राजा दिलीपने पूछा- भगवन्! आपने वर्णाश्रमधर्म 1 तथा नित्य नैमित्तिक कर्मोंसहित सम्पूर्ण धर्मोका वर्णन किया। अब मैं सनातन मोक्ष मार्गका वर्णन सुनना चाहता हूँ। आप उसे सुनानेकी कृपा करें। सम्पूर्ण मन्त्रों में कौन सा ऐसा मन्त्र है, जो संसाररूपी रोगकी एकमात्र औषध हो ? सब देवताओंमें कौन मोक्ष प्रदान करनेवाला श्रेष्ठ देवता है? यह सब बताइये।
वसिष्ठजी बोले- राजन् ! प्राचीन कालकी बात है-यज्ञ और दानमें लगे रहनेवाले सम्पूर्ण महर्षियोंने ब्रह्माजीके पुत्र मुनिश्रेष्ठ नारदजीसे प्रश्न किया 'भगवन्! हम किस मन्त्रसे परमपदको प्राप्त होंगे ?
महाभाग ! यह हमें बताइये, हमारे ऊपर कृपा कीजिये।' नारदजीने कहा- महर्षियो! पूर्वकालमें सनकादि योगियोंने एकान्तमें बैठे हुए ब्रह्माजीसे परम दुर्लभ मोक्ष मार्गके विषयमें प्रश्न किया।
तब ब्रह्माजीने कहा— सम्पूर्ण योगिजन परम उत्तम मोक्ष मार्गका वर्णन सुनें। बड़े सौभाग्यकी बात है कि आज मैं इस अद्भुत रहस्यका वर्णन करूँगा। समस्त देवता और तपस्वी ऋषि भी इस रहस्यको नहीं जानते। सृष्टिके आदिमें अविनाशी भगवान् नारायण मुझपर प्रसन्न हुए। उस समय मैंने उन पुराणपुरुषोत्तमसे पूछा- 'भगवन्! किस मन्त्रसे मनुष्योंका इस संसारसे उद्धार होगा? इसको यथार्थरूपसे बतलाइये। इससे सब लोगोंका हित होगा। कौन सा ऐसा मन्त्र है, जो बिना पुरश्चरणके ही एक बार उच्चारण करनेमात्रसे मनुष्योंको परमपद प्रदान करता है।'
श्रीभगवान् बोले- महाभाग ! तुम सब लोकोंकेहितैषी हो। तुमने यह बहुत उत्तम बात पूछी है। अतः मैं तुम्हें वह रहस्य बतलाता हूँ, जिसके द्वारा मनुष्य मुझे प्राप्त कर सकते हैं। लक्ष्मी और नारायण-ये दो मन्त्ररत्न शरणागतजनोंकी रक्षा करते हैं। सब मन्त्रोंकी अपेक्षा ये शुभकारक हैं। एक बार स्मरण करनेमात्रसे ये परमपद प्रदान करते हैं। लक्ष्मीनारायण मन्त्र सब फलोंको देनेवाला है। जो मेरा भक्त नहीं है, वह इस मन्त्रको पानेका अधिकारी नहीं है। उसे यत्नपूर्वक दूर रखना चाहिये। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र तथा इतर जातिके मनुष्य भी यदि मेरे भक्त हों तो वे सभी इस मन्त्रको पानेके अधिकारी हैं। जो शरणमें आये हों, मेरे सिवा दूसरेका सेवन न करते हों तथा अन्य किसी साधनका आश्रय न लेते हों-ऐसे लोगोंको इस उत्तम मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। यह सबको शरण देनेवाला मन्त्र है। एक बार उच्चारण करनेपर भी यह आर्त्त प्राणियोंको शीघ्र फल प्रदान करनेवाला है। आर्त्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी अथवा ज्ञानी- जो कोई भी एक बार मेरी शरणमें आ जाता है, उसे उक्त मन्त्रका पूरा फल मिलता है। जो भक्तिहीन, अभिमानी, नास्तिक, कृतघ्न एवं श्रद्धारहित हो, सुननेकी इच्छा न रखता हो तथा एक वर्षतक साथ न रह चुका हो ऐसे मनुष्यको इस मन्त्रका उपदेश नहीं देना चाहिये। जो काम-क्रोधसे मुक्त और दम्भ-लोभसे रहित हो तथा अनन्यभक्तियोगके द्वारा मेरी सेवा करता हो, उसे विधिपूर्वक इस उत्तम मन्त्ररत्नका उपदेश करना उचित है।
मेरी आराधना करना, मुझमें समस्त कर्मोंका अर्पण करना, अनन्यभावसे मेरी शरणमें आना, मुझे सबकर्मोंका फल अत्यन्त विश्वासपूर्वक समर्पित कर देना, मेरे सिवा और किसी साधनपर भरोसा न रखना तथा अपने लिये किसी वस्तुका संग्रह न करना-ये सब शरणागत भक्तके नियम हैं। ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुषको इस उत्तम मन्त्रका उपदेश देना चाहिये। उक्त मन्त्रका मैं सर्वव्यापी सनातन नारायण ही ऋषि हूँ। लक्ष्मीके साथ मैं ही इसका देवता भी हूँ अर्थात् वात्सल्य रसके समुद्र, सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वर, श्रीमान्, सुशील, सुभग, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, निरन्तर पूर्णकाम, सर्वव्यापक, सबके बन्धु और कृपामयी सुधाके सागर लक्ष्मीसहित मैं नारायण ही इसका देवता हूँ । अतः मेरी अनुगामिनी लक्ष्मीदेवीके साथ मुझ विश्वरूपी भगवान्का ध्यान करना चाहिये। अपनी इन्द्रियोंको वशमें करके पवित्र हो उक्त मन्त्ररत्नद्वारा गन्ध-पुष्प आदि निवेदन करके शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करनेवाले दिव्यरूपधारी मुझ विष्णुका मेरे वामांकमें विराजमान लक्ष्मीसहित पूजन करे। प्रजापते ! इस प्रकार एक बार पूजा करनेपर भी मैं सन्तुष्ट हो जाता हूँ।
ब्रह्माजीने कहा - नाथ! आपने इस उत्तम रहस्यका भलीभाँति वर्णन किया तथा मन्त्ररत्नके प्रभावको भी बतलाया, जो मनुष्योंको सब प्रकारकी सिद्धिका प्रदान करनेवाला है। आप सम्पूर्ण लोकोंके पिता, माता, गुरु, स्वामी, सखा, भ्राता, गति, शरण और सुहृद् हैं। देवेश्वर! मैं तो आपका दास, शिष्य तथा सुहृद् हूँ। अतः दयासिन्धो! मुझे अपनेसे अभिन्न बना लीजिये। सर्वज्ञ ! अब आप इस समय सब लोगोंके हितकी इच्छासे उत्तम विधिके साथ मन्त्ररत्नकी दीक्षाका तत्त्वतः वर्णन कीजिये।
श्रीभगवान् बोले- वत्स! सुनो-मैं मन्त्र दीक्षाकी उत्तम विधि बतलाता हूँ। मेरे आश्रयकीसिद्धिके लिये पहले आचार्यकी शरण ले आचार्य ऐसे होने चाहिये – जो वैदिक ज्ञानसे सम्पन्न, मेरे भक्त, द्वेषरहित, मन्त्रके ज्ञाता, मन्त्रके भक्त, मन्त्रकी शरण लेनेवाले, पवित्र, ब्रह्मविद्याके विशेषज्ञ, मेरे भजनके सिवा और किसी साधनका सहारा न लेनेवाले, अन्य किसीके नियन्त्रणमें न रहनेवाले, ब्राह्मण, वीतराग, क्रोध-लोभसे शून्य, सदाचारकी शिक्षा देनेवाले, मुमुक्षु तथा परमार्थवेत्ता हों। ऐसे गुणोंसे युक्त पुरुषको ही आचार्य कहा गया है। जो आचारकी शिक्षा दे, उसीका नाम आचार्य है। जो आचार्यके अधीन हो, उनके अनुशासनमें मन लगाये और आज्ञापालनमें स्थिरचित्त हो, उसे ही साधु पुरुषोंने शिष्य कहा है। ऐसे लक्षणोंसे युक्त सर्वगुणसम्पन्न शिष्यको विधिपूर्वक उत्तम मन्त्ररत्नका उपदेश करे। द्वादशीको, श्रवण नक्षत्रमें या वैष्णवके बताये हुए किसी भी समयमें उत्तम आचार्यकी प्राप्ति होनेपर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये।
वसिष्ठजी कहते हैं- इस प्रकार मन्त्ररत्नका उपदेश पाकर तीनों लोकोंके सामने ब्रह्माजीने मुझको और नारदजीको भी उक्त मन्त्रका उपदेश दिया। तत्पश्चात् नैमिषारण्यवासी शौनकादि महर्षियोंको नारदजीने इस मन्त्रका उपदेश दिया, जो शरणागतोंकी रक्षा करता है। राजन्! महर्षि भी इस गुह्यतम मन्त्रको नहीं जानते। लक्ष्मी और नारायण-ये दोनों मन्त्र परम रहस्यमय हैं। इन दोनोंसे श्रेष्ठ दूसरा कोई मन्त्र नहीं है। इन दोनोंसे श्रेष्ठ धर्म सम्पूर्ण लोकोंमें कोई नहीं है। ब्रह्माजीने पूर्वकालमें तीन बार सत्यकी प्रतिज्ञा करके कहा था- 'मनुष्योंको मुक्ति प्रदान करनेके लिये भगवान् नारायणसे बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है। उनकी सेवा ही सम्पूर्ण शुभाशुभकर्मोंका मूलोच्छेद करनेवाला मोक्ष है।'