शेषजी कहते हैं—मुने! महर्षि च्यवनके अचिन्तनीय तपोबलको देखकर शत्रुघ्नने विश्व- वन्दित ब्राह्मबलकी बड़ी प्रशंसा की। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'कहाँ तो विशुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंको स्वतः प्राप्त होनेवाली महान् भोगोंकी सिद्धि और कहाँतपोबलसे हीन मनुष्योंकी भोगेच्छा !' इस प्रकार सोचते हुए शत्रुघ्नने च्यवन मुनिके आश्रमपर थोड़ी देरतक ठहरकर जल पीया और सुख एवं आरामका अनुभव किया। उनका घोड़ा पुण्यसलिला पयोष्णी नदीका जल पीकर आगेके मार्गपर चल पड़ा। सैनिकोंने जब उसेआश्रमसे निकलते देखा, तो वे भी उसके पीछे-पीछे चल दिये। कुछ लोग हाथीपर थे और कुछ लोग रथोंपर कुछ घोड़ोंपर सवार थे और कुछ लोग पैदल ही जा रहे थे। शत्रुघ्नने भी मन्त्रिवर सुमतिके साथ घोड़ोंसे सुशोभित होनेवाले रथपर बैठकर बड़ी शीघ्रताके साथ यज्ञसम्बन्धी अश्वका अनुसरण किया। वह घोड़ा आगे बढ़ता हुआ राजा विमलके रत्नातट नामक नगरमें जा पहुँचा। राजाने जब अपने सेवकके मुँह से सुना कि श्रीरघुनाथजीका श्रेष्ठ अश्व सम्पूर्ण योद्धाओंके साथ अपने नगरके निकट आया है, तो वे शत्रुघ्नके पास गये और उन्हें प्रणाम करके अपना रत्न, कोष, धन और सारा राज्य सौंपते हुए सामने खड़े होकर बोले- मैं कौन-सा कार्य करूँ - मेरे लिये क्या आज्ञा होती है?' शत्रुघ्नने भी उन्हें अपने चरणोंमें नतमस्तक देख दोनों भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया। इसके बाद राजा विमल भी पुत्रको राज्य देकर अनेकों धनुर्धर योद्धाओं सहित शत्रुघ्नजीके साथ गये। सबके मन और कानोंको प्रिय लगनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका मधुर नाम सुनकर प्रायः सभी राजा उस यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको प्रणाम करते औरबहुमूल्य रत्न एवं धन भेंट देते थे। इस प्रकार अश्वके मार्गपर जाते हुए शत्रुघ्नने एक बहुत ऊँचा पर्वत देखा । उसे देखकर उनका मन आश्चर्यचकित हो गया; अतः वे मन्त्री सुमतिसे बोले-'मन्त्रिवर! यह कौन-सा पर्वत है, जो मेरे मनको विस्मयमें डाल रहा है। इसके बड़े-बड़े शिखर चाँदीके समान चमक रहे हैं। मार्गमें इस पर्वतकी बड़ी शोभा हो रही है मुझे तो यह बड़ा अद्भुत जान पड़ता है। क्या यहाँ देवताओंका निवासस्थान है या यह उनकी क्रीडास्थली है? यह पर्वत अपनी सब प्रकारकी शोभासे मेरे मनको मोहे लेता है।'
शत्रुघ्नजीका यह प्रश्न सुनकर मन्त्री सुमति, जिनका थित सदा श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें लगा रहता था, बोले- राजन् ! हमलोगोंके सामने यह नीलपर्वत शोभा पा रहा है। इसके चारों ओर फैले हुए बड़े-बड़े शिखर स्फटिक आदि मणियोंके समूह हैं; अतएव वे बड़े मनोहर प्रतीत होते हैं पापी और परस्त्री लम्पट मनुष्य इस पर्वतको नहीं देख पाते। जो नीच मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके गुणोंपर विश्वास या आदर नहीं करते, सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए श्रौत और स्मार्त धर्मोंको नहीं मानते तथा सदा अपने बौद्धिक तर्कके आधारपर ही विचार करते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। नील और लाहकी बिक्री करनेवाले मनुष्य, घी आदि बेचनेवाला ब्राह्मण तथा शराबी मनुष्य भी इसके दर्शनसे वंचित रहते हैं जो पिता अपनी रूपवती कन्याका किसी कुलीन वरके साथ ब्याह नहीं करता, बल्कि पापसे मोहित होकर धनके लोभसे उसको बेच देता है, उसे भी इसका दर्शन नहीं होता। जो मनुष्य उत्तम कुल और शीलसे युक्त सती साध्वी स्त्रीको कलंकित करता है तथा भाई बन्धुओंको न देकर स्वयं ही मीठे पकवान उड़ाता है, जो ब्राह्मणका धन हड़प लेनेके लिये जालसाजी करता है, रसोईमें भेद करता है तथा जो दूषित विचार रखनेके कारण केवल अपने लिये खिचड़ी या खीर बनाता है, वह भी इस पर्वतको नहीं देख पाता। महाराज ! जो मध्याह्नकालमें भूखसे पीड़ित होकर आये हुए अतिथियोंका अपमान करते हैं, दूसरोंके साथविश्वासघात करते रहते हैं तथा जो श्रीरघुनाथजीके भजनसे विमुख होते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। यह श्रेष्ठ पर्वत बड़ा ही पवित्र है, पुरुषोत्तमका निवासस्थान होनेसे इसकी शोभा और भी बढ़ गयी है। अपने दर्शनसे यह मनोहर शैल हम सब लोगोंको पवित्र कर रहा है। देवताओंके मुकुटोंसे जिनके चरणोंकी पूजा होती है— जहाँ देवता अपने मुकुटमण्डित मस्तक झुकाया करते हैं, पुण्यात्मा पुरुष ही जिनका दर्शन पानेके अधिकारी हैं, वे पुण्य-प्रदाता भगवान् पुरुषोत्तम इस पर्वतपर विराजमान हैं। वेदकी श्रुतियाँ 'नेति नेति' कहकर निषेधकी अवधिरूपसे जिनको जानती हैं, इन्द्रादि देवता भी जिनके चरणोंकी रज ढूँढ़ा करते हैं फिर भी उन्हें सुगमतासे प्राप्त नहीं होती तथा विद्वान् पुरुष वेदान्त आदिके महावाक्योंद्वारा जिनका बोध प्राप्त करते हैं, वे ही श्रीमान् पुरुषोत्तम इस महान् पर्वतपर विराज रहे हैं। जो इस नीलगिरिपर चढ़कर भगवान्को नमस्कार करता और पुण्यकर्म आदिके द्वारा उनकी पूजा करके उनका प्रसाद ग्रहण करता है, वह साक्षात् भगवान् चतुर्भुजका स्वरूप हो जाता है।
महाराज! इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं, उसको सुनो राजा रत्नग्रीवको अपने परिवारके साथ ही जो 'चार भुजा' आदि भगवान्का सारूप्य प्राप्त हुआ था, उसीका इस उपाख्यानमें वर्णन है। ऐसा सौभाग्य देवता और दानवोंके लिये भी दुर्लभ है। यह आश्चर्यपूर्ण वृत्तान्त इस प्रकार है-तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध जो कांची नामकी नगरी है, वह पूर्वकालमें बड़ी सम्पन्न अवस्थामें थी, वहाँ बहुत अधिक मनुष्योंकी आबादी थी। सेना और सवारी सभी दृष्टियोंसे कांची बड़ी समृद्धिशालिनी पुरी थी। वहाँ ब्राह्मणोचित छ कमोंमें निरन्तर लगे रहनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे, जो सब प्राणियोंके हितमें संलग्न और श्रीरामचन्द्रजीके भजनके लिये सदा उत्कण्ठित रहनेवाले थे वहाँकै क्षत्रिय युद्धमें लोहा लेनेवाले थे। वे संग्राममें कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। परायी स्त्री, पराये धन और परद्रोहसे वे सदा दूररहनेवाले थे। वैश्य भी ब्याज, खेती और व्यापार आदि शुभ से जीविका चलाते हुए निरन्तर श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें अनुराग रखते थे। शूद्र जातिके मनुष्य रात-दिन अपने शरीरसे ब्राह्मणोंकी सेवा करते और जिसे 'राम-राम' की रट लगाये रहते थे। वहाँ नीच श्रेणीके मनुष्यों में भी कोई ऐसा नहीं था, जो मनसे भी पाप करता हो। उस नगरीमें दान, दया, दम और सत्य- ये सदा विराजमान रहते थे। कोई भी मनुष्य ऐसी बात नहीं बोलता था, जो दूसरोंको कष्ट पहुँचानेवाली हो। वहाँके लोग न तो पराये धनका लोभ रखते और न कभी पाप ही करते थे। इस प्रकार राजा रत्नग्रीव प्रजाका पालन करते थे। वे लोभसे रहित होकर केवल प्रजाकी आपके छठे अंशको 'कर' के रूपमें ग्रहण करते थे, इससे अधिक कुछ नहीं लेते थे। इस तरह धर्मपूर्वक प्रजाका पालन और सब प्रकारके भोगोंका उपभोग करते हुए राजाके अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन उन्होंने अपनी धर्मपत्नी विशालाक्षीसे, जो पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली पतिव्रता थी, कहा- 'प्रिये! अब अपने पुत्र प्रजाकी रक्षाका भार सँभालनेवाले हो गये। भगवान् महाविष्णुके प्रसादसे मेरे पास किसी बातकी कमी नहीं है। अब मेरे मनमें केवल एक ही अभिलाषा रह गयी है, वह यह कि मैंने आजतक किसी परम कल्याणमय उत्तम तीर्थका सेवन नहीं किया। जो मनुष्य जन्मभर अपना पेट ही भरता रहता है, भगवान्की पूजा नहीं करता वह बैल माना गया है, इसलिये कल्याणी! मैं राज्यका भार पुत्रको सौंपकर अब कुटुम्बसहित तीर्थयात्राके लिये चलना चाहता हूँ।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने सन्ध्याकालमें भगवान्का ध्यान किया और आधी रातको सोते समय स्वप्नमें एक श्रेष्ठ तपस्वी ब्राह्मणको देखा। फिर सबेरे उठकर उन्होंने सन्ध्या आदि नित्यकर्म पूरे किये और सभामें जाकर मन्त्रीजनोंके साथ वे सुखपूर्वक विराजमान हुए इतने में ही उन्हें एक दुर्बल शरीरवाले तपस्वी ब्राह्मण दिखायी दिये, जो जटा, वल्कल और कौपीन धारण किये हुए थे। उनके हाथमें एक छड़ी थी तथा अनेकोंतौथोंके सेवनसे उनका शरीर पवित्र हो गया था। महाबाहु राजा रत्नग्रीवने उन्हें देख मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और प्रसन्नचित्त होकर अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया। जब ब्राह्मण सुखपूर्वक आसनपर बैठकर विश्राम कर चुके तो राजाने उनका परिचय जानकर इस प्रकार प्रश्न किया- 'स्वामिन्! आज आपके दर्शनसे मेरे शरीरका समस्त पाप निवृत्त हो गया। वास्तवमें महात्मा पुरुष दीन दुःखियोंको रक्षाके लिये ही उनके घर जाते हैं। ब्रह्मन् अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ; इसलिये मुझे एक बात बताइये। कौन-सा देवता अथवा कौन ऐसा तीर्थ है जो गर्भवासके कष्टसे बचाने में समर्थ हो सकता है? आपलोग समाधि और ध्यानमें तत्पर रहनेवाले हैं; अतः सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं।'
ब्राह्मणने कहा- महाराज! आपने तीर्थ सेवनके विषयमें जिज्ञासा करते हुए जो यह प्रश्न किया है कि किस देवताकी कृपासे गर्भवासके कष्टका निवारण हो सकता है? सो उसके विषयमें बता रहा हूँ, सुनिये - 'भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि वे ही संसाररूपी रोगका नाश करनेवाले हैं। वे ही भगवान् पुरुषोत्तमके नामसे प्रसिद्ध हैं, उन्होंकी पूजा करनी चाहिये। मैंने सब पापोंका क्षय करनेवाली अनेकों पुरियों और नदियोंका दर्शन किया है- अयोध्या, सरयू, तापी, हरिद्वार, अवन्ती, विमला, कांची, समुद्रगामिनी नर्मदा, गोकर्ण और करोड़ों हत्याओंका विनाश करनेवाला हाटकतीर्थ - इन सबका दर्शन पापको दूर करनेवाला है। मल्लिका नामसे प्रसिद्ध महान् पर्वत मनुष्यों को दर्शनमात्रसे मोक्ष देनेवाला है तथा वह पातकोंका भी नाश करनेवाला तीर्थ है,
उसका भी मैंने दर्शन किया है। देवता और असुर दोनों जिसका सेवन करते हैं, उस द्वारवती (द्वारकापुरी) तीर्थका भी मैंने दर्शन किया है। वहीं कल्याणमयी गोमती नामकी नदी बहती है, जिसका जल साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। उसमें शयन करना (डूबना) लय कहलाता है और मृत्युको प्राप्त होना मोक्ष ऐसा श्रुतिका वचन है। उस पुरीमें निवास करनेवाले मनुष्योंपरकलियुग कभी अपना प्रभाव नहीं डाल पाता। जहाँके पत्थर भी चक्रसे चिह्नित होते हैं, मनुष्य तो चक्रका चिह्न धारण करते ही हैं; वहाँके पशु-पक्षी और कीट पतंग आदि सबके शरीर चक्र अंकित होते हैं। उस पुरी सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र रक्षक भगवान त्रिविक्रम निवास करते हैं। मुझे बड़े पुण्यके प्रभावसे उस द्वारकापुरीका दर्शन हुआ है। साथ ही जो सब प्रकारकी हत्याओंका दोष दूर करनेवाला है तथा जहाँ महान् पातकोंका नाश करनेवाला स्यमन्तपंचक नामक तीर्थ है, उस कुरुक्षेत्रका भी मैंने दर्शन किया है। इसके सिया, मैंने वाराणसीपुरीको भी देखा है, जिसे भगवान् विश्वनाथने अपना निवासस्थान बनाया है। जहाँ भगवान् शंकर मुमूर्षु प्राणियोंको तारक ब्रह्मके नामसे प्रसिद्ध 'राम' मन्त्रका उपदेश देते हैं। जिसमें मरे हुए कीट, पतंग, भृंग, पशु-पक्षी आदि तथा असुर-योनिके प्राणी भी अपने-अपने कर्मोके भोग और सीमित सुखका परित्याग करके दुःख-सुखसे परे हो कैलासको प्राप्त हो जाते हैं तथा जहाँ मणिकर्णिकातीर्थ और उत्तरवाहिनी गंगा हैं, जो पापियोंका भी संसारबन्धन काट देती हैं। राजन्। इस प्रकार मैंने अनेकों तीर्थोंका दर्शन किया है; परन्तु नीलगिरिपर भगवान् पुरुषोत्तमके समीप जो महान् आश्चर्यकी घटना देखी है वह अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई है।
पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिपर जो वृत्तान्त घटित हुआ था, उसे सुनिये इसपर श्रद्धा और विश्वास करनेवाले पुरुष सनातन ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। मैं सब तीर्थों में भ्रमण करता हुआ नीलगिरिपर गया, जिसका आँगन सदा गंगासागरके जलसे धुलता रहता है वहाँ पर्वतके शिखरपर मुझे कुछ ऐसे भील दिखायी दिये, जिनकी चार भुजाएँ थीं और वे धनुष धारण किये हुए थे। वे फल मूलका आहार करके वहाँ जीवन निर्वाह करते थे, उस समय उन्हें देखकर मेरे मनमें यह महान् सन्देह खड़ा हुआ कि ये धनुष-बाण धारण करनेवाले जंगली मनुष्य चतुर्भुज कैसे हो गये? वैकुण्ठलोकमें निवास करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुषोंका जैसा स्वरूप शास्त्रोंमें देखा जाता हैतथा जो ब्रह्मा आदिके लिये भी दुर्लभ है, ऐसा स्वरूप इन्हें कैसे प्राप्त हो गया ? भगवान् विष्णुके निकट रहनेवाले उनके पार्षदोंके हाथ, जिस प्रकार शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष तथा कमलसे सुशोभित होते हैं तथा उनके शरीरपर जैसे वनमाला शोभा पाती है, उसी • प्रकार ये भील भी क्यों दिखायी दे रहे हैं? इस प्रकार सन्देहमें पड़ जानेपर मैंने उनसे पूछा- 'सज्जनो ! आपलोग कौन हैं? और यह चतुर्भुज स्वरूप आपको कैसे प्राप्त हुआ है?' मेरा प्रश्न सुनकर वे लोग बहुत हँसे और कहने लगे ये महाशय ब्राह्मण होकर भी यहाँके पिण्ड दानकी अद्भुत महिमा नहीं जानते। ' यह सुनकर मैंने कहा- 'कैसा पिण्ड और किसको दिया जाता है? चतुर्भुज शरीर धारण करनेवाले महात्माओ । मुझे इसका रहस्य बताओ।' मेरी बात सुनकर उन महात्माओंने, जिस तरह उन्हें चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई थी, वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया।
किरात बोले- ब्राह्मण! हमलोगोंका वृत्तान्त सुनो; हमारा एक बालक प्रतिदिन जामुन आदि वृक्षोंके फल खाता और अन्य बालकोंके साथ विचरा करता था। एक दिन घूमता- घामता वह यहाँ आया और शिशुओंके साथ ही इस पर्वतके मनोहर शिखरपर चढ़ गया। ऊपर जाकर उसने देखा, एक अद्भुत देवमन्दिर है, उसकी दीवार सोनेकी बनी हुई है। जिसमें गारुत्मत आदि नाना प्रकारकी मणियाँ जड़ी हुई है। वह अपनी कान्तिसे सूर्यकी भाँति अन्धकारका नाश कर रहा है। उसे देखकर बालकको बड़ा विस्मय हुआ और उसने मन ही मन सोचा- 'यह क्या है, किसका घर है ? जरा चलकर देखूं तो सही, यह महात्माओंका कैसा स्थान है?' ऐसा विचारकर वह बड़भागी बालक मन्दिरके भीतर घुस गया। वहाँ जाकर उसने देवाधिदेव पुरुषोत्तमका दर्शन किया, जिनके चरणोंमें देवता और असुर सभी मस्तक झुकाते हैं। जिनका श्रीविग्रह किरीट, हार, केयूर और ग्रैवेयक (कण्ठा) आदिसे सुशोभित रहता है। जो कानोंमें अत्यन्त उज्ज्वल और मनोहर कुण्डल धारण करते हैं। जिनके युगल चरणकमलोंपरतुलसीको सुगन्धसे मतवाले हुए भँवरे महराया करते हैं। शंख, चक्र, गदा और कमल आदि परिकर दिव्य शरीर धारण करके जिनके चरणोंकी आराधना करते हैं तथा नारद आदि देवर्षि जिनके श्रीविग्रहकी सेवामें लगे रहते हैं, ऐसे भगवान्की उस बालकने झाँकी की। वहाँ भगवान् की उपासनामें लगे हुए देवताओंमेंसे कुछ • लोग गाते थे, कुछ नाच रहे थे और कुछ लोग अद्भुत रूपसे अट्टहास कर रहे थे। वे सभी विश्ववन्दित भगवान्को रिझाने में ही लगे हुए थे। भगवान्को देखकर हमारा बालक उनके निकट चला गया। देवताओंने अच्छी तरह पूजा करके श्रीरमावल्लभ भगवान्को भूप और नैवेद्य अर्पण किया तथा आदरपूर्वक उनकी आरती करके भगवत् कृपाका अनुभव करते हुए वे सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। उस बालकके सौभाग्यवश वहाँ भगवान्को भोग लगाया हुआ भात (महाप्रसाद) गिरा हुआ था, जो मनुष्योंके लिये अलभ्य और देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; वही उसे मिल गया। उसको खाकर बालकने भगवान्के श्रीविग्रहका दर्शन किया। इससे उसे चतुर्भुज रूपकी प्राप्ति हो गयीऔर वह अत्यन्त सुन्दर दिखायी देने लगा। चार भुजा आदि भगवत्सारूप्यको प्राप्त हो शंख, चक्र आदि धारण किये जब वह बालक घर आया तो हमलोगोंने बारम्बार उसकी ओर देखकर पूछा 'तुम्हारा यह अद्भुत स्वरूप कैसे हो गया?' तब बालक अपने आश्चर्ययुक्त वृत्तान्तका वर्णन करने लगा- 'मैं नीलगिरिके शिखरपर गया था, वहाँ मैंने देवाधिदेव भगवान्का दर्शन किया है, वहीं भगवान्को भोग लगाया हुआ मनोहर प्रसाद भी मुझे मिल गया। था, जिसके भक्षण करनेमात्रसे इस समय मेरा ऐसा चतुर्भुज स्वरूप हो गया है। मैं स्वयं ही अपने इसपरिवर्तनपर विस्मय - विमुग्ध हो रहा हूँ।' बालककी बात सुनकर हम सब लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और हमने भी इन परम दुर्लभ भगवान्का दर्शन किया; साथ ही सब प्रकारके स्वादसे परिपूर्ण जो अन्न आदिका प्रसाद मिला, उसको भी खाया। उसके खाते ही भगवान्की कृपासे हम सब लोग चार भुजाधारी हो गये। साधु श्रेष्ठ! तुम भी जाकर भगवान्का दर्शन करो, वहाँ अन्नका प्रसाद ग्रहण करके तुम भी चतुर्भुज हो जाओगे। विप्रवर! तुमने हमलोगोंसे जो बात पूछी और जिसको कहनेके लिये हमें आज्ञा दी थी, वह सब वृत्तान्त हमलोगोंने कह सुनाया l