महादेवजी कहते हैं— पार्वती ! बुद्धिमान् मुचुकुन्दके द्वारा कालयवनका वध करानेके पश्चात् उन्हें मुक्तिका वरदान दे भगवान् यदुनन्दन गुफासे बाहर निकले। कालयवनको मारा गया सुनकर दुर्बुद्धि जरासन्ध अपनी सेनाके साथ बलराम और श्रीकृष्णके साथ युद्ध करने लगा। भगवान् श्रीकृष्णने उस दुरात्माकी प्रायः सारी सेनाका संहार कर डाला। मगधराज मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। बहुत देरके बाद जब उसे कुछ चेत हुआ तो उसके सारे अंगोंमें व्याकुलता छा रही थी। वह भयसे आतुर था। अब मगधराज जरासन्ध बलरामजीके साथ युद्ध करने का साहस न कर सका। उसने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको अजेय समझा और मरनेसे बची हुई सेनाको साथ ले तुरंत ही वह अपनी राजधानीको भाग गया। अब उसने बलराम और श्रीकृष्णका विरोध छोड़ दिया। तदनन्तर वसुदेवजीके दोनों पुत्र अपनी सेनाके साथ द्वारका चले गये। वहाँ इन्द्रने वायुदेवताको भेजा और विश्वकर्माकी हुई सुधर्मा नामक देवसभाको प्रेमपूर्वक श्रीकृष्णको भेंट कर दिया। वह सभा हीरे और वैदूर्यमणिकी बनी हुई थी। चन्द्राकार सिंहासनसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। नाना प्रकारके रत्नोंसे जटित सुवर्णमय दिव्य छत्रोंसे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी उस रमणीय सभाको पाकर उग्रसेन आदि यदुवंशी वैदिक विद्वानोंके साथ उसमें बैठकर स्वर्ग-सभामें बैठे हुए देवताओंकी भाँति आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न रैवत नामक एक राजा थे। उनके रेवती नामवाली एक कन्या थी, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपनी कन्याका विवाह बलरामजीके साथ कर दिया। बलरामजीने वैदिक विधिके अनुसार रेवतीका पाणिग्रहण किया।
विदर्भ देशमें भीष्मक नामक एक धर्मात्मा राजा रहते थे। उनके रुक्मी आदि कई पुत्र हुए। उन सबसे छोटी एक कन्या भी हुई, जो बहुत ही सुन्दरी थी। उस कन्याका नाम रुक्मिणी था। वह भगवती लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसमें सभी शुभ लक्षण मौजूद थे। श्रीरामावतारके समय जो सीतारूपमें प्रकट हुई थीं,वे ही भगवती लक्ष्मी श्रीकृष्णावतारके समय रुक्मिणीके रूपमें अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें जो हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य हुए थे, वे ही द्वापर आनेपर पुनः शिशुपाल और दन्तवक्त्रके नामसे उत्पन्न हुए थे। उन दोनोंका जन्म चैद्यवंशमें हुआ था। दोनों ही बड़े बलवान् और पराक्रमी थे। राजकुमार रुक्मी अपनी बहिन रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था; किन्तु सुन्दर मुखवाली रुक्मिणी शिशुपालको अपना पति नहीं बनाना चाहती थी। बचपनसे ही उसका भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग था श्रीकृष्णको ही पति बनानेके उद्देश्यसे वह देवताओंका पूजन और भाँति-भाँति के दान किया करती थी। वह अपने सनातन स्वामी पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई कठोर व्रतमें संलग्न हो पिताके घरमें निवास करती थी। विदर्भराज भीष्मक अपने पुत्र रुक्मीके साथ मिलकर शिशुपालसे कन्याका विवाह करनेकी तैयारी करने लगे।
तब रुक्मिणीने भगवान् श्रीकृष्णको पति बनानेके उद्देश्यसे अपने पुरोहितके पुत्रको तुरंत ही द्वारकापुरीमें भेजा। ब्राह्मणदेवता द्वारकामें पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीसे मिले। उन दोनोंने उनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया। ब्राह्मणने एकान्तमें बैठकर उन दोनों भाइयोंसे रुक्मिणीका सारा संदेश कह सुनाया। उसे सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंसे परिपूर्ण आकाशगामी रथपर ब्राह्मणके साथ बैठे। महात्मा दारुकने उस रथको तीव्र गतिसे हाँका । अतः वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ शीघ्र ही विदर्भनगरमें जा पहुँचे। बुद्धिमान् शिशुपालके विवाहको देखनेके लिये सब राष्ट्रोंसे जरासन्ध आदि राजा आये थे। विवाहके दिन रुक्मिणी सोनेके आभूषणोंसे विभूषित हो दुर्गाजीकी पूजा करनेके लिये सखियोंके साथ नगरसे बाहर निकली। वह सन्ध्याका समय था। देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उसी समय वहाँ पहुँचे। बलवान् तो थे ही, उन्होंने रथपर बैठी हुई रुक्मिणीको सहसा उठाकर अपने रथपर बिठा लिया और द्वारकाकी ओर चल दिये। यह देख जरासन्ध आदि राजा क्रोधमें भरकर राजकुमार रुक्मीको साथ ले युद्धके लिये उपस्थित हुए।उन्होंने चतुरंगिणी सेनाके साथ श्रीहरिका पीछा किया। तब महाबाहु बलभद्रजी उस उत्तम रथसे कूद पड़े। उन्होंने हल और मूसल लेकर युद्धमें शत्रुओंका संहार आरम्भ किया। कितने ही रथों, घोड़ों, बड़े-बड़े गजराजों तथा पैदल सैनिकोंको भी हल और मूसलकी मारसे कुचल डाला। जैसे वज्रके आघातसे पर्वत विदीर्ण हो जाते हैं, उसी प्रकार उनके हल और मूसल गिरने से रथोंकी पंक्तियाँ चूर-चूर हो गयीं और बड़े-बड़े हाथी भी धरतीपर ढेर हो गये। हाथियोंके मस्तक फट जाते और वे रक्त वमन करते हुए प्राणोंसे हाथ धो बैठते थे। इस प्रकार बलरामजीने क्षणभरमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों सहित सारी सेनाका सफाया कर दिया। राजाओंके पाँव उखड़ गये। वे सब के सब भयसे पीड़ित हो भाग चले। उधर रुक्मी क्रोधमें भरकर श्रीकृष्णके साथ लोहा ले रहा था। उसने धनुष उठाकर बाणोंके समूहसे श्रीकृष्णको बींधना आरम्भ किया। तब गोविन्दने हँसकर लीलापूर्वक अपना शार्ङ्गधनुष हाथमें उठाया और एक ही बाणसे रुक्मीके अश्व, सारथि, रथ और ध्वजापताकाको भी काट गिराया। रथ नष्ट हो जानेपर वह तलवार खींचकर पृथ्वीपर खड़ा हो गया। यह देख श्रीकृष्णने एक बाणसे उसकी तलवारको भी काट डाला। तब उसने श्रीकृष्णकी छातीमें मुक्केसे प्रहार किया। श्रीकृष्णने बलपूर्वक उसे पकड़कर रथमें बाँध दिया और हँसते-हँसते तीखा छुरा ले रुक्मीके सिरको मूड़कर उसे बन्धन से मुक्त कर दिया। इस अपमानके कारण उसको बड़ा शोक हुआ। वह चोट खाये हुए साँपकी भाँति लंबी साँस लेने लगा। लज्जाके कारण उसने विदर्भ-नगरीमें पाँव नहीं रखा। वहीं गाँव बसाकर वह रहने लगा।
तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण बलराम, रुक्मिणी और दारुकके साथ उस दिव्य रथपर आरूढ़ हो तुरंत अपनी पुरीको चले गये। द्वारकामें प्रवेश करके देवकीनन्दन श्रीकृष्णने शुभ दिन और शुभ लग्नमें सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित राजकुमारी रुक्मिणीका वेदोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। उस विवाहके समय आकाशमेंदेवतालोग दुन्दुभि बजाते और फूलोंकी वर्षा करते थे। वसुदेव, उग्रसेन यदुश्रेष्ठ अक्रूर महातेजस्वी बलभद्र तथा और भी जो-जो श्रेष्ठ यादव थे; उन सबने बड़े उत्साह के साथ श्रीकृष्ण और रुक्मिणीका सुखमय विवाहोत्सव मनाया। उसमें ग्वालों और ग्वालबालोंके साथ नन्दगोप भी पधारे थे तथा वस्त्राभूषणोंसे विभूषित बहुत-सी गोपांगनाओंके साथ स्वयं यशोदाजी भी आयी थीं। वसुदेव देवकी, रेवती, रोहिणी देवी तथा अन्यान्य नगर-युवतियोंने मिलकर बड़े हर्षके साथ विवाहके सारे कार्य सम्पन्न किये। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँसहित देवकीने बड़ी प्रसन्नताके साथ विधिपूर्वक देव पूजनका कार्य सम्पन्न किया । श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने विवाहोत्सवसे सम्बन्ध रखनेवाला सारा शास्त्रीय कार्य पूर्ण किया। सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे पूजित करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया। आये हुए राजा, नन्द आदि गोप तथा यशोदा आदि स्त्रियोंका भी स्वर्ण-रत्न आदिके बहुत से आभूषणों एवं वस्त्रोंद्वारा यथावत् सत्कार किया गया। इस प्रकार उस वैवाहिक महोत्सवमें सम्मानित होकर वे सभी बड़े प्रसन्न हुए।
उन नूतन दम्पति श्रीकृष्ण और रुक्मिणीने ग्रन्थिबन्धनपूर्वक एक साथ अग्निदेवको प्रणाम किया। वेदोंके ज्ञाता श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने आशीर्वादके द्वारा उनका अभिनन्दन किया। उस समय विवाहकी वेदीपर बैठे हुए वर और वधूकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्नीसहित श्रीकृष्णने ब्राह्मणों, राजाओं और बड़े भाई बलरामजीको प्रणाम किया। इस प्रकार समस्त वैवाहिक कार्य सम्पन्न करके भगवान् श्रीकृष्णने विवाहोत्सवमें पधारे हुए समस्त राजाओंको विदा किया। उनसे सम्मानित एवं विदा होकर श्रेष्ठ राजा तथा महात्मा ब्राह्मण अपने अपने निवासस्थानको चले गये। इसके बाद धर्मात्मा भगवान् देवकीनन्दन रुक्मिणीदेवी के साथ दिव्य अट्टालिकामें बड़े सुखसे रहने लगे। मुनि और देवता उनकी स्तुति किया करते थे। उस शोभामयी द्वारकापुरीमें सनातन भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन सन्तुष्टचित्त होकर सदा आनन्दमग्न रहते थे l