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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 125 - Khand 4, Adhyaya 125

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सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त

वात्स्यायनजीने पूछा- स्वामिन्! जिनकी उत्तम कीर्ति सम्पूर्ण जगत्‌को पवित्र करनेवाली है, उन्हीं जानकीदेवीके प्रति उस धोबीने निन्दायुक्त वचन क्यों
कहे? इसका रहस्य बतलाइये।

शेषजीने कहा- मिथिला नामकी महापुरीमें महाराज जनक राज्य करते थे। उनका नाम था सौरध्वज। एक बार वे यज्ञके लिये पृथ्वी जोत रहे थे। उस समय चौड़ेमुँहवाली वाली सीता (फालके धँसनेसेबनी हुई गहरी रेखा) - के द्वारा एक कुमारी कन्याकाप्रादुर्भाव हुआ, जो रतिसे भी बढ़कर सुन्दर थी। इससे राजाको बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने भुवनमोहिनी शोभासे सम्पन्न उस कन्याका नाम सीता रख दिया। परम सुन्दरी सीता एक दिन सखियोंके साथ उद्यानमें खेल रही थीं। वहाँ उन्हें शुक पक्षीका एक जोड़ा दिखायी दिया,

जो बड़ा मनोरम था। वे दोनों पक्षी एक पर्वतकी चोटीपर बैठकर इस प्रकार बोल रहे थे- 'पृथ्वीपर श्रीराम नामसे प्रसिद्ध एक बड़े सुन्दर राजा होंगे। उनकी महारानी सीताके नामसे विख्यात होंगी। श्रीरामचन्द्रजीबड़े बुद्धिमान् और बलवान् होंगे तथा समस्त राजाओंको अपने वशमें रखते हुए सीताके साथ ग्यारह हजार वर्षोंतक राज्य करेंगे। धन्य हैं वे जानकीदेवी और धन्य हैं श्रीराम, जो एक-दूसरेको प्राप्त होकर इस पृथ्वीपर आनन्दपूर्वक विहार करेंगे।'

तोते के उस जोड़ेको ऐसी बातें करते देख सीताने सोचा कि 'ये दोनों मेरे ही जीवनकी मनोहर कथा कह रहे हैं इन्हें पकड़कर सभी बातें पूछूं।' ऐसा विचार कर उन्होंने अपनी सखियोंसे कहा, 'यह पक्षियोंका जोड़ा बहुत सुन्दर है, तुमलोग चुपकेसे जाकर इसे पकड़ लाओ।' सखियाँ उस पर्वतपर गयीं और दोनों सुन्दर पक्षियोंको पकड़ लायीं। लाकर उन्होंने सीताको अर्पण कर दिया। सीता उन पक्षियोंसे बोलीं- तुम दोनों बड़े सुन्दर हो; देखो, डरना नहीं। बताओ, तुम कौन हों और कहाँसे आये हो? राम कौन हैं? और सीता कौन हैं? तुम्हें उनकी जानकारी कैसे हुई? इस सारी बातोंको जल्दी-जल्दी बताओ। मेरी ओरसे तुम्हें भय नहीं होना चाहिये।' सीताके इस प्रकार पूछनेपर दोनों पक्षी सब बातें बताने लगे-'देवि! वाल्मीकि नामसे प्रसिद्ध एक बहुत बड़े महर्षि हैं, जो धर्मज्ञोंमें श्रेष्ठ माने जाते हैं। हम दोनों उन्होंके आश्रम में रहते हैं। महर्षिने रामायण नामका एक ग्रन्थ बनाया है, जो सदा ही मनको प्रिय जान पड़ता है। उन्होंने शिष्योंको उस रामायणका अध्ययन कराया है तथा प्रतिदिन वे सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें संलग्न रहकर उस रामायणके पद्योंका चिन्तन किया करते हैं। रामायणका कलेवर बहुत बड़ा है। हमलोगोंने उसे पूरा-पूरा सुना है। बारम्बार उसका गान और पाठ सुननेसे हमें भी उसका अभ्यास हो गया है। राम और जानकी कौन हैं, इस बातको हम बताते हैं तथा इसकी भी सूचना देते हैं कि श्रीरामके साथ क्रीडा करनेवाली जानकीके विषयमें क्या-क्या बातें होनेवाली हैं; तुम ध्यान देकर सुनो। 'महर्षि ऋष्यश्रृंगके द्वारा कराये हुए पुत्रेष्टि यह प्रभावसे भगवान् विष्णु राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न- ये चार शरीर धारण करके प्रकट होंगे। देवांगनाएँ भी उनकी उत्तम कथाका गान करेंगी।श्रीमान् राम महर्षि विश्वामित्रके साथ भाई लक्ष्मणसहित हाथमें धनुष लिये मिथिला पधारेंगे। उस समय वहाँ एक ऐसे धनुषको, जिसका धारण करना दूसरोंके लिये कठिन है, देखकर वे उसे तोड़ डालेंगे और अत्यन्त मनोहर रूपवाली जनककिशोरी सीताको अपनी धर्मपत्नीके रूपमें ग्रहण करेंगे। फिर उन्हींके साथ श्रीरामचन्द्रजी अपने विशाल साम्राज्यका पालन करेंगे।' ये तथा और भी बहुत-सी बातें वहाँ रहते समय हमारे सुनने में आयी हैं सुन्दरी हमने तुम्हें सब कुछ बता दिया। अब हम जाना चाहते हैं, हमें छोड़ दो। '

कानोंको अत्यन्त मधुर प्रतीत होनेवाली पक्षियोंकी ये बातें सुनकर सीताने उन्हें मनमें धारण किया और पुनः उन दोनोंसे इस प्रकार पूछा- 'राम कहाँ होंगे ? किसके पुत्र हैं और कैसे वे दूलह-वेषमें आकर जानकीको ग्रहण करेंगे? तथा मनुष्यावतारमें उनका श्रीविग्रह कैसा होगा?' उनके प्रश्न सुनकर शुकी मन ही मन जान गयी कि ये ही सीता हैं। उन्हें पहचानकर वह सामने आ उनके चरणोंपर गिर पड़ी और बोली-' श्रीरामचन्द्रजीका मुख कमलकी कलीके समान सुन्दर होगा। नेत्र बड़े-बड़े तथा खिले हुए पंकजकी शोभाको धारण करनेवाले होंगे। नासिका ऊँची, पतली और मनोहारिणी होगी। दोनों भौंहें सुन्दर ढंगसे परस्पर मिली होनेके कारण मनोहर प्रतीत होंगी। भुजाएँ घुटनोंतक लटकी हुई एवं मनको लुभानेवाली होंगी। गला शंखके समान सुशोभित और छोटा होगा वक्ष:स्थल उत्तम, चौड़ा एवं शोभासम्पन्न होगा। उसमें श्रीवत्सका चिह्न होगा। सुन्दर जाँघों और कटिभागकी शोभासे युक्त उनके दोनों घुटने अत्यन्त निर्मल होंगे, जिनकी भक्तजन आराधना करेंगे। श्रीरघुनाथजीके चरणारविन्द भी परम शोभायुक्त होंगे और समस्त भक्तजन उनकी सेवामें सदा संलग्न रहेंगे। श्रीरामचन्द्रजी ऐसा ही मनोहर रूप धारण करनेवाले हैं। मैं उनका क्या वर्णन कर सकती हूँ। जिसके सौ मुख हैं, वह भी उनके गुणका बखान नहीं कर सकता। फिर हमारे जैसे पक्षीकी क्या बिसात है। परम सुन्दर रूप धारण करनेवाली लावण्यमयी लक्ष्मी भी जिनकी झाँकीकरके मोहित हो गयी, उन्हें देखकर पृथ्वीपर दूसरी कौन स्त्री है, जो मोहित न हो। उनका बल और पराक्रम महान् है। वे अत्यन्त मोहक रूप धारण करनेवाले हैं। मैं श्रीरामका कहाँतक वर्णन करूँ। वे सब प्रकारके ऐश्वर्यमय गुणोंसे युक्त हैं। परम मनोहर रूप धारण करनेवाली वे जानकीदेवी धन्य हैं, जो श्रीरघुनाथजीके साथ हजारों वर्षोंतक प्रसन्नतापूर्वक विहार करेंगी। परन्तु सुन्दरी! तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है, जो इतनी चतुरता और आदरके साथ श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका कीर्तन सुननेके लिये प्रश्न कर रही हो।'

पक्षियोंकी ये बातें सुनकर जनककुमारी सीता अपने जन्मकी ललित एवं मनोहर चर्चा करती हुई बोलीं- 'जिसे तुमलोग जानकी कह रहे हो, वह जनककी पुत्री मैं ही हूँ। मेरे मनको लुभानेवाले श्रीराम जब यहाँ आकर मुझे स्वीकार करेंगे, तभी मैं तुम दोनोंको छोड़ेंगी, अन्यथा नहीं; क्योंकि तुमने अपने वचनोंसे मेरे मनमें लोभ उत्पन्न कर दिया है। अब तुम इच्छानुसार खेल करते हुए मेरे घरमें सुखसे रहो और मीठे-मीठे पदार्थ भोजन करो।' यह सुनकर सुग्गीने जानकीसे कहा - 'साध्वी! हम वनके पक्षी हैं, पेड़ोंपर रहते हैं और सर्वत्र विचरा करते हैं। हमें तुम्हारे घरमें सुख नहीं मिलेगा। मैं गर्भिणी हूँ, अपने स्थानपर जाकर बच्चे पैदा करूँगी। उसके बाद फिर तुम्हारे यहाँ आ जाऊँगी।' उसके ऐसा कहनेपर भी सीताने उसे न छोड़ा। तब उसके पतिने विनीत वाणीमें उत्कण्ठित होकर कहा-'सीता! मेरी सुन्दरी भार्याको छोड़ दो। इसे क्यों रख रही हो। शोभने। यह गर्भिणी है, सदा मेरे मनमें बसी रहती है। जब यह बच्चोंको जन्म दे लेगी, तब इसे लेकर फिर तुम्हारे पास आ जाऊँगा।' तोतेके ऐसा कहनेपर जानकीने कहा- 'महामते ! तुम आरामसे जा सकते हो, मगर तुम्हारी यह भार्या मेरा प्रिय करनेवाली है। मैं इसे अपने पास बड़े सुखसे रखूँगी।'

यह सुनकर पक्षी दुःखी हो गया। उसने करुणायुक्त वाणीमें कहा-' योगीलोग जो बात कहते हैं, वह सत्य ही है- किसीसे कुछ न कहे, मौन होकर रहे, नहीं तोउन्मत्त प्राणी अपने वचनरूपी दोषके कारण ही बन्धनमें पड़ता है। यदि हम इस पर्वतके ऊपर बैठकर 7 वार्तालाप न करते होते तो हमारे लिये यह बन्धन कैसे 1 प्राप्त होता। इसलिये मौन ही रहना चाहिये।' इतना कहकर पक्षी पुनः बोला- 'सुन्दरी! मैं अपनी इस भार्याके बिना जीवित नहीं रह सकता, इसलिये इसे छोड़ दो। सीता! तुम बड़ी अच्छी हो [मेरी प्रार्थना मान लो]।' इस तरह नाना प्रकारकी बातें कहकर उसने समझाया, किन्तु सीताने उसकी पत्नीको नहीं छोड़ा, तब उसकी भार्याने क्रोध और दुःखसे आकुल होकर जानकीको शाप दिया- 'अरी! जिस प्रकार तू मुझे इस समय अपने पतिसे विलग कर रही है, वैसे ही तुझे स्वयं भी गर्भिणीकी अवस्थामें श्रीरामसे अलग होना पड़ेगा।' यों कहकर पति वियोगके शोकसे उसके प्राण निकल गये। उसने श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण तथा पुनः-पुनः राम-नामका उच्चारण करते हुए प्राण त्याग किया था, इसलिये उसे ले जानेके लिये एक सुन्दर विमान आया और वह पक्षिणी उसपर बैठकर भगवान् के धामको चली गयी।

भार्याकी मृत्यु हो जानेपर पक्षी शोकसे आतुर होकर बोला- 'मैं मनुष्योंसे भरी हुई श्रीरामकी नगरी अयोध्यामें जन्म लूँगा तथा मेरे ही वाक्यसे उद्वेगमें पड़कर इसे पतिके वियोगका भारी दुःख उठाना पड़ेगा।' यह कहकर वह चला गया। क्रोध और सीताजीका अपमान करनेके कारण उसका धोबीकी योनिमें जन्म हुआ। जो बड़े लोगोंकी बुराई करते हुए क्रोधपूर्वक अपने प्राणोंका परित्याग करता है, वह द्विजोंमें श्रेष्ठ ही क्यों न हो, मरनेके बाद नीच योनिमें उत्पन्न होता है। यही बात उस तोतेके लिये भी हुई। उस धोबीके कथनसे ही सीताजी निन्दित हुईं और उन्हें पतिसे वियुक्त होना पड़ा। धोबीके रूपमें उत्पन्न हुए उस तोतेका शाप ही सीताका पतिसे विछोह करानेमें कारण हुआ और इसीसे वे वनमें गयीं। विप्रवर। विदेहनन्दिनी सीताके सम्बन्धमें तुमने जो बात पूछी थी वह कह दी। अब फिर आगेका वृत्तान्त कहता हूँ, सुनो।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान