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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 2, अध्याय 51 - Khand 2, Adhyaya 51

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सोमशर्माकी पितृ-भक्ति

सूतजी कहते हैं- भगवान् श्रीविष्णुका गोलोकधाम तमसे परे परम प्रकाशरूप है। पूर्वोक्त चारों ब्राह्मण जब उस लोकमें चले गये, तब महाप्राज्ञ शिवशर्माने अपने छोटे पुत्रसे कहा-'महामते सोमशर्मन् ! तुम पिताकी भक्तिमें रत हो। मैं इस समय तुम्हें यह अमृतका घड़ा दे रहा हूँ; तुम सदा इसकी रक्षा करना। मैं पत्नी के साथ तीर्थयात्रा करने जाऊँगा।' यह सुनकर सोमशर्माने कहा - 'महाभाग ! ऐसा ही होगा।' बुद्धिमान् शिवशर्मा सोमशर्माके हाथमें वह घड़ा देकर वहाँसे चल दिये और दस वर्षोंतक निरन्तर तपस्यामें लगेरहे। धर्मात्मा सोमशर्मा दिन-रात आलस्य छोड़कर उस अमृत- कुम्भकी रक्षा करते रहे। दस वर्षोंके पश्चात् महायशस्वी शिवशर्मा पुनः लौटकर वहाँ आये। ये मायाका प्रयोग करके भार्यासहित कोढ़ी बन गये। जैसे वे स्वयं कुष्ठरोग से पीड़ित थे, उसी प्रकार उनकी स्त्री भी थीं। दोनों ही मांसके पिण्डकी भाँति त्याग देनेयोग्य दिखायी देते थे। वे धीरचित्त ब्राह्मण महात्मा सोमशर्माके समीप आये। वहाँ पधारे हुए माता-पिताको सर्वथा दुःखसे पीड़ित देख महायशस्वी सोमशर्माको बड़ी दया आयी। भक्तिसे उनका मस्तक झुक गया। वे उन दोनोंकेचरणोंमें पड़ गये और बोले-'पिताजी मैं दूसरे किसीको ऐसा नहीं देखता, जो तपस्या, गुण-समुदाय और उत्तम पुण्यसे युक्त होकर आपकी समानता कर सके। फिर भी आपको यह क्या हो गया ? विप्रवर! सम्पूर्ण देवता सदा दासकी भाँति आपकी आज्ञाके पालनमें लगे रहते हैं। वे आपके तेजसे खिंचकर यहाँ आ जाते हैं। आप इतने शक्तिशाली हैं तो भी किस पापके कारण आपके शरीरमें यह पीड़ा देनेवाला रोग हो गया ? ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इसका कारण बताइये। यह मेरी माता भी पुण्यवती है, इसका पुण्य महान् है; यह पतिव्रत धर्मका पालन करनेवाली है। यह अपने स्वामीकी कृपासे समूची त्रिलोकीको भी धारण करनेमें समर्थ है। जो राग-द्वेषका परित्याग करके भाँति भौतिके कर्मोंद्वारा अपने पतिदेवका पूजन करती है, देवताओंकी ही भाँति गुरुजनोंके प्रति भी जिसके हृदयमें आदरका भाव है, वह मेरी माता क्यों इस कष्टकारी कुष्ठरोगका दुःख भोग रही है ?" शिवशर्मा बोले महाभाग तुम शोक न करो सबको अपने कर्मोंका ही फल भोगना पड़ता है; क्योंकि मनुष्य प्रायः [पूर्वकृत ] पाप और पुण्यमय कर्मोंसे युक्तहोता ही है। अब तुम हम दोनों रोगियों को धोकर साफ करो।

पिताका यह शुभ वाक्य सुनकर महायशस्वी सोमशमने कहा- आप दोनों पुण्यात्मा हैं; मैं आपकी सेवा अवश्य करूँगा माता पिताकी शुश्रूषाके सिवा मेरा और कर्तव्य ही क्या है।' सोमशर्मा उन दोनोंके दुःखसे दुःखी थे। वे माता-पिताके मल-मूत्र तथा कफ आदि धोते। अपने हाथसे उनके चरण पखारते और दबाया करते थे। उनके रहने और नहाने आदिका प्रबन्ध भी वे पूर्ण भक्तिके साथ स्वयं ही करते थे। विप्रवर सोमशर्मा बड़े यशस्वी, धर्मात्मा और सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ थे वे अपने दोनों गुरुजनोंको कंधेपर बिठाकर तीर्थोंमें ले जाया करते थे। वे वेदके ज्ञाता थे; अतः मांगलिक मन्त्रोंका उच्चारण करके दोनोंको अपने हाथसे विधिपूर्वक नहलाते और स्वयं भी स्नान करते थे। फिर पितरोंका तर्पण और देवताओंका पूजन भी वे उन दोनोंसे प्रतिदिन कराया करते थे। स्वयं अग्निमें होम करते और अपने दोनों महागुरु माता-पिताको प्रसन्न करते हुए अपने सब कार्य उन्हें बताया करते थे सोमशर्मा उन दोनोंको प्रतिदिन शय्यापर सुलाते और उन्हें वस्त्र तथा पुष्प आदि सब सामग्री निवेदन करते थे। परम सुगन्धित पान लगाकर माता-पिताको अर्पण करते तथा नित्यप्रति उनकी इच्छाके अनुसार फल, मूल, दूध आदि उत्तमोत्तम भोज्य पदार्थ खानेको देते थे। इस क्रमसे वे सदा ही माता-पिताको प्रसन्न रखनेकी चेष्टा करते थे। पिता सोमशर्माको बुलाकर उन्हें नाना प्रकारके कठोर एवं दुःखदायी वचनोंसे पीड़ित करते और आतुर होकर उन्हें डंडोंसे पीटते भी थे। यह सब करनेपर भी धर्मात्मा सोमशर्मा कभी पिताके ऊपर क्रोध नहीं करते थे वे सदा सन्तुष्ट रहकर मन, वाणी और क्रिया- तीनोंके ही द्वारा पिताकी पूजा करते थे।

ये सब बातें जानकर शिवशर्मा अपने चरित्रपर विचार करने लगे। उन्होंने सोचा- 'सोमशर्माका मेरी सेवामें अधिक अनुराग दिखायी देता है, इसीलियेसमयपर मैंने इसके तपकी परीक्षा की है किन्तु मेरा पुत्र भक्ति-भाव तथा सत्यपूर्ण बर्तावसे भ्रष्ट नहीं हो रहा है।

निन्दा करने और मारनेपर भी सदा मीठे वचन बोलता है। इस प्रकार मेरा बुद्धिमान् पुत्र दुष्कर सदाचारका पालन कर रहा है। अतः अब मैं भगवान् श्रीविष्णुके प्रसादसे इसके दुःख दूर करूँगा।' इस प्रकार बहुत देरतक सोच-विचार करनेके पश्चात् परम बुद्धिमान् शिवशर्माने पुनः मायाका प्रयोग किया। अमृतके घड़ेसे अमृतका अपहरण कर लिया। उसके बाद सोमशर्माको बुलाकर कहा- 'बेटा! मैंने तुम्हारे हाथमें रोगनाशक अमृत सौंपा था, उसे शीघ्र लाकर मुझे अर्पण करो, जिससे मैं इस समय उसका पान करूँ।'

पिता के यों कहनेपर सोमशर्मा तुरंत उठकर चल दिये। अमृतके घड़ेके पास जाकर उन्होंने देखा कि वहखाली पड़ा है उसमें अमृतकी एक बूँद भी नहीं है यह देखकर परम सौभाग्यशाली सोमम मन-ही मन कहा- 'यदि मुझमें सत्य और गुरु-शुश्रूषा है, यदि मैंने पूर्वकालमें निश्छल हृदयसे तपस्या की है, इन्द्रियसंयम सत्य और शौच आदि धर्मोका ही सदा पालन किया है, तो यह घड़ा निश्चय ही अमृतसे भर जाय।' महाभाग सोमशर्माने इस प्रकार विचार करके ज्यों ही उस घड़ेकी ओर देखा, त्यों ही वह अमृतसे भर गया। घहेको भरा देख उसे हाथमें ले महायशस्वी सोमशर्मा तुरंत ही पिताके पास गये और उन्हें प्रणाम करके बोले- 'पिताजी लीजिये, यह अमृतसे भरा घड़ा आ गया। महाभाग! अब इसे पीकर शीघ्र ही रोगसे मुक्त हो जाइये।' पुत्रका यह परम पुण्यमय तथा सत्य और धर्मके उद्देश्यसे युक्त मधुर वचन सुनकर शिवशर्माको बड़ा हर्ष हुआ। वे बोले-'पुत्र ! आज मैं तुम्हारी तपस्या, इन्द्रियसंयम, शौच, गुरुशुश्रूषा तथा भक्तिभावसे विशेष संतुष्ट हूँ। लो, अब मैं इस विकृत रूपका त्याग करता हूँ।'

यों कहकर ब्राह्मण शिवशर्माने पुत्रको अपने पहले रूपमें दर्शन दिया। सोमशमने माता-पिताको पहले जिस रूपमें देखा था, उसी रूपमें उस समय भी देखा। वे दोनों महात्मा सूर्यमण्डलकी भाँति तेजसे दिप रहे थे। सोमशर्माने बड़ी भक्तिके साथ उन महात्माओंके चरणोंमें मस्तक झुकाया। तदनन्तर वे दोनों पति-पत्नी पुत्रसे बातचीत करके अत्यन्त प्रसन्न हुए। फिर धर्मात्मा ब्राह्मण भगवान् श्रीविष्णुकी कृपासे अपनी पत्नीको साथ ले विष्णुधामको चले गये। अपने पुण्य और योगाभ्यासके प्रभावसे उन महर्षिने दुर्लभ पद प्राप्त कर लिया।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य