भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजेन्द्र सुकला के मनमें केवल पतिका ही ध्यान था और पतिकी ही कामना थी। उसके सतीत्वका प्रभाव देवराज इन्द्रने भी भलीभीत देखा तथा उसके विषयमें पूर्णतया विचार करके वे मन-ही-मन कहने लगे—'मैं इसके अविचल धैर्य [और धर्म] को नष्ट कर दूँगा।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने तुरंत ही कामदेवका स्मरण किया। महाबलीकामदेव अपनी प्रिया रतिके साथ वहाँ आ गये और हाथ जोड़कर इन्द्रसे बोले-'नाथ ! इस समय किसलिये आपने मुझे याद किया है? आज्ञा दीजिये, मैं सब प्रकारसे उसका पालन करूँगा।'
इन्द्रने कहा— कामदेव ! यह जो पातिव्रत्यमें तत्पर रहनेवाली महाभागा सुकला है, वह परम पुण्यवती और मंगलमयी है; मैं इसे अपनी ओर आकर्षित करनाचाहता हूँ। इस कार्यमें तुम मेरी पूरी तरहसे सहायता करो ।
कामदेवने उत्तर दिया 'सहस्रलोचन! मैं आपकी इच्छापूर्ति के लिये आपकी सहायता अवश्य करूँगा। देवराज! मैं देवताओं, मुनियों और बड़े-बड़े ऋषीश्वरोंको भी जीतनेकी शक्ति रखता हूँ फिर एक साधारण कामिनीको, जिसके शरीरमें कोई बल ही नहीं होता, जीतना कौन बड़ी बात है मैं कामिनियोंके विभिन्न अंगोंमें निवास करता हूँ। नारी मेरा घर है उसके भीतर मैं सदा मौजूद रहता हूँ। अतः भाई, पिता, स्वजन सम्बन्धी या बन्धु बान्धव-कोई भी क्यों न हो, यदि उसमें रूप और गुण है तो वह उसे देखकर मेरे बाणोंसे घायल हो ही जाती है। उसका चित्त चंचल हो जाता है, वह परिणामकी चिन्ता नहीं करती। इसलिये देवेश्वर में मुकलाके सतीत्वको अवश्य नष्ट करूँगा।'
इन्द्र बोले- मनोभव! मैं रूपवान् गुणवान् और धनी बनकर कौतूहलवश इस नारीको [ धर्म और ] धैर्य विचलित करूँगा।
कामदेवसे यों कहकर देवराज इन्द्र उस स्थानपर गये, जहाँ कृकल वैश्यकी प्यारी पत्नी सुकला देवी निवास करती थी। वहाँ जाकर वे अपने हाव-भाव, रूप और गुण आदिका प्रदर्शन करने लगे। रूप और सम्पत्तिसे युक्त होनेपर भी उस पराये पुरुषपर सुकला दृष्टि नहीं डालती थी; परन्तु वह जहाँ-जहाँ जाती, वहीं-वहीं पहुँचकर इन्द्र उसे निहारते थे। इस प्रकार सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अपने सम्पूर्ण भावोंसे कामजनित चेष्टा प्रदर्शित करते हुए चाहभरे हृदयसे उसकी ओर देखते थे। इन्द्रने उसके पास अपनी दूती भी भेजी। वह मुसकराती हुई गयी और मन ही मन सुकलाको प्रशंसा करती हुई बोली-'अहो इस नारीमें कितना सत्य, कितना धैर्य, कितना तेज और कितना क्षमाभाव है। संसार में इसके रूपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई भी सुन्दरी नहीं है।' इसके बाद उसने सुकलासे पूछा-'कल्याणी! तुम कौन हो, किसको पत्नी हो ? जिस पुरुषको तुम जैसी गुणवती भार्या प्राप्त है, वहीइस पृथ्वीपर पुण्यका भागी है।'
दूतीकी बात सुनकर मनस्विनी सुकलाने कहा 'देवि! मेरे पति वैश्य जातिमें उत्पन्न, धर्मात्मा और सत्यप्रेमी हैं; उन्हें लोग कुकल कहते हैं। मेरे स्वामीकी बुद्धि उत्तम है, उनका चित्त सदा धर्ममें ही लगा रहता है। वे इस समय तीर्थ-यात्रा के लिये गये हैं; उन्हें गये आज तीन वर्ष हो गये। अतः उन महात्माके बिना मैं बहुत दुःखी हूँ। यही मेरा हाल है। अब यह बताओ कि तुम कौन हो, जो मुझसे मेरा हाल पूछ रही हो ?' सुकलाका कथन सुनकर दूतीने पुनः इस प्रकार कहना आरम्भ किया- 'सुन्दरी ! तुम्हारे स्वामी बड़े निर्दयी हैं, जो तुम्हें अकेली छोड़कर चले गये। वे अपनी प्रिय पत्नीके घातक जान पड़ते हैं, अब उन्हें लेकर क्या करोगी। जो तुम जैसी साध्वी और सदाचार-परायणा पत्नीको छोड़कर चले गये, वे पापी नहीं तो क्या हैं। बाले ! अब तो वे गये; अब उनसे तुम्हारा क्या नाता है। कौन जाने वे वहाँ जीवित हैं या मर गये। जीते भी हों तो उनसे तुम्हें क्या लेना है। तुम व्यर्थ ही इतना खेद करती हो। इस सोने-जैसे शरीरको क्यों नष्ट करती हो मनुष्य बचपनमें खेल-कूदके सिवा और किसी सुखका अनुभव नहीं करता। बुढ़ापा आनेपर जब जरावस्था शरीरको जीर्ण बना देती है, तब दुःख ही दुःख उठाना रह जाता है। इसलिये सुन्दरी! जबतक जवानी है, तभीतक संसारके सम्पूर्ण सुख और भोग भोग लो। मनुष्य जबतक जवान रहता है, तभीतक वह भोग भोगता है। सुख भोग आदिकी सब सामग्रियोंका इच्छानुसार सेवन करता है। इधर देखो ये एक पुरुष आये हैं, जो बड़े सुन्दर गुणवान् सर्वज्ञ, धनी तथा पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं। तुम्हारे ऊपर इनका बड़ा स्नेह है ये सदा तुम्हारे हित साधनके लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इनके शरीरमें कभी बुढ़ापा नहीं आता। स्वयं तो ये सिद्ध हैं ही, दूसरोंको भी उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं। उत्तम सिद्ध और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं। लोकमें अपने स्वरूपसे सबकी कामना पूर्ण करते हैं।
सुकला बोली- दूती ! यह शरीर मल-मूत्रकाlखजाना है, अपवित्र है; सदा ही क्षय होता रहता है। शुभे! यह पानीके बुलबुलेके क्षणभंगुर है। फिर इसके रूपका क्या वर्णन करती हो। पचास वर्षकी अवस्थातक ही यह देह दृढ़ रहती है, उसके बाद प्रतिदिन क्षीण होती जाती है। भला, बताओ तो, मेरे इस शरीरमें ही तुमने ऐसी क्या विशेषता देखी है, जो अन्यत्र नहीं है। उस पुरुषके शरीरसे मेरे शरीरमें कोई भी वस्तु अधिक नहीं है। जैसी तुम, जैसा वह पुरुष, वैसी ही मैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है, ऊँचे उठनेका परिणाम पतन ही है। ये बड़े-बड़े वृक्ष और पर्वत कालसे पीड़ित होकर नष्ट हो जाते हैं। यही दशा सम्पूर्ण भूतोंकी है-इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं दूती! आत्मा दिव्य है। वह रूपहीन है। स्थावर-जंगम सभी प्राणियोंमें वह व्याप्त है। जैसे एक ही जल भिन्न-भिन्न घड़ोंमें रहता है, उसी प्रकार एक ही शुद्ध आत्मा सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करता है। घड़ोंका नाश होनेसे जैसे सब जल मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार आत्माकी भी एकता समझो [स्थूल सूक्ष्म और कारणरूप] त्रिविध शरीरका नाश होनेपर पंचकोशके सम्बन्धसे पाँच प्रकारका प्रतीत होनेवाला आत्मा एकरूप हो जाता है। संसारमें निवास करनेवाले प्राणियोंका मैंने सदा एक ही रूप देखा है। [किसीमें कोई अपूर्वता नहीं है।] कामको खुजलाहट सब प्राणियोंको होती है। उस समय स्त्री और पुरुष दोनोंकी इन्द्रियोंमें उत्तेजना पैदा हो जाती है, जिससे वे दोनों प्रमत्त होकर एक दूसरे से मिलते हैं। शरीरसे शरीरको रगड़ते हैं। इसीका नाम मैथुन है। इससे क्षणभरके लिये सुख होता है, फिर वैसी ही दशा हो जाती है। दूती! सर्वत्र यही बात देखी जाती है। इसलिये अब तुम अपने स्थानको लौट तुम्हारे प्रस्तावित कार्यमें कोई नवीनता नहीं है। कम-से-कम मेरे लिये तो इसमें कोई अपूर्व बात नहीं
जान पड़ती अतः मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती। भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-सुकलाके याँ दूती चली गयी। उसने इन्द्रसे उसकी कही | हुई सारी बातें संक्षेपमें सुना दी। सुकलाका भाषण सत्यऔर धर्मसे युक्त था। उसके साहस, धैर्य और ज्ञानकी आलोचना करके इन्द्र मन ही मन सोचने लगे- 'इस पृथ्वीपर दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं है, जो इस तरहकी बात कह सके। इसका वचन योगस्वरूप, निश्चयात्मक तथा ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित है। इसमें सन्देह नहीं कि यह महाभागा सुकला परम पवित्र और सत्यस्वरूपा है। यह समस्त त्रिलोकीको धारण करनेमें समर्थ है।' यह विचारकर इन्द्रने कामदेवसे कहा- 'अब मैं तुम्हारे साथ कृकलपत्नी सुकलाको देखने चलूँगा।' कामदेवको अपने बलपर बड़ा घमंड था। वह जोशमें आकर इन्द्रसे बोला-'देवराज! जहाँ वह पतिव्रता रहती है, उस स्थानपर चलिये। मैं अभी चलकर उसके ज्ञान, वीर्य, बल, धैर्य, सत्य और पातिव्रत्यको नष्ट कर डालूँगा। उसकी क्या शक्ति है, जो मेरे सामने टिक सके।'
कामदेवकी बात सुनकर इन्द्रने कहा – 'काम! मैं जानता हूँ, यह पतिव्रता तुमसे परास्त होनेवाली नहीं है। यह अपने धर्ममय पराक्रमसे सुरक्षित है। इसका भाव बहुत सच्चा है। यह नाना प्रकारके पुण्य किया करती है। फिर भी मैं यहाँसे चलकर तुम्हारे तेज, बल और भयंकर पराक्रमको देखूंगा।' यह कहकर इन्द्र धनुर्धर वीर कामदेवके साथ चले। उनके साथ कामकी पत्नी रति और दूती भी थी। वह परम पुण्यमयी पतिव्रता अपने घरके द्वारपर अकेली बैठी थी और केवल पतिके ध्यानमें तन्मय हो रही थी। वह प्राणोंको वशमें करके स्वामीका चिन्तन करती हुई विकल्प-शून्य हो गयी थी। कोई भी पुरुष उसकी स्थितिकी कल्पना नहीं कर सकता था। उस समय इन्द्र अनुपम तेज और सौन्दर्यसे युक्त, विलास तथा हाव-भावसे सुशोभित अत्यन्त अद्भुत रूप धारण करके सुकलाके सामने प्रकट हुए। उत्तम विलास और कामभावसे युक्त महापुरुषको इस प्रकार सामने विचरण करते देख महात्मा कृकल वैश्यकी पत्नीने उसके रूप, गुण और तेजका तनिक भी सम्मान नहीं किया। जैसे कमलके पत्तेपर छोड़ा हुआ जल उस पत्तेको छोड़कर दूर चला जाता है-उसमें ठहरता नहीं, उसी प्रकार वह सती भी उस पुरुषकी ओर आकृष्ट नहीं हुई। महासती सुकलाका तेज सत्यकी रज्जुसे आवद्ध था [उस पुरुषकी दृष्टिसे बचनेके लिये] वह घरके भीतर चली गयी और अपने पतिमें ही अनुरक्त हो उन्हींका चिन्तन करने लगी।
इन्द्र सुकलाके शुद्ध भावको समझकर सामने खड़े हुए कामदेवसे बोले- 'इस सतीने सत्यरूप पतिके ध्यानका कवच धारण कर रखा है। [तुम्हारे बाग इसे चोट नहीं पहुँचा सकते.] अतः सुकलाको परास्त करना असम्भव है। यह पतिव्रता अपने हाथमें धर्मरूपी धनुष और ध्यानरूपी उत्तम बाण लेकर इस समय रणभूमिमें तुमसे युद्ध करनेको उद्यत है। अज्ञानी पुरुष ही त्रिलोकीके महात्माओंके साथ वैर बाँधते हैं। कामदेव इस सतीके तपका नाश करनेसे हम दोनोंको अनन्त एवं अपार दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये अब हमें इसे छोड़कर वहाँसे चल देना चाहिये। तुम जानते हो, पहले एक बार मैं सतीके साथ समागम करनेका पापमय परिणाम —असह्य दुःख भोग चुका हूँ। महर्षि गौतमने मुझे भयंकर शाप दिया था। आगकी लपटको छूतेका साहस कौन करेगा कौन ऐसा मूर्ख है, जो अपने गलेमें भारी पत्थर बांधकर समुद्रमें उतरना चाहेगा तथा किसको मौतके मुखमें जानेकी इच्छा है, जो सती स्त्रीको विचलित करनेका प्रयत्न करेगा।'
इन्द्रने कामदेवको उत्तम शिक्षा देनेके लिये बहुत ही नीतियुक्त बात कही; उसे सुनकर कामदेवने इन्द्रसे कहा- 'सुरेश ! मैं तो आपके ही आदेश से यहाँ आया था। अब आप धैर्य, प्रेम तथा पुरुषार्थका त्याग करके ऐसी पौरुषहीनता और कायरताकी बातें क्यों करते हैं। पूर्वकालमें मैंने जिन-जिन देवताओं, दानवों और तपस्या में अ लगे हुए मुनीश्वरोंको परास्त किया है, वे सब मेरा उपहास करते हुए कहेंगे कि 'यह कामदेव बड़ा डरपोक 1 है, एक साधारण स्त्रीने इसको क्षणभरमें परास्त कर है दिया।' इसलिये मैं अपने सम्मानरूपी धनकी रक्षा करूँगा और आपके साथ चलकर इस सतीके तेज, बल और धैर्यका नाश करूंगा आप डरते क्यों हैं। देवराजइन्द्रको इस प्रकार समझा-बुझाकर कामदेवने पुष्पयुक्त धनुष और बाण हाथमें ले लिये तथा सामने खड़ी हुई अपनी सखी क्रीड़ासे कहा- 'प्रिये ! तुम माया रचकर वैश्यपत्नी सुकलाके पास जाओ। वह अत्यन्त पुण्यवती, सत्यमें स्थित, धर्मका ज्ञान रखनेवाली और गुणज्ञ है। यहाँसे जाकर तुम मेरी सहायताके लिये उत्तम-से-उत्तम कार्य करो।' क्रीड़ासे यों कहकर वे पास ही खड़ी हुई प्रीतिको सम्बोधित करके बोले-'तुम्हें भी मेरी सहायताके लिये उत्तम कार्य करना होगा; तुम अपनी चिकनी चुपड़ी बातोंसे सुकलाको वशमें करो।' इस प्रकार अपने अपने कार्यमें लगे हुए वायु आदिके साथ उपर्युक्त व्यक्तियोंको भेजकर कामदेवने उस महासतीको मोहित करनेके लिये इन्द्रके साथ पुनः प्रयाण किया।
सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके उद्देश्यसे जब इन्द्र और कामदेव प्रस्थित हुए तब सत्यने धर्मसे कहा 'महाप्राज्ञ धर्म कामदेवकी जो चेष्टा हो रही है, उसपर दृष्टिपात करो। मैंने तुम्हारे, अपने तथा महात्मा पुण्यके लिये जो स्थान बनाया था, उसे यह नष्ट करना चाहता है। दुष्टात्मा काम हमलोगोंका शत्रु है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। सदाचारी पति, तपस्वी ब्राह्मण और पतिव्रता पत्नी ये तीन मेरे निवास स्थान हैं जहाँ मेरी वृद्धि होती है जहाँ मैं पुष्ट और सन्तुष्ट रहता हूँ, वहाँ तुम्हारा भी निवास होता है। श्रद्धाके साथ पुण्य भी वहाँ आकर क्रीड़ा करते हैं। मेरे शान्तियुक्त मन्दिरमें क्षमाका भी आगमन होता है। जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ सन्तोष, इन्द्रियसंयम, दया, प्रेम, प्रज्ञा और लोभहीनता आदि गुण भी निवास करते हैं। वहीं पवित्र भाव रहता है। ये सभी सत्यके बन्धु बान्धव हैं। धर्म! चोरी न करना, अहिंसा, सहनशीलता और बुद्धि-ये सब मेरे ही परमें आकर धन्य होते हैं। गुरु-शुश्रूषा, लक्ष्मीके साथ भगवान् श्रीविष्णु तथा अग्नि आदि देवता भी मेरे घरमें पधारते हैं। मोक्ष मार्गको प्रकाशित करनेवाले ज्ञान और उदारता आदिसे युक्त हो पूर्वोक्त व्यक्तियोंके साथ मैं धर्मात्मा पुरुषों और सती स्त्रियोंके भीतर निवास करता हूँ। ये जितने भी साधु-महात्मा हैं, सब मेरे गृहस्वरूप हैं;इन सबके भीतर मैं उक्त कुटुम्बियों के साथ वास करता हूँ। जो जगत्के स्वामी, त्रिशूलधारी, वृषभवाहन तथा साक्षात् ईश्वर हैं, वे कल्याणमय भगवान् शिव भी मेरे निवास स्थान हैं। कृकल वैश्यकी प्रियतमा भार्या मंगलमयी सुकला भी मेरा उत्तम गृह है; किन्तु आज पापी काम इसे भी जला डालनेको उद्यत हुआ है। ये बलवान् इन्द्र भी कामका साथ दे रहे हैं: कामकी ही करतूतसे अहल्याका संग करनेपर एक बार जो हानि उठानी पड़ी है, उस प्राचीन घटनाका इन्हें स्मरण क्यों नहीं होता। सतीके सतीत्वका नाश करनेसे ही इन्हें महान् दुःखमें पड़कर दुःसह शापका उपभोग करना पड़ा था। फिर भी आज कामदेवके साथ आकर ये धर्मचारिणी कृकलपत्नी सुकलाका अपहरण करनेको उतारू हुए हैं।'
धर्मने कहा- मैं कामका तेज कम कर दूँगा; [मैं यदि चाहूँ तो] उसकी मृत्युका भी कारण उपस्थित कर सकता हूँ। मैंने एक ऐसा उपाय सोच लिया है, जिससे यह काम आज ही भाग खड़ा होगा। यह महाप्रज्ञा पक्षिणीका रूप धारण करके सुकलाके पर जाय और अपने मंगलमय शब्दसे उसको स्वामीके शुभागमनकी सूचना दे।
धर्मके भेजनेसे प्रज्ञा सुकलाके घरमें गयी और वहाँ मंगलजनक शब्दका उच्चारण किया। सुकलाने धूप- गन्ध आदिके द्वारा उसका समादर और पूजन किया तथा सुयोग्य ब्राह्मणको बुलाकर पूछा- इस शकुनका क्या तात्पर्य है? मेरे पतिदेव कब आयेंगे ?'
ब्राह्मणने कहा— भद्रे ! यह शकुन तुम्हारे स्वामीके शुभागमनकी सूचना दे रहा है ये सात दिनसे पहले पहले यहाँ अवश्य आ जायेंगे। इसमें अन्तर नहीं हो सकता।
ब्राह्मणका यह मंगलमय वचन सुनकर सुकलाको बड़ी प्रसन्नता हुई।
उधर कामदेवकी भेजी हुई क्रीड़ा सती स्वीका रूप धारण करके उस सुन्दरी पतिव्रताके घर गयी। उस रूपवती नारीको आयी देख मुकलाने आदरयुक्त वचन कहकर उसका सम्मान किया और अपनेको धन्य माना।उसकी पुण्यमयी वाणीसे पूजित होकर क्रीड़ा मुसकराती हुई बातचीत करने लगी। उसका मायामय वचन विश्वको मोहित करनेवाला था। सुननेपर सत्य और विश्वासके योग्य जान पड़ता था। क्रीड़ा बोली- 'देवि! मेरे स्वामी बड़े बलवान्, गुणज्ञ, धीर तथा अत्यन्त पुण्यात्मा हैं; परन्तु मुझे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये हैं। वह मेरे पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है, जो आज इस रूपमें सामने आया है; मैं कैसी मन्दभागिनी हूँ। महाभागे नारियोंके लिये रूप, सौभाग्य, श्रृंगार, सुख और सम्पत्ति-सब कुछ पति ही है; यही शास्त्रोंका मत है।'
पतिव्रता सुकलाने क्रीड़ाकी ये सारी बातें सुनीं। उसे विश्वास हो गया कि यह सब कुछ इस दुःखिनी नारीके हृदयका सच्चा भाव है। वह उसके दुःखसे दुःखी हो गयी और अपनी बातें भी उसे बताने लगी। उसने पहलेका अपना सारा हाल थोड़ेमें कह सुनाया। अपने दुःख-सुखकी बात बताकर मनस्विनी सुकला चुप हो गयी; तब क्रीड़ाने उस पतिव्रताको सान्त्वना दी और बहुत कुछ समझाया बुझाया। तदनन्तर एक दिन उसने सुकलासे कहा-'सखी देखो, वह सामने बड़ा सुन्दर वन दिखायी दे रहा है अनेकों दिव्य वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वहाँ एक परम पवित्र पापनाशन तीर्थ है; वरानने! चलो, हम दोनों भी वहाँ -संचय करनेके लिये चलें।' पुण्य-
यह सुनकर सुकला उस मायामयी स्त्रीके साथ वहाँ जानेको राजी हो गयी। उसने वनमें प्रवेश करके देखा तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसमें नन्दन-वनकी शोभा उतर आयी है। सभी ऋतुओंके फूल खिले थे; सैकड़ों कोकिलौके कलरवसे सारा वन प्रान्त गूंज रहा था। माधवी लता और माधव (वसन्त) ने उस उपवनकी शोभाको सब भावोंसे परिपूर्ण बनाया था! सुकलाको मोहित करनेके लिये ही उसकी सृष्टि की गयी थी। उसने क्रीड़ाके साथ सबके मनको भानेवाले उस वनमें घूम-घूमकर अनेकों दिव्य कौतुक देखे इसी समय रतिके साथ काम और इन्द्र भी वहाँ आये। इन्द्र सम्पूर्ण भोगोंके अधिपति होकर भी काम-क्रीडाके लिये व्यग्र थे। उन्होंने कामदेवको पुकारकर कहा-'लो, यह सुकला आगयी, क्रीड़ाके आगे खड़ी है। इस महाभागा सतीपर प्रहार करो।'
कामदेव बोला सहसलोचन लीला और चातुरीसे युक्त अपने दिव्य रूपको प्रकट कीजिये, जिसका आश्रय लेकर मैं इसके ऊपर अपने पाँचों बाणोंका पृथक् पृथक् प्रहार करूँ। त्रिशूलधारी महादेवने मेरे रूपको पहले ही हर लिया। मेरा शरीर है ही नहीं। जब मैं किसी नारीको अपने बाणोंका निशाना बनाना चाहता हूँ, उस समय पुरुष शरीरका आश्रय लेकर अपने रूपको प्रकट करता हूँ। इसी तरह पुरुषपर प्रहार करनेके लिये मैं नारी- देहका आश्रय लेता हूँ। पुरुष जब पहले-पहल किसी सुन्दरी नारीको देखकर बारम्बार उसीका चिन्तन करने लगता है, तब मैं चुपकेसे उसके भीतर घुसकर उसे उन्मत्त बना देता हूँ। स्मरण चिन्तनसे मेरा प्रादुर्भाव होता है, इसीलिये मेरा नाम 'स्मर' हो गया है। आज मैं आपके रूपका आश्रय लेकर इस नारीको अपनी इच्छाके अनुसार नचाऊँगा। यों कहकर कामदेव इन्द्रके शरीरमें घुस गया और पुण्यमयी कृकल-पत्नी सती सुकलाको घायल करनेके लिये हाथमें बाण ले उत्कण्ठापूर्वक अवसरकी प्रतीक्षा करने लगा। वह उसके नेत्रोंको ही लक्ष्य बनाये बैठा था।
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन्। क्रीड़ाकी प्रेरणासे उस सुन्दर बनमें गयी हुई वैश्यपत्नी सुकलाने पूछा- 'सखी! यह मनोरम दिव्य वन किसका है ?" क्रीड़ा बोली- यह स्वभावसिद्ध दिव्य गुणोंसे युक्त सारा वन कामदेवका है, तुम भलीभाँति इसका निरीक्षण करो।
दुरात्मा कामकी यह चेष्टा देखकर सुन्दरी सुकलाने वायुके द्वारा लायी हुई वहाँके फूलोंको सुगन्धको नहीं ग्रहण किया। उस सतीने वहाँके रसोंका भी आस्वादन नहीं किया। यह देख कामदेवका मित्र वसन्त बहुत लज्जित हुआ। तत्पश्चात् कामदेवकी पत्नी रति प्रीतिको साथ लेकर आयी और सुकलासे हँसकर बोली- 'भद्रे ! तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ।तुम रति और प्रीतिके साथ यहाँ रमण करो।' सुकलाने कहा-'जहाँ मेरे स्वामी हैं, वहीं मैं भी हूँ मैं सदा पतिके साथ रहती हूँ। मेरा काम, मेरी प्रीति सब वहीं है। यह शरीर तो निराश्रय है-छायामात्र है।' यह सुनकर रति और प्रीति दोनों लज्जित हो गयीं तथा महाबली कामके पास जाकर बोली- 'महाप्राज्ञ अब आप अपना पुरुषार्थ छोड़ दीजिये, इस नारीको जीतना कठिन है। यह महाभागा पतिव्रता सदैव अपने पतिकी ही कामना रखती है।'
कामदेवने कहा- देवि! जब यह इन्द्रके रूपको देखेगी, उस समय मैं अवश्य इसे घायल करूँगा।
तदनन्तर देवराज इन्द्र परम सुन्दर दिव्य वेष धारण किये रतिके पीछे-पीछे चले; उनकी गतिमें अत्यन्त ललित विलास दृष्टिगोचर होता था सब प्रकारके आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य माला, दिव्य वस्त्र और दिव्य गन्धसे सुसज्जित हो वे पतिव्रता सुकलाके पास आये और उससे इस प्रकार बोले 'भद्रे! मैंने पहले तुम्हारे सामने दूती भेजी थी, फिर प्रीतिको रवाना किया। मेरी प्रार्थना क्यों नहीं मानती ? मैं स्वयं तुम्हारे पास आया हूँ, मुझे स्वीकार करो।'
सुकला बोली- मेरे स्वामीके महात्मा पुत्र (सत्य, धर्म आदि) मेरी रक्षा कर रहे हैं। मुझे किसीका भय नहीं है। अनेक शूरवीर पुरुष सर्वत्र मेरी रक्षाके लिये उद्यत रहते हैं। जबतक मेरे नेत्र खुले रहते हैं, तबतक मैं निरन्तर पतिके ही कार्यमें लगी रहती हूँ। आप कौन हैं, जो मृत्युका भी भय छोड़कर मेरे पास आये हैं?
इन्द्रने कहा- तुमने अपने स्वामीके जिन शूरवीर पुत्रोंकी चर्चा की है, उन्हें मेरे सामने प्रकट करो! मैं कैसे उन्हें देख सकूँगा।
सुकला बोली- इन्द्रिय-संयमके विभिन्न गुणोंद्वारा उत्तम धर्म सदा मेरी रक्षा करता है। वह देखो, शान्ति और क्षमाके साथ सत्य मेरे सामने उपस्थित है। महाबली सत्य बड़ा यशस्वी है। यह कभी मेरा त्याग नहीं करता। इस प्रकार धर्म आदि रक्षक सदा मेरी देख भाल किया करते हैं; फिर क्यों आप बलपूर्वक मुझेप्राप्त करना चाहते हैं। आप कौन हैं, जो निडर होकर इसके साथ यहाँ आये हैं? सत्य, धर्म, पुण्य और ज्ञान दूतीके आदि बलवान् पुत्र मेरे तथा मेरे स्वामीके सहायक हैं। वे सदा मेरी रक्षामें तत्पर रहते हैं। मैं नित्य सुरक्षित हूँ। इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहमें तत्पर रहती हूँ। साक्षात् शचीपति इन्द्र भी मुझे जीतनेकी शक्ति नहीं रखते। यदि महापराक्रमी कामदेव भी आ जाय तो मुझे कोई परवा नहीं है; क्योंकि मैं अनायास ही सतीत्वरूपी कवचसे सदा सुरक्षित हूँ। मुझपर कामदेवके बाण व्यर्थ हो जयेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उलटे महाबली धर्म आदि तुम्हींको मार डालेंगे। दूर हटो, भाग जाओ, मेरे सामने न खड़े होओ। यदि मना करनेपर भी खड़ेरहोगे तो जलकर खाक हो जाओगे। मेरे स्वामीकी अनुपस्थितिमें यदि तुम मेरे शरीरपर दृष्टि डालोगे तो जैसे आग सूखी लकड़ीको जला देती है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हें भस्म कर डालूँगी।"
सुकलाने जब यह कहा, तब तो उस सतीके भयंकर शापके डरसे व्याकुल हो सब लोग जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। इन्द्र आदिने अपने-अपने लोककी राह ली सबके चले जानेपर पुण्यमयी पतिव्रता सुकला पतिका ध्यान करती हुई अपने घर लौट आयी। वह घर पुण्यमय था। यहाँ सब तीर्थ निवास करते थे। सम्पूर्ण यज्ञोंकी भी वहाँ उपस्थिति थी। राजन्! पतिको ही देवता माननेवाली वह सती अपने उसी घरमें आकर रहने लगी।