पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन्! अब मैं तुम्हारे लिये सप्तर्षियोंके आश्रमका वर्णन करूँगा। अत्रि, वसिष्ठ, मैं, पुलह, क्रतु, अंगिरा, गौतम, सुमति, सुमुख, विश्वामित्र, स्थूलशिरा संवर्त प्रतर्दन, रैभ्य बृहस्पति, च्यवन, कश्यप, भृगु, दुर्वासा, जमदग्नि, मार्कण्डेय, गालव, उशना, भरद्वाज, यवक्रीत, स्थूलाक्ष, मकराक्ष, कण्व, मेधातिथि, नारद, पर्वत, स्वगन्धी, तृणाम्बु, शबल, धौम्य, शतानन्द, अकृतव्रण, जमदग्निकुमार परशुराम, अष्टक तथा कृष्णद्वैपायन- ये सभी ऋषि महर्षि अपने पुत्रों और शिष्यों के साथ पुष्करमें आकर सप्तर्षियोंके आश्रम में रह चुके हैं तथा सबने इन्द्रिय संयम और शौच-सन्तोपादि नियमोंके पालनपूर्वक पूरीचेष्टाके साथ तपस्या की है, जिसके फलस्वरूप उनमें इन्द्रिय-जय, धैर्य, सत्य, क्षमा, सरलता, दया और दान आदि सद्गुणोंकी प्रतिष्ठा हुई है। पूर्वकालकी बात है, समाधिके द्वारा सनातन ब्रह्मलोकपर विजय प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखनेवाले सप्तर्षिगण तीर्थस्थानोंका दर्शन करते हुए इस पृथ्वीपर विचर रहे थे। इसी बीचमें एक बार बड़ा भारी सूखा पड़ा, जिसके कारण भूखसे पीड़ित होकर सम्पूर्ण जगत् के लोग बड़े कष्टमें पड़ गये। उसी समय उन ऋषियोंको भी कष्ट उठाते देख तत्कालीन राजाने, जो प्रजाकी देख-भालके लिये भ्रमण कर रहे थे, दुःखी होकर कहा - 'मुनिवरो! ब्राह्मणोंके लिये प्रतिग्रह उत्तम वृत्ति है; अतः आपलोग मुझसे दान ग्रहणकरें- अच्छे-अच्छे गाँव धान और जौ आदि अन्न, घृत दुग्धादि रस, तरह-तरहके रत्न, सुवर्ण तथा दूध देनेवाली गौएँ ले लें।'
ऋषियोंने कहा- राजन्। प्रतिग्रह बड़ी भयंकर वृत्ति है वह स्वादमें मधुके समान मधुर, किन्तु परिणाममें विषके समान घातक है। इस बातको स्वयं जानते हुए भी तुम क्यों हमें लोभमें डाल रहे हो ?' दस कसाइयोंके समान एक चक्री (कुम्हार या तेली), दस चक्रियोंके समान एक शराब बेचनेवाला, दस शराब बेचनेवालोंके समान एक वेश्या और दस वेश्याओंके समान एक राजा होता है जो प्रतिदिन दस हजार हत्यागृहों का संचालन करता है, वह शौण्डिक है; राजा भी उसीके समान माना गया है। अतः राजाका प्रतिग्रह अत्यन्त भयंकर है। जो ब्राह्मण लोभसे मोहित होकर राजाका प्रतिग्रह स्वीकार करता है, वह तामिस्र आदि घोर नरकोंमें पकाया जाता है। अतः महाराज ! तुम अपने दानके साथ ही यहाँसे पधारो। तुम्हारा कल्याण हो। यह दान दूसरोंको देना ।
यह कहकर वे सप्तर्षि वनमें चले गये। तदनन्तर राजाकी आज्ञासे उसके मन्त्रियोंने गुलरके फलोंमें सोना भरकर उन्हें पृथ्वीपर बिखेर दिया। सप्तर्षि अन्नके दाने बीनते हुए वहाँ पहुँचे तो उन फलोंको भी उन्होंने हाथमें उठाया।
[ उन्हें भारी जानकर ] अत्रिने कहा- 'ये फल ग्रहण करनेयोग्य नहीं हैं। हमारी ज्ञानशक्तिपर मोहका पर्दा नहीं पड़ा है, हम मन्दबुद्धि नहीं हो गये हैं। हम समझदार हैं, ज्ञानी हैं, अतः इस बातको भलीभाँति समझते हैं। कि वे गूलरके फल सुवर्णसे भरे हैं। धन इसी लोकमें आनन्ददायक होता है, मृत्युके बाद तो वह बड़ेही कटु परिणामको उत्पन्न करता है; अतः जो सुख एवं अनन्त पदकी इच्छा रखता हो, उसे तो इसे कदापि नहीं लेना चाहिये। ll 2 ll
वसिष्ठजीने कहा इस लोकमें धनसंचयकी अपेक्षा तपस्याका संचय ही श्रेष्ठ है। जो सब प्रकारके लौकिक संग्रहोंका परित्याग कर देता है, उसके सारे उपद्रव शान्त हो जाते हैं संग्रह करनेवाला कोई भी मनुष्य ऐसा नहीं है, जो सुखी रह सके। ब्राह्मण जैसे जैसे प्रतिग्रहका त्याग करता है, वैसे-ही-वैसे सन्तोषके कारण उसके ब्रह्म तेजकी वृद्धि होती है। एक ओर अकिंचनता और दूसरी ओर राज्यको तराजूपर रखकर तोला गया तो राज्यकी अपेक्षा अकिंचनताका ही पलड़ा भारी रहा; इसलिये जितात्मा पुरुषके लिये कुछ भी संग्रह न करना ही श्रेष्ठ है।
कश्यपजी बोले- धन-सम्पत्ति मोहमें डालनेवाली होती है। मोह नरकमें गिराता है; इसलिये कल्याण चाहनेवाले पुरुषको अनर्थके साधन अर्थका दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। जिसको धर्मके लिये धन संग्रहकी इच्छा होती है, उसके लिये उस इच्छाका त्याग ही श्रेष्ठ है; क्योंकि कीचड़को लगाकर धोनेकी अपेक्षा उसका स्पर्श न करना ही उत्तम है। धनके द्वारा जिस धर्मका साधन किया जाता है, वह क्षयशील माना गया है। दूसरेके लिये जो धनका परित्याग है, वही अक्षय धर्म है, वही मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है।
भरद्वाजने कहा- जब मनुष्यका शरीर जीर्ण होता है, तब उसके दाँत और बाल भी पक जाते हैं; किन्तु धन और जीवनकी आशा बूढ़े होनेपर भी जीर्ण नहीं होती वह सदा नवी ही बनी रहती है। जैसे दर्जी सूईसे वस्त्रमें सूतका प्रवेश करा देता है, उसी प्रकारतृष्णारूपी सूईसे संसाररूपी सूत्रका विस्तार होता है। कहीं ओर-छोर नहीं है, उसका पेट भरना कठिन होता है; वह सैकड़ों दोषोंको ढोये फिरती है; उसके द्वारा बहुत से अधर्म होते हैं। अतः कृष्णाका तृष्णाका यही उचित है।
गौतम बोले- इन्द्रियोंके लोभग्रस्त होनेसे सभी सुष्य संकटमें पड़ जाते हैं। जिसके चित्तमें सन्तोष है, उसके लिये सर्वत्र धन-सम्पत्ति भरी हुई है; जिसके पैर जूतेमें हैं, उसके लिये सारी पृथ्वी मानो चमड़ेसे मढ़ी है। सन्तोषरूपी अमृतसे तृप्त एवं शान्त चित्तवाले पुरुषोंको जो सुख प्राप्त है, वह धनके लोभसे इधर उधर दौड़नेवाले लोगोंको कहाँसे प्राप्त हो सकता है। असन्तोष ही सबसे बढ़कर दुःख है और सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है; अतः सुख चाहनेवाले पुरुषको सदा सन्तुष्ट रहना चाहिये। *
विश्वामित्रने कहा- किसी कामनाकी पूर्ति चाहनेवाले मनुष्यकी यदि एक कामना पूर्ण होती है, तो दूसरी नयी उत्पन्न होकर उसे पुनः बाणके समान बाँधने लगती है। भोगोंकी इच्छा उपभोगके द्वारा कभी शान्त नहीं होती, प्रत्युत घी डालनेसे प्रज्वलित होनेवाली अग्निकी भाँति वह अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है। भोगेकी अभिलाषा रखनेवाला पुरुष मोहवश कभी सुख नहीं पाता।
जमदग्नि बोले- जो प्रतिग्रह लेनेकी शक्ति रखते हुए भी उसे नहीं ग्रहण करता, वह दानी पुरुषोंको मिलनेवाले सनातन लोकोंको प्राप्त होता है। जो ब्राह्मण राजासे धन लेता है, वह महर्षियोंद्वारा शोक करनेके | योग्य है; उस मूर्खको नरक-यातनाका भय नहीं दिखायी देता। प्रतिग्रह लेनेमें समर्थ होकर भी उसमें प्रवृत्त नहीं, होना चाहिये; क्योंकि प्रतिग्रहसे ब्राह्मणोंका ब्रह्मतेजनष्ट हो जाता है।
अरुन्धतीने कहा— तृष्णाका आदि अन्त नहीं है, वह सदा शरीरके भीतर व्याप्त रहती है। दुष्ट बुद्धिवाले पुरुषोंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो शरीरके जीर्ण होनेपर भी जीर्ण नहीं होती तथा जो प्राणान्तकारी रोगके समान है, उस तृष्णाका त्याग करनेवालेको ही सुख मिलता है।
पशुसख बोले- धर्मपरायण विद्वान् पुरुष जैसा आचरण करते हैं, आत्मकल्याणकी इच्छा रखनेवाले विद्वान् पुरुषको वैसा ही आचरण करना चाहिये ।
ऐसा कहकर दृढ़तापूर्वक नियमोंका पालन करनेवाले वे सभी महर्षि उन सुवर्णयुक्त फलोंको छोड़ अन्यत्र चले गये। घूमते-घामते वे मध्य पुष्करमें गये, जहाँ अकस्मात् आये हुए शुनःसख नामक परिव्राजकसे उनकी भेंट हुई। उसके साथ वे किसी वनमें गये। वहाँ उन्हें एक बहुत बड़ा सरोवर दिखायी दिया, जिसका जल कमलोंसे आच्छादित था। वे सब-के-सब उस सरोवर के किनारे बैठ गये और कल्याणका चिन्तन करने लगे। उस समय शुनःसखने क्षुधासे पीड़ित उन समस्त मुनियोंसे इस प्रकार कहा - 'महर्षियो! आप सब लोग बताइये, भूखकी पीड़ा कैसी होती है?'
ऋषियोंने कहा- शक्ति, खड्ग, गदा, चक्र, तोमर और बाणोंसे पीड़ित किये जानेपर मनुष्यको जो वेदना होती है, वह भी भूखको पीड़ाके सामने मात हो जाती है। दमा, खाँसी, क्षय, ज्वर और मिरगी आदि रोगोंसे कष्ट पाते हुए मनुष्यको भी भूखकी पीड़ा उन सबकी अपेक्षा अधिक जान पड़ती है। जिस प्रकार सूर्यकी किरणोंसे पृथ्वीका सारा जल खींच लिया जाता है, उसी प्रकार पेटकी आगसे शरीरकी समस्त नाड़ियाँ सूख जाती हैं। शुभासे पीड़ित मनुष्यको आँखोंसे कुछ सूझ नहींपड़ता, उसका सारा अंग जलता और सूखता जाता है। भूखको आग प्रज्वलित होनेपर मनुष्य गूँगा, बहरा, जड, पंगु, भयंकर तथा मर्यादाहीन हो जाता है लोग क्षुधासे पीड़ित होनेपर पिता-माता, स्त्री, पुत्र, कन्या, भाई तथा स्वजनोंका भी परित्याग कर देते हैं भूखसे व्याकुल मनुष्य न पितरोंकी भलीभाँति पूजा कर सकता है न देवताओंकी, न गुरुजनोंका सत्कार कर सकता है न ऋषियों तथा अभ्यागतोंका।
इस प्रकार अन्न न मिलनेपर देहधारी प्राणियोंमें ये सभी दोष आ जाते हैं। इसलिये संसारमें अन्नसे बढ़कर न तो कोई पदार्थ हुआ है, न होगा। अन्न ही संसारका मूल है। सब कुछ अन्नके ही आधारपर टिका हुआ है पितर देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, किन्नर, मनुष्य और पिशाच- सभी अन्नमय माने गये हैं; इसलिये अन्नदान करनेवालेको अक्षय तृप्ति और सनातन स्थिति प्राप्त होती है। तप, सत्य, जप, होम, ध्यान, योग, उत्तम गति, स्वर्ग और सुखकी प्राप्ति ये सब कुछ अन्नसे ही सुलभ होते हैं। चन्दन, अगर, धूप और शीतकालमें ईंधनका दान अन्नदानके सोलहवें हिस्से के बराबर भी नहीं हो सकता। अन्न ही प्राण, बल और तेज है। अन्न ही पराक्रम है, अन्नसे ही तेजकी उत्पत्ति और वृद्धि होती है जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक भूखेको अन्न देता है, वह ब्रह्मस्वरूप होकर ब्रह्माजीके साथ आनन्द मनाता है जो एकाग्रचित्त होकर अमावास्याको श्राद्धमें अन्नदानका माहात्म्यमात्र सुनाता है; उसके पितर आजीवन सन्तुष्ट रहते हैं।
इन्द्रिय-संयम और मनोनिग्रहसे युक्त ब्राह्मण सुखी एवं धर्मके भागी होते हैं। दम, दान एवं यम- ये तीनों तत्त्वार्थदर्शी पुरुषोंद्वारा बताये हुए धर्म हैं। इनमें भी विशेषतः दम ब्राह्मणोंका सनातन धर्म है। दम तेजको बढ़ाता है, दम परम पवित्र और उत्तम है। दमसे पुरुष पापरहित एवं तेजस्वी होता है। संसारमें जो कुछ नियम, धर्म, शुभ कर्म अथवा सम्पूर्ण यज्ञोंके फल हैं, उन सबकी अपेक्षा दमका महत्त्व अधिक है । दमके बिना दानरूपी क्रियाकी यथावत् शुद्धि नहीं हो सकती दमसे ही यज्ञ और दमसे ही दानको प्रवृत्ति होती है जिसनेइन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके बनमें रहनेसे क्या लाभ तथा जिसने मन और इन्द्रियोंका भलीभाँति जहाँ-जहाँ दमन किया है, उसको घर छोड़कर] किसी आश्रम रहनेकी क्या आवश्यकता है। जितेन्द्रिय पुरुष निवास करता है, उसके लिये वही वही स्थान वन एवं महान् आश्रम है। जो उत्तम शील और आचरणमें रत है जिसने अपनी इन्द्रियोंको काबू कर लिया है तथा जो सदा सरल भावसे रहता है, उसको आश्रमोंसे क्या प्रयोजन ? विषयासक्त मनुष्योंसे वनमें भी दोष बन जाते हैं तथा घरमें रहकर भी यदि पाँचों इन्द्रियाँका निग्रह कर लिया जाय तो वह तपस्या ही है। जो सदा शुभ कर्ममें ही प्रवृत्त होता है, उस वीतराग पुरुषके लिये घर ही तपोवन है। केवल शब्द-शास्त्र-व्याकरणके चिन्तनमें लगे रहनेवालेका मोक्ष नहीं होता तथा लोगोंका मन बहलाने में ही जिसकी प्रवृत्ति है, उसको भी मुक्ति नहीं मिलती। जो एकान्तमें रहकर दृढ़तापूर्वक नियमों का पालन करता, इन्द्रियोंकी आसक्तिको दूर हटाता, अध्यात्मतत्त्वके चिन्तनमें मन लगाता और सर्वदा अहिंसा व्रतका पालन करता है, उसीका मोक्ष निश्चित है। जितेन्द्रिय पुरुष सुखसे सोता और सुखसे जागता है। वह सम्पूर्ण भूतोंके प्रति समान भाव रखता है उसके मनमें हर्ष-शोक आदि विकार नहीं आते। छेड़ा हुआ सिंह, अत्यन्त रोषमें भरा हुआ सर्प तथा सदा कुपित रहनेवाला शत्रु भी वैसा अनिष्ट नहीं कर सकता, जैसा संयमरहित चित्त कर डालता है।
मांसभक्षी प्राणियों तथा अजितेन्द्रिय मनुष्योंसे लोगोंको सदा भय रहता है, अतः उनके निवारणके लिये ब्रह्माजीने दण्डका विधान किया है। दण्ड ही प्राणियोंकी रक्षा और प्रजाका पालन करता है। वही पापियोंको पाप से रोकता है। दण्ड सबके लिये दुर्जय होता है। वह सब प्राणियोंको भय पहुँचानेवाला है। दण्ड ही मनुष्योंका शासक है, उसीपर धर्म टिका हुआ है। सम्पूर्ण आश्रमों और समस्त भूतोंमें दम ही उत्तम व्रत माना गया है। उदारता, कोमल स्वभाव, सन्तोष, दोष दृष्टिका अभाव, गुरु-शुश्रूषा, प्राणियोंपर दया और चुगली न करनाइन्हींको शान्त बुद्धिवाले संतों और ऋषियोंने दम कहा है। धर्म, मोक्ष तथा स्वर्ग- ये सभी दमके अधीन हैं।। वो अपना अपमान होनेपर क्रोध नहीं करता और सम्मान होनेपर हर्षसे फूल नहीं उठता, जिसकी दृष्टि कुछ और सुख समान है, उस धीर पुरुषको प्रशान्त कहते हैं। जिसका अपमान होता है, वह साधु पुरुष तो सुखसे सोता और सुखसे जागता है तथा उसकी बुद्धि कल्याणमयी होती है। परन्तु अपमान करनेवाला मनुष्य स्वयं नष्ट हो जाता है। अपमानित पुरुषको चाहिये कि वह कभी अपमान करनेवालेकी बुराई न सोचे। अपने धर्मपर दृष्टि रखते हुए भी दूसरोंके धर्मकी निन्दा न करे। ll 1 ll
जो इन्द्रियोंका दमन करना नहीं जानते, वे व्यर्थ ही शास्त्रोंका अध्ययन करते हैं; क्योंकि मन और इन्द्रियोंका संयम ही शास्त्रका मूल है, वही सनातन धर्म है। सम्पूर्ण व्रतोंका आधार दम ही है। छहाँ अंगसहित पढ़े हुए वेद भी दमसे हीन पुरुषको पवित्र नहीं कर सकते जिसने इन्द्रियोंका दमन नहीं किया, उसके सांख्य, योग, उत्तम कुल, जन्म और तीर्थस्नान-सभी व्यर्थ हैं। योगवेत्ता द्विजको चाहिये कि वह अपमानको अमृतके समान समझकर उससे प्रसन्नताका अनुभव करे और सम्मानको विषके तुल्य मानकर उससे घृणा को अपमानसे उसके तपकी वृद्धि होती है और सम्मान से क्षय पूजा और सत्कार पानेवाला ब्राह्मण दुही हुई गायकी तरह खाली हो जाता है। जैसे गौ घास और जल पीकर फिर पुष्ट हो जाती है, उसी प्रकार ब्राह्मण जप और होमके द्वारा पुनः ब्रह्मतेजसे सम्पन्न जाता है। संसारमें निन्दा करनेवालेके समान दूसरा कोई मित्र नहीं है, क्योंकि वह पापलेकर अपना पुण्य दे जाता है। निन्दा करने वालोंकी स्वयं निन्दा न करे। अपने मनको रोके। जो उस समय अपने चित्तको वशमें कर लेता है, वह मानो अमृत से स्नान करता है। वृक्षोंके नीचे रहना, साधारण वस्त्र पहनना, अकेले रहना, किसीकी अपेक्षा न रखना और ब्रह्मचर्य का पालन करना ये सब परमगतिको प्राप्त करानेवाले होते हैं। जिसने काम और क्रोधको जीत लिया, वह जंगलमें जाकर क्या करेगा? अभ्याससे शास्त्रकी, शीलसे कुलकी, सत्यसे क्रोधका तथा मित्रके द्वारा प्राणोंकी रक्षा की जाती है जो पुरुष उत्पन्न हुए क्रोधको अपने मनसे रोक लेता है, वह उस क्षमाके द्वारा सबको जीत लेता है जो क्रोध और भयको जीतकर शान्त रहता है, पृथ्वीपर उसके समान वीर और कौन है। यह ब्रह्माजीका बताया हुआ गूढ़ उपदेश है प्यारे ! हमने धर्मका हृदय - सार तत्त्व तुम्हें बतलाया है।
यज्ञ करनेवालोंके लोक दूसरे हैं, तपस्वियोंके लोक दूसरे हैं तथा इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह करनेवाले लोगोंके लोक दूसरे ही हैं। वे सभी परम सम्मानित हैं। क्षमा करनेवालेपर एक ही दोष लागू होता है, दूसरा नहीं; वह यह कि क्षमाशील पुरुषको लोग शक्तिहीन मान बैठते हैं। किन्तु इसे दोष नहीं मानना चाहिये, क्योंकि बुद्धिमानोंका बल क्षमा ही है जो शान्ति अथवा क्षमाको नहीं जानता, वह इष्ट (यज्ञ आदि) और पूर्त (तालाब आदि खुदवाना) दोनोंके फलोंसे वंचित हो जाता है। क्रोधी मनुष्य जो जप, होम और पूजन करता है, वह सब फूटे हुए पड़ेसे जलकी भाँति नष्ट हो जाता है। जो पुरुष प्रातः काल उठकर प्रतिदिन इस पुण्यमय दमाध्यायका पाठ करता है, वह धर्मकी नौकापर आरूढ़ होकर सारी कठिनाइयोंको पार कर जाता है जो दिनसदा ही इस पुण्यप्रद दमाध्यायको दूसरोंको सुनाता है, वह ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है तथा वहाँसे कभी नहीं गिरता धर्मका सार सुनो और सुनकर उसे धारण करो-जो बात अपनेको प्रतिकूल जान पड़े, उसे दूसरोंके लिये भी काममें न लाये जो परायी स्त्रीको माताके समान, पराये धनको मिट्टीके ढेलेके समान और सम्पूर्ण भूतोंको अपने आत्माके समान जानता है, वही ज्ञानी है। जिसकी रसोई बलिवैश्वदेवके लिये और जीवन परोपकारके लिये है, यही विद्वान है। जैसे धातुओंमें सुवर्ण उत्तम है, वैसे ही परोपकार सबसे श्रेष्ठ धर्म है, वही सर्वस्व है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका ध्यान रखनेवाला पुरुष अमृतत्व प्राप्त करता है।
पुलस्त्यजी कहते हैं- इस प्रकार ऋषियोंने शुनःसखके सामने धर्मके सार तत्त्वका प्रतिपादन करके उसके साथ वहाँसे दूसरे वनमें प्रवेश किया। वहाँ भी उन्हें एक बहुत विस्तृत जलाशय दिखायी दिया, जो पद्म और उत्पलोंसे आच्छादित था। उस सरोवरमें उतरकर उन्होंने मृणाल उखाड़े और उन्हें ढेर के ढेर किनारे पर रखकर जलसे सम्पन्न होनेवाली पुण्यक्रिया सन्ध्या- तर्पण आदि करने लगे। तत्पश्चात् जब वे जलसे बाहर निकले तो उन मृणालोंको न देखकर परस्पर इस प्रकार कहने लगे।
ऋषि बोले- हम सब लोग क्षुधासे कष्ट पा रहे हैं—ऐसी दशामें किस पापी और कूरने मृणालोको चुरा लिया ?
जब इस तरह कुछ पता न लगा तब सबसे पहले कश्यपनी बोले- जिसने मृणालको चोरी की हो, उसे सर्वत्र सब कुछ चुरानेवर, थाती रखी हुई वस्तुपर जी ललचानेका और झूठी गवाही देनेका पाप लगे। वह दम्भपूर्वक धर्मका आचरण और राजाका सेवन करने, मद्य और मांसका सेवन करने, सदा झूठ बोलने, सूदसे जीविका चलाने और रुपया लेकर लड़की बेचनेके पापका भागी हो ।
वसिष्ठजीने कहा- जिसने उन मृणालोकोचुराया हो, उसे ऋतुकालके बिना ही मैथुन करने दिनमें सोने, एक-दूसरे के यहाँ जाकर अतिथि बनने जिस गाँवमें एक ही कुआँ हो यहाँ निवास करने, ब्राह्मण होकर शूद्रजातिकी स्वीसे सम्बन्ध रखनेका प लगे और ऐसे लोगोंको जिन लोकोंमें जाना पड़ता है. वहीं वह भी जाय।
भरद्वाज बोले- जिसने मृणाल चुराये हों, वह सबके प्रति क्रूर, धनके अभिमानी, सबसे डाह रखनेवाले, चुगलखोर और रस [बेचनेवालेकी गति प्राप्त करे।
गौतमने कहा- जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, वह सदा शूद्रका अन्न खानेवाले, परस्त्रीगामी और घरमें दूसरोंको न देकर अकेले मिष्टान्न भोजन करनेवालेके समान पापका भागी हो ।
विश्वामित्र बोले- जो मृणाल चुरा ले गया हो, वह सदा काम-परायण, दिनमें मैथुन करनेवाले, नित्य पातकी, परायी निन्दा करनेवाले और परस्त्रीगामीकी गति प्राप्त करे।
जमदग्निने कहा- जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, वह दुर्बुद्धि मनुष्य अपने माता-पिताका अपमान करनेके, अपनी कन्याके दिये हुए धनसे अपनी जीविका चलानेके, सदा दूसरेकी रसोईमें भोजन करनेके, परस्त्रीसे सम्पर्क रखनेके और गौओकी बिक्री करनेके पापका भागी हो
पराशरजी बोले- जिसने मृणाल चुराये हो, वह दूसरोंका दास एवं जन्म-जन्म क्रोधी हो तथा सब प्रकारके धर्मकमोंसे हीन हो शुनःसखने कहा- जिसने मृणालोंकी चोरी की हो, वह न्यायपूर्वक वेदाध्ययन करे, अतिथियोंमें प्रीति रखनेवाला गृहस्थ हो, सदा सत्य बोले, विधिवत् अग्निहोत्र करे, प्रतिदिन करे और अन्तर्गे ब्रह्मलोकको जाय।
ऋषियोंने कहा- शुनःसख । तुमने जो शपथ की है, वह तो को अभीष्ट ही है; अत: तुम्होंने हम सबके मृणालोको चोरी की है।
शुनःसख बोले- ब्राह्मणो मैंने ही आप लोगोंके मुँह धर्म सुननेको इच्छासे ये मुणाल छिपादिये थे। मुझे आप इन्द्र समझें। मुनिवरो! आपने लोभके परित्यागसे अक्षय लोकोंपर विजय पायी है। अतः इस विमानपर बैठिये, अब हमलोग स्वर्गलोकको चलें। तब महर्षियोंने इन्द्रको पहचानकर उनसे इस प्रकार कहा। ऋषि बोले- देवराज ! जो मनुष्य यहाँ आकर मध्यम पुष्करमें स्नान करे और तीन राततक यहाँउपवासपूर्वक निवास करे, उसे अक्षय फलकी प्राप्ति होती है। वनवासी महर्षियोंके लिये जो बारह वर्षोंकी यज्ञ - दीक्षा बतायी गयी है, उसका पूरा-पूरा फल उस मनुष्यको भी मिल जाता है। उसकी कभी दुर्गति नहीं होती। वह सदा अपने कुलवालोंके साथ आनन्दका अनुभव करता है तथा ब्रह्मलोकमें जाकर ब्रह्माजीके एक दिनतक (कल्पभर) वहाँ निवास करता है।