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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 108 - Khand 4, Adhyaya 108

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सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना

शेषजी कहते हैं—मुने! महर्षि च्यवनके अचिन्तनीय तपोबलको देखकर शत्रुघ्नने विश्व- वन्दित ब्राह्मबलकी बड़ी प्रशंसा की। वे मन-ही-मन कहने लगे- 'कहाँ तो विशुद्ध अन्तःकरणवाले मुनियोंको स्वतः प्राप्त होनेवाली महान् भोगोंकी सिद्धि और कहाँतपोबलसे हीन मनुष्योंकी भोगेच्छा !' इस प्रकार सोचते हुए शत्रुघ्नने च्यवन मुनिके आश्रमपर थोड़ी देरतक ठहरकर जल पीया और सुख एवं आरामका अनुभव किया। उनका घोड़ा पुण्यसलिला पयोष्णी नदीका जल पीकर आगेके मार्गपर चल पड़ा। सैनिकोंने जब उसेआश्रमसे निकलते देखा, तो वे भी उसके पीछे-पीछे चल दिये। कुछ लोग हाथीपर थे और कुछ लोग रथोंपर कुछ घोड़ोंपर सवार थे और कुछ लोग पैदल ही जा रहे थे। शत्रुघ्नने भी मन्त्रिवर सुमतिके साथ घोड़ोंसे सुशोभित होनेवाले रथपर बैठकर बड़ी शीघ्रताके साथ यज्ञसम्बन्धी अश्वका अनुसरण किया। वह घोड़ा आगे बढ़ता हुआ राजा विमलके रत्नातट नामक नगरमें जा पहुँचा। राजाने जब अपने सेवकके मुँह से सुना कि श्रीरघुनाथजीका श्रेष्ठ अश्व सम्पूर्ण योद्धाओंके साथ अपने नगरके निकट आया है, तो वे शत्रुघ्नके पास गये और उन्हें प्रणाम करके अपना रत्न, कोष, धन और सारा राज्य सौंपते हुए सामने खड़े होकर बोले- मैं कौन-सा कार्य करूँ - मेरे लिये क्या आज्ञा होती है?' शत्रुघ्नने भी उन्हें अपने चरणोंमें नतमस्तक देख दोनों भुजाओंसे उठाकर छातीसे लगा लिया। इसके बाद राजा विमल भी पुत्रको राज्य देकर अनेकों धनुर्धर योद्धाओं सहित शत्रुघ्नजीके साथ गये। सबके मन और कानोंको प्रिय लगनेवाले श्रीरामचन्द्रजीका मधुर नाम सुनकर प्रायः सभी राजा उस यज्ञसम्बन्धी घोड़ेको प्रणाम करते औरबहुमूल्य रत्न एवं धन भेंट देते थे। इस प्रकार अश्वके मार्गपर जाते हुए शत्रुघ्नने एक बहुत ऊँचा पर्वत देखा । उसे देखकर उनका मन आश्चर्यचकित हो गया; अतः वे मन्त्री सुमतिसे बोले-'मन्त्रिवर! यह कौन-सा पर्वत है, जो मेरे मनको विस्मयमें डाल रहा है। इसके बड़े-बड़े शिखर चाँदीके समान चमक रहे हैं। मार्गमें इस पर्वतकी बड़ी शोभा हो रही है मुझे तो यह बड़ा अद्भुत जान पड़ता है। क्या यहाँ देवताओंका निवासस्थान है या यह उनकी क्रीडास्थली है? यह पर्वत अपनी सब प्रकारकी शोभासे मेरे मनको मोहे लेता है।'

शत्रुघ्नजीका यह प्रश्न सुनकर मन्त्री सुमति, जिनका थित सदा श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें लगा रहता था, बोले- राजन् ! हमलोगोंके सामने यह नीलपर्वत शोभा पा रहा है। इसके चारों ओर फैले हुए बड़े-बड़े शिखर स्फटिक आदि मणियोंके समूह हैं; अतएव वे बड़े मनोहर प्रतीत होते हैं पापी और परस्त्री लम्पट मनुष्य इस पर्वतको नहीं देख पाते। जो नीच मनुष्य भगवान् श्रीविष्णुके गुणोंपर विश्वास या आदर नहीं करते, सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए श्रौत और स्मार्त धर्मोंको नहीं मानते तथा सदा अपने बौद्धिक तर्कके आधारपर ही विचार करते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। नील और लाहकी बिक्री करनेवाले मनुष्य, घी आदि बेचनेवाला ब्राह्मण तथा शराबी मनुष्य भी इसके दर्शनसे वंचित रहते हैं जो पिता अपनी रूपवती कन्याका किसी कुलीन वरके साथ ब्याह नहीं करता, बल्कि पापसे मोहित होकर धनके लोभसे उसको बेच देता है, उसे भी इसका दर्शन नहीं होता। जो मनुष्य उत्तम कुल और शीलसे युक्त सती साध्वी स्त्रीको कलंकित करता है तथा भाई बन्धुओंको न देकर स्वयं ही मीठे पकवान उड़ाता है, जो ब्राह्मणका धन हड़प लेनेके लिये जालसाजी करता है, रसोईमें भेद करता है तथा जो दूषित विचार रखनेके कारण केवल अपने लिये खिचड़ी या खीर बनाता है, वह भी इस पर्वतको नहीं देख पाता। महाराज ! जो मध्याह्नकालमें भूखसे पीड़ित होकर आये हुए अतिथियोंका अपमान करते हैं, दूसरोंके साथविश्वासघात करते रहते हैं तथा जो श्रीरघुनाथजीके भजनसे विमुख होते हैं, उन्हें भी इस पर्वतका दर्शन नहीं होता। यह श्रेष्ठ पर्वत बड़ा ही पवित्र है, पुरुषोत्तमका निवासस्थान होनेसे इसकी शोभा और भी बढ़ गयी है। अपने दर्शनसे यह मनोहर शैल हम सब लोगोंको पवित्र कर रहा है। देवताओंके मुकुटोंसे जिनके चरणोंकी पूजा होती है— जहाँ देवता अपने मुकुटमण्डित मस्तक झुकाया करते हैं, पुण्यात्मा पुरुष ही जिनका दर्शन पानेके अधिकारी हैं, वे पुण्य-प्रदाता भगवान् पुरुषोत्तम इस पर्वतपर विराजमान हैं। वेदकी श्रुतियाँ 'नेति नेति' कहकर निषेधकी अवधिरूपसे जिनको जानती हैं, इन्द्रादि देवता भी जिनके चरणोंकी रज ढूँढ़ा करते हैं फिर भी उन्हें सुगमतासे प्राप्त नहीं होती तथा विद्वान् पुरुष वेदान्त आदिके महावाक्योंद्वारा जिनका बोध प्राप्त करते हैं, वे ही श्रीमान् पुरुषोत्तम इस महान् पर्वतपर विराज रहे हैं। जो इस नीलगिरिपर चढ़कर भगवान्को नमस्कार करता और पुण्यकर्म आदिके द्वारा उनकी पूजा करके उनका प्रसाद ग्रहण करता है, वह साक्षात् भगवान् चतुर्भुजका स्वरूप हो जाता है।

महाराज! इस विषयमें जानकार लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं, उसको सुनो राजा रत्नग्रीवको अपने परिवारके साथ ही जो 'चार भुजा' आदि भगवान्‌का सारूप्य प्राप्त हुआ था, उसीका इस उपाख्यानमें वर्णन है। ऐसा सौभाग्य देवता और दानवोंके लिये भी दुर्लभ है। यह आश्चर्यपूर्ण वृत्तान्त इस प्रकार है-तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध जो कांची नामकी नगरी है, वह पूर्वकालमें बड़ी सम्पन्न अवस्थामें थी, वहाँ बहुत अधिक मनुष्योंकी आबादी थी। सेना और सवारी सभी दृष्टियोंसे कांची बड़ी समृद्धिशालिनी पुरी थी। वहाँ ब्राह्मणोचित छ कमोंमें निरन्तर लगे रहनेवाले श्रेष्ठ ब्राह्मण निवास करते थे, जो सब प्राणियोंके हितमें संलग्न और श्रीरामचन्द्रजीके भजनके लिये सदा उत्कण्ठित रहनेवाले थे वहाँकै क्षत्रिय युद्धमें लोहा लेनेवाले थे। वे संग्राममें कभी पीछे पैर नहीं हटाते थे। परायी स्त्री, पराये धन और परद्रोहसे वे सदा दूररहनेवाले थे। वैश्य भी ब्याज, खेती और व्यापार आदि शुभ से जीविका चलाते हुए निरन्तर श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें अनुराग रखते थे। शूद्र जातिके मनुष्य रात-दिन अपने शरीरसे ब्राह्मणोंकी सेवा करते और जिसे 'राम-राम' की रट लगाये रहते थे। वहाँ नीच श्रेणीके मनुष्यों में भी कोई ऐसा नहीं था, जो मनसे भी पाप करता हो। उस नगरीमें दान, दया, दम और सत्य- ये सदा विराजमान रहते थे। कोई भी मनुष्य ऐसी बात नहीं बोलता था, जो दूसरोंको कष्ट पहुँचानेवाली हो। वहाँके लोग न तो पराये धनका लोभ रखते और न कभी पाप ही करते थे। इस प्रकार राजा रत्नग्रीव प्रजाका पालन करते थे। वे लोभसे रहित होकर केवल प्रजाकी आपके छठे अंशको 'कर' के रूपमें ग्रहण करते थे, इससे अधिक कुछ नहीं लेते थे। इस तरह धर्मपूर्वक प्रजाका पालन और सब प्रकारके भोगोंका उपभोग करते हुए राजाके अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन उन्होंने अपनी धर्मपत्नी विशालाक्षीसे, जो पातिव्रत्य धर्मका पालन करनेवाली पतिव्रता थी, कहा- 'प्रिये! अब अपने पुत्र प्रजाकी रक्षाका भार सँभालनेवाले हो गये। भगवान् महाविष्णुके प्रसादसे मेरे पास किसी बातकी कमी नहीं है। अब मेरे मनमें केवल एक ही अभिलाषा रह गयी है, वह यह कि मैंने आजतक किसी परम कल्याणमय उत्तम तीर्थका सेवन नहीं किया। जो मनुष्य जन्मभर अपना पेट ही भरता रहता है, भगवान्की पूजा नहीं करता वह बैल माना गया है, इसलिये कल्याणी! मैं राज्यका भार पुत्रको सौंपकर अब कुटुम्बसहित तीर्थयात्राके लिये चलना चाहता हूँ।' ऐसा निश्चय करके उन्होंने सन्ध्याकालमें भगवान्का ध्यान किया और आधी रातको सोते समय स्वप्नमें एक श्रेष्ठ तपस्वी ब्राह्मणको देखा। फिर सबेरे उठकर उन्होंने सन्ध्या आदि नित्यकर्म पूरे किये और सभामें जाकर मन्त्रीजनोंके साथ वे सुखपूर्वक विराजमान हुए इतने में ही उन्हें एक दुर्बल शरीरवाले तपस्वी ब्राह्मण दिखायी दिये, जो जटा, वल्कल और कौपीन धारण किये हुए थे। उनके हाथमें एक छड़ी थी तथा अनेकोंतौथोंके सेवनसे उनका शरीर पवित्र हो गया था। महाबाहु राजा रत्नग्रीवने उन्हें देख मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और प्रसन्नचित्त होकर अर्घ्य, पाद्य आदि निवेदन किया। जब ब्राह्मण सुखपूर्वक आसनपर बैठकर विश्राम कर चुके तो राजाने उनका परिचय जानकर इस प्रकार प्रश्न किया- 'स्वामिन्! आज आपके दर्शनसे मेरे शरीरका समस्त पाप निवृत्त हो गया। वास्तवमें महात्मा पुरुष दीन दुःखियोंको रक्षाके लिये ही उनके घर जाते हैं। ब्रह्मन् अब मैं बूढ़ा हो गया हूँ; इसलिये मुझे एक बात बताइये। कौन-सा देवता अथवा कौन ऐसा तीर्थ है जो गर्भवासके कष्टसे बचाने में समर्थ हो सकता है? आपलोग समाधि और ध्यानमें तत्पर रहनेवाले हैं; अतः सर्वज्ञोंमें श्रेष्ठ हैं।'

ब्राह्मणने कहा- महाराज! आपने तीर्थ सेवनके विषयमें जिज्ञासा करते हुए जो यह प्रश्न किया है कि किस देवताकी कृपासे गर्भवासके कष्टका निवारण हो सकता है? सो उसके विषयमें बता रहा हूँ, सुनिये - 'भगवान् श्रीरामचन्द्रजीकी ही सेवा करनी चाहिये; क्योंकि वे ही संसाररूपी रोगका नाश करनेवाले हैं। वे ही भगवान् पुरुषोत्तमके नामसे प्रसिद्ध हैं, उन्होंकी पूजा करनी चाहिये। मैंने सब पापोंका क्षय करनेवाली अनेकों पुरियों और नदियोंका दर्शन किया है- अयोध्या, सरयू, तापी, हरिद्वार, अवन्ती, विमला, कांची, समुद्रगामिनी नर्मदा, गोकर्ण और करोड़ों हत्याओंका विनाश करनेवाला हाटकतीर्थ - इन सबका दर्शन पापको दूर करनेवाला है। मल्लिका नामसे प्रसिद्ध महान् पर्वत मनुष्यों को दर्शनमात्रसे मोक्ष देनेवाला है तथा वह पातकोंका भी नाश करनेवाला तीर्थ है,

उसका भी मैंने दर्शन किया है। देवता और असुर दोनों जिसका सेवन करते हैं, उस द्वारवती (द्वारकापुरी) तीर्थका भी मैंने दर्शन किया है। वहीं कल्याणमयी गोमती नामकी नदी बहती है, जिसका जल साक्षात् ब्रह्मस्वरूप है। उसमें शयन करना (डूबना) लय कहलाता है और मृत्युको प्राप्त होना मोक्ष ऐसा श्रुतिका वचन है। उस पुरीमें निवास करनेवाले मनुष्योंपरकलियुग कभी अपना प्रभाव नहीं डाल पाता। जहाँके पत्थर भी चक्रसे चिह्नित होते हैं, मनुष्य तो चक्रका चिह्न धारण करते ही हैं; वहाँके पशु-पक्षी और कीट पतंग आदि सबके शरीर चक्र अंकित होते हैं। उस पुरी सम्पूर्ण जगत्के एकमात्र रक्षक भगवान त्रिविक्रम निवास करते हैं। मुझे बड़े पुण्यके प्रभावसे उस द्वारकापुरीका दर्शन हुआ है। साथ ही जो सब प्रकारकी हत्याओंका दोष दूर करनेवाला है तथा जहाँ महान् पातकोंका नाश करनेवाला स्यमन्तपंचक नामक तीर्थ है, उस कुरुक्षेत्रका भी मैंने दर्शन किया है। इसके सिया, मैंने वाराणसीपुरीको भी देखा है, जिसे भगवान् विश्वनाथने अपना निवासस्थान बनाया है। जहाँ भगवान् शंकर मुमूर्षु प्राणियोंको तारक ब्रह्मके नामसे प्रसिद्ध 'राम' मन्त्रका उपदेश देते हैं। जिसमें मरे हुए कीट, पतंग, भृंग, पशु-पक्षी आदि तथा असुर-योनिके प्राणी भी अपने-अपने कर्मोके भोग और सीमित सुखका परित्याग करके दुःख-सुखसे परे हो कैलासको प्राप्त हो जाते हैं तथा जहाँ मणिकर्णिकातीर्थ और उत्तरवाहिनी गंगा हैं, जो पापियोंका भी संसारबन्धन काट देती हैं। राजन्। इस प्रकार मैंने अनेकों तीर्थोंका दर्शन किया है; परन्तु नीलगिरिपर भगवान् पुरुषोत्तमके समीप जो महान् आश्चर्यकी घटना देखी है वह अन्यत्र कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई है।

पर्वतश्रेष्ठ नीलगिरिपर जो वृत्तान्त घटित हुआ था, उसे सुनिये इसपर श्रद्धा और विश्वास करनेवाले पुरुष सनातन ब्रह्मको प्राप्त होते हैं। मैं सब तीर्थों में भ्रमण करता हुआ नीलगिरिपर गया, जिसका आँगन सदा गंगासागरके जलसे धुलता रहता है वहाँ पर्वतके शिखरपर मुझे कुछ ऐसे भील दिखायी दिये, जिनकी चार भुजाएँ थीं और वे धनुष धारण किये हुए थे। वे फल मूलका आहार करके वहाँ जीवन निर्वाह करते थे, उस समय उन्हें देखकर मेरे मनमें यह महान् सन्देह खड़ा हुआ कि ये धनुष-बाण धारण करनेवाले जंगली मनुष्य चतुर्भुज कैसे हो गये? वैकुण्ठलोकमें निवास करनेवाले जितेन्द्रिय पुरुषोंका जैसा स्वरूप शास्त्रोंमें देखा जाता हैतथा जो ब्रह्मा आदिके लिये भी दुर्लभ है, ऐसा स्वरूप इन्हें कैसे प्राप्त हो गया ? भगवान् विष्णुके निकट रहनेवाले उनके पार्षदोंके हाथ, जिस प्रकार शंख, चक्र, गदा, शार्ङ्गधनुष तथा कमलसे सुशोभित होते हैं तथा उनके शरीरपर जैसे वनमाला शोभा पाती है, उसी • प्रकार ये भील भी क्यों दिखायी दे रहे हैं? इस प्रकार सन्देहमें पड़ जानेपर मैंने उनसे पूछा- 'सज्जनो ! आपलोग कौन हैं? और यह चतुर्भुज स्वरूप आपको कैसे प्राप्त हुआ है?' मेरा प्रश्न सुनकर वे लोग बहुत हँसे और कहने लगे ये महाशय ब्राह्मण होकर भी यहाँके पिण्ड दानकी अद्भुत महिमा नहीं जानते। ' यह सुनकर मैंने कहा- 'कैसा पिण्ड और किसको दिया जाता है? चतुर्भुज शरीर धारण करनेवाले महात्माओ । मुझे इसका रहस्य बताओ।' मेरी बात सुनकर उन महात्माओंने, जिस तरह उन्हें चतुर्भुज स्वरूपकी प्राप्ति हुई थी, वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

किरात बोले- ब्राह्मण! हमलोगोंका वृत्तान्त सुनो; हमारा एक बालक प्रतिदिन जामुन आदि वृक्षोंके फल खाता और अन्य बालकोंके साथ विचरा करता था। एक दिन घूमता- घामता वह यहाँ आया और शिशुओंके साथ ही इस पर्वतके मनोहर शिखरपर चढ़ गया। ऊपर जाकर उसने देखा, एक अद्भुत देवमन्दिर है, उसकी दीवार सोनेकी बनी हुई है। जिसमें गारुत्मत आदि नाना प्रकारकी मणियाँ जड़ी हुई है। वह अपनी कान्तिसे सूर्यकी भाँति अन्धकारका नाश कर रहा है। उसे देखकर बालकको बड़ा विस्मय हुआ और उसने मन ही मन सोचा- 'यह क्या है, किसका घर है ? जरा चलकर देखूं तो सही, यह महात्माओंका कैसा स्थान है?' ऐसा विचारकर वह बड़भागी बालक मन्दिरके भीतर घुस गया। वहाँ जाकर उसने देवाधिदेव पुरुषोत्तमका दर्शन किया, जिनके चरणोंमें देवता और असुर सभी मस्तक झुकाते हैं। जिनका श्रीविग्रह किरीट, हार, केयूर और ग्रैवेयक (कण्ठा) आदिसे सुशोभित रहता है। जो कानोंमें अत्यन्त उज्ज्वल और मनोहर कुण्डल धारण करते हैं। जिनके युगल चरणकमलोंपरतुलसीको सुगन्धसे मतवाले हुए भँवरे महराया करते हैं। शंख, चक्र, गदा और कमल आदि परिकर दिव्य शरीर धारण करके जिनके चरणोंकी आराधना करते हैं तथा नारद आदि देवर्षि जिनके श्रीविग्रहकी सेवामें लगे रहते हैं, ऐसे भगवान्की उस बालकने झाँकी की। वहाँ भगवान् की उपासनामें लगे हुए देवताओंमेंसे कुछ • लोग गाते थे, कुछ नाच रहे थे और कुछ लोग अद्भुत रूपसे अट्टहास कर रहे थे। वे सभी विश्ववन्दित भगवान्‌को रिझाने में ही लगे हुए थे। भगवान्‌को देखकर हमारा बालक उनके निकट चला गया। देवताओंने अच्छी तरह पूजा करके श्रीरमावल्लभ भगवान्‌को भूप और नैवेद्य अर्पण किया तथा आदरपूर्वक उनकी आरती करके भगवत् कृपाका अनुभव करते हुए वे सब लोग अपने-अपने स्थानको चले गये। उस बालकके सौभाग्यवश वहाँ भगवान्‌को भोग लगाया हुआ भात (महाप्रसाद) गिरा हुआ था, जो मनुष्योंके लिये अलभ्य और देवताओंके लिये भी दुर्लभ है; वही उसे मिल गया। उसको खाकर बालकने भगवान्के श्रीविग्रहका दर्शन किया। इससे उसे चतुर्भुज रूपकी प्राप्ति हो गयीऔर वह अत्यन्त सुन्दर दिखायी देने लगा। चार भुजा आदि भगवत्सारूप्यको प्राप्त हो शंख, चक्र आदि धारण किये जब वह बालक घर आया तो हमलोगोंने बारम्बार उसकी ओर देखकर पूछा 'तुम्हारा यह अद्भुत स्वरूप कैसे हो गया?' तब बालक अपने आश्चर्ययुक्त वृत्तान्तका वर्णन करने लगा- 'मैं नीलगिरिके शिखरपर गया था, वहाँ मैंने देवाधिदेव भगवान्‌का दर्शन किया है, वहीं भगवान्‌को भोग लगाया हुआ मनोहर प्रसाद भी मुझे मिल गया। था, जिसके भक्षण करनेमात्रसे इस समय मेरा ऐसा चतुर्भुज स्वरूप हो गया है। मैं स्वयं ही अपने इसपरिवर्तनपर विस्मय - विमुग्ध हो रहा हूँ।' बालककी बात सुनकर हम सब लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और हमने भी इन परम दुर्लभ भगवान्‌का दर्शन किया; साथ ही सब प्रकारके स्वादसे परिपूर्ण जो अन्न आदिका प्रसाद मिला, उसको भी खाया। उसके खाते ही भगवान्की कृपासे हम सब लोग चार भुजाधारी हो गये। साधु श्रेष्ठ! तुम भी जाकर भगवान्का दर्शन करो, वहाँ अन्नका प्रसाद ग्रहण करके तुम भी चतुर्भुज हो जाओगे। विप्रवर! तुमने हमलोगोंसे जो बात पूछी और जिसको कहनेके लिये हमें आज्ञा दी थी, वह सब वृत्तान्त हमलोगोंने कह सुनाया l

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार