श्रीपार्वतीजीने पूछा- भगवन्! नन्दिकुण्डसे निकलकर बहती हुई साभ्रमती नदीने किन-किन देशको पवित्र किया है, यह बतानेकी कृपा करें।
श्रीमहादेवजी बोले- देवि ! परम पावन नन्दि कुण्ड नामक तीर्थसे निकलनेपर पहले मुनियोंद्वारा प्रकाशित कपालमोचन नामक तीर्थ पड़ता है। यह तीर्थ पावनसे भी अत्यन्त पावन और सबसे अधिक तेजस्वी है। पार्वती। यहाँ मैंने ब्रह्मकपालका परित्याग किया है, अतः मुझसे ही कपालमोचन तीर्थकी उत्पत्ति हुई है। यह सम्पूर्ण भूतोंको पवित्र करनेवाला विश्वविख्यात तीर्थ प्रकट हुआ है। इसे कपालकुण्ड तीर्थ भी कहते हैं। यह तीर्थोंका राजा है। इस शुभ एवं निर्मल तीर्थमें देवता, नाग, गन्धर्व, किन्नर आदि तथा महात्मा पुरुष निवास करते हैं। यहतीनों लोकोंमें विख्यात, ज्ञानदाता एवं मोक्षदायक तीर्थ है। यहाँ स्नान करके पवित्र हो मेरा पूजन करना चाहिये। एक रात उपवास करके ब्राह्मणभोजन कराये। यहाँ वस्त्र दान करनेसे मानव अग्निहोत्रका फल पाता है। जो कोई इस तीर्थमें दर्शन-व्रतका अवलम्बन करके रहता है। वह देहत्यागके अनन्तर निश्चय ही शिवलोकमें जाता है।
भगीरथके कुलमें सुदास नामक एक महाबली राजा हुए थे। उनके पुत्रका नाम मित्रसह था। राजा मित्रसह सौदास नामसे भी विख्यात थे। सौदास महर्षि वसिष्ठके शापसे राक्षस हो गये थे। उन्होंने साभ्रमती नदीमें स्नान किया। इससे वे शापजनित पापसे मुक्त हो गये। यहाँ नन्दितीर्थमें गंगा, यमुना, गोदावरी और सरस्वती आदि पुण्यदायिनी पवित्र नदियाँ निवास करती हैं। पृथ्वीकेसमस्त पतित प्राणी साभ्रमतीके जलका स्पर्श करनेमात्र से शुद्ध हो जाते हैं। जो मनुष्य वहाँ भक्तिपूर्वक श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होकर परमपदको प्राप्त होते हैं।
तदनन्तर महर्षि कश्यपके उपदेशसे साभ्रमती नदी ब्रह्मर्षियोंद्वारा सेवित विकीर्ण वनमें आयी। उसका प्रबल वेगसे बहता जल पर्वतोंसे टकराकर सात भागोंमें विभक्त हो गया। उन सभी धाराओंसे युक्त साभ्रमती नदी दक्षिण समुद्रमें मिली है। पहली धारा परम पवित्र साभ्रमती नामसे ही विख्यात हुई दूसरीका नाम श्वेता है, तीसरी बकुला या वल्कला और चौथी हिरण्मयी कहलाती है। पाँचवीं धाराका नाम हस्तिमती है, जो सब पापोंका नाश करनेवाली बतायी गयी है। छठी धारा वेत्रवतीके नामसे विख्यात है, जिसे पूर्वकालमें वृत्रासुरने उत्पन्न किया था यह श्रेष्ठ देवी वृत्रकूपसे निकली थी, इसीलिये इसका नाम वेत्रवती हुआ। यह बड़े-बड़े पापका नाश करनेवाली है। सातवीं धाराका नाम भद्रामुखी तथा सुभद्रा है यह सम्पूर्ण जगत्को पवित्र करनेवाली है। इन सातों धाराओंसे भिन्न-भिन्न देशोंको पवित्र करती हुई एक ही साभ्रमती नदी 'सप्तस्रोता' के रूपमें प्रतिष्ठित हुई है। जो विकीर्ण तीर्थमें पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध एवं दान करता है, उसे गया में पिण्डदान करनेका फल प्राप्त होता है। जो धर्मभ्रष्ट होनेके कारण सद्गतिसे वंचित हैं, जिनकी पिण्ड और जलदानकी क्रिया लुप्त हो गयी है, वे भी विकीर्ण तीर्थमें पिण्डदान और जलदान करनेपर मुक्त हो जाते हैं। अतः वेदत्रयीकी विधिके अनुसार यहाँ श्रद्धापूर्वक श्राद्धका अनुष्ठान करना चाहिये। इस तीर्थमें कश्यपजीने ब्राह्मणोंको संबोधित करके कहा था-द्विजवरो यदि तुम्हें ऋषिलोक प्राप्त करनेकी इच्छा है तो इस विकीर्ण तीर्थमें, जहाँ सात नदियोंका उद्गम हुआ है, विशेषरूपसे स्नान करो।' यदि यहाँ स्नान किया जाय तो सब दुःखोंका नाश हो जाता है। यह विकीर्ण तीर्थ सब तीर्थोंमें श्रेष्ठ तथा क्षेत्रोंमें परम उत्तम है। यह शुभगति प्रदान करनेवाला तथा रोग और दोषका निवारण करनेवाला है। विकीर्ण तीर्थके बाद श्वेतोद्भव नामक उत्तम तीर्थ है,जहाँ सब पापोंका नाश करनेवाली त्रिलोकविख्यात श्वेता नदी प्रवाहित होती है। वह नदी मेरे अंगोंमें लगे हुए भस्मके संयोगसे प्रकट हुई थी, इसलिये देवताओं द्वारा सम्मानित हुई। उसमें स्नान करके पवित्र और जितेन्द्रिय भावसे वहाँ तीन रात निवास करनेवाला पुरुष महाकालेश्वरका दर्शन करनेसे स्ट्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। जो श्वेताके तटपर कुश और तिलोंके साथ पितरोंको पिण्डदान करता है, उसके पितर पूर्ण तृप्त हो जाते हैं। श्वेतगंगा परम पुण्यमयी और दुःख एवं दरिद्रताको दूर करनेवाली है। पार्वती। मैं उसके पवित्र संगममें नित्य निवास करता हूँ। उसमें जो स्नान और दान करते हैं, उन्हें उसका अक्षय फल प्राप्त होता है। जो नरश्रेष्ठ वहाँ धूप, फूल, माला और आरती निवेदन करते हैं, वे पुण्यात्मा हैं। जो बिल्वपत्र लेकर श्वेताके किनारे शिवके ऊपर चढ़ाता है, वह मनोवांछित फल प्राप्त करता है।
यहाँसे तीर्थ यात्री पुरुष गणतीर्थको जाय। वह तीर्थ चन्दना नदीके तटपर है। शिवगणोंने उसका नाम त्रिविष्टप रखा है। पूर्णिमाको एकाग्रचित्त हो त्रिविष्टप तीर्थमें स्नान करके मनुष्य ब्रह्महत्या जैसे पापसे मुक्त हो जाता है। जो वर्षाके चार महीनोंमें वहाँ निवास करता है, वह महान् सौभाग्यशाली एवं पवित्र होकर रुद्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। कृष्णपक्षकी अष्टमीको गणतीर्थमें स्नान करके जो उपवास करता है तथा बकुलासंगममें गोता लगाता है, वह मानव स्वर्गलोकमें जाता है। उस तीर्थमें स्नान करके बकुलेश्वरका दर्शन करनेसे मनुष्य गणेशजीके प्रसादसे गणपतिपदको प्राप्त होता है। यहाँ परम पराक्रमी चन्द्रवंशी राजा विश्वदत्तने दीर्घकालतक बड़ी भारी तपस्या की थी और श्रीगणेशजी प्रसादसे गणपतिपदको प्राप्त किया था। महेश्वरि वसिष्ठ, वामदेव, कहोड, कौषीतक, भारद्वाज, अंगिरा, विश्वामित्र तथा वामन - ये पुण्यात्मा मुनि श्रीगणेशजीकी कृपासे सदा हो इस तीर्थका सेवन करते हैं। इसके सेवनसे पुत्रहीनको पुत्र, धनहीनको धन, विद्याहीनको विद्या और मोक्षार्थीको मोक्ष प्राप्त होता है। जो यहाँ स्नान अथवा पूजन करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो विष्णु के परमपदको प्राप्त होता है।