View All Puran & Books

पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 1, अध्याय 16 - Khand 1, Adhyaya 16

Previous Page 16 of 266 Next

सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य

सूतजी कहते हैं वह सुनकर देवव्रत भीष्मने पुलस्त्यजीसे पूछा " ब्रह्मन् सरिताओंगे श्रेष्ठ नन्दा कोई दूसरी नदी तो नहीं है? मेरे मनमें इस बातको लेकर बड़ा कौतूहल हो रहा है कि सरस्वतीका नाम 'नन्दा' कैसे पड़ गया। जिस प्रकार और जिस कारणसे वह 'चन्दा' नामसे प्रसिद्ध हुई, उसे बतानेकी कृपा कीजिये।" भीष्मके इस प्रकार पूछनेपर पुलस्त्यजीने सरस्वतीका 'नन्दा' नाम क्यों पड़ा, इसका प्राचीन इतिहास सुनाना आरम्भ किया। वे बोले- भीष्म ! पहलेकी बात है, पृथ्वीपर प्रभंजन नामसे प्रसिद्ध एक महाबली राजा हो गये हैं। एक दिन मे उस वनमें मुगका शिकार खेल रहे थे। उन्होंने देखा, एक झाड़ीके भीतर मृगी खड़ी है। वह राजाके ठीक सामने पड़ती थी। प्रभंजनने अत्यन्त तीक्ष्ण वाण चलाकर मृगीको बाँध डाला। आहत हरिणीने चकित होकर चारों ओर दृष्टिपात किया। फिर हाथमें धनुष-बाण धारण किये राजाको खड़ा देख वह बोली-'ओ मूढ़! यह तूने क्या किया ? तुम्हारा यह कर्म पापपूर्ण है। मैं यहाँ नीचे मुँह किये खड़ी थी और निर्भय होकर अपने बच्चेको दूध पिला रही थी। इसी अवस्थामें तूने इस वनके भीतर मुझ निरपराध हरिणीको अपने वज्रके समान बाणका निशानाबनाया है तेरी बुद्धि बड़ी खोटी है, इसलिये तू कच्चा तू मांस खानेवाले पशुकी योनिमें पड़ेगा। इस कण्टकाकीर्ण वनमें तू व्याघ्र हो जा।' मृगीका यह शाप सुनकर सामने खड़े हुए राजाकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ व्याकुल हो उठीं। वे हाथ जोड़कर बोले- 'कल्याणी मैं नहीं जानता था कि तू बच्चेको दूध पिला रही है, अनजानमें मैंने तेरा वध किया है। अतः मुझपर प्रसन्न हो ! मैं व्याघ्रयोनिको त्यागकर पुनः मनुष्य शरीरको कब प्राप्त करूँगा ? अपने इस शापके उद्धारकी अवधि तो बता दो।' राजाके ऐसा कहनेपर मृगी बोली- 'राजन्। आजसे सौ वर्ष बीतनेपर यहाँ नन्दा नामकी एक गौ आयेगी। उसके साथ तुम्हारा वार्तालाप होनेपर इस शापका अन्त हो जायगा।'

पुलस्त्यजी कहते हैं- मृगीके कथनानुसार राजा प्रभंजन व्याघ्र हो गये। उस व्याघ्रकी आकृति बड़ी ही घोर और भयानक थी। वह उस वनमें कालके वशीभूत हुए मृर्गी, अन्य चौपायों तथा मनुष्योंको भी मार-मारकर खाने और रहने लगा। वह अपनी निन्दा करते हुए कहता था, 'हाय! अब मैं पुनः कब मनुष्य शरीर धारण करूँगा ? अबसे नीच योनिमें डालनेवाला ऐसा निन्दनीय कर्म महान् पाप नहीं करूँगा। अब इस योनिमें मेरेद्वारा पुण्य नहीं हो सकता। एकमात्र हिंसा ही मेरी जीवन-वृत्ति है, इसके द्वारा तो सदा दुःख ही प्राप्त होता है किस प्रकार मृगी की कही हुई बात सत्य हो सकती है?'

जब व्याघ्रको उस वनमें रहते सौ वर्ष हो गये, तब एक दिन वहाँ गौओंका एक बहुत बड़ा झुंड उपस्थित हुआ वहाँ घास और जलकी विशेष सुविधा थी, वही गौओंके आनेमें कारण हुई। आते ही गौओंके विश्रामके लिये बाड़ लगा दी गयी। ग्वालोंके रहने के लिये भी साधारण घर और स्थानकी व्यवस्था की गयी। गोचर भूमि तो वहाँ थी ही सबका पड़ाव पड़ गया। वनके पासका स्थान गौओंके रंभानेकी भारी आवाजसे गूँजने लगा मतवाले गोप चारों ओरसे उस गो समुदायकी रक्षा करते थे।

गौओके झुंडमें एक बहुत ही हृष्ट-पुष्ट तथा सन्तुष्ट रहनेवाली गाय थी, उसका नाम था नन्दा। वही उस झुंडमें प्रधान थी तथा सबके आगे निर्भय होकर चला करती थी। एक दिन वह अपने झुंडसे बिछुड़ गयी और चरते चरते पूर्वोक व्याघ्रके सामने जा पहुँची। व्याघ्र उसे देखते ही 'खड़ी रह खड़ी रह कहता हुआ उसकी ओर दौड़ा और निकट आकर बोला-'आज विधाताने तुझेमेरा ग्रास नियत किया है, क्योंकि तू स्वयं यहाँ आकर उपस्थित हुई है।' व्याघ्रका यह रोंगटे खड़े कर देनेवाला निष्ठुर वचन सुनकर उस गायको चन्द्रमाके समान कान्तिवाले अपने सुन्दर बछड़ेकी याद आने लगी। उसका गला भर आया वह गद्गद स्वरसे पुत्रके लिये हुंकार करने लगी। उस गौको अत्यन्त दुःखी होकर क्रन्दन करते देख व्याघ्र बोला-'अरी गाय। संसारमें सब लोग अपने कर्मोंका ही फल भोगते हैं। तू स्वयं मेरे पास आ पहुँची है, इससे जान | पड़ता है तेरी मृत्यु आज ही नियत है। फिर व्यर्थ शोक क्यों करती है? अच्छा, यह तो बता तू रोयी किसलिये ?'

व्याघ्रका प्रश्न सुनकर नन्दाने कहा- 'व्याघ्र ! तुम्हें नमस्कार है, मेरा सारा अपराध क्षमा करो। मैं जानती है तुम्हारे पास आये हुए प्राणीकी रक्षा असम्भव है; अतः मैं अपने जीवनके लिये शोक नहीं करती। मृत्यु तो मेरी एक न एक दिन होगी ही [फिर उसके [लिये क्या चिन्ता] किन्तु मृगराज! अभी नयी अवस्थामें मैंने एक बछड़ेको जन्म दिया है। पहली बियानका बच्चा होनेके कारण वह मुझे बहुत ही प्रिय है। मेरा बच्चा अभी दूध पीकर ही जीवन चलाता है। घासको तो वह पता भी नहीं इस समय वह गोष्ठमें बँधा है और भूखसे पीड़ित होकर मेरी राह देख रहा है। उसीके लिये मुझे बारम्बार शोक हो रहा है। मेरे न रहनेपर मेरा बच्चा कैसे जीवन धारण करेगा? मैं पुत्र स्नेहके वशीभूत हो रही हूँ और उसे दूध पिलाना चाहती हूँ। मुझे थोड़ी देरके लिये जाने दो बछड़ेको पिलाकर प्यारसे उसका मस्तक चाहूँगी और उसे हिताहितकी जानकारीके लिये कुछ उपदेश करूँगी; फिर अपनी सखियोंकी देख-रेखमें उसे सौंपकर तुम्हारे पास लौट आऊँगी। उसके बाद तुम इच्छानुसार मुझे खा जाना।'

नन्दाकी बात सुनकर व्याघ्रने कहा- 'अरी! अब तुझे पुत्रसे क्या काम है?' नन्दा बोली- 'मृगेन्द्र ! मैं पहले-पहल बछड़ा ब्यायी हूँ [ अतः उसके प्रति मेरी बड़ी ममता है, मुझे जाने दो]। सखियोंको, नन्हे बच्चेको, रक्षा करनेवाले ग्वालों और गोपियोंको तथा विशेषतःअपनी जन्मदायिनी माताको देखकर उन सबसे विदा लेकर आ जाऊँगी मैं शपथपूर्वक यह बात कहती हूँ। यदि तुम्हें विश्वास हो तो मुझे छोड़ दो। यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ तो मुझे वही पाप लगे, जो ब्राह्मण तथा माता-पिताका वध करनेसे होता है। व्याधों, म्लेच्छों और जहर देनेवालोंको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो गोशाला में विघ्न डालते हैं, सोते हुए प्राणीको मारते हैं तथा जो एक बार अपनी कन्याका घर करके फिर उसे दूसरेको देना चाहते हैं, उन्हें जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे। जो अयोग्य बैलोंसे भारी बोझ उठवाता है, उसको लगनेवाला पाप मुझे भी लगे। जो कथा होते समय विघ्न डालता है और जिसके घरपर आया हुआ मित्र निराश लौट जाता है, उसको जो पाप लगता है, वही मुझे भी लगे, यदि मैं पुनः लौटकर न आऊँ। इन भयंकर पातकोंके भयसे मैं अवश्य आऊँगी।'

नन्दाकी ये शपथें सुनकर व्याघ्रको उसपर विश्वास हो गया। वह बोला- "गाय! तुम्हारी इन शपथोंसे मुझे विश्वास हो गया है। पर कुछ लोग तुमसे यह भी कहेंगे कि 'स्त्रीके साथ हास-परिहासमें, विवाहमें, गौको संकटसे बचानेमें तथा प्राण संकट उपस्थित होनेपर जो शपथ की जाती है, उसकी उपेक्षासे पाप नहीं लगता।' किन्तु तुम इन बातोंपर विश्वास न करना। इस संसारमें कितने ही ऐसे नास्तिक हैं, जो मूर्ख होते हुए भी अपनेको पण्डित समझते हैं; वे तुम्हारी बुद्धिको क्षणभर में भ्रममें डाल देंगे। जिनके चित्तपर अज्ञानका परदा पड़ा रहता है, वे क्षुद्र मनुष्य कुतर्कपूर्ण युक्तियों और दृष्टान्तोंसे दूसरोंको मोहमें डाल देते हैं। इसलिये तुम्हारी बुद्धिमें यह बात नहीं आनी चाहिये कि मैंने शपथद्वारा व्याघ्रको उग लिया। तुमने ही मुझे धर्मका सारा मार्ग दिखाया है। 1 अतः इस समय तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो।"

नन्दा बोली- साधो ! तुम्हारा कथन ठीक है, तुम्हें कौन ठग सकता है। जो दूसरोंको ठगना चाहता। है, वह तो अपने-आपको ही ठगता है।

व्याघ्रने कहा- गाय ! अब तुम जाओ। पुरवत्सले । अपने पुत्रको देखो, दूध पिलाओ, उसकामस्तक चाटो तथा माता, भाई, सखी, स्वजन एवं बन्धुबान्धवका दर्शन करके सत्यको आगे रखकर शीघ्र ही यहाँ लौट आओ।

पुलस्त्यजी कहते हैं वह पुत्रवत्सला धेनु बड़ी सत्यवादिनी थी। पूर्वोक्त प्रकारसे शपथ करके जब वह व्याघ्रकी आज्ञा ले चुकी, तब गोष्ठकी ओर चली। उसके मुखपर आँसुओंकी धारा बह रही थी। वह अत्यन्त दीन भावसे काँप रही थी। उसके हृदयमें बड़ा दुःख था । वह शोकके समुद्रमें डूबकर बारम्बार डॅकराती थी। नदीके किनारे गोष्ठपर पहुँचकर उसने सुना, बछड़ा पुकार रहा है। आवाज कानमें पड़ते ही वह उसकी ओर दौड़ी और निकट पहुँचकर नेत्रोंसे आँसू बहाने लगी। माताको निकट पाकर बछड़ेने शंकित होकर पूछा- 'माँ! [आज क्या हो गया है ?] मैं तुम्हें प्रसन्न नहीं देखता, तुम्हारे हृदयमें शान्ति नहीं दिखायी देती। तुम्हारी दृष्टिमें भी व्यग्रता है, आज तुम अत्यन्त डरी हुई दीख पड़ती हो।'

नन्दा बोली- बेटा! स्तनपान करो, यह हमलोगोंकी अन्तिम भेंट है; अबसे तुम्हें माताका दर्शन दुर्लभ हो जायगा। आज एक दिन मेरा दूध पीकर कल सबेरेसे किसका पियोगे ? वत्स! मुझे अभी लौट जानाहै, मैं शपथ करके यहाँ आयी हूँ। भूखसे पीड़ित बाघको मुझे अपना जीवन अर्पण करना है।

बछड़ा बोला - माँ तुम जहाँ जाना चाहती हो; वहाँ मैं भी चलूँगा। तुम्हारे साथ मेरा भी मर जाना ही अच्छा है तुम न रहोगी तो मैं अकेले भी तो मर ही जाऊँगा, [फिर साथ ही क्यों न मरूँ ?] यदि बाघ तुम्हारे साथ मुझे भी मार डालेगा तो निश्चय ही मुझको वह उत्तम गति मिलेगी, जो मातृभक्त पुत्रोंको मिला करती है। अतः मैं तुम्हारे साथ अवश्य चलूँगा मातासे बिछुड़े हुए बालकके जीवनका क्या प्रयोजन है? केवल दूध पीकर रहनेवाले बच्चोंके लिये माताके समान दूसरा कोई बन्धु नहीं है। माताके समान रक्षक, माताके समान आश्रय, माताके समान स्नेह, माताके समान सुख तथा माताके समान देवता इहलोक और परलोकमें भी नहीं है। यह ब्रह्माजीका स्थापित किया हुआ परम धर्म है। जो पुत्र इसका पालन करते हैं, उन्हें उत्तम गति प्राप्त होती है। ll 1 ll

नन्दाने कहा- बेटा! मेरी ही मृत्यु नियत है, तुम वहाँ न आना। दूसरेकी मृत्युके साथ अन्य जीवोंकी मृत्यु नहीं होती [ जिसकी मृत्यु नियत है, उसीकी होती है] तुम्हारे लिये माताका यह उत्तम एवं अन्तिम सन्देश है मेरे वचनोंका पालन करते हुए यहीं रहो, यही मेरी सबसे बड़ी शुश्रूषा है। जलके समीप अथवा वनमें विचरते हुए कभी प्रमाद न करना; प्रमादसे समस्त प्राणी नष्ट हो जाते हैं। लोभवश कभी ऐसी घासको चरनेके लिये न जाना,जो किसी दुर्गम स्थानमें उगी हो; क्योंकि लोभसे इहलोक और परलोकमें भी सबका विनाश हो जाता है। लोभसे मोहित होकर लोग समुद्रमें, घोर वनमें तथा दुर्गम स्थानोंमें भी प्रवेश कर जाते हैं। लोभके कारण विद्वान् पुरुष भी भयंकर पाप कर बैठता है। लोभ, प्रमाद तथा हर एकके प्रति विश्वास कर लेना- इन तीन कारणोंसे जगत्का नाश होता है; अत: इन तीनों दोषोंका परित्याग करना चाहिये। बेटा! सम्पूर्ण शिकारी जीवोंसे तथा म्लेच्छ और चोर आदिके द्वारा संकट प्राप्त होनेपर सदा प्रयत्नपूर्वक अपने शरीरकी रक्षा करनी चाहिये। पापयोनिवाले पशु-पक्षी अपने साथ एक स्थानपर निवास करते हों, तो भी उनके विपरीत चित्तका सहसा पता नहीं लगता। नखवाले जीवोंका, नदियोंका, सींगवाले पशुओंका, शस्त्र धारण करनेवालोंका, स्त्रियोंका तथा दूतोंका कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जिसपर पहले कभी विश्वास नहीं किया गया हो, ऐसे पुरुषपर तो विश्वास करे ही नहीं, जिसपर विश्वास जम गया हो, उसपर भी अत्यन्त विश्वास न करे, क्योंकि [ अविश्वसनीयपर ] विश्वास करनेसे जो भय उत्पन्न होता है, वह विश्वास करनेवालेका समूल नाश कर डालता है। औरोंकी तो बात ही क्या अपने शरीरका भी विश्वास नहीं करना चाहिये। भीरुस्वभाववाले बालकका भी विश्वास न करे; क्योंकि बालक डराने-धमकानेपर प्रमादवश गुप्त बात भी दूसरोंको बता सकते हैं। 2 सर्वत्र और सदा सूँघते हुएही चलना चाहिये; क्योंकि गन्धसे ही गौएँ भली-बुरी वस्तुकी परख कर पाती हैं। भयंकर वनमें कभी अकेला न रहे सदा धर्मका ही चिन्तन करे। मेरी मृत्युसे तुम्हें घबराना नहीं चाहिये; क्योंकि एक न एक दिन सबकी मृत्यु निश्चित है। जैसे कोई पथिक छायाका आश्रय लेकर बैठ जाता है और विश्राम करके फिर वहाँसे चल देता है, उसी प्रकार प्राणियोंका समागम होता है। बेटा! तुम शोक छोड़कर मेरे वचनोंका पालन करो।

पुलस्त्यजी कहते हैं—यह कहकर नन्दा पुत्रका मस्तक सूपकर उसे चाटने लगी और अत्यन्त शोकके वशीभूत हो डबडबायी हुई आँखोंसे बारम्बार लम्बी साँस लेने लगी। तदनन्तर बारम्बार पुत्रको निहारकर वह अपनी माता, सखियों तथा गोपियोंके पास जाकर बोली- 'माताजी मैं अपने झुंडके आगे चरती हुई चली जा रही थी। इतनेमें ही एक व्याघ्र मेरे पास आ पहुँचा। मैंने अनेकों सौगन्धें खाकर उसे लौट आनेका विश्वास दिलाया है; तब उसने मुझे छोड़ा है। मैं बेटेको देखने तथा आपलोगों से मिलनेके लिये चली आयी थी; अब फिर वहीं जा रही हूँ। माँ! मैंने अपने दुष्ट स्वभावके कारण तुम्हारा जो-जो अपराध किया हो, वह सब क्षमा करना। अब अपने इस नातीको लड़का करके मानना । [सखियोंकी ओर मुड़कर ] प्यारी सखियो! मैंने जानकर या अनजानमें यदि तुमसे कोई अप्रिय बात कह दी हो अथवा और कोई अपराध किया हो तो उसके लिये तुम सब मुझे क्षमा करना । तुम सब सम्पूर्ण सद्गुणोंसे युक्त हो। तुममें सब कुछ देनेकी शक्ति है। मेरे बालकपर सदा क्षमाभाव रखना। मेरा बच्चा दीन, अनाथ और व्याकुल है; इसकी रक्षा करना। मैं तुम्हीं लोगोंको इसे साँप रही हूँ अपने पुत्रकी ही भाँति इसका भी पोषण करना अच्छा, अब क्षमा माँगती हूँ। मैं सत्यको अपनाचुकी हूँ, अतः व्याघ्रके पास जाऊँगी। सखियोंको मेरे 1 लिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये।'

नन्दाकी बात सुनकर उसकी माता और सखियोंको बड़ा दुःख हुआ। वे अत्यन्त आश्चर्य और विषादमें पड़कर बोलीं- 'अहो ! यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि व्याघ्रके कहनेसे सत्यवादिनी नन्दा पुनः उस भयंकर स्थानमें प्रवेश करना चाहती है। शपथ और सत्यके आश्रयसे शत्रुको धोखा दे अपने ऊपर आये हुए महान् भयका यत्नपूर्वक नाश करना चाहिये। जिस उपायसे आत्मरक्षा हो सके, वही कर्तव्य है। नन्दे ! तुम्हें वहाँ नहीं जाना चाहिये। अपने नन्हे-से शिशुको त्यागकर सत्यके लोभसे जो तू वहाँ जा रही है, यह तुम्हारे द्वारा अधर्म हो रहा है। इस विषयमें धर्मवादी ऋषियोंने पहले एक वचन कहा था, वह इस प्रकार है। प्राणसंकट उपस्थित होनेपर शपथोंके द्वारा आत्मरक्षा करनेमें पाप नहीं लगता। जहाँ असत्य बोलनेसे प्राणियोंकी प्राणरक्षा होती हो, वहाँ वह असत्य भी सत्य है और सत्य भी असत्य है। ' ll2 ll

नन्दा बोली- बहिनो ! दूसरोंके प्राण बचानेके लिये मैं भी असत्य कह सकती हूँ। किन्तु अपने लिये-अपने जीवनकी रक्षाके लिये मैं किसी तरह झूठ नहीं बोल सकती। जीव अकेले ही गर्भमें आता है, अकेले ही मरता है, अकेले ही उसका पालन-पोषण होता है तथा अकेले ही वह सुख-दुःख भोगता है; अतः मैं सदा सत्य ही बोलूँगी। सत्यपर ही संसार टिका हुआ है, धर्मकी स्थिति भी सत्यमें ही है। सत्यके कारण ही समुद्र अपनी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करता। राजा बलि भगवान् विष्णुको पृथ्वी देकर स्वयं पातालमें चले गये और छलसे बाँधे जानेपर भी सत्यपर ही डटे रहे। गिरिराज विन्ध्य अपने सौ शिखरोंके साथ बढ़ते-बढ़तेबहुत ऊँचे हो गये थे [ यहाँतक कि उन्होंने सूर्यका मार्ग भी रोक लिया था], किन्तु सत्यमें बँध जानेके कारण ही वे [महर्षि अगस्त्यके साथ किये गये] अपने नियमको नहीं तोड़ते। स्वर्ग, मोक्ष तथा धर्म-सब सत्यमें ही प्रतिष्ठित हैं; जो अपने वचनका लोप करता है, उसने मानो सबका लोप कर दिया। सत्य अगाध जलसे भरा हुआ तीर्थ है, जो उस शुद्ध सत्यमय तीर्थमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे मुक्त होकर परम गतिको प्राप्त होता है। एक हजार अश्वमेध यज्ञ और सत्यभाषण- ये दोनों यदि तराजूपर रखे जायँ तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंसे सत्यका ही पलड़ा भारी रहेगा। सत्य ही उत्तम तप है, सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है। सत्यभाषणमें किसी प्रकारका क्लेश नहीं है। सत्य ही साधु पुरुषोंकी परखके लिये कसौटी है। वही सत्पुरुषकी वंश-परम्परागत सम्पत्ति है। सम्पूर्ण आश्रयोंमें सत्यका ही आश्रय श्रेष्ठ माना गया है। वह अत्यन्त कठिन होनेपर भी उसका पालन करना अपने हाथमें है। सत्य सम्पूर्ण जगत् के लिये आभूषणरूप है। जिस सत्यका उच्चारण करके म्लेच्छ भी स्वर्गमें पहुँच जाता है, उसका परित्याग कैसे किया जा सकता है।*

सखियाँ बोलीं-नन्दे! तुम सम्पूर्ण देवताओं और दैत्योंके द्वारा नमस्कार करनेयोग्य हो; क्योंकि तुमपरम सत्यका आश्रय लेकर अपने प्राणोंका भी त्याग कर रही हो, जिनका त्याग बड़ा ही कठिन है। कल्याणी ! इस विषयमें हमलोग क्या कह सकती हैं। तुम तो धर्मका बीड़ा उठा रही हो। इस सत्यके प्रभावसे त्रिभुवनमें कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। इस महान् त्यागसे हमलोग यही समझती हैं कि तुम्हारा अपने पुत्रके साथ वियोग नहीं होगा। जिस नारीका चित्त कल्याणमार्गमें लगा हुआ है, उसपर कभी आपत्तियाँ नहीं आतीं।

पुलस्त्यजी कहते हैं- तदनन्तर गोपियोंसे मिलकर तथा समस्त गो समुदायकी परिक्रमा करके वहाँके देवताओं और वृक्षोंसे विदा ले नन्दा वहाँसे चल पड़ी। उसने पृथ्वी, वरुण, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, दसों दिक्पाल, वनके वृक्ष, आकाशके नक्षत्र तथा ग्रह-इन सबको बारम्बार प्रणाम करके कहा- 'इस वनमें जो सिद्ध और वनदेवता निवास करते हैं, वे वनमें चरते हुए मेरे पुत्रकी रक्षा करें।' इस प्रकार पुत्रके स्नेहवश बहुत-सी बातें कहकर नन्दा वहाँसे प्रस्थित हुई और उस स्थानपर पहुँची, जहाँ वह तीखी दाढ़ों और भयंकर आकृतिवाला मांसभक्षी बाघ मुँह बाये बैठा था। उसके पहुँचने के | साथ ही उसका बछड़ा भी अपनी पूँछ ऊपरको उठाये अत्यन्त वेगसे दौड़ता हुआ वहाँ आ गया औरअपनी माता और व्याघ्र दोनोंके आगे खड़ा हो गया। पुत्रको आया देख तथा सामने खड़े हुए मृत्युरूप बाघपर दृष्टि डालकर उस गौने कहा- 'मृगराज! मैं सत्यधर्मका पालन करती हुई तुम्हारे पास आ गयी हूँ; अब मेरे मांससे तुम इच्छानुसार अपनी तृप्ति करो।'

व्याघ्र बोला- गाय ! तुम बड़ी सत्यवादिनी निकली। कल्याणी! तुम्हारा स्वागत है। सत्यका आश्रय लेनेवाले प्राणियोंका कभी कोई अमंगल नहीं होता। तुमने लौटनेके लिये जो पहले सत्यपूर्वक शपथ की थी, उसे सुनकर मुझे बड़ा कौतूहल हुआ था कि यह जाकर फिर कैसे लौटेगी। तुम्हारे सत्यकी परीक्षाके लिये ही मैंने पुनः तुम्हें भेज दिया था। अन्यथा मेरे पास आकर तुम जीती-जागती कैसे लौट सकती थी। मेरा वह कौतूहल पूरा हुआ। मैं तुम्हारे भीतर सत्य खोज रहा था, वह मुझे मिल गया। इस सत्यके प्रभावसे मैंने तुम्हें छोड़ दिया;आजसे तुम मेरी बहिन हुई और यह तुम्हारा पुत्र मेरा भानजा हो गया । शुभे ! तुमने अपने आचरणसे मुझ महान् पापीको यह उपदेश दिया है कि सत्यपर ही सम्पूर्ण लोक प्रतिष्ठित है। सत्यके ही आधारपर धर्म टिका हुआ है। कल्याणी! तृण और लताओंसहित भूमिके वे प्रदेश धन्य हैं, जहाँ तुम निवास करती हो । जो तुम्हारा दूध पीते हैं, वे धन्य हैं, कृतार्थ हैं, उन्होंने ही पुण्य किया है और उन्होंने ही जन्मका फल पाया है। देवताओंने मेरे सामने यह आदर्श रखा है; गौओंमें ऐसा सत्य है, यह देखकर अब मुझे अपने जीवनसे अरुचि हो गयी। अब मैं वह कर्म करूँगा, जिसके द्वारा पापसे छुटकारा पा जाऊँ। अबतक मैंने हजारों जीवोंको मारा और खाया है। मैं महान् पापी, दुराचारी, निर्दयी और हत्यारा हूँ। पता नहीं, ऐसा दारुण कर्म करके मुझे किन लोकोंमें जाना पड़ेगा। बहिन ! इस समय मुझे अपने पापोंसे शुद्ध होनेके लिये जैसी तपस्या करनी चाहिये, उसे संक्षेपमें बताओ; क्योंकि अब विस्तारपूर्वक सुननेका समय नहीं है।

गाय बोली- भाई बाघ ! विद्वान् पुरुष सत्ययुगमें तपकी प्रशंसा करते हैं और त्रेतामें ज्ञान तथा उसके सहायक कर्मकी द्वापरमें यज्ञोंको ही उत्तम बतलाते हैं, किन्तु कलियुगमें एकमात्र दान ही श्रेष्ठ माना गया है। सम्पूर्ण दानोंमें एक ही दान सर्वोत्तम है। वह है- सम्पूर्ण भूतोंको अभय-दान इससे बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। जो समस्त चराचर प्राणियोंको अभय-दान देता है, वह सब प्रकारके भयसे मुक्त होकर परब्रह्मको प्राप्त होता है। अहिंसाके समान न कोई दान है, न कोई तपस्या । जैसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य सभी प्राणियोंके पदचिह्न समा जाते हैं, उसी प्रकार अहिंसाके द्वारा सभी धर्म प्राप्त हो जाते हैं। * योग एक ऐसा वृक्षहैं, जिसकी छाया तीनों तापका विनाश करनेवाली है। धर्म और ज्ञान उस वृक्षके फूल हैं। स्वर्ग तथा मोक्ष उसके फल हैं। जो आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक— इन तीनों प्रकारके दुःखोंसे सन्तप्त हैं, वे इस योगवृक्षकी छायाका आश्रय लेते हैं। वहाँ जानेसे उन्हें उत्तम शान्ति प्राप्त होती है, जिससे फिर कभी दुःखोंके द्वारा वे बाधित नहीं होते। यही परम कल्याणका साधन है, जिसे मैंने संक्षेपसे बताया है। तुम्हें ये सभी बातें ज्ञात हैं, केवल मुझसे पूछ रहे हो l

व्याघ्रने कहा- पूर्वकालमें मैं एक राजा था; किन्तु एक मृगीके शापसे मुझे बाघका शरीर धारण करना पड़ा। तबसे निरन्तर प्राणियोंका वध करते रहने के कारण मुझे सारी बातें भूल गयी थीं। इस समय तुम्हारे सम्पर्क और उपदेशसे फिर उनका स्मरण हो आया है, तुम भी अपने इस सत्यके प्रभावसे उत्तम गतिको प्राप्त होगी। अब मैं तुमसे एक प्रश्न और पूछता हूँ। मेरे सौभाग्यसे तुमने आकर मुझे धर्मका स्वरूप बताया, जो सत्पुरुषोंके मार्गमें प्रतिष्ठित है। कल्याणी! तुम्हारा नाम क्या है ?

नन्दा बोली- मेरे यूथके स्वामीका नाम 'नन्द' है; उन्होंने ही मेरा नाम 'नन्दा' रख दिया है।पुलस्त्यजी कहते हैं-नन्दाका नाम कानमें पढ़ते ही राजा प्रभंजन शापसे मुक्त हो गये। उन्होंने पुनः वल और रूपसे सम्पन्न राजाका शरीर प्राप्त कर लिया। इसी समय सत्यभाषण करनेवाली यशस्विनी नन्दाका दर्शन करनेके लिये साक्षात् धर्म वहाँ आये. और इस प्रकार बोले-'नन्दे मैं धर्म है, तुम्हारी सत्य वाणी आकृष्ट होकर यहाँ आया है। तुम मुझसे कोई श्रेष्ठ वर माँग लो।' धर्मके ऐसा कहनेपर नन्दाने यह वर माँगा 'धर्मराज! आपकी कृपासे मैं पुत्रसहित उत्तम पदको प्राप्त होऊँ तथा यह स्थान मुनियोंको धर्मप्रदान करनेवाला शुभ तीर्थ बन जाय। देवेश्वर ! यह सरस्वती नदी आजसे मेरे ही नामसे प्रसिद्ध हो- इसका नाम 'नन्दा' पड़ जाय। आपने वर देने को कहा, इसलिये मैंने यही वर माँगा है।'

[पुत्रसहित) देवी नन्दा तत्काल ही सत्यवादियों के उत्तम लोकमें चली गयी। राजा प्रभंजनने भी अपने पूर्वोपार्जित राज्यको पा लिया। नन्दा सरस्वतीके तटसे स्वर्गको गयी थी, [तथा उसने धर्मराजसे इस आशयका वरदान भी माँगा था।] इसलिये विद्वानोंने यहाँ 'सरस्वती' का नाम नन्दा रख दिया। जो मनुष्य वहाँ आते समय सरस्वतीके नामका उच्चारणमात्र कर लेता है, वह जीवनभर सुख पाता है और मृत्युके पश्चात् देवता होता है। स्नान और जलपान करनेसे सरस्वती नदी मनुष्योंके लिये स्वर्गकी सीढ़ी बन जाती है। अष्टमीके दिन जो लोग एकाग्रचित होकर सरस्वतीमें स्नान करते हैं, ये मृत्युके बाद स्वर्गमें पहुँचकर सुख भोगते हुए आनन्दित होते हैं। सरस्वती नदी सदा ही स्त्रियोंको सौभाग्य प्रदान करनेवाली है। तृतीयाको यदि उसका सेवन किया जाय तो वह विशेष सौभाग्यदायिनी होती है। उस दिन उसके दर्शनसे भी मनुष्यको पाप-राशिसे छुटकारा मिल जाता है। जो पुरुष उसके जलका स्पर्श करते हैं, उन्हें भी मुनीश्वर समझना चाहिये। वहाँ चाँदी दान करनेसे मनुष्य रूपवान् होता है। ब्रह्माकी पुत्री यह सरस्वती नदी परम पावन और पुण्यसलिला है, यही नन्दा नामसे प्रसिद्ध है। फिर जब यह स्वच्छ जलसे युक्त हो दक्षिण दिशाको ओर प्रवाहित होती है, तब विपुला या विशाला नामधारण करती है। वहाँसे कुछ ही दूर आगे जाकर यह पुनः पश्चिम दिशाकी ओर मुड़ गयी है। वहाँसे सरस्वतीकी धारा प्रकट देखी जाती है। उसके तटॉपर अत्यन्त मनोहर तीर्थ और देवमन्दिर हैं, जो मुनियों औरसिद्ध पुरुषोंद्वारा भलीभाँति सेवित हैं नन्दा तीर्थमें स्नान करके यदि मनुष्य सुवर्ण और पृथ्वी आदिका दान करे तो वह महान् अभ्युदयकारी तथा अक्षय फल प्रदान करनेवाला होता है।

Previous Page 16 of 266 Next

पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार