व्यासजी कहते हैं—इस प्रकार आयुके तीसरे भागको वानप्रस्थ आश्रममें व्यतीत करके क्रमशः चतुर्थ भागको संन्यासके द्वारा बिताये। उस समय द्विजको उचित है कि वह अग्नियोंको अपनेमें स्थापित करके परिव्राजक संन्यासी हो जाय और योगाभ्यासमें तत्पर, शान्त तथा ब्रह्मविद्या परायण रहे। जब मनमें सब वस्तुओंकी ओरसे वैराग्य हो जाय, उस समय संन्यास लेनेकी इच्छा करे। इसके विपरीत आचरण करनेपर वह गिर जाता है। प्राजापत्य अथवा आग्नेयी इष्टिका अनुष्ठान करके मनकी वासना धुल जानेपर जितेन्द्रियभावसे ब्रह्माश्रम-संन्यासमें प्रवेश करे। संन्यासी तीन प्रकारके बताये गये हैं- कोई तो ज्ञानसंन्यासी होते हैं, कुछ वेदसंन्यासी होते हैं तथा कुछ दूसरे कर्मसंन्यासी होते हैं। जो सब ओरसे मुक्त, निर्द्वन्द्व और निर्भय होकर आत्मामें ही स्थित रहता है, उसे 'ज्ञानसंन्यासी' कहा जाता है। जो कामना और परिग्रहका त्याग करके मुक्तिकी इच्छासे जितेन्द्रिय होकर सदा वेदका ही अभ्यास करता रहता है, वह 'वेदसंन्यासी' कहलाता है। जो द्विज अग्निको अपनेमें लीन करके स्वयं ब्रह्ममें समर्पित हो जाता है, उसे महायज्ञपरायण 'कर्मसंन्यासी' जानना चाहिये। इन तीनोंमें ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ माना गया है। उस विद्वान्के लिये कोई कर्तव्य या आश्रम-चिह्न आवश्यक नहीं रहता। संन्यासीको ममता और भयसे रहित, शान्त एवं निर्द्वन्द्व होना चाहिये। वह पत्ता खाकर रहे, पुराना कौपीन पहने अथवा नंगा रहे। उसे ज्ञानपरायण होनाचाहिये। वह ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए आहारको जीते और भोजनके लिये बस्तीसे अन्न माँग लाया करे। वह अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें अनुरक्त हो सब ओरसे निरपेक्ष रहे और भोग्य वस्तुओंका परित्याग कर दे। केवल आत्माको ही सहायक बनाकर आत्मसुखके लिये इस संसार में विचरता रहे। जीवन या मृत्यु किसीका अभिनन्दन न करे। जैसे सेवक स्वामीके आदेशकी प्रतीक्षा करता रहता है, उसी प्रकार संन्यासी कालकी ही प्रतीक्षा करे। उसे कभी अध्ययन, प्रवचन अथवा श्रवण नहीं करना चाहिये।
इस प्रकार ज्ञानपरायण योगी ब्रह्मभावका अधिकारी होता है। विद्वान् संन्यासी एक वस्त्र धारण करे अथवा केवल कौपीन धारण किये रहे। सिर मुँहाये रहे या बाल बढ़ाये रखे त्रिदण्ड धारण करे, किसी वस्तुका संग्रह न करे। गेरुए रंगका वस्त्र पहने और सदा ध्यानयोगमें तत्पर रहे। गाँवके समीप किसी वृक्षके नीचे अथवा देवालयमें रहे शत्रु और मित्रमें तथा मान और अपमानमें समानभाव रखे। सदा भिक्षासे ही जीवन निर्वाह करे। कभी एक स्थानके अन्नका भोजन न करे। जो संन्यासी मोहवश या और किसी कारणसे एक जगहका अन्न खाने लगता है, धर्मशास्त्रोंमें उसके उद्धारका कोई उपाय नहीं देखा गया है। संन्यासीका चित्त राग-द्वेषसे रहित होना चाहिये। उसे मिट्टीके ढेले, पत्थर और सुवर्णको एक-सा समझना चाहिये तथा प्राणियोंकी हिंसासे दूर रहना चाहिये। वह मौनभावकाआश्रय ले सबसे निःस्पृह रहे संन्यासी भलीभाँति देख-भालकर आगे पैर रखे। वस्त्रसे छानकर जल पिये। सत्यसे पवित्र हुई वाणी बोले तथा मनसे जो पवित्र जान पड़े उसीका आचरण करे।"
संन्यासीको उचित है कि वह वर्षाकालके सिवा और किसी समय एक स्थानपर निवास न करे। स्नान करके शौचाचारसे सम्पन्न रहे। सदा हाथमें कमण्डलु लिये रहे ब्रह्मचर्य पालनमें संलग्न होकर सदा वनमें ही निवास करे। मोक्षसम्बन्धी शास्त्रोंके विचारमें तत्पर रहे। ब्रह्मसूत्रका ज्ञान रखे और जितेन्द्रियभावसे रहे। संन्यासी यदि दम्भ एवं अहंकारसे मुक्त, निन्दा और चुगलीसे रहित तथा आत्मज्ञानके अनुकूल गुणोंसे युक्त हो तो वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यति विधिपूर्वक स्नान और आचमन करके पवित्र हो देवालय आदिमें प्रणव नामक सनातन देवताका निरन्तर जप करता रहे। वहयज्ञोपवीतधारी एवं शान्त-चित्त होकर हाथमें धारण करके धुला हुआ गेरुआ वस्त्र पहने, सारे शरीरमें भस्म रमाये, वेदान्तप्रतिपादित अधियज्ञ, आधिदैविक तथा आध्यात्मिक ब्रह्मका एकाग्रभावसे चिन्तन करे। जो सदा वेदका ही अभ्यास करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। अहिंसा, सत्य, चोरीका अभाव, ब्रह्मचर्य, उत्तम तप, क्षमा, दया और संतोष-ये संन्यासीके विशेष व्रत हैं। वह प्रतिदिन स्वाध्याय तथा दोनों संध्याओंके समय गायत्रीका जप करे। एकान्तमें बैठकर निरन्तर परमेश्वरका ध्यान करता रहे। सदा एक स्थानके अन्नका त्याग करे; साथ ही काम, क्रोध तथा संग्रहको भी त्याग दे। वह एक या दो वस्त्र पहनकर शिखा और यज्ञोपवीत धारण किये हाथमें कमण्डलु लिये रहे । इस प्रकार त्रिदण्ड धारण करनेवाला विद्वान् संन्यासी परमपदको प्राप्त होता है।