सखियोंने पूछा- महाभागे ! ये रानी सुदेवा कौन थीं? उनका आचार-विचार कैसा था? यह हमें बताओ।
सुकला बोली- सखियो ! पहले की बात है, अयोध्यापुरीमें मनुपुत्र महाराज इक्ष्वाकु राज्य करते थे । वे धर्मके तत्त्वज्ञ, परम सौभाग्यशाली, सब धर्मोके अनुष्ठानमें रत, सर्वज्ञ और देवता तथा ब्राह्मणोंके पुजारी थे। काशीके राजा वीरवर महात्मा देवराजकी सदाचारपरायणा कन्या सुदेवाके साथ उन्होंने विवाह किया था। सुदेवा सत्यव्रतके पालनमें तत्पर रहती थीं। पुण्यात्मा राजा इक्ष्वाकु उनके साथ अनेक प्रकारके उत्तम पुण्य और यज्ञ किया करते थे।
एक दिन अपनी रानीके साथ गंगाके तटवर्ती वनमें गये और वहाँ शिकार खेलने लगे। उन्होंने बहुत-से सिंहों और शूकरोंको मारा। वे शिकारमें लगे ही हुए थे कि इतनेमें उनके सामने एक बहुत बड़ा सूअर आ निकला उसके साथ झुंड-के झुंड सूअर थे। वह अपने पुत्र-पौत्रोंसे घिरा था। उसकी प्रियतमा शूकरी भी उसके बगलमें मौजूद थी। उस समय सूअरने राजाको देखकर अपने पुत्रों, पौत्रों तथा पत्नीसे कहा- 'प्रिये! कोसलदेशके वीर सम्राट् महातेजस्वी इक्ष्वाकु यहाँ शिकार खेलनेके लिये पधारे हैं। उनके साथ बहुत से कुत्ते और व्याध हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ये मुझपर भी प्रहार करेंगे। महाराज इक्ष्वाकु बड़े पुण्यात्मा हैं, ये राजाओंके भी राजा और समस्त विश्वके अधिपति हैं। प्रिये। मैं इन महात्माके साथ रणभूमिमें पुरुषार्थ और पराक्रम दिखाता हुआ युद्ध करूँगा। यदि मैंने अपने तेजसे इन्हें जीत लिया तो पृथ्वीपर अनुपम कीर्ति भोगूँगा और यदि वीरवर महाराजके हाथसे मैं ही युद्धमें मारा गया तो भगवान् श्रीविष्णुके लोकमें जाऊँगा। न जाने पूर्वजन्ममें मैंने कौन-सा पाप किया था, जिससे सूअरकी योनिमें मुझे आना पड़ा। आज में महाराजके अत्यन्तभयंकर, पैने और तेज धारवाले सैकड़ों बाणोंकी जलधारासे अपने पूर्वसंचित घोर पातकको धो डालूँगा। तुम मेरा मोह छोड़ दो और इन पुत्रों, पौत्रों तथा श्रेष्ठ कन्याको और बाल-वृद्धसहित समूचे कुटुम्बको साथ लेकर पर्वतकी कन्दरामें चली जाओ। इस समय मेरा स्नेह त्यागकर इन बालकोंकी रक्षा करो।'
शूकरी बोली- नाथ! मेरे बच्चे तुम्हारे ही बलसे पर्वतपर गर्जना करते हुए विचरते हैं। तुम्हारे तेजसे ही निर्भय होकर यहाँ कोमल मूल-फलका आहार करते हैं। महाभाग ! बीहड़ वनोंमें, झाड़ियोंमें, पर्वतोंपर और गुफाओंमें तथा यहाँ भी जो ये सिंहाँ और मनुष्योंके तीव्र भयकी परवा नहीं करते, उसका यही कारण है कि ये तुम्हारे तेजसे सुरक्षित हैं। तुम्हारे त्याग देनेपर मेरे सभी बच्चे दीन, असहाय और अचेत हो जायेंगे। [तुमसे अलग रहनेमें मेरी भी शोभा नहीं है।] उत्तम सोनेके बने हुए दिव्य आभूषणों, रत्नमय उपकरणों तथा सुन्दर वस्त्रोंसे विभूषित होकर और पिता, माता, भाई, सास, ससुर तथा अन्य सम्बन्धियोंसे आदर पाकर भी पतिहीना स्त्री शोभा नहीं पाती। जैसे आचारके बिना मनुष्य, ज्ञानके बिना संन्यासी तथा गुप्त मन्त्रणाके विना राज्यकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार तुम्हारे बिना इस यूथकी शोभा नहीं हो सकती। प्रिय ! प्राणेश्वर! तुम्हारे बिना मैं अपने प्राण नहीं रख सकती। महामते ! मैं सच कहती हूँ-तुम्हारे साथ यदि मुझे नरकमें भी निवास करना पड़े तो उसे सहर्ष - स्वीकार करूँगी। यूथपते! हम दोनों ही अपने पुत्र पौत्रोंसहित इस उत्तम यूथको लेकर किसी पर्वतकी दुर्गम कन्दरामें घुस जायँ, यही अच्छा है। तुम जीवनकी आशा छोड़कर मरनेके लिये जा रहे हो; बताओ, इसमें तुम्हें क्या लाभ दिखायी देता है ?
सूअर बोला- प्रिये! तुम वीरोंके उत्तम धर्मको नहीं जानती; सुनो, मैं इस समय तुम्हें वही बताता हूँ। यदि योद्धा शत्रुके प्रार्थना करने या ललकारनेपर भीकाम, लोभ, भय अथवा मोहके कारण उसे युद्धका अवसर नहीं देता, वह एक हजार युगौतक कुम्भीपाक नामक नरकमें निवास करता है। वीर पुरुष युद्धमें शत्रुका सामना करके यदि उसे जीत लेता है तो यश और कीर्तिका उपभोग करता है; अथवा निर्भयतापूर्वक लड़ता हुआ यदि स्वयं ही मारा जाता है, तो वीरलोकको प्राप्त हो दिव्य भोगोंका उपभोग करता है। प्रिये! बीस हजार वर्षोंतक वह इस सुखका अनुभव करता है। मनुपुत्र राजा इक्ष्वाकु यहाँ पधारे हैं, जो स्वयं बड़े वीर हैं। ये मुझसे युद्ध चाहें तो मुझे अवश्य ही इन्हें युद्धका अवसर देना चाहिये। शुभे ! महाराज युद्धके अतिथि होकर आये हैं और अतिथि सनातन श्रीविष्णुका स्वरूप होता है; अतः युद्धरूपसे इनका सत्कार करना मेरा आवश्यक कर्तव्य है।
शूकरी बोली- प्राणनाथ! यदि आप महात्मा राजाको युद्धका अवसर प्रदान करेंगे तो मैं भी आपके साथ रहकर आपका पराक्रम देखूँगी।
यो कहकर शूकरीने तुरंत अपने प्यारे पुत्रोंको बुलाया और कहा- 'बच्चो! मेरी बात सुनोः युद्धभूमिमें सनातन विष्णुरूप अतिथि पधारे हैं, उनके सत्कार के लिये मेरे स्वामी जायेंगे इनके साथ मुझे भी नहीं जाना चाहिये। तुम्हारी रक्षा करनेवाले प्राणनाथ जबतक यहाँ उपस्थित हैं, तभीतक तुम दूरके पर्वतकी किसी दुर्गम गुफामें चले जाओ। पुत्रो! मनुपुत्र इक्ष्वाकु बड़े बलवान् और दुर्दमनीय राजा हैं; ये हमलोगोंके लिये कालस्वरूप हैं, सबका संहार कर डालेंगे। अतः तुम दूर भाग जाओ।'
पुत्रोंने कहा- जो माता-पिताको [संकटमें ] छोड़कर जाता है, वह पापात्मा है, उसे महारौद्र एवं अत्यन्त घोर नरकमें गिरना पड़ता है, यह उसके लिये अनिवार्य गति है। जो निर्दयी अपनी माताके पवित्र दूधको पीकर परिपुष्ट होता है और माँ-बापको [विपत्तिमें] छोड़कर चल देता है, वह कीड़ों और दुर्गन्धसे परिपूर्ण नरकमें पड़कर सदा पीका भोजन करता है। इसलिये माँ! हमलोग पिताको और तुम्हेंयहाँ छोड़कर नहीं जायँगे । ऐसा निश्चय करके समस्त शूकर मोर्चा बाँधकर खड़े हो गये। वे सभी बल और तेजसे सम्पन्न थे। उधर अयोध्याके वीर महाराज मनुकुमार इक्ष्वाकु अपनी सुन्दरी भार्या तथा चतुरंगिणी सेनाके साथ आखेटके लिये चले। उनके आगे-आगे व्याध, कुत्ते और तेज चलनेवाले वीर योद्धा थे। वे लोग उस स्थानके समीप गये, जहाँ बलवान् शूकर अपनी पत्नीके साथ मौजूद था। छोटे-बड़े बहुत-से सूअर सब ओरसे उसकी रक्षा कर रहे थे। गंगाके किनारे मेरु पर्वतकी तराईमें पहुँचकर महाराज इक्ष्वाकुने व्याधोंसे कहा- 'बड़े-बड़े वीर योद्धाओंको शूकरका सामना करनेके लिये भेजो।' इस प्रकार महाराजकी आज्ञासे भेजे हुए बलवान्, तेजस्वी तथा पराक्रमी योद्धा हाँका डालते हुए दौड़े और वायुके समान वेगसे चलकर तत्काल शूकरके पास जा पहुँचे। वनचारी व्याध अपने तीखे बाणों तथा चमचमाते हुए नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंसे वीरोंका बाना बाँधकर खड़े हुए और उस वराहको बाँधने लगे।
यह देख वह यूथपति वराह अपने सैकड़ों पुत्र, पौत्र तथा बान्धवोंके साथ युद्धके मैदानमें आ धमका और शत्रुओंपर टूट पड़ा। वह बड़े वेगसे उनका संहार करने लगा। व्याध उसकी पैनी दाढ़ोंसे घायल हो होकर समरभूमिमें गिरने लगे। तदनन्तर शूकरों और व्याधोंमें भयानक संग्राम आरम्भ हुआ। वे क्रोधसे लाल आँखें किये एक-दूसरेको मारने लगे। व्याधोंने बहुतेरे शूकरोंको और शुकरोंने अनेक व्याधोंको मार गिराया। वहाँकी जमीन खूनसे रँग गयी। कितने ही सूअर मर-खप गये, कितने घायल हुए और कितने ही भाग भागकर बीहड़ स्थानों, झाड़ियों, कन्दराओं और अपनी अपनी माँदोंमें जा घुसे। यही दशा व्याधोंकी भी हुई। कितने ही मर गये, कितने ही सूअरोंकी पैनी दादोंके आघातसे कट गये और कितने ही टुकड़े टुकड़े होकर प्राण त्याग स्वर्गलोकको चले गये। केवल वह बलाभिमानी वराह अपनी पत्नी तथा पाँच-सातपुत्र-पौत्रोंके साथ युद्धकी इच्छासे मैदानमें डटा रहा।
उस समय शूकरीने उससे कहा - 'नाथ ! मुझे और इन
बालकोंको साथ लेकर अब यहाँसे चले चलो।' शूकरने कहा – महाभागे ! दो सिंहाँके बीचमें पानी पी सकता है, किन्तु दो सूअरोंके बीचमें सूअर सिंह नहीं पी सकता । सूअर जातिमें ऐसा उत्तम बल देखा जाता है। यदि मैं संग्राममें पीठ दिखाकर चला जाऊँ तो उस बलका नाश ही करूँगा-मेरी जातिकी प्रसिद्धि ही नष्ट हो जायगी। मुझे परम कल्याणदायक धर्मका ज्ञान है। जो योद्धा काम, लोभ अथवा भयसे युद्धतीर्थका त्याग करके भाग जाता है, यह निस्सन्देह पापी है जो तीखे शस्त्रोंका व्यूह देखकर प्रसन्न होता है और रणसिन्धुमें गोता लगाकर तीर्थके पार पहुँच जाता है, वह अपने आगेकी सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है और अन्तमें विष्णुधामको जाता है। जो अस्त्र शस्त्रोंसे सुसज्जित योद्धाको सामने आते देख प्रसन्नतापूर्वक उसकी ओर बढ़ता है, उसके पुण्य फलका वर्णन सुनो- 'उसे पग-पगपर गंगा स्नानका महान् फल प्राप्त होता हैं। जो काम या लोभवश युद्धसे भागकर घरको चला जाता है, वह अपनी माताके दोषको प्रकाशित करता है और व्यभिचारसे उत्पन्न कहलाता है। मैं इस वीर-धर्मको जानता हूँ, अतः युद्ध छोड़कर भाग कैसे सकता हूँ। तुम बच्चोंको लेकर यहाँसे चली जाओ और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करो।
पतिकी बात सुनकर शूकरी बोली- 'प्रिय ! मैं तुम्हारे स्नेह बन्धनमें बँधी हूँ तुमने प्रेम, आदर, हास-परिहास तथा रति-क्रीड़ा आदिके द्वारा मेरे मनको बाँध लिया है। अतः मैं पुत्रोंके साथ तुम्हारे सामने प्राण त्याग करूंगी।' इस तरह बातचीत करके एक- दूसरेका हित चाहनेवाले दोनों पति पत्नीने युद्धका ही निश्चय किया। कोसलसम्राट् इक्ष्वाकुने देखा वर्षकि समय आकाशमें मेघ जिस प्रकार बिजलीकी चमकके साथ गर्जते हैं, उसी तरह अपनी पत्नीके साथ शुकर भी गर्जना करता है और अपने खुरोंके अग्रभागसे मानो महाराजकोयुद्धके लिये ललकार रहा है।
अपनी दुर्द्धर्ष सेनाको उस दुर्द्धर्ष वराहके द्वारा परास्त होते देख राजा इक्ष्वाकुको बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने धनुष और कालके समान भयंकर बाण लेकर अश्वके द्वारा बड़े वेगसे शूकरपर आक्रमण किया। उन्हें आते देख सूअर भी आगे बढ़ा। वह घोड़ेके पैरोंके नीचे आ गया, इतनेमें ही राजाने उसे अपने तीखे आणका निशाना बनाया सूअर घायल होकर बड़े वेगसे उछला और घोड़ेसहित राजाको लाँघ गया। उसने अपनी दादोंसे मारकर घोड़के पैरोंमें घाव कर दिया था। इससे उसको बड़ी पीड़ा हो रही थी, उससे चला नहीं जाता था; अन्ततोगत्वा वह पृथ्वीपर गिर पड़ा। तब राजा एक छोटे-से रथपर सवार हो गये। यूथपति सूअर अपनी जातिके स्वभावानुसार रणभूमिमें भयंकर गर्जना कर रहा था, इतनेमें ही कोसलसम्राट्ने उसके ऊपर गदासे प्रहार किया। गदाका आघात पाकर उसने शरीर त्याग दिया और भगवान् श्रीविष्णुके श्रेष्ठ धाममें प्रवेश किया। इस प्रकार महाराज इक्ष्वाकुके साथ युद्ध करके वह शूकरराज हवा वेगसे उखड़कर गिरे हुए वृक्षकी भाँति पृथ्वीपर गिर पड़ा। उस समय देवता उसके ऊपरफूलोंकी वर्षा कर रहे थे।
तदनन्तर वे समस्त शूर, क्रूर और भयंकर व्याध हाथोंमें पाश लिये उस शूकरीकी ओर चले। शूकरी अपने चार बच्चोंको घेरकर खड़ी थी। उस महासमरमें कुटुम्बसहित अपने पतिको मारा गया देख वह शोकसे मोहित होकर पुत्रोंसे बोली- 'बच्चो। जबतक मैं यहाँ खड़ी हूँ, तबतक शीघ्र गतिसे अन्यत्र भाग जाओ।' यह सुनकर उनमेंसे ज्येष्ठ पुत्रने कहा-'मैं जीवनके लोभसे अपनी माताको संकटमें छोड़कर चला जाऊँ, यह कैसे हो सकता है। माँ यदि मैं ऐसा करू तो मेरे जीवनको धिक्कार है। मैं अपने पिताके वैरका बदला लूँगा। युद्धमें शत्रुको परास्त करूँगा। तुम मेरे तीनों छोटे भाइयोंको लेकर पर्वतको कन्दरामें चली जाओ। जो माता-पिताको विपत्तिमें छोड़कर जाता है, वह पापात्मा है। उसे कोटि-कोटि कीड़ोंसे भरे हुए नरकमें गिरना पड़ता है।' बेटेकी बात सुनकर शूकरी दुःखसे आतुर होकर बोली- 'आह, मेरे बच्चे ! मैं महापापिनी तुझे छोड़कर कैसे जा सकती हूँ। मेरे ये तीन पुत्र भले ही चले जायें।'
ऐसा निश्चय करके उन दोनों माँ-बेटेने शेष तीन बच्चोंको आगे कर लिया और व्याधोंके देखते-देखते वे विकट मार्गसे जाने लगे। समस्त शूकर अपने तेज और बलसे जोशमें आकर बारंबार गरज रहे थे। इसी बीचमें वे शूरवीर व्याध वेगसे चलकर वहाँ आ पहुँचे। शूकरी और शूकर- दोनों माँ-बेटे व्याधोंका मार्ग रोककर खड़े हो गये। व्याध तलवार, बाण और धनुष लिये अधिक समीप आ गये और तीखे तोमर, चक्र तथा मुसलोंका प्रहार करने लगे। ज्येष्ठ पुत्र माताको पीछे करके व्याधोंके साथ युद्ध करने लगा। कितनोंको दाढ़ोंसे कुचलकर उसने मार डाला। कितनोंको थूथनोंकी चोटसे धराशायी कर दिया और कितनोंको खुरोंके अग्रभागसे मारकर मौतके घाट उतार दिया। बहुत-से शूरवीर रणभूमिमें ढेर हो गये। राजा इक्ष्वाकु संग्राममें सूअरको युद्ध करते देखकर और उसे पिताके समान ही शूरवीर जानकर स्वयं उसके सामने आये। महातेजस्वी, प्रतापी मनुकुमारके हाथमें धनुष-बाण थे। उन्होंने अर्धचन्द्राकारतीखे बाणसे शूकरपर प्रहार किया। उसकी छाती गयी और वह राजाके हाथसे घायल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। गिरते ही उसके प्राण पखेरू उड़ गये। पुत्रके शोक और मोहसे अत्यन्त व्याकुल होकर शूकरी उसकी लाशपर गिर पड़ी; फिर सँभलकर उसने अपने थूथनसे ऐसा प्रहार किया, जिससे अनेकों शूरवीर धरतीपर सो गये। कितने ही व्याथ धराशायी हुए, कितने ही भाग गये और कितने ही कालके गाल में चले गये। शुकरी अपने दादोंके प्रहारसे राजाकी विशाल सेनाको खदेड़ने लगी।
यह देख काशीनरेश देवराजकी पुत्री महारानी सुदेवाने अपने पतिसे कहा- 'प्राणनाथ! इस शूकरीने आपकी बहुत बड़ी सेनाका विध्वंस कर डाला; फिर भी आप इसकी उपेक्षा क्यों कर रहे हैं? मुझे इसका कारण बताइये।' महाराजने उत्तर दिया- 'प्रिये! यह स्त्री है। स्त्रीके वधसे देवताओंने बहुत बड़ा पाप बताया है; इसीलिये मैं इस शूकरीको न तो स्वयं मारता हूँ और न किसी दूसरेको ही इसे मारनेके लिये भेज रहा हूँ। इसके बधके कारण होनेवाले पापसे मुझे भय लगता है।' यों कहकर महाबुद्धिमान् राजा चुप हो गये। व्याधोंमें एकका नाम भार्गव था; उसने देखा - शूकरी समस्त वीरोंका संहार कर रही है, बड़े-बड़े सूरमा भी उसके सामने टिक नहीं पाते हैं। यह देख व्याधने बड़े वेगसे एक पैने बाणका प्रहार किया और उस शूकरीको बींध डाला। शूकरीने भी झपटकर व्याधको पछाड़ दिया। व्याधने गिरते-गिरते शुकरीपर तेज धारवाली तलवारका भरपूर हाथ जमाया। वह बुरी तरहसे घायल होकर गिर पड़ी और धीरे-धीरे साँस लेती हुई मूर्च्छित हो गयी।
रानी सुदेवाने उस पुत्रवत्सला शूकरीको जब धरतीपर गिरकर बेहोश होते और ऊपरको श्वास लेते देखा तो उनका हृदय करुणासे भर आया। वे उस दुःखिनीके पास गयीं और ठंडे जलसे उसका मुँह धोया, फिर समस्त शरीरपर पानी डाला। इससे शूकरीको कुछ होश हुआ । उसने रानीको पवित्र एवं शीतल जलसे अपने शरीरका अभिषेक करते देख मनुष्योंकी बोलीमेंकहा-'देवि! तुमने मेरा अभिषेक किया है, इसलिये तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे दर्शन और स्पर्शसे आज मेरी पापराशि नष्ट हो गयी।' पशुके मुखसे यह अद्भुत वचन सुनकर रानी सुदेवाको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे मन-ही-मन कहने लगीं- 'यह तो आज मैंने विचित्र बात देखी; पशु-जातिकी यह मादा इतनी स्पष्ट, सुन्दर, स्वर और व्यंजनसे युक्त तथा उत्तम संस्कृत बोल रही है!' महाभागा सुदेवा इस घटनासे हर्षमग्न होकर अपने पतिसे बोलीं- 'राजन् ! इधर देखिये, यह अपूर्व जीव है; पशु जातिकी स्त्री होकर भी मानवीकी भाँति उत्तम संस्कृत बोल रही है।' इसके बाद रानीने शूकरीसे उसका परिचय पूछा- 'भद्रे ! तुम कौन हो ? तुम्हारा बर्ताव तो बड़ा विचित्र दिखायी देता है; तुम पशुयोनिकी स्त्री होकर भी मनुष्योंकी तरह बोलती हो। अपने और अपने स्वामी के पूर्व जन्मका वृत्तान्त सुनाओ।'
शूकरी बोली-देवि ! मेरे पति पूर्वजन्ममें संगीत त-कुशल गन्धर्व थे इनका नाम रंगविद्याधर था। [कुछ लोग इन्हें गीतविद्याधर भी कहते थे] ये सब थे। एक समयकी बात है, महातेजस्वीमुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी मनोहर कन्दराओं और झरनोंसे सुशोभित गिरिवर मेरुपर निष्कपट भावसे तपस्या कर रहे थे। रंगविद्याधर अपनी इच्छाके अनुसार उस स्थानपर गये और एक वृक्षकी छायामें बैठकर गानेका अभ्यास करने लगे। उनका मधुर संगीत सुनकर मुनिका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया। वे गायकके पास जाकर बोले- 'विद्वन्! तुम्हारे गीतके उत्तम स्वर, ताल, लय और मूर्च्छनायुक्त भावसे मेरा मन ध्यानसे विचलित हो गया है। जब मन निश्चल होता है, तभी समस्त विद्याएँ प्राणियोंको सिद्धि प्रदान करती हैं। मन एकाग्र होनेपर ही तप और मन्त्रोंकी सिद्धि होती है। इन्द्रियोंका यह महान् समुदाय अधम और चंचल है; यह मनको ध्यानसे हटाकर सदा विषयोंकी ओर ही ले जाता है। इसलिये जहाँ शब्द, रूप तथा युवती स्त्रीका अभाव होता है, वहीं मुनिलोग अपने तपकी सिद्धिके लिये जाया करते हैं । [तुम्हारे इस संगीतसे मेरे ध्यानमें बाधा पड़ती है] अतः मेरा अनुरोध है कि तुम इस स्थानको छोड़कर कहीं अन्यन्त्र चले जाओ; अन्यथा मुझे ही यह स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाना पड़ेगा।'गीतविद्याधरने कहा – महामते। जिस महात्माने इन्द्रियोंके समुदाय तथा उसके बलको जीत लिया है, उसीको तपस्वी, योगी, धीर और साधक कहते हैं। आप जितेन्द्रिय नहीं हैं, इसीलिये तेजसे हीन हैं। ब्रह्मन् ! यह वन सबके लिये साधारण है-इसपर सबका समान अधिकार है; इसमें कोई 'ननु नच' नहीं हो सकता। जैसे इसके ऊपर देवताओं और सम्पूर्ण जीवोंका स्वत्व है, उसी प्रकार मेरा और आपका भी है। ऐसी दशामें मैं इस उत्तम वनको छोड़कर क्यों चला जाऊँ? आप जायँ, चाहे रहें; मुझे इसकी परवा नहीं है।
विप्रवर पुलस्त्यजी धर्मात्मा हैं; इसलिये वे क्षमा करके स्वयं ही उस स्थानको छोड़कर अन्यत्र चले गये और योगासनसे बैठकर तपस्या करने लगे। महाभाग मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यके चले जानेपर दीर्घकालके पश्चात् गन्धर्वको पुनः उनका स्मरण हो आया। वे सोचने लगे- 'मुनि मेरे ही भयसे भाग गये थे― चलूँ, देखूँ । कहाँ गये? क्या करते हैं और कहाँ रहते हैं?' यह विचारकर गीतविद्याधरने पहले महर्षिके स्थानका पता लगाया और फिर वराहका रूप धारण करके वे उनके उत्तम आश्रमपर गये, जहाँ पुलस्त्यजी आसनपर विराजमान थे। उनके शरीरसे तेजकी ज्वाला उठ रही थी। किन्तु मेरे पतिपर इसका कुछ प्रभाव न पड़ा, वे कुचेष्टापूर्वक थूथनके अग्रभागसे उन नियमशील ब्राह्मणका तिरस्कार करने लगे। यहाँतक कि उनके आगे जाकर उन्होंने मल-मूत्रतक कर दिया; किन्तु पशु जानकर मुनिने उनको छोड़ दिया-दण्ड नहीं दिया। [ मुनिकी इस क्षमाका मेरे पतिपर उलटा ही असर हुआ, उनकी उद्दण्डता और भी बढ़ गयी।] एक दिन शूकरकेही रूपमें वे फिर वहाँ गये और बारंबार अट्टहास करने लगे। कभी ठहाका मारकर हँसते, कभी रोते और कभी मधुर स्वरसे गीत गाते थे।
सूअरकी चेष्टा छिपी देखकर मुनि समझ गये कि हो न हो, यह वही नीच गन्धर्व है और मुझे ध्यानसे विचलित करनेकी चेष्टा कर रहा है। फिर तो उन्हें बड़ा क्रोध हुआ। वे शाप देते हुए बोले—'ओ महापापी! तू शूकरका रूप धारण करके मुझे इस प्रकार विचलित कर रहा है, इसलिये अब शूकरकी ही योनिमें जा।' देवि! यही मेरे पतिके शूकरयोनिमें पड़नेका वृत्तान्त है। यह सब मैंने तुम्हें सुना दिया। अब अपना हाल बताती हूँ, सुनो। पूर्वजन्ममें मुझ पापिनीने भी घोर पातक किया है।