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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 65 - Khand 2, Adhyaya 65

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सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजेन्द्र सुकला के मनमें केवल पतिका ही ध्यान था और पतिकी ही कामना थी। उसके सतीत्वका प्रभाव देवराज इन्द्रने भी भलीभीत देखा तथा उसके विषयमें पूर्णतया विचार करके वे मन-ही-मन कहने लगे—'मैं इसके अविचल धैर्य [और धर्म] को नष्ट कर दूँगा।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने तुरंत ही कामदेवका स्मरण किया। महाबलीकामदेव अपनी प्रिया रतिके साथ वहाँ आ गये और हाथ जोड़कर इन्द्रसे बोले-'नाथ ! इस समय किसलिये आपने मुझे याद किया है? आज्ञा दीजिये, मैं सब प्रकारसे उसका पालन करूँगा।'

इन्द्रने कहा— कामदेव ! यह जो पातिव्रत्यमें तत्पर रहनेवाली महाभागा सुकला है, वह परम पुण्यवती और मंगलमयी है; मैं इसे अपनी ओर आकर्षित करनाचाहता हूँ। इस कार्यमें तुम मेरी पूरी तरहसे सहायता करो ।

कामदेवने उत्तर दिया 'सहस्रलोचन! मैं आपकी इच्छापूर्ति के लिये आपकी सहायता अवश्य करूँगा। देवराज! मैं देवताओं, मुनियों और बड़े-बड़े ऋषीश्वरोंको भी जीतनेकी शक्ति रखता हूँ फिर एक साधारण कामिनीको, जिसके शरीरमें कोई बल ही नहीं होता, जीतना कौन बड़ी बात है मैं कामिनियोंके विभिन्न अंगोंमें निवास करता हूँ। नारी मेरा घर है उसके भीतर मैं सदा मौजूद रहता हूँ। अतः भाई, पिता, स्वजन सम्बन्धी या बन्धु बान्धव-कोई भी क्यों न हो, यदि उसमें रूप और गुण है तो वह उसे देखकर मेरे बाणोंसे घायल हो ही जाती है। उसका चित्त चंचल हो जाता है, वह परिणामकी चिन्ता नहीं करती। इसलिये देवेश्वर में मुकलाके सतीत्वको अवश्य नष्ट करूँगा।'

इन्द्र बोले- मनोभव! मैं रूपवान् गुणवान् और धनी बनकर कौतूहलवश इस नारीको [ धर्म और ] धैर्य विचलित करूँगा।

कामदेवसे यों कहकर देवराज इन्द्र उस स्थानपर गये, जहाँ कृकल वैश्यकी प्यारी पत्नी सुकला देवी निवास करती थी। वहाँ जाकर वे अपने हाव-भाव, रूप और गुण आदिका प्रदर्शन करने लगे। रूप और सम्पत्तिसे युक्त होनेपर भी उस पराये पुरुषपर सुकला दृष्टि नहीं डालती थी; परन्तु वह जहाँ-जहाँ जाती, वहीं-वहीं पहुँचकर इन्द्र उसे निहारते थे। इस प्रकार सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अपने सम्पूर्ण भावोंसे कामजनित चेष्टा प्रदर्शित करते हुए चाहभरे हृदयसे उसकी ओर देखते थे। इन्द्रने उसके पास अपनी दूती भी भेजी। वह मुसकराती हुई गयी और मन ही मन सुकलाको प्रशंसा करती हुई बोली-'अहो इस नारीमें कितना सत्य, कितना धैर्य, कितना तेज और कितना क्षमाभाव है। संसार में इसके रूपकी समानता करनेवाली दूसरी कोई भी सुन्दरी नहीं है।' इसके बाद उसने सुकलासे पूछा-'कल्याणी! तुम कौन हो, किसको पत्नी हो ? जिस पुरुषको तुम जैसी गुणवती भार्या प्राप्त है, वहीइस पृथ्वीपर पुण्यका भागी है।'

दूतीकी बात सुनकर मनस्विनी सुकलाने कहा 'देवि! मेरे पति वैश्य जातिमें उत्पन्न, धर्मात्मा और सत्यप्रेमी हैं; उन्हें लोग कुकल कहते हैं। मेरे स्वामीकी बुद्धि उत्तम है, उनका चित्त सदा धर्ममें ही लगा रहता है। वे इस समय तीर्थ-यात्रा के लिये गये हैं; उन्हें गये आज तीन वर्ष हो गये। अतः उन महात्माके बिना मैं बहुत दुःखी हूँ। यही मेरा हाल है। अब यह बताओ कि तुम कौन हो, जो मुझसे मेरा हाल पूछ रही हो ?' सुकलाका कथन सुनकर दूतीने पुनः इस प्रकार कहना आरम्भ किया- 'सुन्दरी ! तुम्हारे स्वामी बड़े निर्दयी हैं, जो तुम्हें अकेली छोड़कर चले गये। वे अपनी प्रिय पत्नीके घातक जान पड़ते हैं, अब उन्हें लेकर क्या करोगी। जो तुम जैसी साध्वी और सदाचार-परायणा पत्नीको छोड़कर चले गये, वे पापी नहीं तो क्या हैं। बाले ! अब तो वे गये; अब उनसे तुम्हारा क्या नाता है। कौन जाने वे वहाँ जीवित हैं या मर गये। जीते भी हों तो उनसे तुम्हें क्या लेना है। तुम व्यर्थ ही इतना खेद करती हो। इस सोने-जैसे शरीरको क्यों नष्ट करती हो मनुष्य बचपनमें खेल-कूदके सिवा और किसी सुखका अनुभव नहीं करता। बुढ़ापा आनेपर जब जरावस्था शरीरको जीर्ण बना देती है, तब दुःख ही दुःख उठाना रह जाता है। इसलिये सुन्दरी! जबतक जवानी है, तभीतक संसारके सम्पूर्ण सुख और भोग भोग लो। मनुष्य जबतक जवान रहता है, तभीतक वह भोग भोगता है। सुख भोग आदिकी सब सामग्रियोंका इच्छानुसार सेवन करता है। इधर देखो ये एक पुरुष आये हैं, जो बड़े सुन्दर गुणवान् सर्वज्ञ, धनी तथा पुरुषोंमें श्रेष्ठ हैं। तुम्हारे ऊपर इनका बड़ा स्नेह है ये सदा तुम्हारे हित साधनके लिये प्रयत्नशील रहते हैं। इनके शरीरमें कभी बुढ़ापा नहीं आता। स्वयं तो ये सिद्ध हैं ही, दूसरोंको भी उत्तम सिद्धि प्रदान करनेवाले हैं। उत्तम सिद्ध और सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं। लोकमें अपने स्वरूपसे सबकी कामना पूर्ण करते हैं।

सुकला बोली- दूती ! यह शरीर मल-मूत्रकाlखजाना है, अपवित्र है; सदा ही क्षय होता रहता है। शुभे! यह पानीके बुलबुलेके क्षणभंगुर है। फिर इसके रूपका क्या वर्णन करती हो। पचास वर्षकी अवस्थातक ही यह देह दृढ़ रहती है, उसके बाद प्रतिदिन क्षीण होती जाती है। भला, बताओ तो, मेरे इस शरीरमें ही तुमने ऐसी क्या विशेषता देखी है, जो अन्यत्र नहीं है। उस पुरुषके शरीरसे मेरे शरीरमें कोई भी वस्तु अधिक नहीं है। जैसी तुम, जैसा वह पुरुष, वैसी ही मैं- इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है, ऊँचे उठनेका परिणाम पतन ही है। ये बड़े-बड़े वृक्ष और पर्वत कालसे पीड़ित होकर नष्ट हो जाते हैं। यही दशा सम्पूर्ण भूतोंकी है-इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं दूती! आत्मा दिव्य है। वह रूपहीन है। स्थावर-जंगम सभी प्राणियोंमें वह व्याप्त है। जैसे एक ही जल भिन्न-भिन्न घड़ोंमें रहता है, उसी प्रकार एक ही शुद्ध आत्मा सम्पूर्ण भूतोंमें निवास करता है। घड़ोंका नाश होनेसे जैसे सब जल मिलकर एक हो जाता है, उसी प्रकार आत्माकी भी एकता समझो [स्थूल सूक्ष्म और कारणरूप] त्रिविध शरीरका नाश होनेपर पंचकोशके सम्बन्धसे पाँच प्रकारका प्रतीत होनेवाला आत्मा एकरूप हो जाता है। संसारमें निवास करनेवाले प्राणियोंका मैंने सदा एक ही रूप देखा है। [किसीमें कोई अपूर्वता नहीं है।] कामको खुजलाहट सब प्राणियोंको होती है। उस समय स्त्री और पुरुष दोनोंकी इन्द्रियोंमें उत्तेजना पैदा हो जाती है, जिससे वे दोनों प्रमत्त होकर एक दूसरे से मिलते हैं। शरीरसे शरीरको रगड़ते हैं। इसीका नाम मैथुन है। इससे क्षणभरके लिये सुख होता है, फिर वैसी ही दशा हो जाती है। दूती! सर्वत्र यही बात देखी जाती है। इसलिये अब तुम अपने स्थानको लौट तुम्हारे प्रस्तावित कार्यमें कोई नवीनता नहीं है। कम-से-कम मेरे लिये तो इसमें कोई अपूर्व बात नहीं

जान पड़ती अतः मैं कदापि ऐसा नहीं कर सकती। भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-सुकलाके याँ दूती चली गयी। उसने इन्द्रसे उसकी कही | हुई सारी बातें संक्षेपमें सुना दी। सुकलाका भाषण सत्यऔर धर्मसे युक्त था। उसके साहस, धैर्य और ज्ञानकी आलोचना करके इन्द्र मन ही मन सोचने लगे- 'इस पृथ्वीपर दूसरी कोई स्त्री ऐसी नहीं है, जो इस तरहकी बात कह सके। इसका वचन योगस्वरूप, निश्चयात्मक तथा ज्ञानरूपी जलसे प्रक्षालित है। इसमें सन्देह नहीं कि यह महाभागा सुकला परम पवित्र और सत्यस्वरूपा है। यह समस्त त्रिलोकीको धारण करनेमें समर्थ है।' यह विचारकर इन्द्रने कामदेवसे कहा- 'अब मैं तुम्हारे साथ कृकलपत्नी सुकलाको देखने चलूँगा।' कामदेवको अपने बलपर बड़ा घमंड था। वह जोशमें आकर इन्द्रसे बोला-'देवराज! जहाँ वह पतिव्रता रहती है, उस स्थानपर चलिये। मैं अभी चलकर उसके ज्ञान, वीर्य, बल, धैर्य, सत्य और पातिव्रत्यको नष्ट कर डालूँगा। उसकी क्या शक्ति है, जो मेरे सामने टिक सके।'

कामदेवकी बात सुनकर इन्द्रने कहा – 'काम! मैं जानता हूँ, यह पतिव्रता तुमसे परास्त होनेवाली नहीं है। यह अपने धर्ममय पराक्रमसे सुरक्षित है। इसका भाव बहुत सच्चा है। यह नाना प्रकारके पुण्य किया करती है। फिर भी मैं यहाँसे चलकर तुम्हारे तेज, बल और भयंकर पराक्रमको देखूंगा।' यह कहकर इन्द्र धनुर्धर वीर कामदेवके साथ चले। उनके साथ कामकी पत्नी रति और दूती भी थी। वह परम पुण्यमयी पतिव्रता अपने घरके द्वारपर अकेली बैठी थी और केवल पतिके ध्यानमें तन्मय हो रही थी। वह प्राणोंको वशमें करके स्वामीका चिन्तन करती हुई विकल्प-शून्य हो गयी थी। कोई भी पुरुष उसकी स्थितिकी कल्पना नहीं कर सकता था। उस समय इन्द्र अनुपम तेज और सौन्दर्यसे युक्त, विलास तथा हाव-भावसे सुशोभित अत्यन्त अद्भुत रूप धारण करके सुकलाके सामने प्रकट हुए। उत्तम विलास और कामभावसे युक्त महापुरुषको इस प्रकार सामने विचरण करते देख महात्मा कृकल वैश्यकी पत्नीने उसके रूप, गुण और तेजका तनिक भी सम्मान नहीं किया। जैसे कमलके पत्तेपर छोड़ा हुआ जल उस पत्तेको छोड़कर दूर चला जाता है-उसमें ठहरता नहीं, उसी प्रकार वह सती भी उस पुरुषकी ओर आकृष्ट नहीं हुई। महासती सुकलाका तेज सत्यकी रज्जुसे आवद्ध था [उस पुरुषकी दृष्टिसे बचनेके लिये] वह घरके भीतर चली गयी और अपने पतिमें ही अनुरक्त हो उन्हींका चिन्तन करने लगी।

इन्द्र सुकलाके शुद्ध भावको समझकर सामने खड़े हुए कामदेवसे बोले- 'इस सतीने सत्यरूप पतिके ध्यानका कवच धारण कर रखा है। [तुम्हारे बाग इसे चोट नहीं पहुँचा सकते.] अतः सुकलाको परास्त करना असम्भव है। यह पतिव्रता अपने हाथमें धर्मरूपी धनुष और ध्यानरूपी उत्तम बाण लेकर इस समय रणभूमिमें तुमसे युद्ध करनेको उद्यत है। अज्ञानी पुरुष ही त्रिलोकीके महात्माओंके साथ वैर बाँधते हैं। कामदेव इस सतीके तपका नाश करनेसे हम दोनोंको अनन्त एवं अपार दुःख भोगना पड़ेगा। इसलिये अब हमें इसे छोड़कर वहाँसे चल देना चाहिये। तुम जानते हो, पहले एक बार मैं सतीके साथ समागम करनेका पापमय परिणाम —असह्य दुःख भोग चुका हूँ। महर्षि गौतमने मुझे भयंकर शाप दिया था। आगकी लपटको छूतेका साहस कौन करेगा कौन ऐसा मूर्ख है, जो अपने गलेमें भारी पत्थर बांधकर समुद्रमें उतरना चाहेगा तथा किसको मौतके मुखमें जानेकी इच्छा है, जो सती स्त्रीको विचलित करनेका प्रयत्न करेगा।'

इन्द्रने कामदेवको उत्तम शिक्षा देनेके लिये बहुत ही नीतियुक्त बात कही; उसे सुनकर कामदेवने इन्द्रसे कहा- 'सुरेश ! मैं तो आपके ही आदेश से यहाँ आया था। अब आप धैर्य, प्रेम तथा पुरुषार्थका त्याग करके ऐसी पौरुषहीनता और कायरताकी बातें क्यों करते हैं। पूर्वकालमें मैंने जिन-जिन देवताओं, दानवों और तपस्या में अ लगे हुए मुनीश्वरोंको परास्त किया है, वे सब मेरा उपहास करते हुए कहेंगे कि 'यह कामदेव बड़ा डरपोक 1 है, एक साधारण स्त्रीने इसको क्षणभरमें परास्त कर है दिया।' इसलिये मैं अपने सम्मानरूपी धनकी रक्षा करूँगा और आपके साथ चलकर इस सतीके तेज, बल और धैर्यका नाश करूंगा आप डरते क्यों हैं। देवराजइन्द्रको इस प्रकार समझा-बुझाकर कामदेवने पुष्पयुक्त धनुष और बाण हाथमें ले लिये तथा सामने खड़ी हुई अपनी सखी क्रीड़ासे कहा- 'प्रिये ! तुम माया रचकर वैश्यपत्नी सुकलाके पास जाओ। वह अत्यन्त पुण्यवती, सत्यमें स्थित, धर्मका ज्ञान रखनेवाली और गुणज्ञ है। यहाँसे जाकर तुम मेरी सहायताके लिये उत्तम-से-उत्तम कार्य करो।' क्रीड़ासे यों कहकर वे पास ही खड़ी हुई प्रीतिको सम्बोधित करके बोले-'तुम्हें भी मेरी सहायताके लिये उत्तम कार्य करना होगा; तुम अपनी चिकनी चुपड़ी बातोंसे सुकलाको वशमें करो।' इस प्रकार अपने अपने कार्यमें लगे हुए वायु आदिके साथ उपर्युक्त व्यक्तियोंको भेजकर कामदेवने उस महासतीको मोहित करनेके लिये इन्द्रके साथ पुनः प्रयाण किया।

सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके उद्देश्यसे जब इन्द्र और कामदेव प्रस्थित हुए तब सत्यने धर्मसे कहा 'महाप्राज्ञ धर्म कामदेवकी जो चेष्टा हो रही है, उसपर दृष्टिपात करो। मैंने तुम्हारे, अपने तथा महात्मा पुण्यके लिये जो स्थान बनाया था, उसे यह नष्ट करना चाहता है। दुष्टात्मा काम हमलोगोंका शत्रु है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। सदाचारी पति, तपस्वी ब्राह्मण और पतिव्रता पत्नी ये तीन मेरे निवास स्थान हैं जहाँ मेरी वृद्धि होती है जहाँ मैं पुष्ट और सन्तुष्ट रहता हूँ, वहाँ तुम्हारा भी निवास होता है। श्रद्धाके साथ पुण्य भी वहाँ आकर क्रीड़ा करते हैं। मेरे शान्तियुक्त मन्दिरमें क्षमाका भी आगमन होता है। जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ सन्तोष, इन्द्रियसंयम, दया, प्रेम, प्रज्ञा और लोभहीनता आदि गुण भी निवास करते हैं। वहीं पवित्र भाव रहता है। ये सभी सत्यके बन्धु बान्धव हैं। धर्म! चोरी न करना, अहिंसा, सहनशीलता और बुद्धि-ये सब मेरे ही परमें आकर धन्य होते हैं। गुरु-शुश्रूषा, लक्ष्मीके साथ भगवान् श्रीविष्णु तथा अग्नि आदि देवता भी मेरे घरमें पधारते हैं। मोक्ष मार्गको प्रकाशित करनेवाले ज्ञान और उदारता आदिसे युक्त हो पूर्वोक्त व्यक्तियोंके साथ मैं धर्मात्मा पुरुषों और सती स्त्रियोंके भीतर निवास करता हूँ। ये जितने भी साधु-महात्मा हैं, सब मेरे गृहस्वरूप हैं;इन सबके भीतर मैं उक्त कुटुम्बियों के साथ वास करता हूँ। जो जगत्के स्वामी, त्रिशूलधारी, वृषभवाहन तथा साक्षात् ईश्वर हैं, वे कल्याणमय भगवान् शिव भी मेरे निवास स्थान हैं। कृकल वैश्यकी प्रियतमा भार्या मंगलमयी सुकला भी मेरा उत्तम गृह है; किन्तु आज पापी काम इसे भी जला डालनेको उद्यत हुआ है। ये बलवान् इन्द्र भी कामका साथ दे रहे हैं: कामकी ही करतूतसे अहल्याका संग करनेपर एक बार जो हानि उठानी पड़ी है, उस प्राचीन घटनाका इन्हें स्मरण क्यों नहीं होता। सतीके सतीत्वका नाश करनेसे ही इन्हें महान् दुःखमें पड़कर दुःसह शापका उपभोग करना पड़ा था। फिर भी आज कामदेवके साथ आकर ये धर्मचारिणी कृकलपत्नी सुकलाका अपहरण करनेको उतारू हुए हैं।'

धर्मने कहा- मैं कामका तेज कम कर दूँगा; [मैं यदि चाहूँ तो] उसकी मृत्युका भी कारण उपस्थित कर सकता हूँ। मैंने एक ऐसा उपाय सोच लिया है, जिससे यह काम आज ही भाग खड़ा होगा। यह महाप्रज्ञा पक्षिणीका रूप धारण करके सुकलाके पर जाय और अपने मंगलमय शब्दसे उसको स्वामीके शुभागमनकी सूचना दे।

धर्मके भेजनेसे प्रज्ञा सुकलाके घरमें गयी और वहाँ मंगलजनक शब्दका उच्चारण किया। सुकलाने धूप- गन्ध आदिके द्वारा उसका समादर और पूजन किया तथा सुयोग्य ब्राह्मणको बुलाकर पूछा- इस शकुनका क्या तात्पर्य है? मेरे पतिदेव कब आयेंगे ?'

ब्राह्मणने कहा— भद्रे ! यह शकुन तुम्हारे स्वामीके शुभागमनकी सूचना दे रहा है ये सात दिनसे पहले पहले यहाँ अवश्य आ जायेंगे। इसमें अन्तर नहीं हो सकता।
ब्राह्मणका यह मंगलमय वचन सुनकर सुकलाको बड़ी प्रसन्नता हुई।

उधर कामदेवकी भेजी हुई क्रीड़ा सती स्वीका रूप धारण करके उस सुन्दरी पतिव्रताके घर गयी। उस रूपवती नारीको आयी देख मुकलाने आदरयुक्त वचन कहकर उसका सम्मान किया और अपनेको धन्य माना।उसकी पुण्यमयी वाणीसे पूजित होकर क्रीड़ा मुसकराती हुई बातचीत करने लगी। उसका मायामय वचन विश्वको मोहित करनेवाला था। सुननेपर सत्य और विश्वासके योग्य जान पड़ता था। क्रीड़ा बोली- 'देवि! मेरे स्वामी बड़े बलवान्, गुणज्ञ, धीर तथा अत्यन्त पुण्यात्मा हैं; परन्तु मुझे छोड़कर न जाने कहाँ चले गये हैं। वह मेरे पूर्वजन्मके कर्मोंका फल है, जो आज इस रूपमें सामने आया है; मैं कैसी मन्दभागिनी हूँ। महाभागे नारियोंके लिये रूप, सौभाग्य, श्रृंगार, सुख और सम्पत्ति-सब कुछ पति ही है; यही शास्त्रोंका मत है।'

पतिव्रता सुकलाने क्रीड़ाकी ये सारी बातें सुनीं। उसे विश्वास हो गया कि यह सब कुछ इस दुःखिनी नारीके हृदयका सच्चा भाव है। वह उसके दुःखसे दुःखी हो गयी और अपनी बातें भी उसे बताने लगी। उसने पहलेका अपना सारा हाल थोड़ेमें कह सुनाया। अपने दुःख-सुखकी बात बताकर मनस्विनी सुकला चुप हो गयी; तब क्रीड़ाने उस पतिव्रताको सान्त्वना दी और बहुत कुछ समझाया बुझाया। तदनन्तर एक दिन उसने सुकलासे कहा-'सखी देखो, वह सामने बड़ा सुन्दर वन दिखायी दे रहा है अनेकों दिव्य वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। वहाँ एक परम पवित्र पापनाशन तीर्थ है; वरानने! चलो, हम दोनों भी वहाँ -संचय करनेके लिये चलें।' पुण्य-‍
यह सुनकर सुकला उस मायामयी स्त्रीके साथ वहाँ जानेको राजी हो गयी। उसने वनमें प्रवेश करके देखा तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसमें नन्दन-वनकी शोभा उतर आयी है। सभी ऋतुओंके फूल खिले थे; सैकड़ों कोकिलौके कलरवसे सारा वन प्रान्त गूंज रहा था। माधवी लता और माधव (वसन्त) ने उस उपवनकी शोभाको सब भावोंसे परिपूर्ण बनाया था! सुकलाको मोहित करनेके लिये ही उसकी सृष्टि की गयी थी। उसने क्रीड़ाके साथ सबके मनको भानेवाले उस वनमें घूम-घूमकर अनेकों दिव्य कौतुक देखे इसी समय रतिके साथ काम और इन्द्र भी वहाँ आये। इन्द्र सम्पूर्ण भोगोंके अधिपति होकर भी काम-क्रीडाके लिये व्यग्र थे। उन्होंने कामदेवको पुकारकर कहा-'लो, यह सुकला आगयी, क्रीड़ाके आगे खड़ी है। इस महाभागा सतीपर प्रहार करो।'

कामदेव बोला सहसलोचन लीला और चातुरीसे युक्त अपने दिव्य रूपको प्रकट कीजिये, जिसका आश्रय लेकर मैं इसके ऊपर अपने पाँचों बाणोंका पृथक् पृथक् प्रहार करूँ। त्रिशूलधारी महादेवने मेरे रूपको पहले ही हर लिया। मेरा शरीर है ही नहीं। जब मैं किसी नारीको अपने बाणोंका निशाना बनाना चाहता हूँ, उस समय पुरुष शरीरका आश्रय लेकर अपने रूपको प्रकट करता हूँ। इसी तरह पुरुषपर प्रहार करनेके लिये मैं नारी- देहका आश्रय लेता हूँ। पुरुष जब पहले-पहल किसी सुन्दरी नारीको देखकर बारम्बार उसीका चिन्तन करने लगता है, तब मैं चुपकेसे उसके भीतर घुसकर उसे उन्मत्त बना देता हूँ। स्मरण चिन्तनसे मेरा प्रादुर्भाव होता है, इसीलिये मेरा नाम 'स्मर' हो गया है। आज मैं आपके रूपका आश्रय लेकर इस नारीको अपनी इच्छाके अनुसार नचाऊँगा। यों कहकर कामदेव इन्द्रके शरीरमें घुस गया और पुण्यमयी कृकल-पत्नी सती सुकलाको घायल करनेके लिये हाथमें बाण ले उत्कण्ठापूर्वक अवसरकी प्रतीक्षा करने लगा। वह उसके नेत्रोंको ही लक्ष्य बनाये बैठा था।

भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन्। क्रीड़ाकी प्रेरणासे उस सुन्दर बनमें गयी हुई वैश्यपत्नी सुकलाने पूछा- 'सखी! यह मनोरम दिव्य वन किसका है ?" क्रीड़ा बोली- यह स्वभावसिद्ध दिव्य गुणोंसे युक्त सारा वन कामदेवका है, तुम भलीभाँति इसका निरीक्षण करो।

दुरात्मा कामकी यह चेष्टा देखकर सुन्दरी सुकलाने वायुके द्वारा लायी हुई वहाँके फूलोंको सुगन्धको नहीं ग्रहण किया। उस सतीने वहाँके रसोंका भी आस्वादन नहीं किया। यह देख कामदेवका मित्र वसन्त बहुत लज्जित हुआ। तत्पश्चात् कामदेवकी पत्नी रति प्रीतिको साथ लेकर आयी और सुकलासे हँसकर बोली- 'भद्रे ! तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हारा स्वागत करती हूँ।तुम रति और प्रीतिके साथ यहाँ रमण करो।' सुकलाने कहा-'जहाँ मेरे स्वामी हैं, वहीं मैं भी हूँ मैं सदा पतिके साथ रहती हूँ। मेरा काम, मेरी प्रीति सब वहीं है। यह शरीर तो निराश्रय है-छायामात्र है।' यह सुनकर रति और प्रीति दोनों लज्जित हो गयीं तथा महाबली कामके पास जाकर बोली- 'महाप्राज्ञ अब आप अपना पुरुषार्थ छोड़ दीजिये, इस नारीको जीतना कठिन है। यह महाभागा पतिव्रता सदैव अपने पतिकी ही कामना रखती है।'

कामदेवने कहा- देवि! जब यह इन्द्रके रूपको देखेगी, उस समय मैं अवश्य इसे घायल करूँगा।

तदनन्तर देवराज इन्द्र परम सुन्दर दिव्य वेष धारण किये रतिके पीछे-पीछे चले; उनकी गतिमें अत्यन्त ललित विलास दृष्टिगोचर होता था सब प्रकारके आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। दिव्य माला, दिव्य वस्त्र और दिव्य गन्धसे सुसज्जित हो वे पतिव्रता सुकलाके पास आये और उससे इस प्रकार बोले 'भद्रे! मैंने पहले तुम्हारे सामने दूती भेजी थी, फिर प्रीतिको रवाना किया। मेरी प्रार्थना क्यों नहीं मानती ? मैं स्वयं तुम्हारे पास आया हूँ, मुझे स्वीकार करो।'

सुकला बोली- मेरे स्वामीके महात्मा पुत्र (सत्य, धर्म आदि) मेरी रक्षा कर रहे हैं। मुझे किसीका भय नहीं है। अनेक शूरवीर पुरुष सर्वत्र मेरी रक्षाके लिये उद्यत रहते हैं। जबतक मेरे नेत्र खुले रहते हैं, तबतक मैं निरन्तर पतिके ही कार्यमें लगी रहती हूँ। आप कौन हैं, जो मृत्युका भी भय छोड़कर मेरे पास आये हैं?

इन्द्रने कहा- तुमने अपने स्वामीके जिन शूरवीर पुत्रोंकी चर्चा की है, उन्हें मेरे सामने प्रकट करो! मैं कैसे उन्हें देख सकूँगा।

सुकला बोली- इन्द्रिय-संयमके विभिन्न गुणोंद्वारा उत्तम धर्म सदा मेरी रक्षा करता है। वह देखो, शान्ति और क्षमाके साथ सत्य मेरे सामने उपस्थित है। महाबली सत्य बड़ा यशस्वी है। यह कभी मेरा त्याग नहीं करता। इस प्रकार धर्म आदि रक्षक सदा मेरी देख भाल किया करते हैं; फिर क्यों आप बलपूर्वक मुझेप्राप्त करना चाहते हैं। आप कौन हैं, जो निडर होकर इसके साथ यहाँ आये हैं? सत्य, धर्म, पुण्य और ज्ञान दूतीके आदि बलवान् पुत्र मेरे तथा मेरे स्वामीके सहायक हैं। वे सदा मेरी रक्षामें तत्पर रहते हैं। मैं नित्य सुरक्षित हूँ। इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रहमें तत्पर रहती हूँ। साक्षात् शचीपति इन्द्र भी मुझे जीतनेकी शक्ति नहीं रखते। यदि महापराक्रमी कामदेव भी आ जाय तो मुझे कोई परवा नहीं है; क्योंकि मैं अनायास ही सतीत्वरूपी कवचसे सदा सुरक्षित हूँ। मुझपर कामदेवके बाण व्यर्थ हो जयेंगे, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। उलटे महाबली धर्म आदि तुम्हींको मार डालेंगे। दूर हटो, भाग जाओ, मेरे सामने न खड़े होओ। यदि मना करनेपर भी खड़ेरहोगे तो जलकर खाक हो जाओगे। मेरे स्वामीकी अनुपस्थितिमें यदि तुम मेरे शरीरपर दृष्टि डालोगे तो जैसे आग सूखी लकड़ीको जला देती है, उसी प्रकार मैं भी तुम्हें भस्म कर डालूँगी।"

सुकलाने जब यह कहा, तब तो उस सतीके भयंकर शापके डरसे व्याकुल हो सब लोग जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। इन्द्र आदिने अपने-अपने लोककी राह ली सबके चले जानेपर पुण्यमयी पतिव्रता सुकला पतिका ध्यान करती हुई अपने घर लौट आयी। वह घर पुण्यमय था। यहाँ सब तीर्थ निवास करते थे। सम्पूर्ण यज्ञोंकी भी वहाँ उपस्थिति थी। राजन्! पतिको ही देवता माननेवाली वह सती अपने उसी घरमें आकर रहने लगी।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार