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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 6 - Khand 1, Adhyaya 6

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सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस

भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! दक्षकन्या सती तो बड़ी शुभलक्षणा थीं, उन्होंने अपने शरीरका त्याग क्यों किया? तथा भगवान् रुद्रने किस कारणसे दक्षके यज्ञका विध्वंस किया ?

पुलस्त्यजीने कहा- भीष्म प्राचीन कालकी बात है, दक्षने गंगाद्वारमें यज्ञ किया। उसमें देवता, असुर, पितर और महर्षि सब बड़ी प्रसन्नताके साथ पधारे। इन्द्रसहित देवता, नाग, यक्ष, गरुड, लताएँ, ओषधियाँ, कश्यप, भगवान् अत्रि, मैं, पुलह, ऋतु, प्राचेतस, होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा-इन चारोंके द्वाराअंगिरा तथा महातपस्वी वसिष्ठजी भी उपस्थित हुए । वहाँ सब ओरसे बराबर वेदी बनाकर उसके ऊपर चातुर्होत्रकी * स्थापना हुई। उस यज्ञमें महर्षि वसिष्ठ होता, अंगिरा अध्वर्यु, बृहस्पति उद्गाता तथा नारदजी ब्रह्मा हुए। जब यज्ञकर्म आरम्भ हुआ और अग्निमें हवन होने लगा, उस समयतक देवताओंके आनेका क्रम जारी रहा। स्थावर और जंगम - सभी प्रकारके प्राणी वहाँ उपस्थित थे। इसी समय ब्रह्माजी अपने पुत्रोंके साथ आकर यज्ञके सभासद् हुए तथा साक्षात् भगवान्श्रीविष्णु भी यज्ञकी रक्षाके लिये वहाँ पधारे आठों वसु, बारहों आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, उनचासों मरुद्गण तथा चौदहों मनु भी वहाँ आये थे। इस प्रकार यज्ञ होने लगा, अग्निमें आहुतियाँ पड़ने लगीं। वहाँ भक्ष्यभोज्य सामग्रीका बहुत ही सुन्दर और भारी ठाट-बाट था। ऐश्वर्यकी पराकाष्ठा दिखायी देती थी। चारों ओरसे दस योजन भूमि यज्ञके समारोहसे पूर्ण थी। वहाँ एक विशाल वेदी बनायी गयी थी, जहाँ सब लोग एकत्रित थे। शुभलक्षण सतीने इन सारे आयोजनोंको देखा और यज्ञमें आये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओंको लक्ष्य किया। इसके बाद वे अपने पितासे विनययुक्त वचन बोलीं।

सतीने कहा—पिताजी! आपके यज्ञमें सम्पूर्ण देवता और ऋषि पधारे हैं। देवराज इन्द्र अपनी धर्मपत्नी शची के साथ ऐरावतपर चढ़कर आये हैं। पापियोंका दमन करनेवाले तथा धर्मात्माओंके रक्षक परमधर्मिष्ठ यमराज भी धूमोणकि साथ दृष्टिगोचर हो रहे हैं। जल-जन्तुओंके स्वामी वरुणदेव अपनी पत्नी गौरीके साथ इस यज्ञमण्डपमें सुशोभित हैं। यक्षोंके राजा कुबेर भी अपनी पत्नीके साथ आये हैं। देवताओंके मुखस्वरूप अग्निदेवने भी यज्ञ मण्डपमें पदार्पण किया है। वायु देवता अपने उनचास गणके साथ और लोकपावन सूर्यदेव अपनी भार्या संज्ञाके साथ पधारे हैं। महान् यशस्वी चन्द्रमा भी सपत्नीक आये हैं। आठों वसु और दोनों अश्विनीकुमार भी उपस्थित हैं। इनके सिवा वृक्ष, वनस्पति, गन्धर्व, अप्सराएँ, विद्याधर, भूतोंके समुदाय, बेताल, यक्ष, राक्षस, भयंकर कर्म करनेवाले पिशाच तथा दूसरे दूसरे प्राणधारी जीव भी यहाँ मौजूद हैं। भगवान् कश्यप, शिष्यों सहित वसिष्ठजी, पुलस्त्य, पुलह, सनकादि महर्षि तथा भूमण्डलके समस्त पुण्यात्मा राजा यहाँ पधारे हैं। अधिक क्या कहूँ, ब्रह्माजीको बनायी हुई सारी सृष्टि ही यहाँ आ पहुँची है। ये हमारी बहिनें हैं, ये भानजे हैं और ये बहनोई हैं। ये सब-के-सब अपनी-अपनी स्वी, पुत्र और बान्धवके साथ यहाँ उपस्थित दिखायी देते हैं। आपने दान-मानादिके द्वारा इन सबका यथावत् सत्कारकिया है। केवल मेरे पति भगवान् शंकर ही इस यज्ञमण्डपमें नहीं पधारे हैं; उनके बिना यह सारा आयोजन मुझे सूना-सा ही जान पड़ता है। मैं समझती हूँ आपने मेरे पतिको निमन्त्रित नहीं किया है; निश्चय ही आप उन्हें भूल गये हैं। इसका क्या कारण है? मुझे सब बातें बताइये।

पुलस्त्यजी कहते हैं- प्रजापति दक्षने सतीके वचन सुने। सती उन्हें प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय थीं, उन्होंने पतिके स्नेहमें डूबी हुई परम सौभाग्यवती पतिव्रता सतीको गोदमें बिठा लिया और गम्भीर होकर कहा- 'बेटी! सुनो; जिस कारणसे आज मैंने तुम्हारे पतिको निमन्त्रित नहीं किया है, वह सब ठीक-ठीक बताता है। वे अपने शरीरमें राख लपेटे रहते हैं। त्रिशूल और दण्ड लिये नंग-धड़ंग सदा श्मशानभूमिमें ही विचरा करते हैं। व्याघ्रचर्म पहनते और हाथीका चमड़ा ओढ़ते हैं कंधेपर नरमुण्डौकी माला और हाथमें खट्वांग यही उनके आभूषण हैं। वे नागराज - वासुकिको यज्ञोपवीतके रूपमें धारण किये रहते हैं और इसी रूपमें वे सदा इस पृथ्वीपर भ्रमण करते हैं। इसके सिवा और भी बहुत से घृणित कार्य तुम्हारे पति देवता करते रहते हैं। यह सब मेरे लिये बड़ी लज्जाकी बात है भला, इन देवताओंके निकट वे उस अभद्र वेषमें कैसे बैठ सकते हैं। जैसा उनका वस्त्र है, उसे पहनकर वे इस यज्ञमण्डपमें आनेयोग्य नहीं हैं। बेटी ! इन्हीं दोषोंके कारण तथा लोक लज्जाके भयसे मैंने उन्हें नहीं बुलाया। जब यज्ञ समाप्त हो जायगा, तब मैं तुम्हारे पतिको ले आऊँगा और त्रिलोकीमें सबसे बढ़-चढ़कर उनकी पूजा करूँगा; साथ ही तुम्हारा भी यथावत् सत्कार करूँगा। अतः इसके लिये तुम्हें खेद या क्रोध 'नहीं करना चाहिये।'

भीष्म प्रजापति दक्षके ऐसा कहनेपर सतीको बड़ा शोक हुआ, उनकी आँखें क्रोधसे लाल हो गयीं। वे पिताकी निन्दा करती हुई बोलीं- 'तात! भगवान् शंकर ही सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं, वे ही सबसे श्रेष्ठ माने गये हैं। समस्त देवताओंको जो ये उत्तमोत्तम स्थान प्राप्त हुए हैं, ये सब परम बुद्धिमान् महादेवजीके ही दियेहुए हैं। भगवान् शिवमें जितने गुण हैं, उनका पूर्णतया वर्णन करनेमें ब्रह्माजीकी जिला भी समर्थ नहीं है। वे ही सबके धाता (धारण करनेवाले) और विधाता (नियामक) हैं। वे ही दिशाओंके पालक हैं। भगवान् रुद्रके प्रसादसे ही इन्द्रको स्वर्गका आधिपत्य प्राप्त हुआ है। यदि रुद्रमें देवत्व है, यदि वे सर्वत्र व्यापक और कल्याणस्वरूप हैं, तो इस सत्यके प्रभावसे शंकरजी आपके यज्ञका विध्वंस कर डालें।'

इतना कहकर सती योगस्थ हो गर्यो- उन्होंने ध्यान लगाया और अपने ही शरीरसे प्रकट हुई अग्निकेद्वारा अपनेको भस्म कर दिया। उस समय देवता, असुर, नाग, गन्धर्व और गुहाक 'यह क्या! यह क्या!' कहते ही रह गये; किन्तु क्रोधमें भरी हुई सतीने गंगाके तटपर अपने देहका त्याग कर दिया। गंगाजीके पश्चिमी तटपर वह स्थान आज भी 'सौनक तीर्थ' के नामसे प्रसिद्ध है। भगवान् रुद्रने जब यह समाचार सुना, तब अपनी पत्नीकी मृत्युसे उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उनके मनमें समस्त देवताओंके देखते-देखते उस को नष्ट कर डालनेका विचार उत्पन्न हुआ। फिर तो उन्होंने दक्षयज्ञका विनाश करनेके लिये करोड़ों गणकोआज्ञा दी। उनमें विनायक सम्बन्धी ग्रह, भूत, प्रेत तथा पिशाच-सब थे। डपमें पहुँचकर उन्होंने सब देवताओंको परास्त किया और उन्हें भगाकर उस यज्ञको तहस-नहस कर डाला। यज्ञ नष्ट हो जानेसे दक्षका सारा उत्साह जाता रहा। वे उद्योगशून्य होकर देवाधिदेव पिनाकधारी भगवान् शिवके पास डरते डरते गये और इस प्रकार बोले- 'देव! मैं आपके प्रभावको नहीं जानता था; आप देवताओंके प्रभु और ईश्वर हैं। इस जगत् के अधीश्वर भी आप ही हैं आपने सम्पूर्ण देवताओंको जीत लिया। महेश्वर! अब मुझपर कृपा कीजिये और अपने सब गणको लौटाइये।'

दक्षप्रजापतिने भगवान् शंकरकी शरणमें जाकर जब इस प्रकार उनकी स्तुति और आराधना की, तब भगवान्ने कहा- 'प्रजापते! मैंने तुम्हें यज्ञका पूरा-पूरा फल दे दिया। तुम अपनी सम्पूर्ण कामनाओंकी सिद्धिके लिये यज्ञका उत्तम फल प्राप्त करोगे।' भगवान्के ऐसा कहनेपर दक्षने उन्हें प्रणाम किया और सब गणोंके देखते-देखते वे अपने निवास स्थानको चले गये। उस समय भगवान् शिव अपनी पत्नीके वियोगसे गंगाद्वारमें ही जाकर रहने लगे। 'हाय! मेरी प्रिया कहाँ चली गयी।' इस प्रकार कहते हुए वे सदा सतीके चिन्तनमें लगे रहते थे। तदनन्तर एक दिन देवर्षि नारद महादेवजीके समीप आये और इस प्रकार बोले- 'देवेश्वर! आपकी पत्नी सती देवी, जो आपको प्राणोंके समान प्रिय थीं, देहत्यागके पश्चात् इस समय हिमवान्‌की कन्या होकर प्रकट हुई हैं। मेनाके गर्भसे उनका आविर्भाव हुआ है। वे लोकके तात्त्विक अर्थको जाननेवाली थीं। उन्होंने इस समय दूसरा शरीर धारण किया है।'

नारदजीकी बात सुनकर महादेवजीने ध्यानस्थ हो देखा कि सती अवतार ले चुकी हैं। इससे उन्होंने अपनेको कृतकृत्य माना और स्वस्थचित्त होकर रहने लगे। फिर जब पार्वतीदेवी यौवनावस्थाको प्राप्त हुईं, तब शिवजीने पुनः उनके साथ विवाह किया। भीष्म ! पूर्वकालमें जिस प्रकार दक्षका यज्ञ नष्ट हुआ था, उसका इस रूपमें मैंने तुमसे वर्णन किया है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा