ऋषियोंने पूछा- सूतजी ! गन्धर्वश्रेष्ठ सुशंखने जब सुनीथाको शाप दे दिया, तब वह शाप उसके ऊपर किस प्रकार लागू हुआ ? उसके बाद सुनीथाने कौन-कौन-सा कार्य किया? और उसको कैसा पुत्र प्राप्त हुआ ? सूतजी बोले- ब्राह्मणो! हम पहले बता आये हैं। कि सुशंखके शाप देनेपर सुनीथा दुःखसे पीड़ित हो अपने पिताके निवासस्थानपर आयी और वहाँ उसने पितासे अपनी सारी करतूतें कह सुनायीं। मृत्युने सब बातें सुनकर अपनी पुत्री सुनीथासे कहा-'बेटी! तूने बड़ा भारी पाप किया है। तेरा यह कार्य धर्म और तेजका नाश करनेवाला है। काम-क्रोधसे रहित, परम शान्त, धर्मवत्सल और परब्रह्ममें स्थित तपस्वीको जो चोट पहुँचाता है. उसके पापात्मा पुत्र होता है तथा उसे उस पापका फल भोगना पड़ता है। वही जितेन्द्रिय और शान्त है, जो मारनेवालेको भी नहीं मारता । किन्तु तूने निर्दोष होनेपर भी उन्हें मारा है; अतः तेरे द्वारा यह महान् पाप हो गया है। पहले तूने ही अपराध किया है; फिरउन्होंने भी शाप दे दिया। इसलिये अब तू पुण्यकर्मोका आचरण कर, सदा साधु पुरुषोंके संगमें रहकर जीवन व्यतीत कर। प्रतिदिन योग, ध्यान और दानके द्वारा काल-यापन करती रह ।
बाले! सत्संग महान् पुण्यदायक और परम कल्याणकारक होता है। सत्संगका जो गुण है, उसके विषयमें एक सुन्दर दृष्टान्त देख। जल एक सद्वस्तु है; उसके स्पर्शसे, उसमें स्नान करनेसे, उसे पीनेसे तथा उसका दर्शन करनेसे भी बाहर और भीतरके दोष धुल जानेके कारण मुनिलोग सिद्धि प्राप्त करते हैं तथा समस्त चराचर प्राणी भी जल पीते रहनेसे दीर्घायु होते हैं। [इसी प्रकार संतोंके संगसे मनुष्य शुद्ध एवं सफलमनोरथ होते हैं ।] पुत्री ! सत्संगसे मनुष्य संतोषी, मृदुगामी, सबका प्रिय करनेवाला, शुद्ध, सरस, पुण्यबलसे सम्पन्न, शारीरिक और मानसिक मलोंको दूर करनेवाला, शान्तस्वभाव तथा सबको सुख देनेवाला होता है। जैसे सुवर्ण अग्निके सम्पर्क में आनेपर मैल त्याग देता है, उसी प्रकार मनुष्य संतोंके संगसे पापकापरित्याग कर देता है। * जिसमें सत्यकी अग्नि प्रज्वलित रहती है, वह अपने पुण्यमय तेजसे प्रकाशमान होता रहता है। जिसमें सत्यकी दीप्ति है, जो ज्ञानके द्वारा भी अत्यन्त निर्मल हो गया है तथा ध्यानके द्वारा अत्यन्त तेजस्वी प्रतीत होता है, पापसे पैदा हुए मनुष्य उसका स्पर्श नहीं कर सकते। सत्यरूपी अग्निसे महात्मा पुरुष पापरूपी ईंधनको भस्म कर डालना चाहता है। इसलिये बेटी! तुझे सत्यका संसर्ग करना चाहिये, असत्यका नहीं। महाभागे ! जाओ, भगवान् श्रीविष्णुका चिन्तन करो; पापभावको छोड़कर केवल पुण्यका आश्रय लो।'
पिताके इस प्रकार समझानेपर दुःखमें पड़ी हुई सुनीथा उनके चरणोंमें प्रणाम करके निर्जन वनमें चली गयी और वहाँ एकान्तमें रहकर तपस्या करने लगी। उसने काम, क्रोध, बालोचित चपलता, मोह, द्रोह औरमायाको त्याग दिया। एक दिन उसके पास उसकी रम्भा आदि सखियाँ, जो तपः शक्तिसे सम्पन्न थीं, आयीं। उन्होंने देखा, सुनीथा दुःखका अनुभव कर रही है। ध्यानके ही साथ उसे चिन्ता करते देख वहाँ आयी हुई सहेलियोंने कहा- 'सखी! तुम्हारा कल्याण हो, तुम चिन्ता किसलिये करती हो? इस चिन्तामें क्यों डूबी हुई हो ? अपने सन्तापका कारण बताओ। चिन्ता तो केवल दुःख देनेवाली होती है। एक ही चिन्ता सार्थक मानी गयी है, जो धर्मके लिये की जाती है। धर्मनन्दिनी! दूसरी चिन्ता जो योगियोंके हृदयमें होती है, [जिसके द्वारा वे ब्रह्मका चिन्तन करते हैं] वह भी सार्थक है। इनके सिवा और जितनी भी चिन्ताएँ हैं, सब निरर्थक हैं। उसकी कल्पना भी नहीं करनी चाहिये। चिन्ता शरीर, बल और तेजका नाश करनेवाली है; वह सारे सुखोंको नष्ट कर डालती है। साथ ही रूपको भी हानि पहुँचाती है। चिन्ता तृष्णा, मोह और लोभ इन तीन दोषोंको ले आती है तथा प्रतिदिन उसीमें घुलते रहनेपर वह पापको भी उत्पन्न करती है। चिन्ता रोगोंकी उत्पत्ति और नरककी प्राप्तिका कारण है। अतः चिन्ताको छोड़ो। जीव पूर्वजन्ममें अपने कर्मोंद्वारा जिन शुभाशुभ भोगोंका उपार्जन करता है, उन्हीं का वह दूसरे जन्ममें उपभोग करता है। अतः समझदारको चिन्ता नहीं करनी चाहिये। तुम चिन्ता छोड़कर अपने सुख-दुःख आदिकी ही बात बताओ।
सखियोंके ये वचन सुनकर सुनीथाने अपना वृत्तान्त कहना आरम्भ किया। पहले सुशंखने उसे वनमें जिस प्रकार शाप दिया था, वह सारी घटना उसने सहेलियोंसे कह सुनायी। उसने अपने अपराधोंका भी वर्णन किया। उस समय महाभागा सुनीथा मानसिक दुःखसे बड़ा कष्टपा रही थी। उसका सारा वृत्तान्त सुनकर सखियाँने कहा-'महाभागे तुम्हें दुःखको तो त्याग ही देना चाहिये, क्योंकि वह शरीरका नाश करनेवाला है शुभे तुम्हारे अंगोंमें सती स्त्रियोंके जो उत्तम गुण हैं, उन्हें हम अन्यत्र कहीं नहीं देखतीं। उत्तम स्त्रियोंका पहला आभूषण रूप है, दूसरा शील, तीसरा सत्य, चौथा आर्यता (सदाचार), पाँचवाँ धर्म, छठा सतीत्व, सातवाँ दृढ़ता, आठवाँ साहस (कार्य करनेका उत्साह), नवाँ मंगलगान, दसवाँ कार्य कुशलता, ग्यारहवाँ कामभावका आधिक्य और बारहवाँ गुण मीठे वचन बोलना है। बाले! इन सभी गुणांने तुम्हारा सम्मान बढ़ाया है; अतः देवि! तुम तनिक भी भय न करो। वरानने। जिस उपायसे तुम्हें धर्मात्मा पतिकी प्राप्ति होगी, उसे हम जानती हैं। तुम्हारा काम तो हमलोग ही सिद्ध कर देंगी। महाभागे ! अब तुम स्वस्थ एवं निश्चिन्त हो जाओ। हम तुम्हें एक ऐसी विद्या प्रदान करेंगी, जो पुरुषोंको मोहित कर लेती है।
यह कहकर सखियोंने सुनीथाको वह सुखदायक विद्याबल प्रदान किया और कहा- 'कल्याणी! तुम देवता आदिमेंसे जिस-जिस पुरुषको मोहित करना चाहो, उसे उसे तत्काल मोहित कर सकती हो।' सखियोंके यों कहनेपर सुनीथाने उस विद्याका अभ्यास किया। जब वह विद्या भलीभाँति सिद्ध हो गयी, तब सुनीथा बड़ी प्रसन्न हुई। वह सखियोंके साथ ही पुरुषोंको देखती हुई वनमें घूमने लगी। तदनन्तर उसने गंगाजीके तटपर एक रूपवान् ब्राह्मणको देखा, जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न और सूर्यके समान तेजस्वी थे। वे तपस्या कर रहे थे। उनका प्रभाव दिव्य था। उन तपस्वी महर्षिका रूप देखकर सुनीथाका मन मोह गया। उसने अपनी सखी रम्भासे पूछा—'ये देवताओंसे भी श्रेष्ठ महात्मा कौन हैं ?' रम्भा बोली- 'सखी अव्यक्त परमेश्वरसे ब्रह्माजीकी उत्पत्ति हुई है। उनसे प्रजापति अत्रिका जन्म हुआ, जो बड़े धर्मात्मा हैं। ये महामना तपस्वी उन्होंके पुत्र हैं, इनका नाम अंग है। भद्रे ये नन्दनवनमें आये थे। वहाँ नाना प्रकारके तेजसे सम्पन्न इन्द्रका वैभवदेखकर इन्होंने भी उनके समान पद पानेकी अभिलाषा की। सोचा- जब मुझे भी वंशको बढ़ानेवाला ऐसा ही पुत्र प्राप्त हो, तब मेरा जन्म कल्याणकारी हो सकता है, साथ ही यश और कीर्ति भी मिल सकती है।' ऐसा विचार करके इन्होंने तपस्या और नियमोंके द्वारा भगवान् हृषीकेशकी आराधना की है। जब भगवान् अत्यन्त प्रसन्न होकर इनके सामने प्रकट हुए, तब इन महर्षिने इस प्रकार वर माँगा - 'मधुसूदन! मुझे इन्द्रके समान वैभवशाली तथा अपने समान तेजस्वी एवं पराक्रमी पुत्र प्रदान कीजिये । वह पुत्र आपका भक्त एवं सब पापों का नाश करनेवाला होना चाहिये।' श्रीभगवान्ने कहा—'महात्मन्! मैंने तुम्हें ऐसा पुत्र होनेका वर दिया। वह सबका पालन करनेवाला होगा।" [यों कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।] तबसे विप्रवर अंग किसी पवित्र कन्याकी तलाशमें हैं। जैसी तुम सब अंगों से मनोहर हो, वैसे ही कन्या वे चाहते हैं; अतः इन्हींको पतिरूपमें प्राप्त करो। इनसे तुम्हें पुण्यात्मा पुत्रकी प्राप्ति होगी। ये महाभाग तपस्वी और पुण्यबलसे सम्पन्न हैं। इनके वीर्यसे उत्पन्न हुआ पुत्र इन्हींकी गुणसम्पत्तिसे युक्त, महातेजस्वी, समस्त धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, परम सौभाग्यशाली, युक्तात्मा और योगतत्त्वका ज्ञाता होगा।"
सुनीधा बोली- भद्रे तुमने ठीक कहा है. मैं ऐसा ही करूंगी। इस विद्यासे ब्राह्मणको मोहमें डालूंगी। तुम मुझे सहायता प्रदान करो; जिससे इस समय मैं उनके पास जाऊँ।
रम्भाने कहा- मैं तुम्हारी सहायता करूँगी, तुम मुझे आज्ञा दो।' सुनीथाके नेत्र बड़े-बड़े थे। वह रूप और यौवनसे शोभा पा रही थी। उसने सद्भावनापूर्वक मायासे दिव्यरूप धारण किया। उसका मुख बड़ा ही मनोहर था। संसारमें उसके सुन्दर रूपकी कहीं तुलना नहीं थी। वह तीनों लोकोंको मोहित करने लगी। सुन्दरी सुनीथा झूलेपर जा बैठी और वीणा बजाती हुई मधुर स्वरमें गीत गाने लगी। उसका स्वर बड़ा मोहक था। उस समय महर्षि अंग अपनी पवित्र गुफाके भीतर एकान्तमें ध्यान लगाये बैठे थे। वे काम-क्रोधसे रहितहोकर भगवान् श्रीजनार्दनका चिन्तन कर रहे थे। उत्तम ताल - स्वरके साथ गाया हुआ वह मधुर और मनोहर गीत सुनकर अंगका चित्त ध्यानसे विचलित हो गया। उस मायामय संगीतने उन्हें मोह लिया था। वे तुरंत ही आसनसे उठे और बारंबार इधर-उधर दृष्टि दौड़ाने लगे। मायासे उनका मन चंचल हो उठा था। वे बड़े वेगसे बाहर निकले और झूलेपर बैठी हुई वीणाधारिणी स्त्रीकी ओर देखा। वह मुसकराती हुई गा रही थी। महायशस्वी अंग उसके गीत और रूप दोनोंपर मुग्ध हो गये। तत्पश्चात् वे महान् मोहके वशीभूत हो उस तरुणीके पास गये। विशाल नेत्र और मनोहर मुसकानवाली मृत्युकी यशस्विनी कन्या सुनीथाको देखकर अंगने पूछा-'सुन्दरी तुम कौन हो? किसकी ! कन्या हो ? सखियोंसे घिरी हुई यहाँ किस कामसे आयी हो ? किसने तुम्हें इस वनमें भेजा है ?"
परम बुद्धिमान् अंगका यह महत्त्वपूर्ण वचन सुनकर सुनीथा उनसे कुछ न बोली। उसने केवल सखीके मुखकी ओर देखा। रम्भाने इशारेसे कुछ कहकर सुनीथाको समझा दिया और वह स्वयं ही उन श्रेष्ठ ब्राह्मणसे आदरपूर्वक बोली- महर्षे यह मृत्युकी परम सौभाग्यवती कन्या है, लोकमें इसकी सुनीथाके नामसे प्रसिद्धि है। यह सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न है। इस समय यह बाला अपने लिये धर्मात्मा, तपस्वी, शान्त, जितेन्द्रिय, महाप्राज्ञ और वेदविद्या-विशारद पतिकी खोज है।'
यह सुनकर अंगने अप्सराओंमें श्रेष्ठ रम्भासे कहा- 'भद्रे ! मैंने सर्वविश्वमय भगवान् श्रीहरिकी आराधना की है; उन्होंने मुझे पुत्र होनेका वरदान दिया है, जो सम्पूर्ण सिद्धियोंका दाता है। अतः इस वरदानकी सफलता के निमित्त उत्तम पुत्रकी प्राप्तिके लिये मैं किसी पुण्यबलसे सम्पन्न महापुरुषकी कन्याके साथ विवाहका विचार कर रहा था किन्तु कहीं भी अपने लिये परम मंगलमयी कन्या नहीं पा सका। यह धर्मकी सुमुखी कन्या धर्माचारपरायणा है। यदि वास्तवमें यह पतिकी ही तलाशमें है तो मुझे ही स्वीकार करे।इसकी प्राप्तिके लिये मैं अदेव वस्तु भी दे सकता हूँ।'
रम्भा बोली- 'द्विजश्रेष्ठ! आपको इसी प्रकार उदारतापूर्वक इसकी अभीष्ट वस्तु इसे देनी चाहिये। यह सदाके लिये आपकी धर्मपत्नी हो रही है आप कभी इसका परित्याग न करें। इसके दोष गुणोंपर कभी आपको ध्यान नहीं देना चाहिये। विप्रवर इस विषयमें आप मुझे प्रत्यक्ष विश्वास दिलाइये। सत्यकी प्रतीति दिलानेवाला अपना हाथ इसके हाथमें दीजिये।' अंगने कहा- 'एवमस्तु निश्चय ही अपना हाथ मैंने इसे दे दिया।'
इस प्रकार सत्यका विश्वास करानेवाला सम्बन्ध करके अंगने सुनीथाको गान्धर्वविवाहकी प्रणालीके अनुसार ग्रहण किया। सुनीथाको उन्हें सौंपकर रम्भाके हृदयमें बड़ा हर्ष हुआ। वह अपनी सखीसे आज्ञा लेकर घरको चली गयी। दूसरी दूसरी सखियोंने भी प्रसन्न होकर अपने-अपने घरकी राह ली। उन सब सहेलियोंके चले जानेपर द्विजश्रेष्ठ अंग अपनी प्यारी पत्नीके साथ विहार करने लगे। उसके गर्भसे उन्होंने एक सर्वलक्षण सम्पन्न पुत्र उत्पन्न किया और उसका नाम वेन रखा। सुनीथाका वह महातेजस्वी बालक दिनोदिन बढ़ने लगा और वेद-शास्त्र तथा उपकारी धनुर्वेदका अध्ययन करके समस्त विद्याओंका पारगामी विद्वान् हो गया। क्योंकि यह बड़ा मेधावी था अंगकुमार चेन सज्जनोचित आचारसे रहता था। वह क्षत्रियधर्मका पालन करने लगा। वैवस्वत मन्वन्तर आनेपर संसारकी सारी प्रजा राजाके बिना निरन्तर कष्ट पाने लगी। उस समय सब लोगोंने वेनको ही सब लक्षणोंसे सम्पन्न देखा तब श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने उन्हें प्रजापतिके पदपर अभिषिक्त कर दिया। तत्पश्चात् समस्त ऋषि अपने-अपने तपोवनमें चले गये। उन सबके जानेके पश्चात् अकेले वेन ही राज्यका पालन करने लगे। इस प्रकार वेन भूमण्डलके प्रजापालक हुए। उनके समयमें सब लोग सुखसे जीवन बिताते थे। प्रजा उनके धर्मसे प्रसन्न रहती थी। वेनके राज्यका प्रभाव ऐसा ही था। उनके शासनकालमें सर्वत्र धर्मका प्रभाव छा रहा था।