सुकर्मा कहते हैं- अब मैं इस विषय में पुण्यात्मा राजा ययातिके चरित्रका वर्णन करूँगा, जो सम्पूर्ण पापका नाश करनेवाला है। सोमवंशमें एक नहुष नामके राजा हो गये हैं। उन्होंने अनेकों दानधर्मोका अनुष्ठान किया, जिनकी कहीं तुलना नहीं थी। उन्होंने अपने पुण्यके प्रभावसे इन्द्रलोकपर अधिकार प्राप्त किया था। उन्होंके पुत्र राजा यति हुए जो शत्रुओंका मानमर्दन करनेवाले थे। वे सत्यका आश्रय ले धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते थे। प्रजाके सब कार्योंकी स्वयं ही देख-भाल किया करते थे। वे उत्तम धर्मकी महिमा सुनकर सब प्रकारके दान-पुण्य, यज्ञानुष्ठान एवं तीर्थ सेवन आदिमें लगे रहते थे। महाराज ययातिने अस्सी हजार वर्षोंतक इस पृथ्वीका राज्य किया। उनके चार पुत्र हुए, जो उन्होंके समान शूरवीर, बलवान् और पराक्रमी थे। तेज और पुरुषार्थमें भी वे पिताकी समानता करते थे। इस प्रकार ययातिने दीर्घकालतक धर्मपूर्वक राज्य किया।
एक समयकी बात है, ब्रह्माजीके पुत्र नारदजी इन्द्रलोक में गये। उन्हें आया देख इन्द्रने भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और मधुपर्क आदिसे उनकी पूजा करके उन्हें एक पवित्र आसनपर बिठाया। तत्पश्चात् वे उन महामुनिसे पूछने लगे-'देवर्षे किस लोकसे आपका यहाँ आना हुआ है? तथा यहाँ पदार्पण करनेका क्या उद्देश्य है?'
नारदजीने कहा- मैं इस समय भूलोकसे आरहा हूँ। नहुष - पुत्र ययातिसे मिलकर अब आपसे मिलनेके लिये आया हूँ।
इन्द्रने पूछा – इस समय पृथ्वीपर कौन राजा सत्य और धर्मके अनुसार प्रजाका पालन करता है? कौन सब धर्मोंसे युक्त, विद्वान्, ज्ञानवान्, गुणी, ब्राह्मणोंके कृपापात्र, ब्राह्मणभक्त, वेदवेत्ता, शूरवीर, दाता, यज्ञ करनेवाला और पूर्ण भक्तिमान् है ?
नारदजीने कहा- नहुषके बलवान् पुत्र ययाति इन गुणोंसे युक्त हैं। वे अपने पितासे भी बढ़े-चढ़े हैं। उन्होंने सौ अश्वमेध और सौ वाजपेय यज्ञ किये हैं। भक्तिपूर्वक अनेक प्रकारके दान दिये हैं। उनके द्वारा लाखों-करोड़ों गौएँ दानमें दी जा चुकी हैं। उन्होंने कोटिहोम तथा लक्षहोम भी किये हैं। ब्राह्मणको भूमि आदिका दान भी दिया है। उन्होंने ही धर्मके सांगोपांग स्वरूपका पालन किया है। ऐसे गुणोंसे युक्त नहुष - पुत्र राजा ययाति अस्सी हजार वर्षोंसे सत्य धर्मके अनुसार विधिवत् राज्य करते आ रहे हैं। इस कार्यमें वे आपकी समानता करते हैं।
सुकर्मा कहते हैं- मुनीश्वर नारदके मुखसे ऐसी बात सुनकर बुद्धिमान् इन्द्र कुछ सोचने लगे। वे ययातिके धर्म- पालनसे भयभीत हो उठे थे। उनके मनमें यह बात आयी कि 'पूर्वकालमें राजा नहुष सौ यज्ञोंके प्रभावसे मेरे इन्द्रपदपर अधिकार करके देवताओंके राजा बन बैठे थे। शचीकी बुद्धिके प्रभावसे उन्हें पदभ्रष्ट होना पड़ा था। ये महाराज ययाति भी ऐसे ही सुने जाते हैं।इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि ये इन्द्रपदपर अधिकार कर लेंगे। अतः जिस किसी उपायसे सम्भव हो, उन्हें स्वर्गमें लाऊँगा।'
क्यालिसे डरे हुए देवराजने ऐसा विचार करके उन्हें बुलानेके लिये दूत भेजा। अपने सारथि मातलिको विमानके साथ रवाना किया। मातलि उस स्थानपर गये, वहाँ नहुष पुत्र धर्मात्मा ययाति अपनी राजसभामें विराजमान थे। सत्य ही उन श्रेष्ठ नरेशका आभूषण देवराजके सारथिने उनसे कहा-'राजन्! मेरी बात सुनिये, देवराज इन्द्रने मुझे इस समय आपके पास भेजा है। उनका अनुरोध है कि अब आप पुत्रको राज्य दे आज ही इन्द्रलोकको पधारें महीपते। वहाँ इन्द्रके साथ रहकर आप स्वर्गका आनन्द भोगिये।'
ययातिने पूछा- मातले! मैंने देवराज इन्द्रका कौन सा ऐसा कार्य किया है, जिससे तुम ऐसी प्रार्थना कर रहे हो ?
मातलिने कहा- राजन्! लगभग एक लाख वर्षोंसे आप दान यज्ञ आदि कर्म कर रहे हैं। इन कर्मोके फलस्वरूप इस समय स्वर्गलोकमें चलिये और देवराज इन्द्रके सखा होकर रहिये इस पांचभौतिक शरीरको भूमिपर ही त्याग दीजिये और दिव्य रूप धारण करके मनोरम भोगोंका उपभोग कीजिये।
ययातिने प्रश्न किया- मनुष्य जिस शरीरसे सत्यधर्म आदि पुण्यका उपार्जन करता है, उसे वह कैसे छोड़ सकता है।
मातलिने कहा— राजन् ! तुम्हारा कथन ठीक है, तथापि मनुष्यको अपना यह शरीर छोड़कर ही जाना पड़ता है [ क्योंकि आत्माका शरीरके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है]। शरीर पंचभूतोंसे बना हुआ है; जब इसकी संधियाँ शिथिल हो जाती हैं, उस समय वृद्धावस्थासे पीड़ित मनुष्य इस शरीरको त्याग देना चाहता है।
ययातिने पूछा – साधुश्रेष्ठ! वृद्धावस्था कैसे उत्पन्न होती है तथा वह क्यों शरीरको पीड़ा देती है? इन सब बातोंको विस्तारसे समझाओ। मातलिने कहा- राजन्! पंचभूतोंसे इसशरीरका निर्माण हुआ है तथा पाँच विषयोंसे यह घिरा हुआ है। वीर्य और रक्तका नाश होनेसे प्रायः शरीर खोखला हो जाता है, उसमें प्रचण्ड वायुका प्रकोप होता है। इससे मनुष्यका रंग बदल जाता है वह दु:खसे संतप्त और हतबुद्धि हो जाता है जो स्त्री देखी-सुनी होती है, उसमें चित्त आसक्त होनेसे वह सदा भटकता रहता है। शरीरमें तृप्ति नहीं होती; क्योंकि उसका चित सदा लोलुप रहा करता है। जब कामी मनुष्य मांस और रक्त क्षीण होनेसे दुर्बल हो जाता है, तब उसके बाल पक जाते हैं। कामाग्निसे शरीरका शोषण हो जाता है। वृद्ध होनेपर भी दिन-दिन उसकी कामना बढ़ती ही जाती है। बूढ़ा मनुष्य ज्यों-ज्यों स्त्रीके सहवासका चिन्तन करता है, त्यों-त्यों उसके तेजकी हानि होती है। अतः काम नाशस्वरूप है, यह नाशके लिये ही उत्पन्न होता है। काम एक भयंकर ज्वर है, जो प्राणियोंका काल बनकर उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस शरीरमें जीर्णता-जरावस्था आती है।
ययातिने कहा- मातले! आत्माके साथ यह शरीर ही धर्मका रक्षक है, तो भी यह स्वर्गको नहीं जाता - इसका क्या कारण है? यह बताओ।
मातलि बोले – महाराज ! पाँचों भूतोंका आपसमें ही मेल नहीं है। फिर आत्माके साथ उनका मेल कैसे हो सकता है। आत्माके साथ इनका सम्बन्ध बिलकुल नहीं है। शरीर समुदायमें भी सम्पूर्ण भूतोंका पूर्ण संघट नहीं है; क्योंकि जरावस्थासे पीड़ित होनेपर सभी अपने-अपने स्थानको चले जाते हैं। इस शरीरमें अधिकांश पृथ्वीका भाग है। यह पृथ्वीको समानताको लेकर ही प्रतिष्ठित है जैसे पृथ्वी स्थित है, उसी प्रकार यह भी यहीं स्थित रहता है। अतः शरीर स्वर्गको नहीं जाता।
ययातिने कहा- मातले! मेरी बात सुनो। जब पापसे भी शरीर गिर जाता है और पुण्यसे भी, तब मैं इस पृथ्वीपर पुण्यमें कोई विशेषता नहीं देखता। जैसे पहले शरीरका पतन होता है, उसी प्रकार पुनः दूसरे शरीरका जन्म भी हो जाता है। किन्तु उस देहकी उत्पत्ति कैसे होती है? मुझे इसका कारण बताओ।मातलि बोले राजन् नारकी पुरुषोंके अधर्ममात्रसे एक ही क्षणमें भूतोंके द्वारा नूतन शरीरका निर्माण हो जाता है। इसी प्रकार एकमात्र धर्मसे ही देवत्वकी प्राप्ति करानेवाले दिव्य शरीरकी तत्काल उत्पत्ति हो जाती है। उसका आविर्भाव भूतोंके सारतत्त्वसे होता है। कमक मेलसे जो शरीर उत्पन्न होता है, उसे रूपके परिमाणसे चार प्रकारका समझना चाहिये। [ उद्भिज्ज, स्वेदन, अण्डज और जरायुज-ये ही चार प्रकारके शरीर हैं।] स्थावरोंको उद्भिज्ज कहते हैं। उन्हें तृण, गुल्म और लता आदिके रूपमें जानना चाहिये कृमि, कीट और पतंग आदि प्राणी स्वेदन कहलाते हैं। समस्त पक्षी, नाके और मछली आदि जीव अण्डज हैं। मनुष्यों और चौपायको जरायुज जानना चाहिये।
भूमिके पानीसे सींचे जानेपर बोये हुए अन्नमें उसकी गर्मी चली जाती है। फिर वायुसे संयुक्त होनेपर क्षेत्रमें बीज जमने लगता है। पहले तपे हुए बीज जब पुनः जलसे सींचे जाते हैं, तब गर्मी के कारण उनमें मृदुता आ जाती है; फिर वे जड़के रूपमें बदल जाते हैं। उस मूलसे अंकुरकी उत्पत्ति होती है। अंकुरसे पत्ते निकलते हैं, पत्तेसे तना, तनेसे काण्ड, काण्डसे प्रभव, प्रभवसे दूध और दूधसे तण्डुल उत्पन्न होता है। तण्डुलके पक जानेपर अनाजकी खेती तैयार हुई समझी जाती है। अनाजों में शालि (अगहनी धान) से लेकर जौतक दस अन्न श्रेष्ठ माने गये हैं। उनमें फलकी प्रधानता होती है। शेष अन्न क्षुद्र बताये गये हैं। भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य, चोष्य और खाद्य-ये अन्नके छः भेद हैं तथा मधुर आदि छः प्रकारके रस हैं। देहधारी उस अन्नको पिण्डके समान कौर या ग्रास बनाकर खाते हैं। वह अन्न शरीरके भीतर उदरमें पहुँचकर समस्त प्राणोंको क्रमशः स्थिर करता है। खाये हुए अपक्व भोजनको वायु दो भागों में बाँट देती है। अन्नके भीतर प्रवेश करके उसे पचाती और पृथक् पृथक् गुणोंसे युक्त करती है। अग्निके ऊपर जल और जलके ऊपर अन्नको स्थापित करके प्राण स्वयंजालके नीचे स्थित हो धीरे-धीरे जठराग्निको प्रज्वलित करता है। वायुसे उद्दीप्त की हुई अग्नि जलको अधिक गर्म कर देती है। उसकी गर्मीके कारण अन्न सब ओरसे भलीभाँति पच जाता है। पचा हुआ अन्न कीट और रस- इन दो भागोंमें विभक्त होता है। इनमें कीट मलरूपसे बारह छिद्रोंद्वारा शरीरके बाहर निकलता है। दो कान, दो नेत्र, दो नासा-छिद्र, जिह्वा, दाँत, ओठ, लिंग, गुदा और रोमकूपये ही मल निकलनेके बारह मार्ग हैं। इनके द्वारा कफ, पसीने और मल-मूत्र आदिके रूपमें शरीरका मैल निकलता है। हृदयकमलमें शरीरकी सब गाड़ियाँ आबद्ध है। उनके मुखमें प्राण अन्नका सूक्ष्म रस डाला करता है। वह बारम्बार उस रससे नाड़ियोंको भरता रहता है तथा रससे भरी हुई नाड़ियाँ सम्पूर्ण देहको तृप्त करती रहती हैं।
नाड़ियोंके मध्य में स्थित हुआ रस शरीरकी गर्मीसे पकने लगता है। उस रसके जब दो पाक हो जाते हैं, तब उससे त्वचा, मांस, हड्डी, मज्जा, मेद और रुधिर आदि उत्पन्न होते हैं। रक्तसे रोम और मांस, मांससे केश और स्नायु, स्नायुसे मज्जा और हड्डी तथा मज्जा और हड्डीसे वसाकी उत्पत्ति होती है। मज्जाले शरीरकी उत्पत्तिका कारणभूत वीर्य बनता है। इस प्रकार अन्नके बारह परिणाम बताये गये हैं। जब ऋतुकालमें दोषरहित वीर्य स्त्रीकी योनिमें स्थित होता है, उस समय वह वायुसे प्रेरित हो रजके साथ मिलकर एक हो जाता है। वीर्य स्थापन के समय कारण शरीरयुक्त जीव अपने कर्मोंसे प्रेरित होकर योनिमें प्रवेश करता है।
वीर्य और रज दोनों एकत्र होकर एक ही दिनमें कललके आकारमें परिणत हो जाते हैं, फिर पाँच रातमें उनका बुदबुद बन जाता है। तत्पश्चात् एक महीने में ग्रीवा मस्तक, कंधे की हड्डी तथा उदर-ये पाँच अंग उत्पन्न होते हैं; फिर दो महीने में हाथ, पैर, पसली, कमर और पूरा शरीर- ये सभी क्रमशः सम्पन्न होते हैं। तीन महीने बीतते-बीतते सैकड़ों अंकुरधियाँ प्रकट होजाती हैं। चार महीनोंमें क्रमशः अँगुली आदि अवयव भी उत्पन्न हो जाते हैं। पांच महीनोंमें मुँह नाक और कान तैयार हो जाते हैं छः महीनों के भीतर दाँतकि मसूड़े जिझ तथा कानोंके छिद्र प्रकट होते हैं। सात महीनोंमें गुदा, लिंग, अण्डकोष, उपस्थ तथा शरीरकी सन्धियाँ प्रकट होती हैं। आठ मास बीतते-बीतते शरीरका प्रत्येक अवयव, केशोंसहित पूरा मस्तक तथा अंगको पृथक्-पृथक् आकृतियाँ स्पष्ट हो जाती हैं। माताके आहारसे जो छः प्रकारका रस मिलता है,
उसके बलसे गर्भस्थ बालककी प्रतिदिन पुष्टि होती है। नाभिमें जो नाल बंधा होता है, उसीके द्वारा बालकको रसकी प्राप्ति होती रहती है। तदनन्तर शरीरका पूर्ण विकास हो जानेपर जीवको स्मरण शक्ति प्राप्त होती है तथा वह दुःख सुखका अनुभव करने लगता है। उसे पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंका, यहाँतक कि निद्रा और शयन आदिका भी स्मरण हो आता है। वह सोचने लगता है-'मैंने अबतक हजारों योनियोंमें अनेकों बार चक्कर लगाया। इस समय अभी-अभी जन्म ले रहा हूँ, मुझे पूर्वजन्मोंकी स्मृति हो आयी है; अतः इस जन्ममें मैं यह कल्याणकारी कार्य करूँगा, जिससे मुझे फिर गर्भमें न आना पड़े। मैं यहाँ से निकलनेयर संसार-बन्धनकी निवृत्ति करनेवाले उत्तम ज्ञानको प्राप्त करनेका प्रयत्न करूँगा।'
जीव गर्भवासके महान् दुःखसे पीड़ित हो कर्मवश माता उदरमें पढ़ा-पड़ा अपने मोक्षका उपाय सोचता रहता है। जैसे कोई पर्वतकी गुफामें बंद हो जानेपर बड़े दु:खसे समय बिताता है, उसी प्रकार देहधारी जीव जरायु (जेर) के बन्धनमें बंधकर बहुत दुःखी होता और बड़े कष्टसे उसमें रह पाता है। जैसे समुद्रमें गिरा हुआ मनुष्य दुःखसे छटपटाने लगता है, वैसे ही गर्भके जलसे अभिषिक्त जीव अत्यन्त व्याकुल हो उठता है। जिस प्रकार किसीको लोहेके पड़ेमें बंद करके आगसे पकाया।जाय, उसी प्रकार गर्भरूपी कुम्भमें डाला हुआ जीव जठराग्निसे पकाया जाता है। आगमें तपाकर लाल लाल की हुई बहुत सी सुइयोंसे निरन्तर शरीरको छेदनेपर जितना दुःख होता है, उससे आठगुना अधिक कष्ट गर्भमें होता है। गर्भवाससे बढ़कर कष्ट कहीं नहीं होता। देहधारियोंके लिये गर्भमें रहना इतना भयंकर कष्ट है, जिसकी कहीं तुलना नहीं है। इस प्रकार प्राणियोंके गर्भजनित दुःखका वर्णन किया गया। स्थावर और जंगम-सभी प्राणियोंको अपने-अपने गर्भके अनुरूप कष्ट होता है।
जीवको जन्मके समय गर्भवासकी अपेक्षा करोड़ गुनी अधिक पीड़ा होती है। जन्म लेते समय वह मूच्छित हो जाता है। उस समय उसका शरीर हड्डियोंसे युक्त गोल आकारका होता है। स्नायुबन्धनसे बँधा रहता है। रक्त, मांस और वसासे व्याप्त होता है। मल और मूत्र आदि अपवित्र वस्तुएँ उसमें जमा रहती हैं। केश, रोम और नखोंसे युक्त तथा रोगका आश्रय होता है। मनुष्यका यह शरीर जरा और शोकसे परिपूर्ण तथा कालके अग्निमय मुखमें स्थित है। इसपर काम और क्रोधके आक्रमण होते रहते हैं। यह भोगकी तृष्णासे आतुर विवेकशून्य और राग-द्वेषके वशीभूत होता है। इस देहमें तीन सौ साठ हड्डियाँ तथा पाँच सौ मांस पेशियाँ हैं, ऐसा समझना चाहिये। यह सब ओरसे साढ़े तीन करोड़ रोमोंद्वारा व्याप्त है तथा स्थूल सूक्ष्म एवं दृश्य-अदृश्यरूपसे उतनी ही नाड़ियाँ भी इसके भीतर फैली हुई हैं। उन्हींके द्वारा भीतरका अपवित्र मल पसीने आदिके रूपमें निकलता रहता है। शरीरमें बत्तीस दाँत और बीस नख होते हैं। देहके अंदर पित्त एक कुडव' और कफ आधा आढकर होता है। वसा तीन पल, कलल पंद्रह पल, वात अर्बुद पल, मेद दस पल, महारक्त तीन पल, मज्जा उससे चौगुनी (बारह पल), वीर्य आधा कुडव, बल चौथाई कुडव, मांस- पिण्डहजार पल तथा रक्त सौ पल होता है और मूत्रका कोई नियत माप नहीं है।
राजन्! आत्मा परम शुद्ध है और उसका यह देहरूपी घर, जो कर्मोके बन्धनसे तैयार किया गया है, नितान्त अशुद्ध है। इस बातको सदा ही याद रखना चाहिये वीर्य और रजका संयोग होनेपर ही किसी भी योनिमें देहकी उत्पत्ति होती है तथा यह हमेशा पेशाब और पाखानेसे भरा रहता है; इसलिये इसे अपवित्र माना गया है। जैसे घड़ा बाहरसे चिकना होनेपर भी यदि विष्ठासे भरा हो तो वह अपवित्र ही समझा जाता है, उसी प्रकार यह देह ऊपरसे पंचभूतोंद्वारा शुद्ध किया जानेपर भी भीतरकी गंदगीके कारण अपवित्र ही माना गया है जिसमें पहुँचकर पंचगव्य और हविष्य आदि अत्यन्त पवित्र पदार्थ भी तत्काल अपवित्र हो जाते हैं, उस शरीरसे बढ़कर अशुद्ध दूसरा क्या हो सकता है। जिसके द्वारोंसे निरन्तर क्षण-क्षणमें कफ-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुएँ बहती रहती हैं, उस अत्यन्त अपावन शरीरको कैसे शुद्ध किया जा सकता है। शरीरके छिद्रोंका स्पर्शमात्र कर लेनेपर हाथको जलसे शुद्ध किया जाता है, तथापि मनुष्य अशुद्ध ही बने रहते हैं; किन्तु फिर भी उन्हें देहसे वैराग्य नहीं होता। जैसे जन्मसे ही काले रंगकी ऊन धोनेसे कभी सफेद नहीं होती, उसी प्रकार यह शरीर धोनेसे भी पवित्र नहीं हो सकता। मनुष्य अपने शरीरके मलको अपनी आँखों देखता है, उसकी दुर्गन्धका अनुभव करता है और उससे बचनेके लिये नाक भी दबाता है; किन्तु फिर भी उसके मनमेंवैराग्य नहीं होता। अहो मोहका कैसा माहात्म्य है, जिससे सारा जगत् मोहित हो रहा है अपने शरीरके दोषोंको देखकर और सुँधकर भी वह उससे विरक्त नहीं होता। जो मनुष्य अपने देहकी अपवित्र गन्धसे घृणा करता है, उसे वैराग्यके लिये और क्या उपदेश दिया जा सकता है। सारा संसार पवित्र है, केवल शरीर ही अत्यन्त अपवित्र है; क्योंकि जन्मकालमें इस शरीरके अवयवोंका स्पर्श करनेसे शुद्ध मनुष्य भी अशुद्ध हो जाता है अपवित्र वस्तुकी गन्ध और लेपको दूर करनेके लिये शरीरको नहलाने-धोने आदिका विधान है। गन्ध और लेपकी निवृत्ति हो जानेके पश्चात् भावशुद्धिसे वस्तुतः मनुष्य शुद्ध होता है।
जिसका भीतरी भाव दूषित है, वह यदि आगमें प्रवेश कर जाय तो भी न तो उसे स्वर्ग मिलता है और न मोक्षकी ही प्राप्ति होती है; उसे सदा देहके बन्धनमें ही जकड़े रहना पड़ता है। भावकी शुद्धि ही सबसे बड़ी पवित्रता है और यही प्रत्येक कार्यमें श्रेष्ठताका हेतु है। पत्नी और पुत्री - दोनोंका ही आलिंगन किया जाता है; किन्तु पत्नीके आलिंगनमें दूसरा भाव होता है और पुत्रीके आलिंगन में दूसरा भिन्न-भिन्न वस्तुओंके प्रति मनकी वृत्तिमें भी भेद हो जाता है। नारी अपने पतिका और भावसे चिन्तन करती है और पुत्रका और भावसे तुम बलपूर्वक अपने मनको शुद्ध करो, दूसरी दूसरी बाह्य शुद्धियोंसे क्या लेना है जो भावसे पवित्र है. जिसका अन्तःकरण शुद्ध हो गया है, वही स्वर्ग तथा मोक्षको प्राप्त करता है। उत्तम वैराग्यरूपी मिट्टी तथाज्ञानरूप निर्मल जलसे माँजने-धोनेपर पुरुषके अविद्या तथा रागरूपी मल-मूत्रका लेप नष्ट होता है। इस प्रकार इस शरीरको स्वभावतः अपवित्र माना गया है। केलेके वृक्षकी भाँति यह सर्वथा सारहीन है; अध्यात्म ज्ञान ही इसका सार है। देहके दोषको जानकर जिसे इससे वैराग्य हो जाता है, वह विद्वान् संसार-सागरसे पार हो जाता है। इस प्रकार महान् कष्टदायक जन्मकालीन दुःखका वर्णन किया गया।
गर्भमें रहते समय जीवको जो विवेक-बुद्धि प्राप्त होती है, वह उसके अज्ञान-दोषसे या नाना प्रकारके कर्मोंकी प्रेरणासे जन्म लेनेके पश्चात् नष्ट हो जाती है। योनि-यन्त्रसे पीड़ित होनेपर जब वह दुःखसे मूर्च्छित हो जाता है और बाहर निकलकर बाहरी हवाके सम्पर्क में आता है, उस समय उसके चित्तपर महान् मोह छा जाता है। मोहग्रस्त होनेपर उसकी स्मरणशक्तिका भी शीघ्र ही नाश हो जाता है; स्मृति नष्ट होनेसे पूर्वकमकी वासनाके कारण उस जन्ममें भी ममता और आसक्ति बढ़ जाती है। फिर संसारमें आसक्त होकर मूढ जीव न आत्माको जान पाता है न परमात्माको, अपितु निषिद्ध कर्ममें प्रवृत्त होजाता है। बाल्यकालमें इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ पूर्णतया व्यक्त नहीं होतीं; इसलिये बालक महान् से महान् दुःखको सहन करता है, किन्तु इच्छा होते हुए भी न तो उसे कह सकता है और न उसका कोई प्रतिकार ही कर पाता है। शैशवकालीन रोगसे उसको भारी कष्ट भोगना पड़ता है। भूख-प्यासकी पीड़ासे उसके सारे शरीरमें दर्द होता है। बालक मोहवश मल-मूत्रको भी खानेके लिये मुँह में डाल लेता है। कुमारावस्थामें कान बिंधानेसे कष्ट होता है। समय-समयपर उसे माता-पिताकी मार भी सहनी पड़ती है। अक्षर लिखने पढ़नेके समय गुरुका शासन दुःखद जान पड़ता है। जवानीमें भी इन्द्रियोंकी वृत्तियाँ कामना और रागकी प्रेरणासे इधर-उधर विषयोंमें भटकती हैं; फिर मनुष्य रोगोंसे आक्रान्त हो जाता है अतः युवावस्थामें भी सुख कहाँ है। युवकको ईर्ष्या और मोहके कारण महान् दुःखका सामना करना पड़ता है, यह राग ईर्ष्यालु व्यक्तिके लिये केवल दुःखका कारण होता है। कामाग्निसे संतप्त रहनेके कारण उसे रातभर नींद नहीं आती। दिनमें भी अर्थोपार्जनकी चिन्तासे सुख कहाँ मिलता है। कीड़ोंसे पीड़ित कोढ़ी मनुष्यको अपनी कोढ़ खुजलानेमें जो सुखप्रतीत होता है, वही स्त्रियोंके साथ सम्भोग करनेमें भी है।' जवानीके बाद जब वृद्धावस्था मनुष्यको दबा लेती। है, तब असमर्थ होनेके कारण उसे पत्नी पुत्र आदि बन्धुबान्धव तथा दुराचारी भृत्य भी अपमानित कर बैठते हैं। बुढ़ापैसे आक्रान्त होनेपर मनुष्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इनमेंसे किसीका भी साधन नहीं कर सकता; इसलिये युवावस्थामें ही धर्मका आचरण कर सेना चाहिये।
प्रारब्ध कर्मका क्षय होनेपर जो जीवोंका भिन्न भिन्न देहोंसे वियोग होता है, उसीको मरण कहा गया है। वास्तवमें जीवका नाश नहीं होता। मृत्युके समय जब शरीरके मर्मस्थानोंका उच्छेद होने लगता है और जीवपर महान् मोह छा जाता है, उस समय उसको जो दुःख होता है, उसकी कहीं भी तुलना नहीं है। वह अत्यन्त दुःखी होकर 'हाय बाप! हाय मैया ! हा प्रिये!' आदिकी पुकार मचाता हुआ बारम्बार विलाप करता है। जैसे साँप मेढकको निगल जाता है, उसी प्रकार वह सारे संसारको निगलनेवाली मृत्युका ग्रास बना हुआ है। भाई-बन्धुओंसे उसका साथ छूट जाता है; प्रियजन उसे घेरकर बैठे रहते हैं। वह गरम-गरम लम्बी साँसें खींचता है, जिससे उसका मुँह सूख जाता है। रह-रहकर उसे मूर्च्छा आ जाती है। बेहोशीकी हालतमें वह जोर-जोरसे इधर उधर हाथ-पैर पटकने लगता है। अपने काबूमें नहीं रहता। लाज छूट जाती है और वह मल-मूत्रमें सना पड़ा रहता है। उसके कण्ठ, ओठ और तालु सूख जाते हैं। वह बार-बार पानी माँगता है। कभी धनके विषयमेंचिन्ता करने लगता है—'हाय! मेरे मरनेके बाद यह किसके हाथ लगेगा?' यमदूत उसे कालपाशमें बाँधकर घसीट ले जाते हैं। उसके कण्ठमें घरघर आवाज होने लगती है; दूतोंके देखते-देखते उसकी मृत्यु होती है। जीव एक देहसे दूसरी देहमें जाता है। सभी जीव सबेरे मल-मूत्रकी हाजतका कष्ट भोगते हैं; मध्याह्नकालमें उन्हें भूख-प्यास सताती है और रात्रिमें वे काम-वासना तथा नींदके कारण क्लेश उठाते हैं [ इस प्रकार संसारका सारा जीवन ही कष्टमय है]।
पहले तो धनको पैदा करनेमें कष्ट होता है, फिर पैदा किये हुए धनकी रखवालीमें क्लेश उठाना पड़ता है; इसके बाद यदि कहीं वह नष्ट हो जाय तो दुःख और खर्च हो जाय तो भी दुःख होता है भला, धनमें सुख है ही कहीं जैसे देहधारी प्राणियोंको सदा मृत्युसे भय होता है; उसी प्रकार धनवानोंको चोर, पानी, आग, कुटुम्बियों तथा राजासे भी हमेशा डर बना रहता है। जैसे मांसको आकाशमें पक्षी, पृथ्वीपर हिंसक जीव और जलमें मत्स्य आदि जन्तु भक्षण करते हैं, उसी प्रकार सर्वत्र धनवान् पुरुषको लोग नोचते खसोटते रहते हैं सम्पत्तिमें धन सबको मोहित करता - उन्मत्त बना देता है, विपत्तिमें सन्ताप पहुँचाता है और उपार्जनके समय दुःखका अनुभव कराता है; फिर धनको कैसे सुखदायक कहा जाय । हेमन्त और शिशिरमें जाड़ेका कष्ट रहता है। गर्मीमें दुस्सह तापसे संतप्त होना पड़ता है और वर्षाकालमें अतिवृष्टि तथा अल्पवृष्टिसे दुःख होता है। इस प्रकार विचार करनेपर कालमें भी सुख कहाँ है।यही दशा कुटुम्बकी भी है। पहले तो विवाहमें विस्तारपूर्वक व्यय होनेपर दुःख होता है; फिर पत्नी जब गर्भ धारण करती है, तब उसे उसका भार ढोनेमें कष्टका अनुभव होता है। प्रसवकालमें अत्यन्त पीड़ा भोगनी पड़ती है तथा फिर सन्तान होनेपर उसके मल उठाने आदिमें क्लेश होता है। इसके सिवा हाय ! मेरी स्त्री भाग गयी, मेरी पत्नीको सन्तान अभी बहुत छोटी है, वह बेचारी क्या कर सकेगी? कन्याके विवाहका समय आ रहा है, उसके लिये कैसा वर मिलेगा ? इत्यादि चिन्ताओंके भारसे दबे हुए कुटुम्बीजनोंको कैसे सुख मिल सकता है। राज्यमें भी सुख कहाँ है सदा सन्धिविग्रहको चिन्ता लगी रहती है। जहाँ पुत्रसे भी भय प्राप्त होता है. यहाँ सुख कैसा एक द्रव्यकी अभिलाषा रखनेके कारण आपसमें लड़नेवाले कुत्तोंकी तरह प्रायः सभी देहधारियोंको अपने सजातियोंसे भय बना रहता है। कोई भी राजा राज्य छोड़कर उनमें प्रवेश किये बिना इस भूतलपर विख्यात न हो सका। जो सारे सुखोंका परित्याग कर देता है, वही निर्भय होता है। राजन्! पहननेके लिये दो वस्त्र हों और भोजनके लिये सेर भर अन्न- इतनेमें ही सुख है। मान-सम्मान, छत्र चँवर और राज्यसिंहासन तो केवल दुःख देनेवाले हैं। समस्त भूमण्डलका राजा ही क्यों ने हो, एक खाटके नापकी भूमि ही उसके उपभोगमें आती है। जलसे भरे हजारों महोद्वारा अभिषेक कराना क्लेश और श्रमको ही बढ़ाना है। [स्नान तो एक घड़ेसे भी हो सकता है।] प्रातःकाल पुरवासियोंके साथ शहनाईका मधुर शब्द सुनना अपने राजत्वका अभिमानमात्र है। केवल यह कहकर सन्तोषलाभ करना है कि मेरे महलमें सदा शहनाई बजती है। समस्त आभूषण भारमात्र हैं, सब प्रकारके अंगराग मैलके समान हैं, सारे गीत प्रलापमात्र हैं और नृत्य पागलोंकी सी चेष्टा है। इस प्रकार विचार करके देखा जाय, तो राजोचित भोगों से भी क्या सुख मिलता है। राजाओंका यदि किसीके साथ युद्ध छिड़ जाय तो एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे वे सदा चिन्तामग्न रहते हैं। नहुष आदि बड़े-बड़े सम्राट् भी राज्य लक्ष्मी के मदसे उन्मत्त होनेके कारण स्वर्गमें जाकर भी वहाँसे भ्रष्ट हो गये। भला, लक्ष्मीसे किसको सुख मिलता है।"
स्वर्गमें भी सुख कहाँ है। देवताओंमें भी एक देवताकी सम्पत्ति दूसरेकी अपेक्षा बढ़ी चढ़ी तो होती ही है, वे अपनेसे ऊपरकी श्रेणीवालोंके बढ़े हुए वैभवको देख-देखकर जलते हैं। मनुष्य तो स्वर्गमें जाकर अपना मूल गँवाते हुए ही पुण्यफलका भी उपभोग करते हैं। जैसे जड़ कट जानेपर वृक्ष विवश होकर धरतीपर गिर जाता है, उसी प्रकार पुण्य क्षीण होनेपर मनुष्य भी स्वर्गसे नीचे आ जाते हैं। इस प्रकार विचारसे देवताओंके स्वर्गलोकमें भी सुख नहीं जान पड़ता। स्वर्गसे लौटनेपर देहधारियोंको मन, वाणी और शरीरसे किये हुए नाना प्रकारके भयंकर पाप भोगने पड़ते हैं। उस समय नरककी आगमें उन्हें बड़े भारी कष्ट और दुःखका सामना करना पड़ता है। जो जीव स्थावरयोनिमें पड़े हुए हैं, उन्हें भी सब प्रकारके दुःख प्राप्त होते हैं। कभी उन्हें कुल्हाड़ीके तीव्र प्रहारसे काटा जाता है तो कभी उनकी छाल काटी जाती है और कभी उनकी डालियों, पत्तों और फलोंको भी गिराया जाता है; कभी प्रचण्ड आँधीसे वे अपने-आप उखड़कर गिर जाते हैं तोकभी हाथी या दूसरे जन्तु उन्हें समूल नष्ट कर डालते हैं। कभी वे दावानलकी आँचमें झुलसते हैं तो कभी पाला पड़नेसे कष्ट भोगते हैं। पशु-योनिमें पड़े हुए जीवोंकी कसाइयोंद्वारा हत्या होती है; उन्हें डंडों से पीटा जाता है, नाक छेदकर त्रास दिया जाता है, चाबुकोंसे मारा जाता है, बेत या काठ आदिकी बेड़ियोंसे अथवा अंकुशके द्वारा उनके शरीरको बन्धनमें डाला जाता है। तथा बलपूर्वक मनमाने स्थानमें ले जाया जाता और बाँधा जाता है तथा उन्हें अपने टोलोंसे अलग किया जाता है। इस प्रकार पशुओंके शरीरको भी अनेक प्रकारके दुःख भोगने पड़ते हैं।
देवताओंसे लेकर सम्पूर्ण चराचर जगत् पूर्वोक्तदुःखोंसे ग्रस्त है; इसलिये विद्वान् पुरुषको सबका त्याग कर देना चाहिये। जैसे मनुष्य इस कंधेका भार उस कंधे पर लेकर अपनेको विश्राम मिला समझता है, उसी प्रकार संसारके सब लोग दुःखसे ही दुःखको शान्त करनेकी चेष्टा कर रहे हैं। अतः सबको दुःखसे व्याकुल जानकर विचारवान् पुरुषको परम निर्वेद धारण करना चाहिये, निर्वेदसे परम वैराग्य होता है और उससे ज्ञान। ज्ञानसे परमात्माको जानकर मनुष्य कल्याणमयी मुक्तिको प्राप्त होता है। फिर वह समस्त दुःखोंसे मुक्त होकर सदा सुखी, सर्वज्ञ और कृतार्थ हो जाता है। ऐसे ही पुरुषको मुक्त कहते हैं। राजन् ! तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने सब बातें तुम्हें बता दीं।