व्यासजी कहते हैं- ब्राह्मणो! श्रेष्ठ ब्रह्मचारी अपनी शक्तिके अनुसार एक, दो, तीन अथवा चारों वेदों तथा वेदांगोंका अध्ययन करके उनके अर्थको भलीभाँति हृदयंगम करके ब्रह्मचर्य व्रतकी समाप्तिका स्नान करे। गुरुको दक्षिणारूपमें धन देकर उनकी आज्ञा ले स्नान करना चाहिये। व्रतको पूरा करके मनको काबू में रखनेवाला समर्थ पुरुष स्नातक होनेके योग्य है। वह बाँसकी छड़ी, अधोवस्त्र तथा उत्तरीय (चादर) धारण करे। एक जोड़ा यज्ञोपवीत और जलसे भरा हुआ कमण्डलु धारण करे। बाल और नख कटाकर स्नान आदिसे शुद्ध हो उसे छाता साफ पगड़ी, खड़ाऊँ याजूता तथा सोनेके कुण्डल धारण करने चाहिये। ब्राह्मण सोनेकी मालाके सिवा दूसरी कोई लाल रंगकी माला न धारण करे। वह सदा श्वेत वस्त्र पहने, उत्तम गन्धका सेवन करे और वेश-1 - भूषा ऐसी रखे, जो देखने में प्रिय जान पड़े। धन रहते हुए फटे और मैले वस्त्र न पहने। अधिक लाल और दूसरेके पहने हुए वस्त्र, कुण्डल, माला, जूता और खड़ाऊँको अपने काममें न लाये। यज्ञोपवीत, आभूषण, कुश और काला मृगचर्म- इन्हें अपसव्य भावसे न धारण करे। अपने योग्य स्त्रीसे विधिपूर्वक विवाह करे। स्त्री शुभ गुणोंसे युक्त, रूपवती, सुलक्षणा और योनिगत दोषोंसे रहित होनी चाहिये।माताके गोत्रमें जिसका जन्म न हुआ हो, जो अपने गोत्र में उत्पन्न न हुई हो तथा उत्तम शील और पवित्रतासे युक्त हो, ऐसी भार्यासे ब्राह्मण विवाह करे। जबतक पुत्रका जन्म न हो, तबतक केवल ऋतुकालमें स्त्रीके साथ समागम करे। इसके लिये शास्त्रोंमें जो निषिद्ध दिन है, उनका यत्नपूर्वक त्याग करे षष्ठी अष्टमी, पूर्णिमा, द्वादशी तथा चतुर्दशी तिथि स्त्री-समागमके लिये निषिद्ध हैं। उक्त नियमोंका पालन करनेसे गृहस्थ भी सदा ब्रह्मचारी ही माना जाता है। विवाह - कालकी अग्निको सदा स्थापित रखे और उसमें अग्निदेवताके निमित्त प्रतिदिन हवन करे। स्नातक पुरुष इन पावन नियमोंका सदा ही पालन करे। अपने [वर्ण और आश्रम के लिये विहित ] वेदोक्त कर्मका सदा आलस्य छोड़कर पालन करना चाहिये। जो नहीं करता, वह अत्यन्त भयंकर नरकोंमें पड़ता है। सदा संयमशील रहकर वेदोंका अभ्यास करे, पंच महायज्ञोंका त्याग न करे, गृहस्थोचित समस्त शुभ कार्य और संध्योपासन करता रहे। अपने समान तथा अपनेसे बड़े पुरुषोंके साथ मित्रता करे, सदा ही भगवान्की शरण में रहे। देवताओंके दर्शनके लिये यात्रा करे तथा पत्नीका पालन-पोषण करता रहे। विद्वान् पुरुष लोगोंमें अपने किये हुए धर्मकी प्रसिद्धि न करे तथा पापको भी न छिपाये। सम्पूर्ण प्राणियोंपर दया करते हुए सदा अपने हितका साधन करे। अपनी वय, कर्म, धन, विद्या, उत्तम कुल, देश, वाणी और बुद्धिके अनुरूप आचरण करते हुए सदा विचरण करता रहे। श्रुतियों और स्मृतियोंमें जिसका विधान हो तथा साधु पुरुषोंने जिसका भलीभाँति सेवन किया हो, उसी आचारका पालन करे; अन्य कार्योंके लिये कदापि चेष्टा न करे। जिसका उसके पिताने अनुसरण किया हो तथा जिसका पितामहोंने किया हो, उसी वृत्तिसे वह भी सत्पुरुषोंके मार्गपर चले; उसका अनुसरण करनेवाला पुरुष दोषका भागी नहीं होता। प्रतिदिन स्वाध्याय करे, सदा यज्ञोपवीत धारण किये रहे तथा सर्वदा सत्य बोले क्रोधको जीते और लोभ-मोहका परित्याग कर दे। गायत्रीका जप तथा पितरोंका श्राद्ध करनेवाला गृहस्थ मुक्त हो जाता है। माता-पिताके हितमें संलग्न, ब्राह्मणोंके कल्याणमें तत्पर, दाता, याज्ञिक और वेदभक्त गृहस्थ ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। सदा ही धर्म, अर्थ एवं कामका सेवन करते हुए प्रतिदिन देवताओंका पूजन करे और शुद्धभावसे उनके चरणों में मस्तक झुकाये। बलिवैश्वदेवके द्वारा सबको अन्नका भाग दे। निरन्तर क्षमाभाव रखे और सबपर दयाभाव बनाये रहे। ऐसे पुरुषको ही गृहस्थ कहा गया है; केवल घरमें रहने से कोई गृहस्थ नहीं हो सकता।
क्षमा, दया, विज्ञान, सत्य, दम, शम, सदा अध्यात्मचिन्तन तथा ज्ञान- ये ब्राह्मणके लक्षण हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मणको उचित है कि वह विशेषतः इन गुणोंसे कभी च्युत न हो अपनी शक्तिके अनुसार धर्मका अनुष्ठान करते हुए निन्दित कर्मोंको त्याग दे। मोहरूपी कीचड़को धोकर परम उत्तम ज्ञानयोगको प्राप्त करके गृहस्थ पुरुष संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है - इसमें अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।
निन्दा, पराजय, आक्षेप, हिंसा, बन्धन और वधको तथा दूसरोंके क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको सह लेना 'क्षमा' है। अपने दुःखमें करुणा तथा दूसरोंके दुःखमें सौहार्द - स्नेहपूर्ण सहानुभूतिके होनेको मुनियोंने 'दया' कहा है, जो धर्मका साक्षात् साधन है। छहों अंग, चारों वेद, मीमांसा, विस्तृत न्याय - शास्त्र, पुराण और धर्मशास्त्र-ये चौदह विद्याएँ हैं। इन चौदह विद्याओंको यथार्थरूपसे धारण करना इसीको 'विज्ञान' समझना चाहिये। जिससे धर्मको वृद्धि होती है। विधिपूर्वक विद्याका अध्ययन करके तथा धनका उपार्जन कर धर्म-कार्यका अनुष्ठान करे इसे भी 'विज्ञान' कहते हैं। सत्यसे मनुष्यलोकपर विजय पाता है, वह सत्य ही परम पद है। जो बात जैसे हुई हो | उसे उसी रूपमें कहनेको मनीषी पुरुषोंने 'सत्य' कहा है। शरीरको उपरामताका नाम 'दम' है। बुद्धिकी निर्मलतासे 'राम' सिद्ध होता है। अक्षर (अविनाशी) पदको 'अध्यात्म' समझना चाहिये; जहाँ जाकर मनुष्य शोकमें नहीं पड़ता जिस विद्यासे विधऐश्वर्ययुक्त परम देवता साक्षात् भगवान् हृषीकेशका ज्ञान होता है, उसे 'ज्ञान' कहा गया है। जो विद्वान् ब्राह्मण उस ज्ञानमें स्थित, भगवत्परायण, सदा ही क्रोधसे दूर रहनेवाला, पवित्र तथा महायज्ञके ह अनुष्ठानमें तत्पर रहनेवाला है, वह उस उत्तम पदको प्राप्त कर लेता है। यह मनुष्य शरीर धर्मका आश्रय है, इसका यत्नपूर्वक पालन करना चाहिये; क्योंकि देहके बिना कोई भी पुरुष परमात्मा श्रीविष्णुका ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता । द्विजको चाहिये कि वह सदा नियमपूर्वक रहकर धर्म, अर्थ और कामके साधनमें लगा रहे। धर्महीन काम या अर्थका कभीमनसे चिन्तन भी न करे। धर्मपर चलनेसे कष्ट हो, तो भी अधर्मका आचरण नहीं करना चाहिये; क्योंकि धर्म-देवता साक्षात् भगवान्के स्वरूप हैं; वे ही सब प्राणियोंकी गति हैं। द्विज सब भूतोंका प्रिय करनेवाला बने; दूसरोंके प्रति द्रोहभावसे किये जानेवाले कर्ममें मन न लगाये; वेदों और देवताओंकी निन्दा न करे तथा निन्दा करनेवालोंके साथ निवास भी न करे। जो ब्राह्मण प्रतिदिन नियमपूर्वक रहकर पवित्रताके साथ इस धर्माध्यायको पढ़ता, पढ़ाता अथवा सुनाता है, वह ब्रह्मलोकमें प्रतिष्ठित होता है। *