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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 5, अध्याय 260 - Khand 5, Adhyaya 260

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सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह

महादेवजी कहते हैं— पार्वती ! बुद्धिमान् मुचुकुन्दके द्वारा कालयवनका वध करानेके पश्चात् उन्हें मुक्तिका वरदान दे भगवान् यदुनन्दन गुफासे बाहर निकले। कालयवनको मारा गया सुनकर दुर्बुद्धि जरासन्ध अपनी सेनाके साथ बलराम और श्रीकृष्णके साथ युद्ध करने लगा। भगवान् श्रीकृष्णने उस दुरात्माकी प्रायः सारी सेनाका संहार कर डाला। मगधराज मूच्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। बहुत देरके बाद जब उसे कुछ चेत हुआ तो उसके सारे अंगोंमें व्याकुलता छा रही थी। वह भयसे आतुर था। अब मगधराज जरासन्ध बलरामजीके साथ युद्ध करने का साहस न कर सका। उसने महाबली बलराम और श्रीकृष्णको अजेय समझा और मरनेसे बची हुई सेनाको साथ ले तुरंत ही वह अपनी राजधानीको भाग गया। अब उसने बलराम और श्रीकृष्णका विरोध छोड़ दिया। तदनन्तर वसुदेवजीके दोनों पुत्र अपनी सेनाके साथ द्वारका चले गये। वहाँ इन्द्रने वायुदेवताको भेजा और विश्वकर्माकी हुई सुधर्मा नामक देवसभाको प्रेमपूर्वक श्रीकृष्णको भेंट कर दिया। वह सभा हीरे और वैदूर्यमणिकी बनी हुई थी। चन्द्राकार सिंहासनसे उसकी विचित्र शोभा हो रही थी। नाना प्रकारके रत्नोंसे जटित सुवर्णमय दिव्य छत्रोंसे उसकी शोभा और भी बढ़ गयी थी उस रमणीय सभाको पाकर उग्रसेन आदि यदुवंशी वैदिक विद्वानोंके साथ उसमें बैठकर स्वर्ग-सभामें बैठे हुए देवताओंकी भाँति आनन्दका अनुभव करते थे। उन दिनों इक्ष्वाकुकुलमें उत्पन्न रैवत नामक एक राजा थे। उनके रेवती नामवाली एक कन्या थी, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थी। उन्होंने बड़ी प्रसन्नताके साथ अपनी कन्याका विवाह बलरामजीके साथ कर दिया। बलरामजीने वैदिक विधिके अनुसार रेवतीका पाणिग्रहण किया।

विदर्भ देशमें भीष्मक नामक एक धर्मात्मा राजा रहते थे। उनके रुक्मी आदि कई पुत्र हुए। उन सबसे छोटी एक कन्या भी हुई, जो बहुत ही सुन्दरी थी। उस कन्याका नाम रुक्मिणी था। वह भगवती लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसमें सभी शुभ लक्षण मौजूद थे। श्रीरामावतारके समय जो सीतारूपमें प्रकट हुई थीं,वे ही भगवती लक्ष्मी श्रीकृष्णावतारके समय रुक्मिणीके रूपमें अवतीर्ण हुई। पूर्वकालमें जो हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दैत्य हुए थे, वे ही द्वापर आनेपर पुनः शिशुपाल और दन्तवक्त्रके नामसे उत्पन्न हुए थे। उन दोनोंका जन्म चैद्यवंशमें हुआ था। दोनों ही बड़े बलवान् और पराक्रमी थे। राजकुमार रुक्मी अपनी बहिन रुक्मिणीका विवाह शिशुपालके साथ करना चाहता था; किन्तु सुन्दर मुखवाली रुक्मिणी शिशुपालको अपना पति नहीं बनाना चाहती थी। बचपनसे ही उसका भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनुराग था श्रीकृष्णको ही पति बनानेके उद्देश्यसे वह देवताओंका पूजन और भाँति-भाँति के दान किया करती थी। वह अपने सनातन स्वामी पुरुषोत्तमका ध्यान करती हुई कठोर व्रतमें संलग्न हो पिताके घरमें निवास करती थी। विदर्भराज भीष्मक अपने पुत्र रुक्मीके साथ मिलकर शिशुपालसे कन्याका विवाह करनेकी तैयारी करने लगे।

तब रुक्मिणीने भगवान् श्रीकृष्णको पति बनानेके उद्देश्यसे अपने पुरोहितके पुत्रको तुरंत ही द्वारकापुरीमें भेजा। ब्राह्मणदेवता द्वारकामें पहुँचकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीसे मिले। उन दोनोंने उनका विधिपूर्वक स्वागत-सत्कार किया। ब्राह्मणने एकान्तमें बैठकर उन दोनों भाइयोंसे रुक्मिणीका सारा संदेश कह सुनाया। उसे सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण और बलराम सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंसे परिपूर्ण आकाशगामी रथपर ब्राह्मणके साथ बैठे। महात्मा दारुकने उस रथको तीव्र गतिसे हाँका । अतः वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ शीघ्र ही विदर्भनगरमें जा पहुँचे। बुद्धिमान् शिशुपालके विवाहको देखनेके लिये सब राष्ट्रोंसे जरासन्ध आदि राजा आये थे। विवाहके दिन रुक्मिणी सोनेके आभूषणोंसे विभूषित हो दुर्गाजीकी पूजा करनेके लिये सखियोंके साथ नगरसे बाहर निकली। वह सन्ध्याका समय था। देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण उसी समय वहाँ पहुँचे। बलवान् तो थे ही, उन्होंने रथपर बैठी हुई रुक्मिणीको सहसा उठाकर अपने रथपर बिठा लिया और द्वारकाकी ओर चल दिये। यह देख जरासन्ध आदि राजा क्रोधमें भरकर राजकुमार रुक्मीको साथ ले युद्धके लिये उपस्थित हुए।उन्होंने चतुरंगिणी सेनाके साथ श्रीहरिका पीछा किया। तब महाबाहु बलभद्रजी उस उत्तम रथसे कूद पड़े। उन्होंने हल और मूसल लेकर युद्धमें शत्रुओंका संहार आरम्भ किया। कितने ही रथों, घोड़ों, बड़े-बड़े गजराजों तथा पैदल सैनिकोंको भी हल और मूसलकी मारसे कुचल डाला। जैसे वज्रके आघातसे पर्वत विदीर्ण हो जाते हैं, उसी प्रकार उनके हल और मूसल गिरने से रथोंकी पंक्तियाँ चूर-चूर हो गयीं और बड़े-बड़े हाथी भी धरतीपर ढेर हो गये। हाथियोंके मस्तक फट जाते और वे रक्त वमन करते हुए प्राणोंसे हाथ धो बैठते थे। इस प्रकार बलरामजीने क्षणभरमें हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों सहित सारी सेनाका सफाया कर दिया। राजाओंके पाँव उखड़ गये। वे सब के सब भयसे पीड़ित हो भाग चले। उधर रुक्मी क्रोधमें भरकर श्रीकृष्णके साथ लोहा ले रहा था। उसने धनुष उठाकर बाणोंके समूहसे श्रीकृष्णको बींधना आरम्भ किया। तब गोविन्दने हँसकर लीलापूर्वक अपना शार्ङ्गधनुष हाथमें उठाया और एक ही बाणसे रुक्मीके अश्व, सारथि, रथ और ध्वजापताकाको भी काट गिराया। रथ नष्ट हो जानेपर वह तलवार खींचकर पृथ्वीपर खड़ा हो गया। यह देख श्रीकृष्णने एक बाणसे उसकी तलवारको भी काट डाला। तब उसने श्रीकृष्णकी छातीमें मुक्केसे प्रहार किया। श्रीकृष्णने बलपूर्वक उसे पकड़कर रथमें बाँध दिया और हँसते-हँसते तीखा छुरा ले रुक्मीके सिरको मूड़कर उसे बन्धन से मुक्त कर दिया। इस अपमानके कारण उसको बड़ा शोक हुआ। वह चोट खाये हुए साँपकी भाँति लंबी साँस लेने लगा। लज्जाके कारण उसने विदर्भ-नगरीमें पाँव नहीं रखा। वहीं गाँव बसाकर वह रहने लगा।

तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण बलराम, रुक्मिणी और दारुकके साथ उस दिव्य रथपर आरूढ़ हो तुरंत अपनी पुरीको चले गये। द्वारकामें प्रवेश करके देवकीनन्दन श्रीकृष्णने शुभ दिन और शुभ लग्नमें सुवर्णमय आभूषणोंसे विभूषित राजकुमारी रुक्मिणीका वेदोक्त विधिसे पाणिग्रहण किया। उस विवाहके समय आकाशमेंदेवतालोग दुन्दुभि बजाते और फूलोंकी वर्षा करते थे। वसुदेव, उग्रसेन यदुश्रेष्ठ अक्रूर महातेजस्वी बलभद्र तथा और भी जो-जो श्रेष्ठ यादव थे; उन सबने बड़े उत्साह के साथ श्रीकृष्ण और रुक्मिणीका सुखमय विवाहोत्सव मनाया। उसमें ग्वालों और ग्वालबालोंके साथ नन्दगोप भी पधारे थे तथा वस्त्राभूषणोंसे विभूषित बहुत-सी गोपांगनाओंके साथ स्वयं यशोदाजी भी आयी थीं। वसुदेव देवकी, रेवती, रोहिणी देवी तथा अन्यान्य नगर-युवतियोंने मिलकर बड़े हर्षके साथ विवाहके सारे कार्य सम्पन्न किये। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँसहित देवकीने बड़ी प्रसन्नताके साथ विधिपूर्वक देव पूजनका कार्य सम्पन्न किया । श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने विवाहोत्सवसे सम्बन्ध रखनेवाला सारा शास्त्रीय कार्य पूर्ण किया। सुन्दर वस्त्र और आभूषणोंसे पूजित करके ब्राह्मणोंको भोजन कराया गया। आये हुए राजा, नन्द आदि गोप तथा यशोदा आदि स्त्रियोंका भी स्वर्ण-रत्न आदिके बहुत से आभूषणों एवं वस्त्रोंद्वारा यथावत् सत्कार किया गया। इस प्रकार उस वैवाहिक महोत्सवमें सम्मानित होकर वे सभी बड़े प्रसन्न हुए।

उन नूतन दम्पति श्रीकृष्ण और रुक्मिणीने ग्रन्थिबन्धनपूर्वक एक साथ अग्निदेवको प्रणाम किया। वेदोंके ज्ञाता श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने आशीर्वादके द्वारा उनका अभिनन्दन किया। उस समय विवाहकी वेदीपर बैठे हुए वर और वधूकी बड़ी शोभा हो रही थी। पत्नीसहित श्रीकृष्णने ब्राह्मणों, राजाओं और बड़े भाई बलरामजीको प्रणाम किया। इस प्रकार समस्त वैवाहिक कार्य सम्पन्न करके भगवान् श्रीकृष्णने विवाहोत्सवमें पधारे हुए समस्त राजाओंको विदा किया। उनसे सम्मानित एवं विदा होकर श्रेष्ठ राजा तथा महात्मा ब्राह्मण अपने अपने निवासस्थानको चले गये। इसके बाद धर्मात्मा भगवान् देवकीनन्दन रुक्मिणीदेवी के साथ दिव्य अट्टालिकामें बड़े सुखसे रहने लगे। मुनि और देवता उनकी स्तुति किया करते थे। उस शोभामयी द्वारकापुरीमें सनातन भगवान् श्रीकृष्ण प्रतिदिन सन्तुष्टचित्त होकर सदा आनन्दमग्न रहते थे l

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार