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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 23 - Khand 1, Adhyaya 23

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सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य

भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् ! किस कर्मके परिणामसे मनुष्य प्रेत-योनिमें जाता है तथा किस कर्मके द्वारा वह उससे छुटकारा पाता है- यह मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।

पुलस्त्यजी बोले - राजन्! मैं तुम्हें ये सब बातें विस्तार से बतलाता हूँ, सुनो; जिस कर्मसे जीव प्रेत होता है तथा जिस कर्मके द्वारा देवताओंके लिये भी दुस्तर घोर नरकमें पड़ा हुआ प्राणी भी उससे मुक्त हो जाता है, उसका वर्णन करता हूँ। प्रेत-योनिमें पड़े हुए मनुष्य सत्पुरुषोंके साथ वार्तालाप तथा पुण्यतीर्थोंका बारम्बार कीर्तन करनेसे उससे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! सुना जाता है- प्राचीन कालमें कठिन नियमों का पालनकरनेवाले एक ब्राह्मण थे, जो 'पृथु' नामसे सर्वत्र विख्यात थे। वे सदा सन्तुष्ट रहा करते थे। उन्हें योगका ज्ञान था। वे प्रतिदिन स्वाध्याय, होम और जप यज्ञमें संलग्न रहकर समय व्यतीत करते थे। उन्हें परमात्माके तत्त्वका बोध था। वे शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रिय संयम) और क्षमासे युक्त रहते थे। उनका चित्त अहिंसाधर्ममें स्थित था। वे सदा अपने कर्तव्यका ज्ञान रखते थे। ब्रह्मचर्य, तपस्या, पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) और वैदिक कर्मोंमें उनकी प्रवृत्ति थी। वे परलोकका भय मानते और सत्य भाषणमें रत रहते थे। सबसे मीठे वचन बोलते और अतिथियोंके सत्कारमें मन लगाते थे। सुख-दुःखादि सम्पूर्ण द्वन्द्वोंका परित्याग करनेके लियेसदा योगाभ्यासमें तत्पर रहते थे। अपने कर्तव्यके पालन और स्वाध्यायमें लगे रहना उनका नित्यका नियम था। इस प्रकार संसारको जीतनेकी इच्छासे वे सदा शुभ कर्मका अनुष्ठान किया करते थे। ब्राह्मणदेवताको वनमें निवास करते अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार उनका ऐसा विचार हुआ कि मैं तीर्थ यात्रा करूँ, तीर्थोके पावन जलसे अपने शरीरको पवित्र बनाऊँ। ऐसा सोचकर उन्होंने सूर्योदयके समय शुद्ध चित्तसे पुष्कर तीर्थमें स्नान किया और गायत्रीका जप तथा नमस्कार करके यात्राके लिये चल पड़े। जाते-जाते एक जंगलके बीच कण्टकाकीर्ण भूमिमें, जहाँ न पानी था न वृक्ष, उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको खड़े देखा, जो बड़े ही भयंकर थे। उन विकट आकार तथा पापपूर्ण दृष्टिवाले अत्यन्त घोर प्रेतोंको देखकर उनके हृदयमें कुछ भयका संचार हो आया; फिर भी वे निश्चलभावसे खड़े रहे। यद्यपि उनका चित्त भयसे उद्विग्न हो रहा था, तथापि उन्होंने धैर्य धारण करके मधुर शब्दोंमें पूछा - 'विकराल मुखवाले प्राणियो! तुमलोग कौन हो? किसके द्वारा कौन सा ऐसा कर्म बन गया है, जिससे तुम्हें इस विकृत रूपकी प्राप्ति हुई है?"प्रेतोंने कहा- हम भूख और प्याससे पीड़ित हो सर्वदा महान् दुःखसे घिरे रहते हैं। हमारा ज्ञान और विवेक नष्ट हो गया है, हम सभी अचेत हो रहे हैं। हमें इतना भी ज्ञान नहीं है कि कौन दिशा किस ओर है। दिशाओंके बीचकी अवान्तर दिशाओंको भी नहीं पहचानते। आकाश, पृथ्वी तथा स्वर्गका भी हमें ज्ञान नहीं है। यह तो दुःखकी बात हुई। सुख इतना ही है कि सूर्योदय देखकर हमें प्रभात-सा प्रतीत हो रहा है। हममेंसे एकका नाम पर्युषित है. दूसरेका नाम सूचीमुख है, तीसरेका नाम शीघ्रग चौथेका रोधक और पाँचवेंका लेखक है।

ब्राह्मणने पूछा- तुम्हारे नाम कैसे पड़ गये ? क्या कारण है, जिससे तुमलोगोंको ये नाम प्राप्त हुए हैं?

प्रेतोंमेंसे एकने कहा- मैं सदा स्वादिष्ठ भोजन किया करता था और ब्राह्मणोंको पर्युपित (बासी) अन्न देता था; इसी हेतुको लेकर मेरा नाम पर्युषित पड़ा है। मेरे इस साथीने अन्न आदिके अभिलाषी बहुत-से ब्राह्मणोंकी हिंसा की है, इसलिये इसका नाम सूचीमुख पड़ा है यह तीसरा प्रेत भूखे ब्राह्मणके वाचना करनेपर भी [उसे कुछ देनेके भयसे] शीघ्रतापूर्वक वहाँसे चला गया था; इसलिये इसका नाम शीघ्रग हो गया। यह चौथा प्रेत ब्राह्मणोंको देनेके भयसे उद्विग्न होकर सदा अपने घरपर ही स्वादिष्ठ भोजन किया करता था; इसलिये यह रोधक कहलाता है तथा हमलोगों में सबसे बड़ा पापी जो यह पाँचवां प्रेत है, यह याचना करनेपर चुपचाप खड़ा रहता था या धरती कुरेदने लगता था, इसलिये इसका नाम लेखक पड़ गया। लेखक बड़ी कठिनाईसे चलता है। रोधकको | सिर नीचा करके चलना पड़ता है। शीघ्रग पंगु हो गया है। सूची (हिंसा करनेवाले) - का सूईके समान मुँह हो गया है तथा मुझ पर्युषितकी गर्दन लम्बी और पेट बड़ा हो गया है। अपने पापके प्रभावसे मेरा अण्डकोष भी बढ़ गया है तथा दोनों ओठ भी लम्बे होनेके कारण लटक गये हैं। यही हमारे प्रेतयोनिमें आनेका वृत्तान्त है, जो सब मैंने तुम्हें बता दिया। यदि तुम्हारी इच्छा हो तो कुछ और भी पूछो। पूछनेपर उस बातको भी बतायेंगे।ब्राह्मण बोले- इस पृथ्वीपर जितने भी जीव रहते हैं, उन सबकी स्थिति आहारपर ही निर्भर है। अत: मैं तुमलोगोंका भी आहार जानना चाहता हूँ। प्रेत बोले- विप्रवर। हमारे आहारकी बात सुनिये। हमलोगोका आहार सभी प्राणियोंके लिये निन्दित है। उसे सुनकर आप भी बारम्बार निन्दा करेंगे। बलगम, देश पाखाना और स्त्रीके शरीरका मेल- इन्हींसे हमारा भोजन चलता है। जिन घरोंमें पवित्रता नहीं है, वहाँ प्रेत भोजन करते हैं। जो घर स्त्रियोंके द्वारा दग्ध और छिन्न-भिन्न हैं, जिनके सामान इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं तथा मल-मूत्रके द्वारा जो घृणित अवस्थाको पहुँच चुके हैं, उन्हीं घरोंमें प्रेत भोजन करते हैं। जिन घरोंमें मानसिक लज्जाका अभाव है, पतितोंका निवास है तथा जहाँके निवासी लूट-पाटका काम करते हैं, वहीं प्रे भोजन करते हैं जहाँ बलिवैश्वदेव तथा वेद मन्त्रोंका उच्चारण नहीं होता, होम और व्रत नहीं होते, यहाँ प्रेत भोजन करते हैं जहाँ गुरुजनोंका आदर नहीं होता, जिन घरोंमें स्त्रियोंका प्रभुत्व है, जहाँ क्रोध और लोभने अधिकार जमा लिया है, वहीं प्रेत भोजन करते है। तात मुझे अपने भोजनका परिचय देते लगा हो रही है, अतः इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। तपोधन। तुम नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले हो, इसलिये प्रेतयोनिसे दुःखी होकर हम तुमसे पूछ रहे हैं। बताओ, कौन-सा कर्म करनेसे जीव प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता?

ब्राह्मणने कहा- जो मनुष्य एक रात्रिका, तीन यिका तथा कृच्छ्रचान्द्रायण आदि अन्य व्रतोंका अनुष्ठान करता है, वह कभी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। जो प्रतिदिन तीन, पाँच या एक अग्निका सेवन करता है तथा जिसके हृदयमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई है यह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो मान और अपमानमें, सुवर्ण और मिट्टी के ढेलेमें तथा शत्रु और मित्रमें समान भाव रखता है, वह प्रेत नहीं होता। देवता, अतिथि, गुरु थापितको पूजामें सदा प्रवृत रहनेवाला मनुष्य भी प्रेतयोनि नहीं पड़ता शुक्लपक्षमें मंगलवारके दिनचतुर्थी तिथि आनेपर उसमें जो श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जिसने क्रोधको जीत लिया है, जिसमें डाहका सर्वथा अभाव है, जो तृष्णा और आसक्तिसे रहित, क्षमावान् और दानशील हैं, वह प्रेतयोनिमें नहीं जाता। जो गौ, ब्राह्मण, तीर्थ, पर्वत, नदी और देवताओंको प्रणाम करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता।

प्रेत बोले- महामुने! आपके मुखसे नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले; हम दुःखी जीव हैं, इसलिये पुनः पूछते हैं- जिस कर्मसे प्रेतयोनिमें जाना पड़ता है, वह हमें बताइये।

ब्राह्मणने कहा- यदि कोई द्विज और विशेषतः ब्राह्मण शूद्रका अन्न खाकर उसे पेटमें लिये ही मर जाय तो वह प्रेत होता है। जो आश्रमधर्मका त्याग करके मदिरा पीता, परायी स्त्रीका सेवन करता तथा प्रतिदिन मांस खाता है, उस मनुष्यको प्रेत होना पड़ता है। जो ब्राह्मण यज्ञके अनधिकारी पुरुषोंसे यज्ञ करवाता, अधिकारी पुरुषोंका त्याग करता और शूद्रकी सेवामें रत रहता है, वह प्रेतयोनिमें जाता है। जो मित्रकी धरोहरको हड़प लेता, शूद्रका भोजन बनाता, विश्वासघात करता और कूटनीतिका आश्रय लेता है, वह निश्चय ही प्रेत होता है। ब्रह्महत्यारा, गोघाती, चोर, शराबी, गुरुपत्नीके साथ सम्भोग करनेवाला तथा भूमि और कन्याका अपहरण करनेवाला निश्चय ही प्रेत होता है। जो पुरोहित नास्तिकतामें प्रवृत्त होकर अनेकों ऋत्विजोंके लिये मिली हुई दक्षिणाको अकेले ही हड़प लेता है, उसे निश्चय ही प्रेत होना पड़ता है।

विप्रवर पृथु जब इस प्रकार उपदेश कर रहे थे, उसी समय आकाशमें सहसा नगारे बजने लगे। हजारों देवताओंके हाथसे छोड़े हुए फूलोंकी वर्षा होने लगी। प्रेतोंके लिये चारों ओरसे विमान आ गये। आकाशवाणी हुई— 'इन ब्राह्मणदेवताके साथ वार्तालाप और पुण्यकथाका कीर्तन करनेसे तुम सब प्रेतोंको दिव्यगति प्राप्त हुई है। [इस प्रकार सत्संगके प्रभावसे उन प्रेतोंका उद्धार हो गया ।] गंगानन्दन ! यदि तुम्हें कल्याणसाधनकी आवश्यकता है तो तुम आलस्य छोड़कर पूर्ण प्रयत्न करके सत्पुरुषोंके साथ वार्तालाप सत्संग करो। यह पाँच प्रेतोंकी कथा सम्पूर्ण धर्मोका तिलक है। जो मनुष्य इसका एक लाख पाठ करता है, उसके वंशमें कोई प्रेत नहीं होता। जो अत्यन्त श्रद्धा और भक्तिके साथ इस प्रसंगका बारम्बार श्रवण करता है, वह भी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता।

भीष्मजीने पूछा- ब्रहान्। पुष्करकी स्थिति अन्तरिक्षमें क्योंकर बतलायी जाती है? धर्मशील मुनि इस लोकमें उसे कैसे प्राप्त करते हैं और किस-किसने प्राप्त किया है?

पुलस्त्यजी बोले- राजन्! एक समयकी बात है-दक्षिणभारतके निवासी एक करोड़ ऋषि पुष्कर तीर्थमें स्नान करनेके लिये आये; किन्तु पुष्कर आकाशमें स्थित हो गया। यह जानकर वे समस्त मुनि प्राणायाममें तत्पर हो परब्रह्मका ध्यान करते हुए बारह वर्षोंतक वहीं खड़े रह गये। तब ब्रह्माजी, इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता तथा ऋषि महर्षि आकाशमें अलक्षित होकर उन्हें [पुष्कर-प्राप्तिके लिये] अत्यन्त दुष्कर नियम बताते हुए बोले- 'द्विजगण! तुमलोग मन्त्रद्वारा पुष्करका आवाहन करो । 'आपो हि ष्ठा मयो0' इत्यादि तीन ऋचाओंका जप करनेसे यह तीर्थ तुम्हारे समीप आ जायगा और अघमर्षण मन्त्रका जप करनेसे पूर्ण फलदायक होगा।' उन ब्रह्मर्षियोंकी बात समाप्त होनेपर उन सब मुनियोंने वैसा ही किया। ऐसा करनेसे वे परम पावन बन गये उन्हें पुष्कर- प्राप्तिका पूरा-पूरा फल मिल गया। -

राजन्! जो कार्तिकको पूर्णिमाको पुष्कर में स्नान करता है, वह परम पवित्र हो जाता है। ब्रह्माजीके सहित पुष्कर तीर्थ सबको पुण्य प्रदान करनेवाला है। वहाँ आनेवाले सभी वर्णोंके लोग अपने पुण्यकी वृद्धि करते हैं। वे मन्त्रज्ञानके बिना ही ब्राह्मणोंके तुल्य हो जाते हैं, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। यदि कार्तिककी पूर्णिमाको कृत्तिका नक्षत्र हो तो उसे स्नान-दानके लिये अत्यन्त उत्तम समझना चाहिये। यदि उस दिन भरणी नक्षत्र हो तो भी वह तिथिमुनियोंद्वारा परम पुण्यदायिनी बतलायी गयी है और यदि उस तिथिको रोहिणी नक्षत्र हो तो वह महाकार्तिकी पूर्णिमा कहलाती है। उस दिनका स्नान देवताओंके लिये भी दुर्लभ है। यदि शनिवार, रविवार तथा बृहस्पतिवार इन तीनों दिनोंमेंसे किसी दिन उपर्युक्त तीन नक्षत्रोंमेंसे कोई नक्षत्र हो तो उस दिन पुष्करमें स्नान करनेवालेको निश्चय ही अश्वमेध यज्ञका पुण्य होता है। उस दिन किया हुआ दान और पितरोंका तर्पण अक्षय होता है। यदि सूर्य विशाखा नक्षत्रपर और चन्द्रमा कृत्तिका नक्षत्रपर हों तो पद्मक नामका योग होता है, यह पुष्करमें अत्यन्त दुर्लभ माना गया है जो आकाशसे उतरे हुए ब्रह्माजीके इस शुभ तीर्थमें स्नान करते हैं, उन्हें महान् अभ्युदयशाली लोकोंकी प्राप्ति होती है। महाराज ! उन्हें दूसरे किसी पुण्यके करने न करनेकी लालसा नहीं रहती। यह मैंने सच्ची बात कही है। पुष्कर इस पृथ्वीपर सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ बताया गया है। संसारमें इससे बढ़कर पुण्यतीर्थ दूसरा कोई नहीं है। कार्तिककी पूर्णिमाको यह विशेष पुण्यदायक होता है। वहाँ उदुम्बर वनसे सरस्वतीका आगमन हुआ है और उसीके जलसे मुनिजन-सेवित पुष्कर तीर्थ भरा हुआ है। सरस्वती ब्रह्माजीकी पुत्री है। वह पुण्यसलिला एवं पुण्यदायिनी नदी है। वंशस्तम्बसे विस्तृत आकार धारण करके वह उत्तरकी ओर प्रवाहित हुई है। इस रूपमें कुछ दूर जाकर वह फिर पश्चिमकी ओर बहने लगती है और वहाँसे प्राणियोंपर दया करनेके लिये अदृश्यभावका परित्याग करके स्वच्छ जलकी धारा बहाती हुई प्रकट रूपमें स्थित होती है। कनका सुप्रभा, नन्दा, प्राची और सरस्वती-ये पाँच स्रोत पुष्करमें विद्यमान हैं। इसलिये ब्रह्माजीने सरस्वतीको पंचस्त्रोता कहा है। उसके तटपर अत्यन्त सुन्दर तीर्थ और मन्दिर हैं, जो सब ओरसे सिद्धों और मुनियोंद्वारा सेवित हैं। उन सब तीर्थोंमें सरस्वती ही धर्मको हेतु है। वहाँ स्नान करने, जल पीने तथा सुवर्ण आदि दान करने से महानदी सरस्वती अक्षय फल उत्पन्न करती है। मुनीश्वरगण अन्न और वस्त्रका दान श्रेष्ठ बतलातेहैं; जो मनुष्य सरस्वती-तटवर्ती तीर्थोंमें उक्त वस्तुओंका दान करते हैं, उनका दान धर्मका साधक और अत्यन्त उत्तम माना गया है। जो स्त्री या पुरुष संयमसे रहकर प्रयत्नपूर्वक उन तीथोंमें उपवास करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें जाकर यथेष्ट आनन्दका अनुभव करते हैं। जो स्थावर या जंगम प्राणी प्रारब्ध कर्मका क्षय हो जानेपर सरस्वतीके तटपर मृत्युको प्राप्त होते हैं, वे सब हठात् यज्ञके सम्पूर्ण श्रेष्ठ फल प्राप्त करते हैं। जिनका चित्त जन्म और मृत्यु आदिके दुःखसे पीड़ित है, उन मनुष्योंके लिये सरस्वती नदी धर्मको उत्पन्न करनेवाली अरणीके समान है। अतः मनुष्योंको प्रयत्नपूर्वक उत्तम फल प्रदान करनेवाली महानदी सरस्वतीका सब प्रकारसे सेवन करना चाहिये। जो सरस्वतीके पवित्र जलका नित्य पान करते हैं, वे मनुष्य नहीं, इस पृथ्वीपर रहनेवाले देवता है द्विजलोग यह दान एवं तपस्यासे जिस फलको प्राप्त करते हैं, वह यहाँ स्नान करनेमात्रसे शूद्रोंको भी सुलभ हो जाता है। महापातकी मनुष्य भी पुष्कर तीर्थके दर्शनमात्रसे पापरहित हो जाते हैं और शरीर छूटनेपर स्वर्गको जाते हैं। पुष्करमें उपवास करनेसे पौण्डरीक यज्ञका फल मिलता है। जो यहाँ अपनी शक्तिके अनुसार प्रतिमास भक्तिपूर्वक ब्राह्मणको तिलका दान करता है, वह वैकुण्ठधामको प्राप्त होता है। जो मनुष्य वहाँ शुद्ध वृत्तिसे रहकर तीन राततक उपवास करते हैं और ब्राह्मणोंको धन देते हैं, वे मरनेके पश्चात् ब्रह्माका रूप धारण कर विमानपर आरूढ़ हो ब्रह्माजीके साथ सायुज्य मोक्षको प्राप्त होते हैं।

पुष्करमें गंगोद्भेद तीर्थ है, जहाँ नदियों में श्रेष्ठ गंगाजी सरस्वतीको देखनेके लिये आयी थीं। उस समय वहाँ आकर गंगाजीने कहा- 'सखी! तुम बड़ी सौभाग्यशालिनी हो। तुमने देवताओंका वह दुष्कर कार्य किया है, जिसे दूसरा कोई कभी नहीं कर सकता था। महाभागे ! इसीलिये देवता भी तुम्हारा दर्शन करने आये हैं। तुम मन, वाणी, शरीर और क्रियाद्वारा इनका सत्कार करो।'

पुलस्त्यजी कहते हैं— गंगाजीके ऐसा कहनेपरब्रह्मकुमारी सरस्वती उन सुरेश्वरोंकी पूजा करके फिर अपनी सखियोंसे मिली। ज्येष्ठ और मध्यम पुष्करके बीच उनका विश्वविख्यात समागम हुआ था। वहाँ सरस्वतीका मुख पश्चिम दिशाकी ओर और गंगाका उत्तरकी ओर है। तदनन्तर पुष्करमें आये हुए समस्त देवता सरस्वतीके दुष्कर कर्मका महत्त्व समझकर उसकी स्तुति करने लगे ।

देवता बोले- देवि! तुम्हीं धृति, तुम्हीं मति, तुम्हीं लक्ष्मी, तुम्हीं विद्या और तुम्हीं परागति हो । श्रद्धा, परानिष्ठा, बुद्धि, मेधा, धृति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम्हीं सिद्धि हो, तुम्हीं स्वाहा और स्वधा हो तथा तुम्हीं परम पवित्र मत (सिद्धान्त) हो । सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, भूति, मेधा, श्रद्धा, सरस्वती, यज्ञविद्या, महाविद्या, गुह्यविद्या, सुन्दर आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), त्रयीविद्या (वेदत्रयी) और दण्डनीति- ये सब तुम्हारे ही नाम हैं। समुद्रको जानेवाली श्रेष्ठ नदी! तुम्हें नमस्कार है। पुण्यसलिला सरस्वती! तुम्हें नमस्कार है। पापोंसे छुटकारा दिलानेवाली देवि! तुम्हें नमस्कार है। वरांगने ! तुम्हें नमस्कार है।

देवताओंने जब इस प्रकार उस दिव्य देवीका स्तवन किया, तब वह पूर्वाभिमुख होकर स्थित हुई। ब्रह्माजीके कथनानुसार वही प्राची सरस्वती है। सम्पूर्ण देवताओंसे युक्त होनेके कारण देवी सरस्वती सब तीर्थोंमें प्रधान हैं। वहाँ सुधावट नामका एक पितामह सम्बन्धी तीर्थ है, जिसके दर्शनमात्रसे महापातकी पुरुष भी शुद्ध हो जाते हैं और ब्रह्माजीके समीप रहकर दिव्य भोग भोगते हैं। जो नरश्रेष्ठ वहाँ उपवास करते हैं, वे मृत्युके पश्चात् हंसयुक्त विमानपर आरूढ़ हो निर्भयतापूर्वक शिवलोकको जाते हैं। जो लोग वहाँ शुद्ध अन्तःकरण वाले ब्रह्मज्ञानी महात्माओंको थोड़ा भी दान करते हैं, उनका वह दान उन्हें सौ जन्मोंतक फल देता रहता है। जो मनुष्य वहाँ टूटे-फूटे तीर्थोंका जीर्णोद्धार करते हैं, वे ब्रह्मलोकमें जाकर सुखी एवं आनन्दित होते हैं। जो मनुष्य वहाँ ब्रह्माजीकी भक्तिके परायण हो पूजा, जप और होम करते हैं, उन्हें वह सब कुछ अनन्त पुण्यफलप्रदान करता है। उस तीर्थमें दीप दान करनेसे ज्ञान नेत्रकी प्राप्ति होती है, मनुष्य अतीन्द्रिय पदमें स्थित होता है और धूप दानसे उसे ब्रह्मधाम प्राप्त होता है। अधिक क्या कहा जाय, प्राची सरस्वती और गंगाके संगममें जो कुछ दिया जाता है, वह जीते-जी तथा मरनेके बाद भी अक्षयफल प्रदान करनेवाला होता है। वहाँ स्नान, जप और होम करनेसे अनन्त फलकी सिद्धि होती है।

भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने भी उस तीर्थमें आकर मार्कण्डेयजीके कथनानुसार अपने पिता दशरथजीके लिये पिण्ड दान और श्राद्ध किया था। वहाँ एक चौकोर बावली है, जहाँ पिण्डदान करनेवाले मनुष्य हंसयुक्त विमानसे स्वर्गको जाते हैं। यज्ञवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्माजीने उस तीर्थके ऊपर उत्तम दक्षिणाओंसे युक्त पितृमेध यज्ञ (श्राद्ध) किया था। उसमें उन्होंने वसुओंको पितर, रुद्रोंको पितामह और आदित्योंको प्रपितामह नियत किया था। फिर उन तीनोंको बुलाकर कहा- 'आपलोग सदा यहाँ विराजमान रहकर पिण्डदान आदि ग्रहण 'किया करें।' वहाँ जो पितृकार्य किया जाता है, उसका अक्षय फल होता है। पितर और पितामह सन्तुष्ट होकर उन्हें उत्तम जीविकाकी प्राप्तिके लिये आशीर्वाद देते हैं। वहाँ तर्पण करनेसे पितरोंकी तृप्ति होती है और पिण्डदान करनेसे उन्हें स्वर्ग मिलता है। इसलिये सब कुछ छोड़कर प्राची सरस्वती तीर्थमें तुम पिण्डदान करो।प्रत्येक पुत्रको उचित है कि वह वहाँ जाकर अपने समस्त पितरोंको यत्नपूर्वक तृप्त करे। वहाँ प्राचीनेश्वर भगवान्का स्थान है। उसके सामने आदितीर्थ प्रतिष्ठित है, जो दर्शनमात्रसे मोक्ष प्रदान करनेवाला है। वहाँके जलका स्पर्श करके मनुष्य जन्म-मृत्युके बन्धन से छुटकारा पा जाता है। उसमें स्नान करनेसे वह ब्रह्माजीका अनुचर होता है। जो मनुष्य आदितीर्थमें स्नान करके एकाग्रतापूर्वक थोडेसे अन्नका भी दान करता है, वह स्वर्गलोकको प्राप्त होता है। जो विद्वान् वहाँ स्नान करके ब्रह्माजीके भक्तोंको सुवर्ण और खिचड़ी दान करता है, वह स्वर्गलोकमें सुखी एवं आनन्दित होता है। जहाँ प्राची सरस्वती विद्यमान हैं, वहाँ मनुष्य दूसरे साधनकी खोज क्यों करते हैं। प्राची सरस्वतीमें स्नान करनेसे जिस फलकी प्राप्ति होती है, उसीके लिये तो जप-तप आदि साधन किये जाते हैं। जो भगवती प्राची सरस्वतीका पवित्र जल पीते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं, देवता समझना चाहिये - यह मार्कण्डेय मुनिका कथन है। सरस्वती नदीके तटपर पहुँचकर स्नान करनेका कोई नियम नहीं है। भोजनके बाद अथवा भोजनके पहले, दिनमें अथवा रात्रिमें भी स्नान किया जा सकता है। वह तीर्थ अन्य सब तीर्थोकी अपेक्षा प्राचीन और श्रेष्ठ माना गया है। वह प्राणियोंके पापोंका नाशक और पुण्यजनक बतलाया गया है।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार