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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 53 - Khand 2, Adhyaya 53

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सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन

सोमशर्माने कहा – भामिनि। ब्रह्मचर्यके लक्षणका विस्तारपूर्वक वर्णन करो।

सुमना बोली- नाथ! सदा सत्यभाषणमें जिसका अनुराग है, जो पुण्यात्मा होकर साधुताका आश्रय लेता है, ऋतुकाल प्राप्त होनेपर अपनी स्त्रीके साथ समागम करता है, स्वयं दोषोंसे दूर रहता है और अपने कुलके सदाचारका कभी त्याग नहीं करता, वही सच्चा ब्रह्मचारी है द्विजश्रेष्ठ! यह मैंने गृहस्थके ब्रह्मचर्यका वर्णन किया है। यह ब्रह्मचर्य गृहस्थ पुरुषोंको सदा मुक्ति प्रदान करनेवाला है। अब मैं यतियों (संन्यासियों) के ब्रह्मचर्यका वर्णन करूँगी, आप ध्यान देकर सुनें। यतिको चाहिये कि वह इन्द्रियसंयम और सत्यसे युक्त हो पापसे सदा डरता रहे तथा स्त्रीके संगका परित्याग करके ध्यान और ज्ञानमें निरन्तर संलग्न रहे। यह यतियोंका ब्रह्मचर्य बतलाया गया। अब आपके समक्ष वानप्रस्थके ब्रह्मचर्यका वर्णन करती हूँ, सुनिये। वानप्रस्थीको सदाचारसे रहना और काम-क्रोधका परित्याग करना चाहिये। वह उच्छवृत्तिसे जीविका चलाये और प्राणियोंके उपकारमें संलग्न रहे। यह वानप्रस्थका ब्रह्मचर्य बताया गया।

अब सत्यका वर्णन करती हूँ। जिसकी बुद्धि पराये धन और परायी स्त्रियोंको देखकर लोलुपतावश उनके प्रति आसक्त नहीं होती, वही पुरुष सत्यनिष्ठ कहा गया है। अब दानका वर्णन करती हूँ जिससे मनुष्य जीवित रहता है। भूखसे पीड़ित मनुष्यको भोजनके लिये अन्न अवश्य देना चाहिये। उसको देनेसे महान् पुण्य होता है तथा दाता मनुष्य सदा अमृतका उपभोग करता है। अपने वैभवके अनुसार प्रतिदिन कुछ-न-कुछ दान करना चाहिये। सहानुभूतिपूर्ण वचन, तृण, शय्या, घरकी शीतल छाया, पृथ्वी, जल, अन्न, मीठी बोली, आसन, वस्त्र या निवासस्थान और पैर धोनेके लिये जल ये सब वस्तुएँ जो प्रतिदिन अतिथिको निष्कपट भावसे अर्पण करता है; वह इहलोक और परलोकमें भीआनन्दका अनुभव करता है जो दान और स्वाध्याय आदि शुभ कर्मोंके द्वारा अपने प्रत्येक दिनको सफल बनाता है, वह इस जगत् में मनुष्य होकर भी देवता ही है इसमें तनिक भी सन्देहकी बात नहीं है।

अब मैं सांगोपांग धर्मके साधनभूत उत्तम नियमोंका वर्णन करती हूँ। जो देवताओं और ब्राह्मणोंकी पूजा में संलग्न रहता है, नित्य-निरन्तर शौच, सन्तोष आदि नियमोंका पालन करता है तथा दान, व्रत और सब प्रकारके परोपकारी कार्योंमें योग देता है, उसके इस कार्यको नियम कहा गया है। द्विजश्रेष्ठ ! अब मैं क्षमाका स्वरूप बतलाती हूँ, सुनिये। दूसरोंद्वारा की हुई अपनी निन्दा सुनकर अथवा किसीके द्वारा मार खाकर भी जो क्रोध नहीं करता और स्वयं मार खाकर भी मारनेवाले व्यक्तिको नहीं मारता, वह क्षमाशील कहलाता है। अब शौचका वर्णन करती हूँ। जो राग-द्वेषसे रहित होकर प्रतिदिन स्नान और आचमन आदिका व्यवहार करता है और इस प्रकार जो बाहर तथा भीतरसे भी शुद्ध है, उसे शौचयुक्त (पवित्र) माना गया है। अब मैं अहिंसाका रूप बतलाती हूँ। विज्ञ पुरुषको किसी विशेष आवश्यकताके बिना एक तिनका भी नहीं तोड़ना चाहिये। संयमके साथ रहकर प्रत्येक जीवकी हिंसासे दूर रहना चाहिये और अपने प्रति जैसे बर्तावकी इच्छा होती है वैसा ही बर्ताव दूसरोंके साथ स्वयं भी करना चाहिये। अब शान्तिके स्वरूपका वर्णन करती हूँ। शान्तिसे सुखकी प्राप्ति होती है। | अतः शान्तिपूर्ण आचरण अपना कर्तव्य है। कभी खिन्न नहीं होना चाहिये। प्राणियोंके साथ वैरभावका सर्वथा परित्याग करके मनमें भी कभी वैरका भाव नहीं आने देना चाहिये। अब अस्तेयका स्वरूप बतलाती हूँ। परधन और परस्त्रीका कदापि अपहरण न करे। मन, वाणी तथा शरीरके द्वारा भी कभी किसी दूसरेकी वस्तु लेनेकी चेष्टा न करे। अब दमका वर्णन करती है। इन्द्रियोंका दमन करके मानके द्वारा उन्हें प्रकाश देते रहना और उनकी चंचलताका नाशकरना चाहिये। इससे मनुष्यमें चेतनाका विकास होता है। अब मैं शुश्रूषाका स्वरूप बतलाती हूँ। मन, वाणी और शरीरसे गुरुके कार्य साधनमें लगे रहना शुश्रूषा है। द्विजश्रेष्ठ! इस प्रकार मैंने आपसे धर्मका सांगोपांग वर्णन किया। जो मनुष्य ऐसे धर्ममें सदा संलग्न रहता है उसे संसारमै पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता यह मैं आपसे सच-सच कह रही हूँ। महाप्राज्ञ ! यह जानकर आप धर्मका अनुसरण करें।

सोमशर्माने पूछा- देवि! तुम्हारा कल्याण हो, तुम इस प्रकार धर्मकी परम पुण्यमयी उत्तम व्याख्या कैसे जानती हो? किसके मुँहसे तुमने यह सब सुना है ? सुमना बोली- महामते। मेरे पिताका जन्म भार्गव वंशमें हुआ है। वे सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण हैं। उनका नाम है महर्षि च्यवन । मैं उन्हींकी कन्या हूँ। ये मुझे प्राणोंसे भी अधिक प्रिय मानते थे जिस-जिस तीर्थ, मुनि समाज अथवा देवालयमें वे जाते, मैं भी उनके साथ वहाँ जाया करती थी। मेरे पिताजीके एक मित्र हैं, जिनका नाम है वेदशर्मा कौशिकवंशमें उनका | जन्म हुआ है। एक दिन वे घूमते-घामते पिताजीके पास आये। उस समय वे बहुत दुःखी थे और बारंबार चिन्तामग्न हो जाते थे तब उनसे मेरे पिताने कहा 'सुव्रत। मालूम होता है आप किसी दुःखसे संतप्त हैं। आपको दुःख कैसे प्राप्त हुआ है, मुझे इसका कारण बतलाइये।' यह सुनकर वेदशर्माने कहा- 'मेरी स्त्री बड़ी साध्वी और पतिव्रता है, किन्तु अबतक उसे कोई पुत्र नहीं | हुआ 1। मेरा वंश चलानेवाला कोई नहीं है। यही मेरे दुःखका कारण है; आपने पूछा था, इसलिये बताया है।'

इसी बीचमें कोई सिद्ध पुरुष मेरे पिताके आश्रमपर आये। पिताजी और वेदशर्मा दोनोंने बड़े होकर भक्तिपूर्वक सिद्धका पूजन किया। भोजन आदि उपचारों और मीठे वचनोंसे उनका स्वागत किया। फिर आपने पहले जिस प्रकार अन किया था, उसी प्रकार उन दोनोंने भी सिद्धसे। अपने मनकी बात पूछी। तब धर्मात्मा सिद्धने मेरे पिता और उनके मित्रसे इस प्रकार कहा—'धर्मके।अनुष्ठानसे ही स्त्री, पुत्र और धन-धान्यकी प्राप्ति होती है।' उनके उपदेशसे वेदशर्माने धर्मका अनुष्ठान पूरा किया। उस धर्मसे उन्हें महान् सुख और सुयोग्य पुत्रकी प्राप्ति हुई उन सिद्ध महात्माके सांगसे ही धर्मके विषयमें मेरी बुद्धिका ऐसा निश्चय हुआ है।

सोमशर्माने पूछा – प्रिये। धर्मसे कैसी मृत्यु और कैसा जन्म होता है? शास्त्र के अनुसार उस मृत्यु और जन्मका लक्षण जैसा निश्चित किया गया हो, वह सब मुझे बताओ।

सुमना बोली- प्राणनाथ! जिसने सत्य, शौच, क्षमा, शान्ति, तीर्थ और पुण्य आदिके द्वारा धर्मका पालन किया है, उसकी मृत्युका लक्षण बतलाती हूँ। धर्मात्मा पुरुषको मृत्युके समय कोई रोग नहीं होता, उसके शरीरमें कोई पीड़ा नहीं होती; श्रम, ग्लानि, स्वेद और भ्रान्ति आदि उपद्रव भी नहीं होते। गीत-ज्ञान विशारद दिव्यरूपधारी गन्धर्व और वेदपाठी ब्राह्मण उसके पास आकर मनोहर स्तुति किया करते हैं। वह स्वस्थ रहकर सुखदायक आसनपर विराजमान होता है। अथवा देवपूजामें बैठा होता है ऐसा भी हुआ करता है कि धर्मपरायण बुद्धिमान् पुरुष [मृत्युकालमें ] स्नान के लिये तीर्थ स्थानमें पहुँचा हो। अग्निहोत्र-गृह, गोशाला, देवमन्दिर, बगीचा, पोखरा, पीपल या बड़का वृक्ष तथा पाकर अथवा बेलका पेड़ये मृत्युके लिये पवित्र स्थान माने गये हैं। धर्मात्मा पुरुष धर्मराजके दूतको प्रत्यक्ष देखता है वे स्नेहसे युक्त और मुसकराते हुए दिखायी देते हैं। वह मरनेवाला जीव स्वप्न, मोह तथा क्लेशके अधीन नहीं होता। धर्मराजके दूत उससे कहते हैं-'महाभाग परम बुद्धिमान् धर्मराज आपको बुला रहे हैं।' दूतोंकी यह बात सुनकर उसे मोह और सन्देह नहीं होता। उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है। वह ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न हो भगवान् श्रीविष्णुका स्मरण करता है और संतुष्ट एवं हृष्टचित्त होकर उन दूतोंके साथ चला जाता है।

सोमशर्माने पूछा- भद्रे पापियोंकी मृत्यु किन ! लक्षणोंसे युक्त होती है, इसका विस्तारके साथ वर्णन करो।सुमना बोली- प्राणनाथ ! सुनिये, मैं महापातकी मनुष्यों की मृत्युके स्थान और चेष्टाका वर्णन करती हूँ। दुष्टात्मा पुरुष विष्ठा और मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओंसे युक्त और पापियोंसे भरे हुए भूभागमें रहकर बड़े दुःखसे प्राण त्याग करता है। चाण्डालके स्थानपर जाकर दुःखपूर्वक मरता है। गदहोंसे घिरी हुई भूमिमें, वेश्याके भवनमें तथा चमारके घरमें जाकर वह मृत्युको प्राप्त होता है। हड्डी, चमड़े और नखोंसे भरी हुई पृथ्वीपर पहुँचकर दुष्टात्मा पुरुषकी मृत्यु होती है। अब मैं उसे ले जानेकी इच्छासे आये हुए यमदूतोंकी चेष्टाका वर्णन करती हूँ। वे अत्यन्त भयानक, घोर और दारुण रूप धारण किये आते हैं। उनके शरीर अत्यन्त काले, पेट लंबे-लंबे और आँखें कुछ-कुछ पीली होती हैं। कोई पीले, कोई नीले और कोई अत्यन्त सफेद होते हैं। पापी मनुष्य उन्हें देखकर काँप उठता है, उसके शरीरसे बारंबार पसीना छूटने लगता है।

अब मैं दुःखी जीवकी चेष्टा बताती हूँ। लोभ और स्वादसे मोहित होकर पापी पुरुष जो पराये धन और परायी स्त्रियोंका अपहरण किये रहते हैं, पहले दूसरेसे ऋण लेकर बादमें उसे चुका नहीं पाते तथा असत्प्रतिग्रह आदि जो अन्य बड़े-बड़े पाप किये रहते है-सारांश यह कि मृत्युसे पहले वे जितने भी पापका आचरण किये रहते हैं, वे सभी महापापीके कण्ठमें आकर उसके कफको रोक देते और दुःसह दुःख पहुंचाते हैं। असह्य पीड़ाओंसे उसका कष्ठ घरघराने लगता है। वह बारंबार रोता और माता, पिता, भाई, पत्नी तथा पुत्रोंका स्मरण करता है। फिर महापापसे मोहित होकर वह सबको भूल जाता है। अत्यन्त पीड़ासे व्याकुल होनेपर भी उसके प्राण शीघ्रतापूर्वक नहीं निकलते। वह काँपता, तलमलाता और रह-रहकर मूर्च्छित हो जाता है। इस प्रकार लोभ और मोहसे युक्त मनुष्य सदा मूर्च्छित होकर ही प्राण त्यागता है। तत्पश्चात् यमराजके दूत उसे यमलोकमें ले जाते हैं। उस समय उसको जो दुःख भोगना पड़ता है, उसका वर्णन करती हूँ। जहाँ ढेर के ढेर अंगारे बिछेहोते हैं, उस मार्गपर पापीको घसीटते हुए ले जाया जाता है। वहाँ वह दुष्टात्मा जीव बारंबार आगमें जलता और छटपटाया करता है। जहाँ बारह सूर्योके तापसे युक्त अत्यन्त तीव्र धूप पड़ती है, उसी मार्गसे उसे पहुँचाया जाता है। वहाँ वह सूर्यकी प्रचण्ड किरणोंसे संतप्त और भूख-प्यास से पीड़ित होता रहता है। यमदूत प्याससे उसे गदा, डंडे और फरसोंसे मारते, कोड़ोंसे पीटते तथा गालियाँ सुनाते हैं। तदनन्तर वे पापीको उस मार्गपर ले जाते हैं, जहाँ जाड़ा अधिक पड़ता है और ठंडी हवाका झोंका सहना पड़ता है। पापी पुरुष शीतसे पीड़ित होकर उस मार्गको तय करता है; यमदूत उसे घसीटते हुए नाना प्रकारके दुर्गम स्थानोंमें ले जाते हैं। इस प्रकार देवता और ब्राह्मणोंकी निन्दा करनेवाले, सम्पूर्ण पापोंसे युक्त दुष्टात्मा पापी पुरुषको यमराजके दूत यमलोकमें ले जाते हैं।

वहाँ पहुँचकर वह दुष्टात्मा यमराजको काले अंजनकी राशिके समान देखता है। वे उग्र, दारुण और भयंकर रूप धारण किये भैंसेपर सवार दिखायी देते हैं अनेकों यमदूत उन्हें घेरे खड़े रहते हैं उनके साथ हैं। सब प्रकारके रोग और चित्रगुप्त भी उपस्थित होते हैं। द्विजश्रेष्ठ ! उस समय भगवान् धर्मराजका मुख विकराल दाढ़ोंके कारण अत्यन्त भयानक और कालके समान प्रतीत होता है। यमराज धर्ममें बाधा डालनेवाले उस महापी दुष्टको देखते और अत्यन्त दुःखदायी, दुस्सह अस्त्र-शस्त्रोंद्वारा पीड़ा पहुँचाते हुए उसे कठोर दण्ड देते हैं। वह पापी एक हजार युगांतक नाना प्रकारकी यातनाओंमें पकाया जाता है। इस प्रकार दुष्ट बुद्धिवाला पापात्मा मनुष्य अपने पापका उपभोग करता है। तत्पश्चात् वह जिन-जिन योनियोंमें जन्म लेता है, उसका भी वर्णन करती हूँ। कुछ कालतक कुत्तेकी योनिमें रहकर वह दुष्टात्मा अपना पाप भोगता है। उसके बाद व्याघ्र और फिर गदहा होता है। तदनन्तर बिलाव, सूअर और साँपकी योनिमें जन्म लेता है। इस तरह अनेक मेवाली सम्पूर्ण पापयोनियों में उसे बारंबार जन्म लेना पड़ता है। इस प्रकार मैंने आपसे पापियोंके जन्मका सारा वृत्तान्त भी बतला दिया।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य