नारदजी बोले - ज्ञानयोगके विशेषज्ञ महात्माओ ! अब मैं भक्ति, ज्ञान और वैराग्यकी स्थापना करनेके लिये श्रीशुकदेवजीके कहे हुए श्रीमद्भागवतशास्त्रकी कथाद्वारा यत्नपूर्वक उज्ज्वल ज्ञानयज्ञ करूँगा। यह यज्ञ मुझे कहाँ करना चाहिये? इसके लिये कोई स्थान बतलाइये । आपलोग वेदोंके पारंगत विद्वान् हैं, इसलिये मुझे शुकशास्त्र (श्रीमद्भागवत) की महिमा भी सुनाइये। और यह भी बताइये कि श्रीमद्भागवतकी कथा कितने दिनोंमें सुननी चाहिये तथा उसके सुननेके लिये कौन सी विधि है।
श्रीसनकादिने कहा- नारदजी! आप विनयी और विवेकी हैं, सुनिये- हम आपकी पूछी हुई सभीबातें बताते हैं। हरद्वारके समीप एक आनन्द नामका घाट है। वहाँ अनेकों ऋषि महर्षि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते हैं। नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे वह स्थान व्याप्त है। वहाँ नूतन एवं कोमल बालू बिछी हुई है। वह घाट बड़ा सुरम्य और एकान्त प्रदेशमें है। सुवर्णमय कमल उसकी शोभा बढ़ाया करते हैं। उसके आस-पास रहनेवाले जीवोंके मनमें वैरका भाव नहीं ठहरने पाता। वहाँ अधिक समारोहके बिना ही आपको ज्ञान-यज्ञका अनुष्ठान करना चाहिये। उस स्थानपर जो कथा होगी, उसमें बड़ा अपूर्व रस मिलेगा। भक्ति भी निर्बल एवं जरा-जीर्ण शरीरवाले अपने दोनों पुत्रोंको आगे करके वहीं आ जायगी; क्योंकिजहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वहाँ ये भक्ति आदि स्वतः पहुँच जाते हैं। वहाँ कानोंमें कथाका शब्द पढ़नेसे तीनों ही तरुण हो जायेंगे।
ऐसा कहकर देवर्षि नारदजीके साथ सनकादि श्री भागवत कथारूपी अमृतका पान करनेके लिये शीघ्र ही हरद्वारमें गंगाजीके तटपर आ गये। जिस समय वे वहाँ तटपर पहुँचे भूलोक, देवलोक तथा ब्रह्मलोकमे सब जगह इस कथाका शोर हो गया। रसिक भक्त श्रीमद्भागवतामृतका पान करनेके लिये वहाँ सबसे पहले दौड़-दौड़कर आने लगे। भृगु, वसिष्ठ, च्यवन, गौतम, मेधातिथि, देवल, देवरात, परशुराम, विश्वामित्र, शाकल, मार्कण्डेय, दत्तात्रेय, पिप्पलाद, योगेश्वर व्यास और पराशर, श्रीमान् छायाशुक, जाजलि और जनु आदि सभी प्रधान मुनिगण अपने पुत्र, मित्र और स्त्रियोंको साथ लिये बड़े प्रेमसे यहाँ आये इनके सिवा वेद, वेदान्त, मन्त्र तन्त्र, सत्रह पुराण और छहों शास्त्र भी वहाँ मूर्तिमान् होकर उपस्थित हुए। गंगा आदि नदियाँ; पुष्कर आदि सरोवर समस्त क्षेत्र सम्पूर्ण दिशाएँ, दण्डक आदि वन; नाग आदि गण देव, गन्धर्व और किन्नर सभी कथा सुननेके लिये चले आये। जो लोग अपनेको बड़ा माननेके कारण संकोचवश वहाँ नहीं उपस्थित हुए थे, उन्हें महर्षि भृगु समझा बुझाकर से आये।
तदनन्तर, कथा सुनानेके लिये दीक्षा ग्रहण कर लेनेपर श्रीकृष्णपरायण सनकादि नारदजीके दिये हुए उत्तम आसनपर विराजमान हुए। उस समय सभी श्रोताओंने उनको मस्तक झुकाया। श्रोताओं में वैष्णव, विरक्त, संन्यासी और ब्रह्मचारी ये सबसे आगे बैठे और उनके भी आगे देवर्षि नारदजी विराजमान हुए। एक और ऋषि बैठे थे और दूसरी ओर देवता। वेदों और उपनिषदोंका अलग आसन था। एक ओर तीर्थ विराजमान हुए और दूसरी ओर स्त्रियाँ । उस समय सब और जयजयकार, नमस्कार और शंखोंका शब्द होने अबीर-गुलाल आदि चूर्ण, खोल और फूलोकीखूब वर्षा हुई। कितने ही देवेश्वर विमानोंपर बैठकर वहाँ उपस्थित हुए सब लोगोंपर कल्पवृक्षके फूलोंकी वर्षा करने लगे।
इस प्रकार जब पूजा समाप्त हुई और सब लोग एकाग्रचित्त होकर बैठ गये, तब सनकादि मुनि महात्मा नारदको श्रीमद्भागवतका माहात्म्य स्पष्ट करके बतलाने लगे।
श्रीसनकादिने कहा- नारदजी अब हम आपसे इस भागवत शास्त्रकी महिमाका वर्णन करते हैं। इसके सुननेमात्र ही मुक्ति हाथ लग जाती है। श्रीमद्भागवतकी कथाका सदा ही सेवन करना चाहिये। इसके श्रवणमात्रसे मुक्तिरत्नकी प्राप्ति हो जाती है। यह ग्रन्थ अठारह हजार श्लोकोंका है। इसमें बारह स्कन्ध हैं। यह राजा परीक्षित और श्रीशुकदेव मुनिका संवादरूप है। हम इस श्रीमद्भागवतको सुनाते हैं, आप ध्यान देकर सुनें। जीव तभीतक अज्ञानवश इस संसारचक्रमें भटकता है, जबतक कि क्षणभरके लिये भी यह श्रीमद्भागवत कथा उसके कानोंमें नहीं पड़ती। बहुत से शास्त्रों और पुराणोंके सुननेसे क्या लाभ इससे तो भ्रम ही बढ़ता है। भागवत - शास्त्र अकेला ही मोक्ष देनेके लिये गरज रहा है। जिस घरमें प्रतिदिन श्रीमद्भागवतकी कथा होती है, वह घर तीर्थस्वरूप हो जाता है। जो लोग उसमें निवास करते हैं, उनके पापोंका नाश कर देता है। सहस्रौ अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ भी इस श्रीमद्भागवतकी कथाका सोलहवाँ अंश भी नहीं हो सकते। तपोधनो! मनुष्य जबतक श्रीमद्भागवत कथाका भलीभाँति श्रवण नहीं करते, तभीतक उनके शरीर में पाप ठहर सकते हैं। गंगा, गया, काशी, पुष्कर और प्रयाग-ये श्रीमद्भागवत कथाके फलकी बराबरी नहीं कर सकते ॐकार, गायत्रीमन्त्र, पुरुषसूक्त, म साम और यजुः ये तीनों वेद, श्रीमद्भागवत, 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' यह द्वादशाक्षर मन्त्र बारह मूर्तिवाले सूर्य, प्रयाग, संवत्सररूप काल, ब्राह्मण अग्निहोत्र, गौ, द्वादशी तिथि, तुलसी, वसन्त ऋतु और भगवान् पुरुषोत्तम इन सबमें विद्वान् पुरुष वस्तुतःकोई अन्तर नहीं मानते। जो मनुष्य प्रतिदिन श्रीमद्भागवत शास्त्रका अर्थसहित पाठ करता है, उसके करोड़ों जन्मोंके किये हुए पापका नाश हो जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो नित्यप्रति श्रीमद्भागवतके आधे या चौथाई श्लोकका भी पाठ करता है, उसे राजसूय और अश्वमेधयज्ञोंका फल प्राप्त होता है। नित्य श्रीमद्भागवतका पाठ करना, श्रीहरिका ध्यान करना, तुलसीके पौधेको सींचना और गौओंकी सेवा करना ये चारों समान हैं। जो पुरुष अन्तकालमें श्रीमद्भागवतका वाक्य सुन लेता है, उसपर प्रसन्न हो भगवान् गोविन्द उसे अपना वैकुण्ठधामतक दे डालते हैं। जो मानव इसे सोनेके सिंहासनपर रखकर श्रीविष्णु भक्तको दान करता है, उसे निश्चय ही भगवान् श्रीकृष्णका सायुज्य प्राप्त होता है। जिस दुष्टने अपने जन्मसे लेकर समस्त जीवनमें चित्तको एकाग्र करके कभी श्रीमद्भागवत कथामृतका थोड़ा सा भी रसास्वादन नहीं किया, उसने अपना सारा जन्म चाण्डाल और गधेके समान व्यर्थ ही गँवा दिया। वह तो माताको प्रसक्की पीड़ा पहुँचानेके लिये ही उत्पन्न हुआ था। यह कितने खेदकी बात है जिसने इस शुक-शास्त्रके | थोड़े-से भी वचन नहीं सुने, वह पापात्मा जीते-जी भी मुर्देके ही समान है। वह इस पृथ्वीका भाररूप है। मनुष्य होकर भी पशुके ही तुल्य है। उसे धिक्कार है - इस प्रकार उसके विषयमें स्वर्गके प्रधान प्रधान देवता कहा करते हैं। संसारमें श्रीमद्भागवतकी कथा परम दुर्लभ है। जब करोड़ों जन्मोंके पुण्योंका उदय होता है, तभी इसकी प्राप्ति होती है।
इसलिये योगनिधि बुद्धिमान् नारदजी! श्रीमद्भागवतका यत्नपूर्वक श्रवण करना चाहिये। इसके लिये दिनोंका कोई नियम नहीं है। सदा ही इसका सुनना उत्तम माना गया है। सत्यभाषण और ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सदा ही इसको सुनना उत्तम है, किन्तु कलियुगमें ऐसा होना बहुत ही कठिन है, इसलिये इसके विषयमें श्रीशुकदेवजीके आदेशके अनुसार यह विशेष विधि जान लेनी चाहिये। मनके असंयम, रोगोंकेआक्रमण, मनुष्योंकी आयुके ह्रास और कलियुगके अनेक दोषोंकी सम्भावनाके कारण एक सप्ताहमें ही भागवतके श्रवणका नियम किया गया है। कलियुगमें अधिक दिनोंतक मनकी वृत्तियोंपर काबू रखना, नियमोंका पालन करना और विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करना बहुत कठिन है; इसलिये इस समय सप्ताह श्रवणका विधान है। प्रतिदिन श्रद्धापूर्वक श्रीमद्भागवतको आदिसे अन्ततक सुननेका जो फल है, वही श्रीशुकदेवजीने सप्ताह श्रवणमें भी बताया है। तपस्या, योग और समाधिसे भी जिस फलकी प्राप्ति असम्भव है, वह सब श्रीमद्भागवतका सप्ताहश्रवण करनेसे अनायास ही मिल जाता है। सप्ताहश्रवण यज्ञसे भी बढ़कर अपने महत्त्वकी घोषणा करता है, व्रतसे भी अधिक होनेका दावा करता है, तपस्यासे भी श्रेष्ठ होनेकी गर्जना करता है और तीर्थसे तो वह सदा बढ़कर है ही। इतना ही नहीं, सप्ताहश्रवण योगसे भी बढ़कर हैं, ध्यान और ज्ञानसे भी बढ़ा-चढ़ा है। कहाँतक उसकी विशेषताका वर्णन करें। अरे! वह तो सबसे बढ़-चढ़कर है।
शौनकजीने पूछा- सूतजी ! यह तो आपने बड़े आश्चर्यकी बात बतायी। माना कि यह श्रीमद्भागवत पुराण योगवेत्ता ब्रह्माजीके भी आदिकारण भगवान् श्रीपुरुषोत्तमका निरूपण करनेवाला है; परन्तु यह इस युगमें ज्ञान आदि साधनोंका तिरस्कार करके उनसे भी बढ़कर कल्याणका साधक कैसे हो गया ?
सूतजीने कहा - शौनकजी! जब भगवान् श्रीकृष्ण इस धराधामको छोड़कर अपने परमधामको पधारनेके लिये उद्यत हुए, उस समय उद्धवजीने उनके मुखसे एकादशस्कन्धमें वर्णित ज्ञानका उपदेश सुनकर भी उनसे इस प्रकार कहा।
उद्धवजी बोले- गोविन्द ! अब आप तो अपने भक्तोंका कार्य सिद्ध करके परमधामको पधारना चाहते हैं; किन्तु मेरे मनमें एक बहुत बड़ी चिन्ता है, उसे सुनकर आप मुझे सुखी कीजिये। देखिये, यह भयंकर कलिकाल आया ही चाहता है। अब फिर संसारमें दुष्टलोग उत्पन्न होंगे। उनके संसर्गसे साधु पुरुष भी उग्र स्वभाव होजायेंगे। उस समय उनके भारसे दबी हुई यह सरूपधारिणी भूमि किसकी शरण में जायगी। कमल जयन! मुझे तो आपके सिवा दूसरा कोई इसका रक्षक दिखायी देता इसलिये भक्तवत्सल आप साधु पुरुषो दया करके यहाँ मत जाइये। निराकार एवं चिन्मय होते हुए भी आपने भक्तोंके लिये ही यह सगुणरूप धारण किया है। अब वे ही भक्त आपके वियोगमें इस पृथ्वीपर कैसे रह सकेंगे ? निर्गुणकी उपासनामें हो बहुत कठिनाई है, अतः वह उनसे हो नहीं सकती; इसलिये मेरे कथनपर कुछ विचार कीजिये।
सूतजी कहते हैं- प्रभासक्षेत्रमें उद्धवजीके ये वचन सुनकर श्रीहरिने सोचा- 'भक्तोंके अवलम्बके लिये इस समय मुझे क्या करना चाहिये ?' इस प्रकार विचार करके भगवान्ने अपना सम्पूर्ण तेज श्रीमद्भागवतमें स्थापित कर दिया। वे अन्तर्धान होकर श्रीमद्भागवतरूपी समुद्रमें प्रवेश कर गये इसलिये यह श्रीमद्भागवत भगवान्को साक्षात् वाङ्मयी मूर्ति है। इसके सेवनसे तथा सुनने, पढ़ने और दर्शन करनेसे यह सब पापका नाश कर देती है। इसीसे इसका सप्ताहश्रवण सबसे बढ़कर माना गया है। कलियुगमें अन्य सब साधनोंको छोड़कर इसीको प्रधान धर्म बताया गया है। दुःख, दरिद्रता, दुर्भाग्य और पापोंको धो डालनेके लिये तथा काम और क्रोधको काबू में करनेके लिये कलिकालमें यही प्रधान धर्म कहा गया है; अन्यथा भगवान् विष्णुकी मायासे पिण्ड छुड़ाना देवताओंके लिये भी कठिन है, फिर मनुष्य तो उसे छोड़ ही कैसे सकते हैं। अतः इससे छुटकारा पानेके लिये भी सप्ताह श्रवणका विधान किया गया है।
शौनकजी जब सनकादि ऋषि इस प्रकार सप्ताहश्रवणकी महान् महिमाका वर्णन कर रहे थे, उस समय सभामें एक बड़े आश्चर्यकी बात हुई; उसे मैं बतलाता हूँ, सुनिये प्रेमरूपा भक्ति तरुण अवस्थाको प्राप्त हुए अपने दोनों पुत्रोंको साथ ले सहसा वहाँ प्रकट हो गयी। उस समय उसके मुखसे 'श्रीकृष्ण! गोविन्द हरे मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव! 'आदिभगवन्नामका बारंबार उच्चारण हो रहा था। उस समाजमे बैठे हुए श्रोताओंने जब श्रीमद्भागवतके अर्थभूत, भगवान्के गलेकी हार एवं मनोहर वेषवाली भक्ति देवीको वहाँ उपस्थित देखा तो वे मन-ही-मन तर्क करने लगे- 'ये मुनियोंके बीचमें कैसे आ गयीं? इनका यहाँ किस प्रकार प्रवेश हुआ ?' तब सनकादिने कहा "इस समय ये भक्तिदेवी यहाँ कथाके अर्थसे ही प्रकट हुई हैं।' उनके ये वचन सुनकर भक्तिने पुत्रों सहित अत्यन्त विनीत हो सनत्कुमारजीसे कहा-'महानुभाव! मैं कलियुगमें नष्टप्राय हो गयी थी किन्तु आपने भागवत कथारूप अमृतसे सींचकर आज फिर मुझे पुष्ट कर दिया। अब आपलोग बताइये, मैं कहाँ रहूँ?" तब ब्रह्मकुमार सनकादि ऋषियोंने कहा- 'भक्ति भक्तोंके हृदयमें भगवान् गोविन्दके सुन्दर रूपकी स्थापना करनेवाली है। वह अनन्य प्रेम प्रदान करनेवाली तथा संसार रोगको हर लेनेवाली है। तुम वही भक्ति हो, अतः धैर्य धारण करके नित्य-निरन्तर भक्तोंके हृदय मन्दिरमें निवास करो। वहाँ ये कलियुगके दोष सारे संसारपर प्रभाव डालने में समर्थ होकर भी तुम्हारी ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकते।' इस प्रकार उनकी आज्ञा पाते ही भक्तिदेवी भगवद्भकोंके हृदयमन्दिरमें विराजमान हो गयीं। शौनकजी जिनके हृदयमें एकमात्र श्रीहरिकी भक्तिका ही निवास है, वे मनुष्य सारे संसारमैनिर्धन होनेपर भी धन्य हैं; क्योंकि इस भक्तिकी डोरीसे बँधकर साक्षात् भगवान् भी अपने धामको छोड़कर सर्वथा उनके हृदयमें बस जाते हैं। भूलोकमें यह श्रीमद्भागवत साक्षात् परब्रह्मका स्वरूप है। हम इसकीमहिमाका आज तुमसे कहाँतक बखान करें। इसका आश्रय लेकर पाठ करनेपर इसके वक्ता और श्रोता दोनों ही भगवान् श्रीकृष्णकी समता प्राप्त कर लेते हैं; अतः इसको छोड़कर अन्य धर्मोंसे क्या प्रयोजन है?