भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं-राजन् कुकल वैश्य सब तीर्थोंकी यात्रा पूरी करके अपने साथियोंके साथ बड़े आनन्दसे घरकी ओर लौटे। वे सोचते थे मेरा संसारमें जन्म लेना सफल हो गया; मेरे सब पितर स्वर्गको चले गये होंगे। वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि एक दिव्य रूपधारी विशालकाय पुरुष उनके पिता पितामहाँको प्रत्यक्षरूपसे बाँधकर सामने प्रकट हुए और बोले— 'वैश्य! तुम्हारा पुण्य उत्तम नहीं है। तुम्हें तीर्थ-यात्राका फल नहीं मिला। तुमने व्यर्थ ही इतना परिश्रम किया।' यह सुनकर कृकल वैश्य दुःखसे पीड़ित हो गये। उन्होंने पूछा- आप कौन हैं, जो ऐसी बात कह रहे हैं? मेरे पिता पितामह क्यों बाँधे गये हैं? मुझे तीर्थका फल क्यों नहीं मिला?'धर्मने कहा- जो धार्मिक आचार और उत्तम व्रतका पालन करनेवाली, श्रेष्ठ गुणोंसे विभूषित, पुण्यमें अनुराग रखनेवाली तथा पुण्यमयी पतिव्रता पत्नीको अकेली छोड़कर धर्म करनेके लिये बाहर जाता है, उसका किया हुआ सारा धर्म व्यर्थ हो जाता है - इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। जो सब प्रकारके सदाचारमें संलग्न रहनेवाली, प्रशंसाके योग्य आचरणवाली, धर्मसाधनमें तत्पर, सदा पातिव्रत्यका पालन करनेवाली, सब बातोंको जाननेवाली तथा ज्ञानकी अनुरागिणी है, ऐसी गुणवती, पुण्यवती और महासती नारी जिसकी पत्नी हो, उसके घरमें सर्वदा देवता निवास करते हैं। पितर भी उसके घरमें रहकर निरन्तर उसके यशकी कामना करते रहते हैं। गंगा आदि पवित्र नदियाँ,सागर, यज्ञ, गौ, ऋषि तथा सम्पूर्ण तीर्थ भी उस घरमें मौजूद रहते हैं। पुण्यमयी पत्नीके सहयोगसे गृहस्थ धर्मका पालन अच्छे ढंगसे होता है। इस भूमण्डलमें गृहस्थधर्मसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है। वैश्य गृहस्थका घर यदि सत्य और पुण्यसे युक्त हो तो परम पवित्र माना गया है, वहाँ सब तीर्थ और देवता निवास करते हैं। गृहस्थका सहारा लेकर सब प्राणी जीवन धारण करते हैं। गृहस्थ आश्रमके समान दूसरा कोई उत्तम आश्रम मुझे नहीं दिखायी देता जिसके घरमें साध्वी स्त्री होती है, उसके यहाँ मन्त्र, अग्निहोत्र, सम्पूर्ण देवता, सनातन धर्म तथा दान एवं आचार सब मौजूद रहते हैं। इसी प्रकार जो पत्नीसे रहित है, उसका घर जंगलके समान है। वहाँ किये हुए यज्ञ तथा भाँति-भाँतिके दान सिद्धिदायक नहीं होते। साध्वी पत्नीके समान कोई तीर्थ नहीं है, पत्नीके समान कोई सुख नहीं है तथा संसारसे तारनेके लिये और कल्याण साधनके लिये पत्नीके समान कोई पुण्य नहीं है। जो अपनी धर्मपरायणा सती नारीको छोड़कर चला जाता है, वह मनुष्यों में अधम है। गृह धर्मका परित्याग करके तुम्हें धर्मका फल कहाँ मिलेगा। अपनी पत्नीको साथ लिये बिना जो तुमने तीर्थमें श्राद्ध और दान किया है, उसी दोषसे तुम्हारे पूर्वज बाँधे गये हैं। तुम चोर हो और तुम्हारे ये पितर भी चोर हैं; क्योंकि इन्होंने लोलुपतावश तुम्हारा दिया हुआ श्राद्धका अन्न खाया है। तुमने श्राद्ध करते समय अपनी पत्नीको साथ नहीं रखा था जो सुयोग्य पुत्र श्रद्धासे युक्त हो अपनी पत्नीके दिये हुए पिण्डसे श्राद्ध करता है, उससे पितरोंको वैसी ही तृप्ति होती है, जैसी अमृत पीनेसे- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पत्नी ही गार्हस्थ्य धर्मकी स्वामिनी है; उसके बिना ही जो तुमने शुभ कर्मोंका अनुष्ठान किया है, यह स्पष्ट ही तुम्हारी चोरी है। जब पत्नी अपने हाथसे अन्न तैयार करके देती है, तो वह अमृतके समान मधुर होता है। उसी अन्नको पितर प्रसन्न होकरभोजन करते हैं तथा उसीसे उन्हें विशेष संतोष और तृप्ति होती है। अतः पत्नीके बिना जो धर्म किया जाता है, वह निष्फल होता है।
कृकलने पूछा- धर्म! अब कैसे मुझे सिद्धि प्राप्त होगी और किस प्रकार मेरे पितरोंको बन्धनसे छुटकारा मिलेगा?
धर्मने कहा – महाभाग ! अपने घर जाओ। तुम्हारी धर्मपरायणा, पुण्यवती पत्नी सुकला तुम्हारे बिना बहुत दुःखी हो गयी थी; उसे सान्त्वना दो और उसीके हाथसे श्राद्ध करो। अपने घरपर ही पुण्यतीर्थोंका स्मरण करके तुम श्रेष्ठ देवताओंका पूजन करो, इससे तुम्हारी की हुई तीर्थ यात्रा सफल हो जायगी।
भगवान् श्रीविष्णु कहते हैं—राजन्! यों कहकर धर्म जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये; परम बुद्धिमान् कृकल भी अपने घर गये और पतिव्रता पत्नीको देखकर मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुए। सुकलाने स्वामीको आया देख उनके शुभागमनके उपलक्ष में मांगलिक कार्य किया। तत्पश्चात् धर्मात्मा वैश्यने धर्मकी सारी चेष्टा बतलायी। स्वामीके आनन्ददायक वचन सुनकर महाभागा सुकलाको बड़ा हर्ष हुआ। उसके बाद कुकलने घरपर ही रहकर पत्नीके साथ श्रद्धापूर्वक श्राद्ध और देवपूजन आदि पुण्यकर्मका अनुष्ठान किया। इससे प्रसन्न होकर देवता पितर और मुनिगण विमानोंके द्वारा यहाँ आये और महात्मा कृकल और उसकी महानुभावा पत्नी दोनोंकी सराहना करने लगे। मैं ब्रह्मा तथा महादेवजी भी अपनी-अपनी देवी के साथ वहाँ गये सम्पूर्ण देवता उस सतीके सत्यसे सन्तुष्ट थे। सबने उन दोनों पति-पत्नीसे कहा— 'सुव्रत ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम अपनी पत्नीके साथ वर माँगो।'
कृकलने पूछा- देववरो मेरे किस पुण्य और तपके प्रसंगसे पत्नीसहित मुझे वर देनेको आपलोग पधारे हैं?इन्द्रने कहा- यह महाभागा सुकला सती है। इसके सत्यसे सन्तुष्ट होकर हमलोग तुम्हें वर देना चाहते हैं।
यह कहकर इन्द्रने उसके सतीत्वकी परीक्षाका सारा वृत्तान्त थोड़ेमें कह सुनाया। उसके सदाचारका माहात्म्य सुनकर उसके स्वामीको बड़ी प्रसन्नता हुई। हर्षोल्लाससे कृकलके नेत्र डबडबा आये। धर्मात्मा वैश्यने पत्नीके साथ समस्त देवताओंको बारम्बार साष्टांग प्रणाम किया और कहा - 'महाभाग देवगण! आप सब लोग प्रसन्न हों; तीनों सनातन देवता ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव हमपर सन्तुष्ट हों तथा अन्य जो पुण्यात्मा ऋषि मुझपर कृपा करके यहाँ पधारे हैं, वे भी प्रसन्नता प्राप्त करें। मैं सदा भगवान्की भक्ति करता रहूँ । आपलोगोंकी कृपासे धर्म तथा सत्यमें मेरा निरन्तर अनुराग बना रहे। तत्पश्चात् अन्तमें पत्नी और पितरके साथ मैं भगवान् श्रीविष्णुकेधाममें जाना चाहता हूँ।'
देवता बोले- महाभाग ! एवमस्तु, यह सब कुछ तुम्हें प्राप्त होगा।
भगवान् श्रीविष्णुने कहा- राजन्! यह कहकर देवताओंने उन दोनों पति-पत्नीके ऊपर फूलोंकी वर्षा की तथा ललित, मधुर और पवित्र संगीत सुनाया। वर देकर वे उस पतिव्रताकी स्तुति करते हुए अपने-अपने लोकको चले गये। इस परम उत्तम और पवित्र उपाख्यानको मैंने पूर्णरूपसे तुम्हें सुना दिया। राजन्! जो मनुष्य इसे सुनता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। स्त्रीमात्रको सुकलाका उपाख्यान श्रद्धापूर्वक सुनना चाहिये इसके श्रवणसे वह सौभाग्य, सतीत्व तथा पुत्र-पौत्रोंसे युक्त होती है। इतना ही नहीं, पतिके साथ सुखी रहकर वह निरन्तर आनन्दका अनुभव करती है।