नारदजी कहते हैं-राजेन्द्र ! तदनन्तर तीर्थयात्री पुरुष विश्वविख्यात सुगन्ध नामक तीर्थकी यात्रा करे। वहाँ सब पापोंसे चित्त शुद्ध हो जानेपर वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। तत्पश्चात् रुद्रावर्त तीर्थमें जाय । वहाँ स्नान करके मनुष्य स्वर्गलोकमें सम्मानित होता है। नरश्रेष्ठ! गंगा और सरस्वतीके संगममें स्नानकरनेवाला पुरुष अश्वमेध यज्ञका फल प्राप्त करता है। वहाँ कर्णहृदमें स्नान और भगवान् शंकरकी पूजा करके मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। इसके बाद क्रमशः कुब्जाम्रक-तीर्थको प्रस्थान करना चाहिये। वहाँ स्नान करनेसे सहस्र गोदानका फल मिलता है और मनुष्य स्वर्गलोकमें जाता है। राजन् ! इसके बाद अरुन्धतीवटमेंजाना चाहिये। वहाँ समुद्रके जलमें स्नान करके तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य सहस्र गोदानोंका फल पाता और स्वर्गलोकको जाता है। तदनन्तर ब्रह्मावर्त तीर्थको यात्रा करे। वहाँ ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नान करने से अश्वमेध यज्ञका फल पाता और स्वर्गलोकमें जाता है। उसके बाद यमुनाप्रभव नामक तीर्थमें जाय। वहाँ यमुनाजलमें स्नान करनेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाकर ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित होता है। दर्वीसंक्रमण नामक तीर्थ जीनों लोकोंमें विख्यात है। वहाँ पहुँचकर स्नान करनेसे अश्वमेध यज्ञके फल और स्वर्गलोककी प्राप्ति होती है। भृगुतुंग-तीर्थमें जानेसे भी अश्वमेध यज्ञका फल मिलता है। वीरप्रमोक्ष नामक तीर्थकी यात्रा करके मनुष्य सब पापोंसे छुटकारा पा जाता है। कृत्तिका और मघा दुर्लभ तीर्थमें जाकर पुण्य करनेवाला पुरुष अग्निष्टोम और अतिरात्र यज्ञोंका फल पाता है।
तत्पश्चात् सन्ध्या-तीर्थमें जाकर जो परम उत्तम विद्या- तीर्थमें स्नान करता है, वह सम्पूर्ण विद्याओंमें पारंगत होता है। महाश्रम तीर्थ सब पापोंसे छुटकारा दिलानेवाला है। वहाँ रात्रिमें निवास करना चाहिये। जो मनुष्य वहाँ एक समय भी उपवास करता है, उसे उत्तम लोकोंमें निवास प्राप्त होता है। जो तीन दिनपर एक समय उपवास करते हुए एक मासतक महाश्रम तीर्थमें निवास करता है, वह स्वयं तो भवसागरके पार हो ही जाता है, अपने आगे-पीछेकी दस-दस पीढ़ियोंको भी तार देता है। परमपवित्र देववन्दित महेश्वरका दर्शन करके मनुष्य सव कर्तव्योंसे उऋण हो जाता है। उसके बाद पितामहद्वारा सेवित वेतसिका तीर्थके लिये प्रस्थान करे। वहाँ जानेसे मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और परमगतिको प्राप्त होता है। तत्पश्चात् ब्राह्मणिका तीर्थमें जाकर ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए एकाग्रचित्त हो स्नानादि करनेसे मनुष्य कमलके समान रंगवाले विमानपर बैठकर ब्रह्मलोकको जाता है। उसके बाद द्विजोंद्वारा सेवित पुण्यमय नैमिष दर्थको यात्रा करें। वहाँ ब्रह्माजी देवताओंके साथ सदानिवास करते हैं। नैमिष तीर्थमें जानेकी इच्छा करनेवालेका ही आधा पाप नष्ट हो जाता है तथा उसमें प्रविष्ट हुआ मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। भारत ! धीर पुरुषको उचित है कि वह तीर्थ सेवनमें तत्पर हो एक मासतक नैमिषारण्यमें निवास करे। भूमण्डलमें जितने तीर्थ हैं, वे सभी नैमिषारण्य में विद्यमान रहते हैं। जो वहाँ स्नान करके नियमपूर्वक रहते हुए नियमानुकूल आहार ग्रहण करता है, वह मानव राजसूय यज्ञका फल पाता है। इतना ही नहीं, वह अपने कुलकी सात पीढ़ियोंतकको पवित्र कर देता है।
गंगोद्भेद-तीर्थमें जाकर तीन राततक उपवास करनेवाला मनुष्य वाजपेय यज्ञका फल पाता और सदाके लिये ब्रह्मस्वरूप हो जाता है। सरस्वतीके तटपर जाकर देवता और पितरोंका तर्पण करना चाहिये। ऐसा करनेवाला पुरुष सारस्वत-लोकों में जाकर आनन्द भोगता है— इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। तत्पश्चात् बाहुदा नदीकी यात्रा करे। वहाँ एक रात निवास करनेवाला मनुष्य स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है और उसे देवसत्र नामक यज्ञका फल मिलता है। इसके बाद सरयू नदीके उत्तम तीर्थ गोप्रतार (गुप्तार) घाटपर जाना चाहिये। जो मनुष्य उस तीर्थमें स्नान करता है, वह सब पापोंसे शुद्ध होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता है। कुरुनन्दन ! गोमती नदीके रामतीर्थमें स्नान करके मनुष्य अश्वमेध यज्ञका फल पाता और अपने कुलका उद्धार कर देता है। वहीं शतसाहस्रक नामका तीर्थ है; जो वहाँ स्नान करके नियमसे रहता और नियमानुकूल भोजन करता है, उसे सहस्र गोदानोंका पुण्य फल प्राप्त होता है। धर्मज्ञ युधिष्ठिर। वहाँसे ऊर्ध्वस्थान नामक उत्तम तीर्थमें जाना चाहिये। वहाँ कोटितीर्थमें स्नान करके कार्तिकेयजीका पूजन करनेसे मनुष्यको सहस्र गोदानोंका फल मिलता है तथा वह तेजस्वी होता है। उसके बाद काशीमें जाकर भगवान् शंकरकी पूजा और कपिलाकुण्डमें स्नान करनेसे राजसूय यज्ञका फल प्राप्त होता है। युधिष्ठिर बोले- मुने! आपने काशीका माहात्म्य बहुत थोड़ेमें बताया है, उसे कुछ विस्तारके साथ कहियेनारदजीने कहा- राजन्! मैं इस विषयमें एक संवाद सुनाऊँगा, जो वाराणसीके गुणोंसे सम्बन्ध रखनेवाला है। उस संवादके श्रवणमात्र से मनुष्य ब्रह्महत्या के पापसे छुटकारा पा जाता है। पूर्वकालकी बात है, भगवान् शंकर मेरुगिरिके शिखरपर विराजमान थे तथा पार्वती देवी भी वहीं दिव्य सिंहासनपर बैठी थीं। उन्होंने महादेवजीसे पूछा- 'भक्तोंके दुःख दूर करनेवाले देवाधिदेव मनुष्य शीघ्र ही आपका दर्शन कैसे पा सकता है? समस्त प्राणियों के हितके लिये यह बात मुझे बताइये।'
भगवान् शिव बोले- देवि! काशीपुरी मेरा परम गुह्यतम क्षेत्र है वह सम्पूर्ण भूतोंको संसार सागरसे पार उतारनेवाली हैं। वहाँ महात्मा पुरुष भक्तिपूर्वक मेरी भक्तिका आश्रय ले उत्तम नियमोंका पालन करते हुए निवास करते हैं। वह समस्त तीर्थों और सम्पूर्ण स्थानों में उत्तम है इतना ही नहीं, अविमुक्त क्षेत्र मेरा परम ज्ञान है वह समस्त ज्ञानोंमें उत्तम है। देवि! यह वाराणसी सम्पूर्ण गोपनीय स्थानों में श्रेष्ठ तथा मुझे अत्यन्त प्रिय है। मेरे भक्त वहाँ जाते तथा मुझमें ही प्रवेश करते हैं। वाराणसीमें किया हुआ दान, जप, होम, यज्ञ, तपस्या, ध्यान, अध्ययन और ज्ञान- सब अक्षय होता है। पहलेके हजारों जन्मोंमें जो पाप संचित किया गया हो, वह सब अविमुक्त क्षेत्रमें प्रवेश करते ही नष्ट हो जाता है। वरानने! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, स्त्रीजाति, म्लेच्छ तथा अन्यान्य मिश्रित जातियोंके मनुष्य, चाण्डाल आदि, पापयोनिमें उत्पन्न जीव, कीड़े, चींटियाँ तथा अन्य पशु-पक्षी आदि जितने भी जीव हैं, वे सब समयानुसार अविमुक्त क्षेत्रमें मरनेपर मेरे अनुग्रहसे परम गतिको प्राप्त होते हैं। मोक्षको अत्यन्त दुर्लभ और संसारको अत्यन्त भयानक समझकर मनुष्यको काशीपुरीमें निवास करना चाहिये। जहाँ-तहाँ मरनेवालेको संसार-बन्धनसे छुड़ानेवाली सद्गति तपस्यासे भी मिलनी कठिन है। [किन्तु वाराणसीपुरीमें बिना तपस्याके ही ऐसी गति अनायास प्राप्त हो जाती है।] जो विद्वान् सैकड़ों विघ्नोंसे आहत होनेपर भी काशीपुरीमेंनिवास करता है, वह उस परमपदको प्राप्त होता है। जहाँ जानेपर शोकसे पिण्ड छूट जाता है। काशीपुरीमें रहनेवाले जीव जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे रहित परमधामको प्राप्त होते हैं। उन्हें वही गति प्राप्त होती है, जो पुनः मृत्युके बन्धनमें न आनेवाले मोक्षाभिलाषी पुरुषोंको मिलती है तथा जिसे पाकर जीव कृतार्थ हो जाता है। अविमुक्त क्षेत्रमें जो उत्कृष्ट गति प्राप्त होती है वह अन्यत्र दान, तपस्या, यज्ञ और विद्यासे भी नहीं मिल सकती। जो चाण्डाल आदि घृणित जातियोंमें उत्पन्न हैं तथा जिनकी देह विशिष्ट पातकों और पापोंसे परिपूर्ण है, उन सबकी शुद्धिके लिये विद्वान् पुरुष अविमुक्त क्षेत्रको ही श्रेष्ठ औषध मानते हैं। अविमुक्त क्षेत्र परम ज्ञान है, अविमुक्त क्षेत्र परम पद है, अविमुक्त क्षेत्र परम तत्त्व है और अविमुक्त क्षेत्र परम शिव- परम कल्याणमय है। जो मरणपर्यन्त रहनेका नियम लेकर अविमुक्त क्षेत्रमें निवास करते हैं, उन्हें अन्तमें मैं परमज्ञान एवं परमपद प्रदान करता हूँ। वाराणसीपुरीमें प्रवेश करके बहनेवाली त्रिपथगामिनी गंगा विशेषरूपसे सैकड़ों जन्मोंका पाप नष्ट कर देती हैं। अन्यत्र गंगाजीका स्नान, श्राद्ध, दान, तप, जप और व्रत सुलभ हैं; किन्तु वाराणसीपुरीमें रहते हुए इन सबका अवसर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। वाराणसीपुरीमें निवास करनेवाला मनुष्य जप, होम, दान एवं देवताओंका नित्यप्रति पूजन करनेका तथा निरन्तर वायु पीकर रहनेका फल प्राप्त कर लेता है। पापी, शठ और अधार्मिक मनुष्य भी यदि वाराणसीमें चला जाय तो वह अपने समूचे कुलको पवित्र कर देता है। जो वाराणसीपुरीमें मेरी पूजा और स्तुति करते हैं, वे सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। देवदेवेश्वरि जो मेरे भक्तजन वाराणसीपुरीमें निवास करते हैं, वे एक ही जन्ममें परम मोक्षको पा जाते हैं। परमानन्दकी इच्छा रखनेवाले ज्ञाननिष्ठ पुरुषोंके लिये शास्त्रोंमें जो गति प्रसिद्ध है, वही अविमुक्त क्षेत्रमें मरनेवालेको प्राप्त हो जाती है। अविमुक्त क्षेत्रमें देहावसान होनेपर साक्षात् परमेश्वर मैं स्वयं ही जीवको तारक ब्रह्म (राम-नाम) का उपदेश करता हूँ। वरणा और असी नदियोंके बीचमें वाराणसीपुरीस्थित है तथा उस पुरीमें ही नित्य-विमुक्त तत्त्वकी स्थिति है। वाराणसीसे उत्तम दूसरा कोई स्थान न हुआ हैं और न होगा। जहाँ स्वयं भगवान् नारायण और देवेश्वर मैं विराजमान हूँ। देवि ! जो महापातकी हैं तथा जो उनसे भी बढ़कर पापाचारी हैं, वे सभी वाराणसीपुरीमें जानेसे परमगतिको प्राप्त होते हैं। इसलिये मुमुक्षु पुरुषको मृत्युपर्यन्त नियमपूर्वक वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये। वहाँ मुझसे ज्ञान पाकर वह मुक्त हो जाता है। किन्तु जिसका चित्त पापसे दूषित होगा, उसके सामने नाना प्रकारके विघ्न उपस्थित होंगे। अतः मन, वाणीऔर शरीरके द्वारा कभी पाप नहीं करना चाहिये । नारदजी कहते हैं- राजन् ! जैसे देवताओंमें पुरुषोत्तम नारायण श्रेष्ठ हैं, जिस प्रकार ईश्वरों में महादेवजी श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार समस्त तीर्थस्थानों में यह काशीपुरी उत्तम है। जो लोग सदा इस पुरीका स्मरण और नामोच्चारण करते हैं, उनका इस जन्म और पूर्वजन्मका भी सारा पातक तत्काल नष्ट हो जाता है; इसलिये योगी हो या योगरहित, महान् पुण्यात्मा हो अथवा पापी - प्रत्येक मनुष्यको पूर्ण प्रयत्न करके वाराणसीपुरीमें निवास करना चाहिये ।