सूतजी कहते हैं—तदनन्तर सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ महाबुद्धिमान् सोमशर्मा अपनी स्त्री सुमनाके साथ नर्मदाके अत्यन्त पुण्यदायक तटपर गये और कपिला संगम नामक पुण्यतीर्थमें नहाकर देवताओं तथा पितरोंका तर्पण करके शान्तचित्तसे भगवान् नारायणके मंगलमय नामका जप करते हुए तपस्या करने लगे। महामना सोमशर्मा द्वादशाक्षर मन्त्रका जप और भगवान्का ध्यान करते थे। वे सदा निश्चिन्त होकर बैठने, सोने, चलने और स्वप्नके समय भी केवल भगवान् श्रीविष्णुकी ओर ही दृष्टि रखते थे। उन्होंने काम-क्रोधका परित्याग कर दिया था। साथ ही पातिव्रत्य धर्ममें तत्पर रहनेवाली परम सौभाग्यवती सती-साध्वी सुमना भी अपने तपस्वी पतिकी सेवामें लगी रहती थी। सोमशर्मा जब भगवान्का ध्यान करने लगे, उस समय अनेक प्रकारके विघ्नोंने सामने आकर उन्हें भय दिखाया। भयंकर विषवाले काले साँप उनके पास पहुँच जाते थे। सिंह, बाघ और हाथी उनकी दृष्टिमें आकर भय उत्पन्न करते थे। इस प्रकार बड़े-बड़े विघ्नोंसे घिरे रहनेपर भी वे महाबुद्धिमान् धर्मात्मा ब्राह्मण भगवान् विष्णुके ध्यानसे कभी विचलित नहीं होते थे। एक दिनकी बात है, एक महाभयानक सिंहभयंकर गर्जना करता हुआ वहाँ आया; उसे देखकर सोमशर्मा भयसे थर्रा उठे और भगवान् श्रीनरसिंह (विष्णु) -का ध्यान करने लगे। इन्द्रनीलमणिके समान श्याम विग्रहपर पीताम्बर शोभा पा रहा है। श्रीभगवान्का बल और तेज महान् है। वे अपने चारों हाथमें क्रमशः शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कियेहुए हैं। मोतियोंका विशाल हार चन्द्रमाकी भाँति चमक रहा है। उसके साथ ही कौस्तुभमणि भी भगवान्के श्रीविग्रहको उद्भासित कर रही है। श्रीवत्सका चिन वक्षःस्थलकी शोभा बढ़ा रहा है। श्रीभगवान् सब प्रकारके आभूषणोंकी शोभासे सम्पन्न हैं। कमलके समान खिले हुए नेत्र, मुखपर मुसकानको मनोहर छटा, स्वाभाविक प्रसन्नता और रत्नमय हार उनकी शोभाको दुगुनी कर रहे हैं। इस प्रकार परम शोभायमान भगवान् श्रीविष्णुको मनोहर झाँकीका सोमशर्माने ध्यान किया।
तत्पश्चात् वे उनकी स्तुति करने लगे-'शरणागत वत्सल श्रीकृष्ण! आप ही मुझे शरण देनेवाले हैं। देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। जिन परमात्माके उदरमें तीनों लोक और सात भुवन स्थित हैं, उन्होंकी शरणमें मैं आ पड़ा हूँ, भय मेरा क्या करेगा। कृत्या आदि प्रबल विघ्न भी जिनसे भय मानते हैं तथा जो सबको दण्ड देनेमें समर्थ हैं, उन भगवान्के मैं शरणागत हूँ। जो समस्त देवताओं, महाकाय दानवों तथा क्लेश उठानेवाले भक्तोंके भी आश्रय हैं, उन भगवान्की मैं शरणमें आया हूँ। जो भयका नाश करनेके लिये अभयरूप बने हुए हैं और पापके नाशके लिये ज्ञानवान् हैं तथा जो ब्रह्मरूपसे एक अद्वितीय हैं, उन भगवान्की मैं शरणमें हूँ जो रोगोंका नाश करनेके लिये औषधरूप हैं, जिनमें रोग-शोकका नाम भी नहीं है, जो लौकिक आनन्दसे भी शून्य हैं, उन भगवान्की मैं शरणमें हूँ। जो अविचल लोकोंको भी विचलित कर सकते हैं, उन भगवान्की में शरण में आया हूँ; भय मेरा क्या करेगा। जो समस्त साधुओंका पालन करनेवाले हैं, जिनकी नाभिसे कमलकी उत्पत्ति हुई है तथा जो विश्वात्मा इस विश्वकी सदा ही रक्षा करते हैं, उन भगवान्को में शरण में आया हूँ। 'जो सिंहके रूपमें मेरे सामने उपस्थित होकर भय दिखा रहे हैं, उन भक्तभयहारी भगवान् श्रीनृसिंहजी की मैं शरणमें आया हूँ। ग्राहसे युद्ध करते समय आपत्ति में पड़ा हुआ विशालकाय गजराज जिनकी शरणमें आया था और जो गजेन्द्रमोक्षकी लीलामें स्वयं उपस्थित हुएथे, उन शरणागतवत्सल प्रभुकी मैं शरणमें आया है। हिरण्याक्षका वध करनेवाले भगवान् श्रीवराहकी शरणमें हूँ। ये सब जीव मृत्युका रूप धारण करके मुझे भय दिखा रहे हैं, किन्तु मैं अमृतकी शरणमें पड़ा है। श्रीहरि वेदोंका ज्ञान प्रदान करनेवाले, ब्राह्मण भन ब्रह्मा तथा ब्रह्मज्ञानस्वरूप हैं; मैं उनकी शरणमें पड़ा हूँ। जो निर्भय, संसारका भय दूर करनेवाले और भयदाता हैं, उन भयरूप भगवान्की मैं शरणमें है भव मेरा क्या करेगा। जो समस्त पुण्यात्माओंका उद्धार और सम्पूर्ण पापियोंका विनाश करनेवाले हैं, उन धर्मरूप भगवान् श्रीविष्णुकी मैं शरणमें पड़ा हूँ।
'यह परम प्रचण्ड आँधी मेरे शरीरको अत्यन्त पीड़ा दे रही है, मैं इसे भी भगवान्का ही स्वरूप मानकर इसकी शरणमें हूँ, अतः ये भगवान् वायु मुझे सदा ही आश्रय प्रदान करें। अत्यन्त शीत, अधिक वर्षा और दुःसह ताप देनेवाली धूप-इन सबके रूपमें जिन भगवान्का साक्षात्कार हो रहा है, मैं उन्हींकी शरण में आया हूँ। ये जो कालरूपधारी जीव यहाँ आकर मुझे भय देते हुए विचलित कर रहे हैं, सब के सब भगवान् श्रीविष्णुके स्वरूप हैं; मैं सर्वदा इनकी शरण में हूँ। जिन्हें सर्वदेवस्वरूप, परमेश्वर, केवल, ज्ञानमय और प्रधानरूप बतलाते हैं, उन सिद्धोंके स्वामी आदिसिद्ध भगवान् श्रीनारायणकी मैं शरणमें हूँ।'
इस प्रकार प्रतिदिन भगवान् श्रीकेशवका ध्यान और स्तवन करते हुए सोमशर्माने अपनी भक्तिके बलसे भगवानको हृदयमें बिठा लिया। उनका उद्यम और पुरुषार्थ देखकर भगवान् श्रीहृषीकेश प्रकट हो गये और उन्हें हर्ष प्रदान करते हुए बोले-'महाप्राज्ञ सोमशर्मन्! अपनी पत्नीके साथ मेरी बात सुनो; विप्रवर! मैं वासुदेव हूँ, सुव्रत! तुम मुझसे कोई उत्तम वर माँगो ।' श्रीभगवान्का यह कथन सुनकर द्विजश्रेष्ठ सोमशर्माने अपने नेत्र खोले: देखा तो विश्वके स्वामी श्रीभगवान् दिव्यरूप धारण किये सामने खड़े हैं। उनके शरीरकी कान्ति मेघके समान श्याम है, वे महान् अभ्युदयशाली और सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित हैं। सम्पूर्णआयुध उनकी शोभा बढ़ा रहे हैं। उनका श्रीविग्रह दिव्य लक्षण सम्पन्न है। नेत्र खिले हुए कमलके समान है। पीतवस्त्र श्रीअंगों की शोभा बढ़ा रहा है। देवेश्वर भगवान् श्रीविष्णु शंख, चक्र और गदा धान किये गरुड़पर विराजमान हैं। वे इस जगत् तथा ब्रह्मा आदिके भी भलीभाँति भरण-पोषण करनेवाले। है। यह विश्व उन्हींका स्वरूप है। वे सनातन रूप धारण करनेवाले हैं। वे विश्वसे अतीत, निराकार परमात्मा हैं।
भगवान् श्रीजनार्दनको इस रूपमें उपस्थित देख विद्रवर सोमशर्मा महान् हर्षमें भर गये और करोड़ों सूर्वक समान तेजस्वी एवं लक्ष्मीसहित शोभा पानेवाले श्रीभगवान्को साष्टांग प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़े अपनी स्त्री सुमनाके साथ उनकी स्तुति करने लगे 'देव! जगन्नाथ! आपकी जय हो, सबको सम्मान देनेवाले लक्ष्मीपते! आपकी जय हो। योगियोंके स्वामिन्! योगीन्द्र आपकी जय हो यहके स्वामी हो! आपकी जय हो। विष्णुरूपसे यज्ञेश्वर ! और शिवरूपसे यज्ञविध्वंसक सनातन और सर्वव्यापक परमेश्वर! आपकी जय हो, जय हो। सर्वेश्वर! अनन्त ! आपकी जय हो। जयस्वरूप प्रभो! आपको मेरा प्रणाम है। ज्ञानवानोंमें श्रेष्ठ! आपकी जय हो। ज्ञाननायक ! आपकी जय हो। सब कुछ देनेवाले सर्वज्ञ परमेश्वर ! आपकी जय हो । सत्त्वगुणको उत्पन्न करनेवाले प्रभो! आपकी जय हो ।
'यज्ञव्यापी परमेश्वर! आप प्रज्ञास्वरूप हैं, आपकी जय हो । प्राण प्रदान करनेवाले प्रभो! आपकी जय हो। पापनाशक पुण्येश्वर! आपकी जय हो। पुण्यपालक हो! आपकी जय हो। ज्ञानस्वरूप ईश्वर! आपकी जय हो। आप ज्ञानगम्य हैं, आपको नमस्कार है। कमललोचन! आपकी जय हो। आपकी नाभिसे कमलका प्रादुर्भाव हुआ था; अतः पद्मनाभ नामसे प्रसिद्ध आपको प्रणाम है। गोविन्द! आपकी जय हो। गोपाल ! आपकी जय हो। शंख धारण करनेवाले निर्मलस्वरूप परमात्मन्! आपकी जय हो चक्र धारण करनेवाले अव्यक्तरूप परमेश्वर ! व्यक्तरूपधारी आपको नमस्कारहै। प्रभो! आपके अंग पराक्रमसे शोभा पा रहे हैं, आपकी जय हो। विक्रम नायक आपकी जय हो। विद्यासे विलसित रूपवाले देवेश्वर! आपकी जय हो। वेदमय परमेश्वर! आपको नमस्कार है। पराक्रमसे सुशोभित अंगोंवाले प्रभो! आपकी जय हो। उद्यम प्रदान करनेवाले देव! आपकी जय हो। आप ही उद्यमके योग्य समय और उद्यमरूप हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। भगवन्! आप उद्यममें समर्थ हैं, आपकी जय हो। उद्यम करानेवाले भी आप ही हैं, आपकी जय हो। युद्धोद्योग प्रवृत्त होनेवाले आप सर्वात्माको नमस्कार है।
'सुवर्ण आपका तेज है, आपको नमस्कार है। आप विजयी वीर हैं, आपको नमस्कार हैं। आप अत्यन्त तेजःस्वरूप और सर्वतेजोमय हैं, आपको प्रणाम है। आप दैत्य-तेजके विनाशक और पापमय तेजका अपहरण करनेवाले हैं. आपको नमस्कार है। गौओं और ब्राह्मणोंका हित साधन करनेवाले आप परमात्माको प्रणाम है। आप हविष्य-भोजी तथा हव्य और कव्यका वहन करनेवाले अग्नि हैं, आप ही स्वधारूप हैं; आपको नमस्कार है। आप स्वाहारूप, यज्ञस्वरूप और योगके बीज हैं; आपको नमस्कार है। हाथमें शार्ङ्ग नामक धनुष धारण करनेवाले, आप हरिको प्रणाम है।
'कार्य-कारणरूप जगत्को प्रेरित करनेवाले विज्ञानशाली परमेश्वरको नमस्कार है। वेदस्वरूप भगवान्को प्रणाम है। सबको पवित्र करनेवाले प्रभुको नमस्कार है। सबके क्लेशोंका अपहरण करनेवाले, हरित केशोंसे युक्त श्रीभगवान्को प्रणाम है विश्वके आधारभूत परमात्मा केशवको नमस्कार है। कृपामय और आनन्दमय ईश्वरको नमस्कार है। क्लेशोंका नाश करनेवाले नित्यशुद्ध भगवान् श्रीअनन्तको नमस्कार है। जिनका स्वरूप नित्य आनन्दमय है, जो दिव्य होनेके साथ ही दिव्यरूप धारण करते हैं, ग्यारह रुद्र जिनके चरणोंकी वन्दना करते हैं तथा ब्रह्माजी भी जिनके सामने मस्तक झुकाते हैं, उन भगवान्को प्रणाम है। प्रभो ! देवता और असुरोंके स्वामी भी आपके चरणकमलोंमेंमाथा टेकते हैं। आप देवेश, अमृत और अमृतात्मा हैं; आपको बारंबार नमस्कार है। आप क्षीरसागरमें निवास करनेवाले और लक्ष्मीके प्रियतम हैं, आपको नमस्कार है। आप ओंकार, विशुद्ध तथा अविचलरूप हैं; आपको बारंबार प्रणाम है। आप व्यापी, व्यापक और सब प्रकारके दुःखोंको दूर करनेवाले हैं; आपको नमस्कार है।
'वराहरूपधारी आपको प्रणाम है। महाकच्छपके रूपमें आपको नमस्कार है। वामन और नृसिंहका रूप धारण करनेवाले आप परमात्माको प्रणाम है। सर्वज्ञ मत्स्यभगवान्को प्रणाम है। श्रीराम, कृष्ण, ब्राह्मणश्रेष्ठ कपिल और हयग्रीवके रूपमें अवतीर्ण हुए आपभगवान्को प्रणाम है।'
इस प्रकार इन्द्रियोंके स्वामी भगवान् श्रीजनार्दनका स्तवन करके सोमशर्माने फिर कहा- 'प्रभो! ब्रह्माजी भी आपके पावन गुणोंकी सीमाको नहीं जानते तथा सर्वेश्वर ! रुद्र और इन्द्र भी आपकी स्तुति करनेमें असमर्थ हैं; फिर दूसरा कौन आपके गुणोंका वर्णन कर सकता है। मुझमें बुद्धि ही कौन-सी है, जो मैं आपकी स्तुति कर सकूँ। केशव ! मैंने अपनी छोटी बुद्धिके अनुसार आपके निर्गुण और सगुण रूपोंका स्तवन किया है। सर्वेश ! मैं जन्म-जन्मसे आपका ही दास हूँ। लोकेश ! मुझपर | दया कीजिये।'