शेषजी कहते हैं- मुने! भरतको मूर्च्छित देख श्रीरघुनाथजीको बड़ा दुःख हुआ, उन्होंने द्वारपालसे कहा- 'शत्रुघ्नको शीघ्र मेरे पास बुला लाओ।' आज्ञा पाकर वह क्षणभर में शत्रुघ्नको बुला लाया। आते ही उन्होंने भरतको अचेत और श्रीरघुनाथजीको दुःखी देखा; इससे उन्हें भी बड़ा दुःख हुआ और वे श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके बोले- 'आर्य! यह कैसा दारुण दृश्य है?' तब श्रीरामने धोबीके मुखसे निकला हुआ वह लोकनिन्दित वचन कह सुनाया तथा जानकीको त्यागनेका विचार भी प्रकट किया।
शत्रुघ्नने कहा - स्वामिन्! आप जानकीजीके प्रति यह कैसी कठोर बात कह रहे हैं! भगवान् सूर्यका उदय सारे संसारको प्रकाश पहुँचानेके लिये होता है; किन्तु उल्लुओंको वे पसंद नहीं आते, इससे जगत्की क्या हानि होती है ? इसलिये आप भी सीताको स्वीकार करें, उनका त्याग न करें; क्योंकि वे सती साध्वी स्त्री हैं। आप कृपा करके मेरी यह बात मान लीजिये।
महात्मा शत्रुघ्नकी यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी बारम्बार वही (सीताके त्यागकी) बात दुहराने लगे, जो एक बार भरतसे कह चुके थे। भाईकी वह कठोर बात सुनते ही शत्रुघ्न दुःखके अगाध जलमें डूब गये और जड़से कटे हुए वृक्षकी भाँति मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। भाई शत्रुघ्नको भी अचेत होकर गिरा देख श्रीरामचन्द्रजीको बहुत दुःख हुआ और वे द्वारपालसे बोले-'जाओ, लक्ष्मणको मेरे पास बुला लाओ।' द्वारपालने लक्ष्मणजीके महलमें जाकर उनसे इस प्रकार निवेदन किया-'स्वामिन्! श्रीरघुनाथजी आपको याद कर रहे हैं।' श्रीरामका आदेश सुनकर वे शीघ्र उनके पास गये। वहाँ भरत और शत्रुघ्नको मूच्छित तथा श्रीरामचन्द्रजीको दुःखसे व्याकुल देखकर लक्ष्मण भी दुःखी हो गये। वे श्रीरघुनाथजीसे बोले- 'राजन् ! यहमूर्च्छा आदिका दारुण दृश्य कैसे दिखायी दे रहा है? इसका सब कारण मुझे शीघ्र बताइये।'
उनके ऐसा कहनेपर महाराज श्रीरामने लक्ष्मणको वह सारा दुःखमय वृत्तान्त आरम्भसे ही कह सुनाया। सीताके परित्यागसे सम्बन्ध रखनेवाली बात सुनकर वे बारम्बार उच्छ्वास खींचते हुए सन्न हो गये। उन्हें कुछ भी उत्तर देते न देख श्रीरामचन्द्रजी शोकसे पीड़ित होकर बोले—'मैं अपयशसे कलंकित हो इस पृथ्वीपर रहकर क्या करूँगा। मेरे बुद्धिमान् भ्राता सदा मेरी आज्ञाका पालन करते थे, किन्तु इस समय दुर्भाग्यवश वे भी मेरे प्रतिकूल बातें करते हैं। कहाँ जाऊँ? कैसे करूँ ? पृथ्वीके सभी राजा मेरी हँसी उड़ायेंगे।' श्रीरामको ऐसी बातें करते देख लक्ष्मणने आँसू रोककर व्यथित स्वरमें कहा-'स्वामिन्! विषाद न कीजिये। मैं अभी उस धोबीको बुलाकर पूछता हूँ, संसारकी सभी स्त्रियोंमें श्रेष्ठ जानकीजीकी निन्दा उसने कैसे की है? आपके राज्यमें किसी छोटे-से-छोटे मनुष्यको भी बलपूर्वक कष्ट नहीं पहुँचाया जाता। अतः उसके मनमें जिस तरह प्रतीति हो, जैसे वह संतुष्ट रहे, वैसा ही उसके साथ बर्ताव कीजिये [परंतु एक बार उससे पूछना आवश्यक है]। जनककुमारी सीता मनसे अथवा वाणीसे भी आपके सिवा दूसरेको नहीं जानतीं; अतः उन्हें तो आप स्वीकार ही करें, उनका त्याग न करें। मेरे ऊपर कृपा करके मेरी बात मानें।'
ऐसा कहते हुए लक्ष्मणसे श्रीरामने शोकातुर होकर कहा- 'भाई मैं जानता हूँ सीता निष्पाप है; तो भी लोकापवादके कारण उसका त्याग करूँगा। लोकापवादसे निन्दित हो जानेपर मैं अपने शरीरको भी त्याग सकता हूँ; फिर घर, पुत्र, मित्र तथा उत्तम वैभव आदि दूसरी दूसरी वस्तुओंकी तो बात ही क्या है इस समय धोबीको बुलाकर पूछनेकी आवश्यकता नहीं है। समय आनेपर सब कुछ अपने-आप हो जायगा लोगोंके चितमेंसीताके प्रति स्वयं ही प्रतीति हो जायगी। जैसे कच्चा घाव चिकित्साके योग्य नहीं होता, समयानुसार जब वह पक जाता है तभी दवासे नष्ट होता है, उसी प्रकार समयसे ही इस कलंकका मार्जन होगा। इस समय मेरी आज्ञाका उल्लंघन न करो। पतिव्रता सीताको जंगलमें छोड़ आओ।' यह आदेश सुनकर लक्ष्मण एक क्षणतक शोकाकुल हो दुःखमें डूबे रहे, फिर मन-ही-मन विचार किया-'परशुरामजीने पिताकी आज्ञासे अपनी माताका भी वध कर डाला था; इससे जान पड़ता है, गुरुजनोंकी आज्ञा उचित हो या अनुचित, उसका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये। अतः श्रीरामचन्द्रजीका प्रिय करनेके लिये मुझे सीताका त्याग करना ही पड़ेगा।'
यह सोचकर लक्ष्मण अपने भाई श्रीरघुनाथजीसे बोले- 'सुव्रत ! गुरुजनोंके कहनेसे नहीं करनेयोग्य कार्य भी कर लेना चाहिये, किन्तु उनकी आज्ञाका उल्लंघन कदापि उचित नहीं है। इसलिये आप जो कुछ कहते हैं, उस आदेशका मैं पालन करूँगा।' लक्ष्मणके मुखसे ऐसी बात सुनकर श्रीरघुनाथजीने उनसे कहा - ' बहुत अच्छा; बहुत अच्छा; महामते ! तुमने मेरेचित्तको संतुष्ट कर दिया। अभी-अभी रातमें जानकीने तापसी स्त्रियोंके दर्शनकी इच्छा प्रकट की थी, इसीलिये रथपर बिठाकर जंगलमें छोड़ आओ।' फिर सुमन्त्रको बुलाकर उन्होंने कहा- 'मेरा रथ अच्छे अच्छे घोड़ों और वस्त्रोंसे सजाकर तैयार करो।" श्रीरघुनाथजीका आदेश सुनकर वे उनका उत्तम रथ तैयार करके ले आये। रथको आया देख भ्रातृभक्त लक्ष्मण उसपर सवार हुए और जानकीजीके महलकी ओर चले। अन्तःपुरमें पहुँचकर वे मिथिलेशकुमारी सीतासे बोले—‘माता जानकी! श्रीरघुनाथजीने मुझे आपके महलमें भेजा है। आप तापसी स्त्रियोंके दर्शनके लिये वनमें चलिये।'
जानकी बोलीं- श्रीरघुनाथजीके चरणोंका चिन्तन करनेवाली यह महारानी मैथिली आज धन्य हो गयी, जिसका मनोरथ पूर्ण करनेके लिये स्वामीने लक्ष्मणको भेजा है! आज मैं वनमें रहनेवाली सुन्दरी तपस्विनियोंको, जो पतिको ही देवता मानती हैं, मस्तक झुकाऊँगी और वस्त्र आदि अर्पण करके उनकी पूजा करूँगी।
ऐसा कहकर उन्होंने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र, बहुमूल्य आभूषण, नाना प्रकारके रत्न, उज्ज्वल मोती, कपूर आदि सुगन्धित पदार्थ तथा चन्दन आदि सहस्रों प्रकारकी विचित्र वस्तुएँ साथ ले लीं। ये सारी चीजें दासियोंके हाथों उठवाकर वे लक्ष्मणकी ओर चलीं। अभी घरका चौकठ भी नहीं लाँघने पायी थीं कि लड़खड़ाकर गिर पड़ीं। यह एक अपशकुन था; परन्तु वनमें जानेकी उत्कण्ठाके कारण सीताजीने इसपर विचार नहीं किया। वे अपना प्रिय कार्य करनेवाले देवरसे बोलीं- 'वत्स! कहाँ वह रथ है, जिसपर मुझे ले चलोगे ?' लक्ष्मणने सुवर्णमय रथकी ओर संकेत किया और जानकीजीके साथ उसपर बैठकर सुमन्त्रसे बोले- 'चलाओ घोड़ोंको।' इसी समय सीताका दाहिना नेत्र फड़क उठा, जो भावी दुःखकी सूचना देनेवाला था। साथ ही पुण्यमय पक्षी विपरीत दिशासे होकर जाने लगे। यह सब देखकर जानकीने देवरसे कहा- 'वत्स! मैं तोतपस्विनियोंके दर्शनकी इच्छासे यात्रा करना चाहती हूँ,फिर ये दुःख देनेवाले अपशकुन कैसे हो रहे हैं! श्रीरामका, भरतका तथा तुम्हारे छोटे भाई शत्रुघ्नका कल्याण हो, उनकी प्रजामें सर्वत्र शान्ति रहे, कहीं कोई विप्लव या उपद्रव न हो।'
जानकीजीको ऐसी बातें करते देख लक्ष्मण कुछ बोल न सके, आँसुओंसे उनका गला भर आया। इसी प्रकार आगे जाकर सीताजीने फिर देखा, बहुत-से मृग बायीं ओरसे घूमकर निकले जा रहे हैं। वे भारी दुःखकी सूचना देनेवाले थे। उन्हें देखकर जानकीजी कहने लगीं- 'आज ये मृग जो मेरी बायीं ओरसे निकल रहे हैं, सो ठीक ही है श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंको छोड़कर अन्यत्र जानेवाली सीताके लिये ऐसा होना उचित ही है। नारियोंका सबसे बड़ा धर्म है अपने स्वामीके चरणोंका पूजन, उसीको छोड़कर मैं अन्यत्र जा रही हूँ: अतः मेरे लिये जो दण्ड मिले उचित ही है।' इस प्रकार मार्गमें पारमार्थिक विचार करती हुई देवी जानकीने गंगाजीको देखा, जिनके तटपर मुनियोंका समुदाय निवास करता है। जिनके जलकर्णीका स्पर्श होते ही राशि राशिमहापातक पलायन कर जाते हैं— उन्हें वहाँ चारों ओर अपने रहनेयोग्य कोई स्थान नहीं दिखायी देता । गंगा किनारे पहुँचकर लक्ष्मणजीने रथपर बैठी हुई सीताजी से आँसू बहाते हुए कहा- 'भाभी चलो, लहरोंसे भरी हुई गंगाको पार करो।' सीताजी देवरकी बात सुनकर तुरंत रथसे उतर गयीं।
तदनन्तर नावसे गंगाके पार होकर लक्ष्मणजी जानकीजीको साथ लिये वनमें चले वे श्रीरामचन्द्रजीकी
आज्ञाका पालन करनेमें कुशल थे; अतः सीताको अत्यन्त भयंकर एवं दुःखदायी जंगलमें ले गये - जहाँ बबूल, खैरा और धव आदिके महाभयानक वृक्ष थे, जो दावानलसे दग्ध होनेके कारण सूख गये थे ऐसा जंगल देखकर सीता भयके कारण बहुत चिन्तित हुई काँटोंसे उनके कोमल चरणोंमें घाव हो गये। वे लक्ष्मणसे बोलीं- 'वीरवर! यहाँ अच्छे-अच्छे ऋषि-मुनियोंके रहनेयोग्य आश्रम मुझे नहीं दिखायी देते, जो नेत्रोंको सुख प्रदान करनेवाले हैं तथा महर्षियोंकी तपस्विनी स्त्रियोंके भी दर्शन नहीं होते। यहाँ तो केवल भयंकर पक्षी, सूखे वृक्ष और दावानलसे सब ओर जलता हुआयह वन ही दृष्टिगोचर हो रहा है। इसके सिवा, मैं तुमको भी किसी भारी दुःखसे आतुर देखती हूँ तुम्हारी आँखें आँसुओंसे भरी हैं, इनसे व्याकुलताके भाव प्रकट होते हैं; और मुझे भी पग-पगपर हजारों अपशकुन दिखायी देते हैं। सच बताओ, क्या बात है ?"
सीताजीके इतना कहने पर भी लक्ष्मणजीके मुखसे कोई भी बात नहीं निकली, वे चुपचाप उनकी ओर देखते हुए खड़े रहे। तब जानकीजीने बारम्बार प्रश्न करके उनसे उत्तर देनेके लिये बड़ा आग्रह किया। उनके आग्रहपूर्वक पूछने पर लक्ष्मणजीका गला भर आया। उन्होंने शोक प्रकट करते हुए सीताजीको उनके परित्यागकी बात बतायी। मुनिवर ! वह वज्रके तुल्य कठोर वचन सुनकर सीताजी जड़से कटी हुई लताकी भाँति पृथ्वीपर गिर र पड़ीं। विदेहकुमारीको पृथ्वीपर पड़ी देख लक्ष्मणजीने पल्लवोंसे हवा करके उन्हें सचेत किया। होशमें आनेपर जानकीजीने कहा- "देवर! मुझसे परिहास न करो। मैंने कोई पाप नहीं किया है, फिर श्रीरघुनाथजी मुझे कैसे छोड़ देंगे। वे परम बुद्धिमान् और महापुरुष हैं, मेरा त्याग कैसे कर सकते हैं। वे जानते हैं मैं निष्पाप हूँ फिर भी एक धोबीके कहने से मुझे छोड़ देंगे? [ऐसी आशा नहीं है।]" इतना कहते-कहते वे फिर बेहोश हो गर्यो। इस बार उन्हें मूर्च्छित देख लक्ष्मणजी फूट-फूटकर रोने लगे। जब पुनः उनको चेत हुआ, तब लक्ष्मणजीको दुःखसे आतुर और रुद्धकण्ठ देखकर वे बहुत दुःखी हुईं और बोलीं- "सुमित्रानन्दन ! जाओ, तुम धर्मके स्वरूप और यशके सागर श्रीरामचन्द्रजीसे तपोनिधि वसिष्ठ मुनिके सामने ही मेरी एक बात पूछना—'नाथ ! यह जानते हुए भी कि सीता निष्पाप है, जो आपने मुझे त्याग दिया है, यह बर्ताव आपके कुलके अनुरूप हुआ है या शास्त्र ज्ञानका फल है? मैं सदा आपके चरणोंमें ही अनुराग रखती हूँ; तो भी जो आपके द्वारा मेरा त्याग हुआ है, इसमें आपका कोई दोष नहीं है। यह सब मेरे भाग्य दोषसे हुआ है, इसमें मेरा प्रारब्ध ही कारण है। वीरवर! आपका सदा और सर्वत्र कल्याण हो। मैं इस वनमें आपका ही स्मरण करती हुई प्राण धारण करूँगी। मन, वाणी और क्रियाके द्वारा एकमात्र आप ही मेरे सर्वोत्तम आराध्यदेव हैं। रघुनन्दन !आपके सिवा और सब कुछ मैंने अपने मनसे तुच्छ | समझा है। महेश्वर ! प्रत्येक जन्ममें आप ही मेरे पति ? हाँ और मैं आपके ही चरणोंके विन्तनसे अपने अनेकों पापका नाश कर आपकी सती साध्वी पत्नी बनी रहूँ-यही मेरी प्रार्थना है।'
"लक्ष्मण! मेरी सासुओंसे भी यह संदेश कहना— "माताओं अनेकों जन्तुओंसे भरे हुए इस घोर जंगलमें मैं आप सब लोगोंके चरणोंका स्मरण करती हूँ। मैं गर्भवती हूँ, तो भी महात्मा रामने मुझे इस वनमें त्याग दिया है।' 'सौमित्रे! अब तुम मेरी बात सुनो श्रीरघुनाथजीका कल्याण हो। मैं अभी प्राण त्याग देती, किन्तु विवश हूँ; अपने गर्भमें श्रीरामचन्द्रजीके तेजकी रक्षा कर रही हूँ। तुम जो उनके वचनोंको पूर्ण करते हो, सो ठीक ही है। इससे तुम्हारा कल्याण होगा। तुम श्रीरामके चरणकमलोंके सेवक और उनके अधीन हो, अतः तुम्हें ऐसा ही करना उचित है। अच्छा, अब श्रीरामचन्द्रजीके समीप जाओ; तुम्हारे मार्ग मंगलमय हों मुझपर कृपा करके कभी-कभी मेरी याद करते रहना।"
इतना कहकर सीताजी लक्ष्मणजी के सामने ही अचेत हो पृथ्वीपर गिर पड़ीं। उन्हें मूच्छितदेख लक्ष्मणजी पुनः दुःखमें डूब गये और वस्त्रके अग्रभागसे पंखा झलने लगे। जब होशमें आर्थी, तब उन्हें प्रणाम करके वे बोले-'देवि! अब मैं श्रीरामके पास जाता हूँ, वहाँ जाकर मैं आपका सब संदेश कहूँगा आपके समीप ही महर्षि वाल्मीकिका बहुत बड़ा आश्रम है।' यों कहकर लक्ष्मणने उनकी परिक्रमा की और दुःखमग्न हो आँसू बहाते हुए वे महाराज श्रीरामके पास चल दिये जानकीजीने जाते हुए देवरकी ओर विस्मित दृष्टिसे देखा। वे सोचने लगीं महाभाग लक्ष्मण मेरे देवर हैं, शायद परिहास करते हो भला श्रीरघुनाथजी अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मुझ पापरहित पत्नीको कैसे त्याग सकते हैं।' यही विचार करती हुई वे निर्निमेष नेत्रोंसे उनकी ओर देखती रहीं; किन्तु जब वे गंगाके उस पार चले गये, तब उन्हें सर्वथा विश्वास हो गया कि सचमुच ही में त्याग दी गयी। अब मेरे प्राण बचेंगे या नहीं, इस संशयमें पड़कर वे पृथ्वीपर गिर पड़ीं और तत्काल उन्हें मुच्छनि आ दवाया।
उस समय हंस अपने पंखोंसे जल लाकर सोनके शरीरपर सब ओरसे छिड़कने लगे फूलोंकी सुगन्धलिये मन्द मन्द वायु चलने लगी तथा हाथी भी अपनी सूँड़ोंमें जल लिये सब ओरसे वहाँ आकर खड़े हो गये, मानो धूलिसे भरे हुए सीताके शरीरको धोनेके लिये आये हों। इसी समय सती सीता होशमें आयीं और बारम्बार राम-रामकी रट लगाती हुई बड़े दुःखसे विलाप करने लगीं- ' हा राम ! हा दीनबन्धो !! हा करुणानिधे !!! बिना अपराधके ही क्यों मुझे इस वनमें त्याग रहे हो।' इस प्रकारकी बहुत सी बातें कहती हुई वे बार-बार विलाप करती और इधर-उधर देखती हुई रह-रहकर मूच्छित हो जाती थीं। उस समय भगवान् वाल्मीकि शिष्योंके साथ वनमें गये थे। वहाँ उन्हें करुणाजनक स्वरमें विलाप और रोदन सुनायी पड़ा। वे शिष्योंसे बोले-'वनके भीतर जाकर देखो तो सही, इस महाघोर जंगलमें कौन रो रहा है? उसका स्वर दुःखसे पूर्ण जान पड़ता है।' मुनिके भेजनेसे वे उस स्थानपर गये, जहाँ जानकी राम रामकी पुकार मचाती हुई आँसुओंमें डूब रही थीं। उन्हें देखकर वे शिष्य उत्कण्ठावश वाल्मीकि मुनिके पास लौट गये। उनकी बातें सुनकर मुनि स्वयं ही उस स्थानपर गये। पतिव्रता जानकीने देखा एक महर्षिआ रहे हैं, जो तपस्याके पुंज जान पड़ते हैं। उन्हें देख सीताजीने हाथ जोड़कर कहा-व्रतके सागर और वेदोंके साक्षात् स्वरूप महर्षिको नमस्कार है।' उनके
यों कहनेपर महर्षिने आशीर्वादके द्वारा उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा- 'बेटी! तुम अपने पतिके साथ चिरकालतक जीवित रहो तुम्हें दो सुन्दर पुत्र प्राप्त हों। बताओ, तुम कौन हो ? इस भयंकर वनमें क्यों आयी हो तथा क्यों ऐसी हो रही हो? सब कुछ बताओ, जिससे मैं तुम्हारे दुःखका कारण जान सकूँ।' तब श्रीरघुनाथजीकी पत्नी सीताजी एक दीर्घ निःश्वास ले काँपती हुई करुणामयी वाणीमें बोलीं- 'महर्षे! मुझे श्रीरघुनाथजीकी सेविका समझिये। मैं बिना अपराधके ही त्याग दी गयी हूँ। इसका कारण क्या है, यह मैं बिलकुल नहीं जानती। श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे लक्ष्मण मुझे यहाँ छोड़ गये है।'
वाल्मीकिजी बोले- विदेशकुमारी मुझे अपने पिताका गुरु समझो, मेरा नाम वाल्मीकि है। अब तुम दुःख न करो, मेरे आश्रमपर आओ। पतिव्रते तुम यहीजानो कि दूसरे स्थान पर बना हुआ मेरे पिताका ही यह घर है।
सती सीताका मुख शोकके आँसुओंसे भीगा था। मुनिका सात्वनापूर्ण वचन सुनकर उन्हें कुछ सुख मिला। उनके नेत्रोंमें इस समय भी दुःखके आँसू छलक रहे थे। वाल्मीकिजी उन्हें आश्वासन देकर तापसी स्त्रियोंसे भरे हुए अपने पवित्र आश्रमपर ले गये। सीता महर्षिके पीछे-पीछे गयीं और वे मुनिसमुदायसे भरे हुए अपने आश्रमपर पहुँचकर तापसियोंसे बोले-'अपने आश्रमपर जानकी आयी हैं [उनका स्वागत करो]। महामना सीताने सब तपस्विनियोंको प्रणाम किया और उन्होंने भी प्रसन्न होकर उन्हें छातीसे लगाया। तपोनिधि वाल्मीकिने अपने शिष्योंसे कहा- 'तुम जानकीके लिये एक सुन्दर पर्णशाला तैयार करो।' आज्ञा पाकर उन्होंने पत्तों और लकड़ियोंके द्वारा एक सुन्दर कुटी निर्माण की। पतिव्रता जानकी उसीमें निवास करने लगीं। वे वाल्मीकि मुनिको टहल बजाती हुई फलाहार करके रहती थीं तथा मन और वाणीसे निरन्तर राम- मन्त्रकाआप करती हुई दिन व्यतीत करती थीं, समय आनेपर हमने दो सुन्दर पुत्रको जन्म दिया, जो आकृति पाताल श्रीरामचन्द्रजीके समान तथा अश्विनीकुमारोंकी भाँति मनोहर थे। जानकीके पुत्र होनेका समाचार सुनकर मुनिको बड़ी प्रसन्नता हुई ये मन्त्रवेशाओं में श्रेष्ठ थे, अतः उन बालकोंके जातकर्म आदि संस्कार उन्होंने ही सम्पन्न किये। महर्षि वाल्मीकिने उन बालकोंके संस्कार-सम्बन्धी सभी कर्म कुश और उनके लवों (टुकड़ों) द्वारा ही किये थे; अतः उन्होंके नामपर उन दोनोंका नाम क्रमशः कुश और लव रखा। जिस समय उन शुद्धात्मा महर्षिने पुत्रोंका मंगल कार्य सम्पन्न किया, उस समय सीताजीका हृदय आनन्दसे भर गया। उनके मुख और नेत्र प्रसन्नतासे खिल उठे। उसी दिन लवणासुरको मारकर जी भी अपने थोड़े-से सैनिकोंके साथ वाल्मीकि मुनिके सुन्दर आश्रमपर रात्रिमें आये थे। उस समय वाल्मीकिजीने । उन्हें सिखा दिया था कि 'तुम श्रीरघुनाथजीको जानकीके पुत्र होनेकी बात न बताना, मैं ही उनके सामने सारा | वृतान्त कहूंगा।' जानकीके वे दोनों पुत्र वहाँ बढ़ने लगे। उनका |रूप बड़ा ही मनोहर था। सीता उन्हें कन्द, मूल और फल खिलाकर पुष्ट करने लगीं। वे दोनों परम सुन्दर और अपनी रूप-माधुरीसे उन्मत्त बना देनेवाले थे। शुक्लपक्षको प्रतिपदाके चन्द्रमाकी भाँति मनको मोहनेवाले दोनों कुमारोंका समयानुसार उपनयन संस्कार हुआ, इससे उनकी मनोहरता और भी बढ़ गयी। महर्षि वाल्मीकिने उपनयनके पश्चात् उन्हें अंगों सहित वेद और रहस्योंसहित धनुर्वेदका अध्ययन कराया। उसके बाद स्वरचित रामायणकाव्य भी पढ़ाया। उन्होंने भी उन बालकोंको सुवर्णभूषित धनुष प्रदान किये, जो अभेद्य और श्रेष्ठ थे। जिनकी प्रत्यंचा बहुत ही उत्तम थी तथा जो शत्रु समुदायके लिये अत्यन्त भयंकर थे। धनुषके साथ ही बाणोंसे भरे दो अक्षय तरकश, दो खड्ग तथा बहुत सी अभेद्य ढालें भी उन्होंने जानकीकुमारोंको अर्पण किये। धनुर्वेदके पारगामी होकर वे दोनों बालक धनुष धारण किये बड़ी प्रसन्नताके साथ आश्रम में विचरा करते थे। उस समय सुन्दर अश्विनीकुमारोंकी भाँति उनकी बड़ी शोभा होती थी। जानकीजी ढाल-तलवार धारण किये अपने दोनों सुन्दर कुमारोंको देख देखकरबहुत प्रसन्न रहा करती थीं। वात्स्यायनजी! यह मैंने आपको जानकीके पुत्रजन्मका प्रसंग सुनाया है। अबअश्वकी रक्षा करनेवाले वीरोंकी भुजाओंके काटे जानेके पश्चात् जो घटना हुई, उसका वर्णन सुनिये।