व्यासजी कहते हैं-द्विजवरो! इस प्रकार आश्रममें निष्ठा रखनेवाले तथा नियमित जीवन बितानेवाले संन्यासियोंके लिये फल-मूल अथवा भिक्षासे जीवन निर्वाहकी बात कही गयी। उसे एक ही समय भिक्षा माँगनी चाहिये। अधिक भिक्षाके संग्रहमें आसक्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि भिक्षामें आसक्त होनेवाला संन्यासी विषयोंमें भी आसक्त हो जाता है। सात घरोंतक भिक्षाके लिये जाय। यदि उनमें न मिले तो फिर न माँगे। भिक्षुको चाहिये कि वह एक बार भिक्षाका नाम लेकर चुप हो जाय और नीचे मुँह किये एक द्वारपर उतनी ही देरतक खड़ा रहे जितनी देरमें एक गाय दुही जाती है। भिक्षा मिल जानेपर हाथ-पैर धोकर विधिपूर्वक आचमन करे और पवित्र हो मौन भावसेभोजन करे। पहले वह अन्न सूर्यको दिखा ले; फिर पूर्वाभिमुख हो पाँच बार प्राणाग्निहोत्र करके अर्थात् 'प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, ' - इन मन्त्रोंसे पाँच ग्रास अन्न मुँहमें डालकर एकाग्रचित्त हो आठ ग्रास अन्न भोजन करे। भोजनके पश्चात् आचमन करके भगवान् ब्रह्माजी एवं परमेश्वरका ध्यान करे। तूंबी, लकड़ी, मिट्टी तथा बाँस — इन्हीं चारोंके बने हुए पात्र संन्यासीके उपयोगमें आते हैं, ऐसा प्रजापति मनुका कथन है । रातके पहले पहरमें मध्यरात्रिमें तथा रातके पिछले पहरमें विश्वकी उत्पत्तिके कारण एवं विश्व-नामसे प्रसिद्ध ईश्वरको अपने हृदय - कमलमें स्थापित करके ध्यान-सम्बन्धी विशेष श्लोकों एवं मन्त्रोंके द्वारा उनका इस प्रकारचिन्तन करे। परमेश्वर सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा, अज्ञानमय अन्धकारसे परे विराजमान, सबके आधार, अव्यक्त स्वरूप, आनन्दमय, ज्योतिर्मय, अविनाशी, प्रकृति और पुरुषसे अतीत, आकाशकी भाँति निर्लेप, परम कल्याणमय, समस्त भावकी चरम सीमा, सबका शासन करनेवाले तथा ब्रह्मरूप हैं।
तदनन्तर प्रणव- जपके पश्चात् आत्माको आकाश स्वरूप परमात्मामें लीन करके उनका इस प्रकार ध्यान करे – 'परमात्मदेव सबके ईश्वर, हृदयाकाशके बीच विराजमान, समस्त भावोंकी उत्पत्तिके कारण, आनन्द एकमात्र आधार तथा पुराणपुरुष श्रीविष्णु हैं। इस प्रकार ध्यान करनेवाला पुरुष भव-बन्धनसे मुक्त हो जाता है। जो समस्त प्राणियोंका जीवन है, जहाँ जगत्का लय होता है तथा मुमुक्षु पुरुष जिसे ब्रह्मका सूक्ष्म आनन्द समझते हैं, उस परम व्योमके भीतर केवल-अद्वितीय ज्ञानस्वरूप ब्रह्म स्थित है, जो अनन्त, सत्य एवं ईश्वररूप है।' इस प्रकार ध्यान करके मौन हो जाय। यह संन्यासियोंके लिये गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय इनका वर्णन किया गया जो सदा इस ज्ञानमें स्थित रहता है, वह इसके द्वारा ईश्वरीय योगका अनुभव करता है। इसलिये संन्यासीको उचित है कि वह सदा ज्ञानके अभ्यासमें तत्पर और आत्मविद्यापरायण होकर ज्ञानस्वरूप ब्रह्मका चिन्तन करे, जिससे भव-बन्धनसे छुटकारा मिले।पहले आत्माको सब ( दृश्य-पदार्थों) से पृथक्, केवल-अद्वितीय, आनन्दमय, अक्षर-अविनाशी एवं ज्ञानस्वरूप जान ले इसके बाद उसका ध्यान करे। जिनसे सम्पूर्ण भूतोंकी उत्पत्ति होती है, जिन्हें जानकर मनुष्य पुनः इस संसारमें जन्म नहीं लेता, वे परमात्मा इसलिये ईश्वर कहलाते हैं कि वे सबसे परे स्थित हैं-सबके ऊपर अध्यक्षरूपसे विराजमान हैं। उन्हींके भीतर उस शाश्वत, कल्याणमय अविनाशी ब्रह्मका ज्ञान होता है, जो इस दृश्य जगत्के रूपमें प्रत्यक्ष और स्वस्वरूपसे परोक्ष हैं, वे ही महेश्वर देव हैं। संन्यासियोंके जो व्रत बताये गये हैं, वैसे ही उनके भी व्रत हैं। उन व्रतोंमेंसे एक-एकका उल्लंघन करनेपर भी प्रायश्चित्त करना पड़ता है।
संन्यासी यदि कामनापूर्वक स्त्रीके पास चला जाय तो एकाग्रचित्त होकर प्रायश्चित्त करे। उसे पवित्र होकर प्राणायामपूर्वक सांतपन - व्रत करना चाहिये। सांतपनके बाद चित्तको एकाग्र करके शौच-संतोषादि नियमों का पालन करते हुए वह कृच्छ्रव्रतका अनुष्ठान करे । तदनन्तर आश्रममें आकर पुनः आलस्यरहित हो भिक्षुरूपसे विचरता रहे। असत्यका प्रयोग कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि यह झूठका प्रसंग बड़ा भयंकर होता है। धर्मकी अभिलाषा रखनेवाला संन्यासी यदि झूठ बोल दे तो उसे उसके प्रायश्चित्तके लिये एक रातउपवास और सौ प्राणायाम करने चाहिये । बहुत बड़ी आपत्तिमें पड़नेपर भी संन्यासीको किसी दूसरेके यहाँसे चोरी नहीं करनी चाहिये। स्मृतियोंका कथन है कि चोरीसे बढ़कर दूसरा कोई अधर्म नहीं है' हिंसा, तृष्णा और याचना-ये आत्मज्ञानका नाश करनेवाली हैं। जिसे धन कहते हैं, वह मनुष्योंका बाह्य प्राण ही है। जो जिसके धनका अपहरण करता है, वह मानो उसके प्राण ही हर लेता है। ऐसा करके दुष्टात्मा पुरुष आचारभ्रष्ट हो अपने व्रतसे गिर जाता है। यदि संन्यासी अकस्मात् किसी जीवकी हिंसा कर बैठे तो कृच्छ्र, अतिकृच्छ्र अथवा चान्द्रायणव्रतका अनुष्ठान करे। यदि भिक्षुका उसकी अपनी इन्द्रियोंकी दुर्बलताके कारण किसी स्त्रीको देखकर वीर्यपात हो जाय तो उसे सोलह प्राणायाम करने चाहिये। विद्वानो ! दिनमें वीर्यपात होनेपर वह तीन रातका व्रत और सौ प्राणायाम करे। यदि वह एक स्थानका अन्न, मधु, नवीन श्राद्धका अन्न तथा खाली नमक खा ले तो उसकी शुद्धिके लिये प्राजापत्यव्रत बताया गया है। सदा ध्यानमें स्थित रहनेवाले पुरुषके सारे पातक नष्टहो जाते हैं। इसलिये महेश्वरका चिन्तन करते हुए सदा उन्हींके ध्यानमें संलग्न रहना चाहिये। जो परम ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म, सबका आश्रय, अक्षर, अव्यय, अन्तरात्मा तथा परब्रह्म हैं, उन्हींको भगवान् महेश्वर समझना चाहिये। ये महादेवजी केवल परम शिवरूप हैं। ये ही अक्षर, अद्वैत एवं सनातन परमपद हैं। वे दे स्वप्रकाशस्वरूप हैं, ज्ञान उनकी संज्ञा है, वे ही आत्मयोगरूप तत्त्व हैं, उनमें सबकी महिमा-प्रतिष्ठा होती है, इसलिये उन्हें महादेव कहा गया है। जो महादेवजीके सिवा दूसरे किसी देवताको नहीं देखता, अपने आत्मस्वरूप उन महादेवजीका ही अनुसरण करता है, वह परमपदको प्राप्त होता है। जो अपनेको उन परमेश्वरसे भिन्न मानते हैं, वे उन महादेवजीका दर्शन नहीं पाते; उनका परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। एकमात्र परब्रह्म ही जानने योग्य अविनाशी तत्त्व हैं, वे ही देवाधिदेव महादेवजी हैं। इस बातको जान लेनेपर मनुष्य कभी बन्धनमें नहीं पड़ता। इसलिये संन्यासी अपने मनको वशमें करके नियमपूर्वक साधनमें लगा रहे तथा शान्तभावसे महादेवजीके शरणागत होकर ज्ञानयोगमें तत्पर रहे। "ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने आपलोगोंसे संन्यासियोंके कल्याणमय आश्रम-धर्मका वर्णन किया। इसे मुनिवर भगवान् ब्रह्माजीने पूर्वकालमें उपदेश किया था । संन्यास धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाला यह परम उत्तम कल्याणमय ज्ञान साक्षात् स्वयम्भू ब्रह्माजीका बताया हुआ है; अतः पुत्र,शिष्य तथा योगियोंके सिवा दूसरे किसीको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये। द्विजवरो ! इस प्रकार मैंने संन्यासियोंके नियमोंका विधान बताया है; यह देवेश्वर ब्रह्माजीके संतोषका एकमात्र साधन है। जो मन लगाकर प्रतिदिन इन नियमोंका पालन करते हैं, उनका जन्म अथवा मरण नहीं होता।