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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 107 - Khand 4, Adhyaya 107

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सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन

सुमतिने कहा— सुमित्रानन्दन। राजा शर्यातिके चले जानेके पश्चात् महर्षि च्यवन पत्नीरूपमें प्राप्त हुई उनकी कन्याके साथ अपने आश्रमपर रहने लगे। उसको पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। योगाभ्यासमें प्रवृत्तहोनेके कारण उनके सारे पाप धुल गये थे। वह कन्या अपने श्रेष्ठ पतिकी भगवद्बुद्धिसे सेवा करने लगी। यद्यपि वे नेत्रोंसे हीन थे और बुढ़ापाके कारण उनकी शारीरिक शक्ति जवाब दे चुकी थी, तथापि वह उन्हेंअपने अभीष्ट पूर्ण करनेवाले कुलदेवताके समान समझकर उनकी शुश्रूषा करती थी। जैसे शची इन्द्रकी सेवामें तत्पर होकर प्रसन्नता प्राप्त करती हैं, उसी प्रकार उस सुन्दरी सतीको अपने प्रियतम पतिकी सेवामें बड़ा आनन्द आता था। पति भी साधारण नहीं, तपस्याके भण्डार थे और उनका आशय (मनोभाव) बहुत ही गम्भीर था, तो भी वह उनकी प्रत्येक चेष्टाको जानती - हर एक अभिप्रायको समझती हुई शुश्रूषामें संलग्न रहती थी वह सुन्दर शरीरवाली राजकुमारी सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और कुशांगी थी, तो भी फल, मूल और जलका आहार करती हुई अपने स्वामीके चरणोंकी सेवा करती थी। सदा पतिको आज्ञा पालन करनेके लिये तैयार रहती और उन्होंके पूजन (आदर-सत्कार)- में समय बिताती थी सम्पूर्ण प्राणियोंका हित साधन करनेमें उसका अनुराग था । वह काम, दम्भ, द्वेष, लोभ, भय और मदका परित्याग करके सावधानीके साथ उद्यत रहकर सर्वदा च्यवन मुनिको सन्तुष्ट रखनेका यत्न करती थी। महाराज ! इस प्रकार वाणी, शरीर और क्रियाके द्वारा मुनिकी सेवा करती हुई उस राजकुमारीने एक हजार वर्ष व्यतीत कर दिये तथा अपनी कामनाको मनमें ही रखा [ मुनिपर कभी प्रकट नहीं किया]

एक समयकी बात है, मुनिके आश्रमपर देववैद्य अश्विनीकुमार पधारे। सुकन्याने स्वागतके द्वारा उनका सम्मान करके उन दोनोंका पूजन (आतिथ्य सत्कार) किया। शर्यातिकुमारी सुकन्याके किये हुए पूजन तथा अर्घ्यपाद्य आदिसे उन सुन्दर शरीरवाले अश्विनी कुमारोंके मनमें प्रसन्नता हुई। उन्होंने स्नेहवश उस सुन्दरीसे कहा- 'देवि! तुम कोई वर माँगो' उन दोनों देववैद्योंको सन्तुष्ट देख बुद्धिमती नारियोंमें श्रेष्ठ राजकुमारी सुकन्याने उनसे वर माँगनेका विचार किया। अपने पतिके अभिप्रायको लक्ष्य करके उसने कहा 'देवताओ! यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मेरे पतिको नेत्र प्रदान कीजिये।' सुकन्याका यह मनोहर वचन सुनकर तथा उसके सतीत्वको देखकर उन श्रेष्ठ वैद्योंने कहा- 'यदि तुम्हारे पति यज्ञमें हमलोगोंको देवोचितभाग अर्पण कर सकें तो हम इनके नेत्रोंमें स्पष्टरूपसे देखनेकी शक्ति पैदा कर सकते हैं।' च्यवनने भी उन तेजस्वी देवताओंको यज्ञमें भाग देनेके लिये हामी भर दी। तब वे दोनों अश्विनीकुमार अत्यन्त प्रसन्न होकर महान् तपस्वी च्यवनसे बोले- 'मुने ! सिद्धोंद्वारा तैयार किये हुए इस कुण्डमें आप गोता लगावें।' ऐसा कहकर उन्होंने च्यवन मुनिको, जिनका शरीर वृद्धावस्थाका ग्रास बन चुका था तथा जिनकी नस-नाड़ियाँ साफ दिखायी दे रही थीं, उस कुण्डमें प्रवेश कराया और स्वयं भी उसमें गोता लगाया। तत्पश्चात् उस कुण्डमेंसे तीन पुरुष प्रकट हुए जो अत्यन्त सुन्दर और नारियोंका मन मोहनेवाले थे। उनका रूप एक ही समान था सोनेके हार, कुण्डल तथा सुन्दर वस्त्र - तीनोंके शरीरपर शोभा पा रहे थे। सुन्दर शरीरवाली सुकन्या उन तीनोंको अत्यन्त रूपवान् और सूर्यके समान तेजस्वी देखकर अपने पतिको पहचान न सकी। तब वह साध्वी दोनों अश्विनीकुमारोंकी शरणमें गयी। सुकन्याके पातिव्रत्यसे सन्तुष्ट होकर उन्होंने उसके पतिको दिखा दिया और ऋषिसे विदा ले वे दोनों विमानपर बैठकर स्वर्गकोचले गये। अब उन्हें इस बातकी आशा हो गयी थी कि जब मुनि यज्ञ करेंगे तो उसमें हमलोगोंको भी अवश्य भाग देंगे।

तदनन्तर किसी समय राजा शर्यातिके मनमें यह इच्छा हुई कि मैं यज्ञद्वारा देवताओंका पूजन करूँ। उस समय उन्होंने महर्षि च्यवनको बुलानेके लिये अपने कई सेवक भेजे। उनके बुलानेपर महातपस्वी विप्रवर च्यवन वहाँ गये। साथमें उनकी धर्मपत्नी सुकन्या भी थी, जो मुनियोंके समान आचार-विचारका पालन करनेमें पक्की हो गयी थी। जब पत्नीके साथ वे महर्षि राजभवनमें पधारे, तब महायशस्वी राजा शर्यातिने देखा कि मेरी कन्याके पास एक सूर्यके समान तेजस्वी पुरुष खड़ा है। सुकन्याने पिताके चरणोंमें प्रणाम किया, किन्तु शर्यातिने उसे आशीर्वाद नहीं दिया। वे कुछ अप्रसन्न से होकर
पुत्रीसे बोले-'अरी तूने यह क्या किया? अपने पति महर्षि च्यवनको, जो सब लोगोंके बन्दनीय हैं, धोखा तो नहीं दे दिया? क्या तूने उन्हें बूढ़ा और अप्रिय जानकर छोड़ दिया और अब तू इस राह चलते जार पुरुषकी सेवा कर रही है? तेरा जन्म तो श्रेष्ठ पुरुषोंके कुलमेंहुआ है, फिर ऐसी उलटी बुद्धि तुझे कैसे प्राप्त हुई ? ऐसा करके तू तो अपने पिता तथा पति — दोनोंके कुलको नरकमें ले जा रही है?' पिताके ऐसा कहनेपर पवित्र मुसकानवाली सुकन्या किंचित् मुसकराकर बोली- 'पिताजी! ये जार पुरुष नहीं- आपके जामाता भृगुनन्दन महर्षि च्यवन ही हैं।' इसके बाद उसने पतिकी नयी अवस्था और सौन्दर्य - प्राप्तिका सारा समाचार पितासे कह सुनाया। सुनकर राजा शर्यातिको बड़ा विस्मय हुआ और उन्होंने अत्यन्त प्रसन्न होकर पुत्रीको छातीसे लगा लिया। इसके बाद च्यवनने राजासे सोमयागका अनुष्ठान कराया और सोमपानके अधिकारी न होनेपर भी दोनों अश्विनीकुमारोंके लिये उन्होंने सोमका भाग निश्चित किया। महर्षि तपोबलसे सम्पन्न थे, अतः उन्होंने अपने तेजसे अश्विनीकुमारोंको सोमरसका पान कराया। अश्विनीकुमार वैद्य होनेके कारण पंक्तिपावन देवताओंमें नहीं गिने जाते थे- उन्हें देवता अपनी पंक्तिमें नहीं बिठाते थे; परन्तु उस दिन ब्राह्मणश्रेष्ठ च्यवनने उन्हें देवपंक्ति में बैठनेका अधिकारी बनाया। यह देखकर इन्द्रको क्रोध आ गया और वे हाथमें वज्र लेकर उन्हें मारनेको तैयार हो गये। वज्रधारी इन्द्रको अपना वध करनेके लिये उद्यत देख बुद्धिमान् महर्षि च्यवनने एक बार हुंकार किया और उनकी भुजाओंको स्तम्भित कर दिया। उस समय सब लोगोंने देखा, इन्द्रकी भुजाएँ जडवत् हो गयी हैं।

बाहें स्तम्भित हो जानेपर इन्द्रकी आँखें खुलीं और उन्होंने मुनिकी स्तुति करते हुए कहा - 'स्वामिन्! आप अश्विनीकुमारोंको यज्ञका भाग अर्पण कीजिये, मैं रोकता। तात! एक बार मैंने जो अपराध किया है, उसको क्षमा कीजिये।' उनके ऐसा कहनेपर दयासागर महर्षिने तुरंत क्रोध त्याग दिया और इन्द्रकी भुजाएँ भी तत्काल बन्धनमुक्त हो गयीं उनकी जडता दूर हो गयी। यह देखकर सब लोगोंका हृदय र विस्मयपूर्ण कौतूहलसे भर गया। वे ब्राह्मणोंके बलकी, जो देवता आदिके लिये भी दुर्लभ है, सराहना करने में लगे। तदनन्तर शत्रुओंको ताप देनेवाले महाराज शर्यातिनेब्राह्मणोंको बहुत सा धन दिया और यज्ञके अन्तमें अवभृथस्नान किया।

सुमित्रानन्दन। तुमने मुझसे जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने कह सुनाया। महर्षि च्यवन तपस्या और योगवलसे सम्पन्न हैं। इन तपोमूर्ति महात्माको प्रणाम करके तुम विजयका आशीर्वाद ग्रहण करो और श्रीरामचन्द्रजीके मनोहर यज्ञमें इन्हें पत्नीसहित पधारनेके लिये प्रार्थना करो।

शेषजी कहते हैं- शत्रुघ्न और सुमतिमें इस प्रकार वार्तालाप हो रहा था, इतनेहीमें यज्ञका घोड़ा आश्रमके पास जा पहुँचा और उस महान् आश्रम में घूम-घूमकर मुखके अग्रभागसे दूबके अंकुर चरने लगा। इसी बीचमें शत्रुघ्न भी च्यवन मुनिके शोभायमान आश्रमपर पहुँच गये। वहाँ जाकर उन्होंने सुकन्याके पास बैठे हुए महर्षि च्यवनका दर्शन किया, जो तपस्याके मूर्तिमान् स्वरूप से जान पड़ते थे। सुमित्राकुमारने अपनानाम बतलाते हुए मुनिके चरणोंमें प्रणाम किया और कहा - 'मुने! मैं श्रीरघुनाथजीका भाई और इस अश्वका रक्षक शत्रुघ्न हूँ। अपने महान् पापकी शान्तिके लिये आपको नमस्कार करता हूँ।' यह वचन सुनकर मुनिवर च्यवनने कहा—'नरश्रेष्ठ शत्रुघ्न ! तुम्हारा कल्याण हो । इस यज्ञरूपी अश्वका पालन करनेसे संसारमें तुम्हारे महान् यशका विस्तार होगा।' शत्रुघ्नसे ऐसा कहकर महर्षिने आश्रमवासी ब्राह्मणोंसे कहा- 'ब्रह्मर्षियो ! यह आश्चर्यकी बात देखो, जिनके नामोंके स्मरण और कीर्तन आदि मनुष्यके समस्त पापका नाश कर देते हैं, वे भगवान् श्रीराम भी यज्ञ करनेवाले हैं। महान् पातकी और परस्त्री लम्पट पुरुष भी जिनका नाम स्मरण करके आनन्दपूर्वक परमगतिको प्राप्त होते हैं।" जिनके चरणकमलोंकी धूलि पड़नेसे पत्थरकी मूर्ति बनी हुई अहल्या तत्क्षण मनोहर रूप धारण करके महर्षि गौतमकी धर्मपत्नी हो गयी। रणक्षेत्रमें जिनके मनोहारी रूपका दर्शन करके दैत्योंने उन्हींके निर्विकार स्वरूपको प्राप्त कर लिया तथा योगीजन समाधिमें जिनका ध्यान करके योगारूढ अवस्थाको पहुँच गये और संसारके भयसे छुटकारा पाकर परमपदको प्राप्त हो गये, वे ही श्रीरघुनाथजी यज्ञ कर रहे हैं - यह कैसी अद्भुत बात है! मेरा धन्य भाग, जो अब श्रीरामचन्द्रजीके उस सुन्दर मुखकी झाँकी करूँगा, जिसके नेत्रोंका प्रान्तभाग मेघके जलकी समानता करता है। जिसकी नासिका मनोहर और भौंहें सुन्दर हैं तथा जो विनयसे कुछ झुका हुआ है। जिह्वा वही उत्तम है जो श्रीरघुनाथजीके नामोंका आदरके साथ कीर्तन करती है। जो इसके विपरीत आचरण करती है, वह तो साँपकी जीभके समान है। आज मुझे अपनी तपस्याका पवित्र फल प्राप्त हो गया। अब मेरे सारे मनोरथ पूरे हो गये; क्योंकि ब्रह्मादि देवताओंको भी जिसका दर्शन दुर्लभ है, भगवान् श्रीरामके उसी मुखको मैं इन नेत्रोंसे निहारूँगा। उनके चरणोंकी रजसे अपनेशरीरको पवित्र करूँगा तथा उनकी अत्यन्त विचित्र वार्ताओंका वर्णन करके अपनी रसनाको पावन बनाऊँगा।' इस प्रकारकी बातें करते-करते श्रीरामके चरणोंका स्मरण होनेसे महर्षिका प्रेम-भाव जाग्रत् हो उठा। उनकी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बह चली। वे मुनियोंके सामने ही अश्रुपूर्ण कण्ठसे पुकारने लगे- 'हे श्रीरामचन्द्र ! हे रघुनाथ ! हे धर्ममूर्ते! हे भक्तोंपर दया करनेवाले परमेश्वर ! इस संसारसे मेरा उद्धार कीजिये।' इतना कहते-कहते महर्षि ध्यानमग्न हो गये, उन्हें अपने परायेका ज्ञान न रहा। उस समय शत्रुघ्नने मुनिसे कहा- 'स्वामिन्! आप हमारे श्रेष्ठ यज्ञको अपने चरणोंकी धूलिसे पवित्र कीजिये सब लोगोंके द्वारा एकमात्र पूजित होनेवाले महाबाहु श्रीरघुनाथजीका भी बड़ा सौभाग्य है कि वे आप जैसे महात्माके अन्तःकरणमें निवास करते हैं।' शत्रुघ्नके ऐसा कहनेपर मुनिवर च्यवन आनन्दमग्न हो गये और अपने सम्पूर्ण अग्नियोंको साथ ले परिवारसहित वहाँसे चल दिये। उन्हें पैदल जाते देख और श्रीरामचन्द्रजीका भक्त जान हनुमान्जीने शत्रुघ्नसे विनयपूर्वक कहा 'स्वामिन्! यदि आप कहें तो महापुरुषोंमें श्रेष्ठ इन राम भक्त महर्षिको मैं ही अपनी पुरीमें पहुँचा दूँ।' वानर वीरके ये उत्तम वचन सुनकर शत्रुघ्नने उन्हें आज्ञा दी - 'हनुमान्जी ! जाइये, मुनिको पहुँचा आइये।' तब हनुमानजीने मुनिको कुटुम्बसहित अपनी पीठपर बिठा लिया और सर्वत्र विचरनेवाले वायुकी भाँति उन्हें शीघ्र ही अयोध्या पहुँचा दिया। मुनिको आया देख, श्रीरामबहुत प्रसन्न हुए और प्रेमसे विह्वल होकर उन्होंने उनके लिये अर्घ्यपाद्य आदि अर्पण किया। तत्पश्चात् वे बोले- 'मुनिश्रेष्ठ! इस समय आपका दर्शन पाकर मैं धन्य हो गया। आपने सब सामग्रियोंसहित मेरे यज्ञको पवित्र कर दिया।'

भगवान्का यह वचन सुनकर मुनिवर च्यवन बहुत सन्तुष्ट हुए। प्रेमोद्रेकके कारण उनके शरीर में रोमांच हो आया। वे बोले-'प्रभो! आप ब्राह्मणोंपर प्रेम रखनेवाले और धर्ममार्गके रक्षक हैं; अतः आपके द्वारा ब्राह्मणका सम्मान होना उचित ही है।'

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान