बड़े होते हैं [इसलिये निर्भय होते हैं.] और मनुष्योंमें भय अधिक होता है। देवता सदा गम्भीर रहते हैं और मनुष्योंका स्वभाव सर्वदा मृदु होता है। इस प्रकार पुण्यविशेषके तारतम्यसे सामान्यतः सभी जातियोंमें विभिन्न स्वभाव मनुष्योंका जन्म होता है; उनके प्रिय अप्रिय पदार्थोंको जानकर पुण्य पाप तथा गुण-अवगुणका निश्चय करना चाहिये।

मनुष्यों में यदि पति-पत्नीके अंदर जन्मगत संस्कारोंका भेद हो तो उन्हें तनिक भी सुख नहीं मिलता। सालोक्य आदि मुक्तिकी स्थितिमें रहना पड़े अथवा नरकमें, सजातीय संस्कारवालोंमें ही परस्पर प्रेम होता है। शुभ कार्यमें संलग्न रहनेवाले पुण्यात्मा मनुष्योंको अत्यन्त पुण्यके कारण दीर्घायुकी प्राप्ति होती है तथा जो दैत्य आदिकी श्रेणीमें गिने जानेवाले पापात्मा मनुष्य हैं,उनको मृत्यु जल्दी होती है। सत्ययुगमें देवजातिके मनुष्य ही इस पृथ्वीपर उत्पन्न हुए थे। दैत्य अथवा अन्य जातिके नहीं। त्रेतामें एक चौथाई, द्वापरमें आधा तथा कलियुगकी सन्ध्यामें समूचा भूमण्डल दैत्य आदिसे व्याप्त हो जाता है। देवता और असुर जातिके मनुष्योंका समान संख्यामें जन्म होनेके कारण ही महाभारतका युद्ध छिड़नेवाला है। दुर्योधनके योद्धा और सेना आदि जितने भी सहायक हैं, वे दैत्य आदि ही हैं। कर्ण आदि वीर सूर्य आदिके अंशसे उत्पन्न हुए हैं। गंगानन्दन भीष्म वसुओंमें प्रधान हैं। आचार्य द्रोण देवमुनि बृहस्पतिके अंशसे प्रकट हुए हैं। नन्दनन्दन श्रीकृष्णके रूपमें साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु हैं। विदुर साक्षात् धर्म हैं। गान्धारी, द्रौपदी और कुन्ती- इनके रूपमें देवियाँ हो धरातलपर अवतीर्ण हुई हैं।

जो मनुष्य जितेन्द्रिय, दुर्गुणोंसे मुक्त तथा नीतिशास्त्रके तत्वको जाननेवाला है और ऐसे ही नाना प्रकारके उत्तम गुणोंसे सन्तुष्ट दिखायी देता है, वह देवस्वरूप है। स्वर्गका निवासी हो या मनुष्यलोकका - जो पुराण और तन्त्रमें बताये हुए पुण्यकमका स्वयं आचरण करता है, वही इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें समर्थ है। जो शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेशका उपासक हैं, वह समस्त पितरोंको तारकर इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें समर्थ है। विशेषतः जो वैष्णवको देखकर प्रसन्न होता और उसकी पूजा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो इस भूतलका उद्धार कर सकता है। जो ब्राह्मण यजनयाजन आदि छः कर्मोंमें संलग्न, सब प्रकारके यज्ञोंमें प्रवृत्त रहनेवाला और सदा धार्मिक उपाख्यान सुनानेका प्रेमी है, वह भी इस पृथ्वीका उद्धार करनेमें समर्थ है।

जो लोग विश्वासघाती, कृतघ्न, व्रतका उल्लंघन करनेवाले तथा ब्राह्मण और देवताओंके द्वेषी हैं, वे मनुष्य इस पृथ्वीका नाश कर डालते हैं। जो माता पिता, स्त्री, गुरुजन और बालकोंका पोषण नहीं करते, देवता, ब्राह्मण और राजाओंका धन हर लेते हैं तथा जो मोक्षशास्त्रमें श्रद्धा नहीं रखते, वे मनुष्य भी इस पृथ्वीकानाश करते हैं। जो पापी मदिरा पीने और जुआ खेलने में आसक्त रहते और पाखण्डियों तथा पतितोंसे वार्तालाप करते हैं, जो महापातकी और अतिपातकी हैं, जिनके द्वारा बहुत से जीव-जन्तु मारे जाते हैं, वे लोग इस भूतलका विनाश करनेवाले हैं। जो सत्कर्मसे रहित, सदा दूसरोंको उद्विग्न करनेवाले और निर्भय हैं, स्मृतियों तथा धर्मशास्त्रोंमें बताये हुए शुभकर्मोंका नाम सुनकर जिनके हृदयमें उद्वेग होता है, जो अपनी उत्तम जीविका छोड़कर नीच वृत्तिका आश्रय लेते हैं तथा द्वेषवश गुरुजनोंकी निन्दामें प्रवृत्त होते हैं, वे मनुष्य इस भूलोकका नाश करडालते हैं। जो दाताको दानसे रोकते और पापकर्मकी ओर प्रेरित करते हैं तथा जो दीनों और अनाथोंको पीड़ा पहुँचाते हैं, वे लोग इस भूतलका सत्यानाश करते हैं। ये तथा और भी बहुत-से पापी मनुष्य हैं, जो दूसरे लोगोंको पापोंमें ढकेलकर इस पृथ्वीका सर्वनाश करते हैं।

जो मानव इस प्रसंगको सुनता है, उसे इस भूतलपर दुर्गति, दुःख, दुर्भाग्य और दीनताका सामना नहीं करना पड़ता । उसका दैत्य आदिके कुलमें जन्म नहीं होता तथा वह स्वर्गलोकमें शाश्वत सुखका उपभोग करता है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा