शेषजी कहते हैं—मुने! हनुमानजीने वीरसिंहके पास जाकर कहा-'वीरवर! ठहरो, कहाँ जाते हो? मैं एक ही क्षणमें तुम्हें परास्त करूंगा।' वानरके मुखसे ऐसी बढ़ी चढ़ी बात सुनकर वीरसिंह क्रोधमें भर गये और मेघके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले धनुषको खींचकर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस समय रणभूमिमें उनकी ऐसी शोभा हो रही थी मानो आषाड़के महीनेमें धारावाहिक वृष्टि करनेवाला मनोहर मेघ शोभा पा रहा हो। उन तीखे बाणोंको अपने शरीरपर लगते देख हनुमानजीने वज्रके समान मुक्का वीरसिंहकी छाती में मारा। मुष्टिका प्रहार होते ही वे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर पड़े। अपने चाचाको मूच्छित देख राजकुमार शुभांगद वहाँ आ पहुँचा। रुक्मांगदकी भी मूर्च्छा दूर हो चुकी थी; अतः वह भी युद्ध क्षेत्रमें आ धमका। वे दोनों भाई भयंकर संग्राम करते हुए हनुमान्जीके पास गये। उन दोनों वीरोंको समरभूमिमें आया देख हनुमानजीने उन्हें रथ और धनुषसहित अपनी पूँछमें लपेट लिया और पृथ्वीपर बड़े वेगसे पटका। इससे वे दोनों राजकुमार तत्काल मूर्च्छित हो गये। इसी प्रकार वलमित्र भी सुमदके साथ बहुत देरतक युद्ध करके अन्तमें मूच्छाको प्राप्त हुए। तदनन्तर अपने आत्मीय जनोंको मूर्च्छित देख भक्तोंको पीड़ा दूर करनेवाले भगवान् महेश्वर स्वयं होउस विशाल सेनामें शत्रुघ्नके सैनिकोंके साथ युद्ध करनेके लिये गये। उनका उद्देश्य था भक्तोंकी रक्षा करना। वे पूर्वकालमें जैसे त्रिपुरसे युद्ध करनेके लिये गये थे, उसी प्रकार वहाँ भी अपने पार्षदों और प्रमथ गणसहित पृथ्वीतलको कँपाते हुए जा पहुँचे। महाबली शत्रुघ्नने जब देखा कि सर्वदेवशिरोमणि साक्षात् महेश्वर पधारे हैं, तब वे भी उनका सामना करनेके लिये रणभूमिमें गये। शत्रुघ्नको आया देख पिनाकधारी रुद्रने वीरभद्रसे कहा- 'तुम मेरे भक्तको पीड़ा देनेवाले पुष्कलसे युद्ध करो।' फिर नन्दीको उन्होंने महाबली हनुमान्से लड़नेके लिये भेजा । तदनन्तर कुशध्वजके पास प्रचण्डको, सुबाहुके पास भृंगीको और सुमदके पास चण्ड नामक अपने गणको भेजकर युद्धके लिये आदेश दिया। महारुद्रके प्रधान गण वीरभद्रको आया देख पुष्कल अत्यन्त उत्साहपूर्वक उनसे युद्ध करनेको आगे बढ़े। उन्होंने पाँच बाणोंसे वीरभद्रको घायल किया। उनके बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर वीरभद्रने त्रिशूल हाथमें लिया; किन्तु महाबली पुष्कलने एक ही क्षणमें उस त्रिशूलको काटकर विकट गर्जना की। अपने त्रिशूलको कटा देख रुद्रके अनुगामी महाबली वीरभद्रको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने महारथी पुष्कलके रथको तोड़ डाला। वीरभद्रके वेगसे चकनाचूर हुए रथको त्याग कर महाबली पुष्कल पैदल हो गयेऔर वीरभदको मुक्केसे मारने लगे। फिर दोनोंने एक दूसरेपर मुष्टिकाप्रहार आरम्भ किया। दोनों ही परस्पर विजयके अभिलाषी और एक-दूसरेके प्राण लेनेको उतारू थे। इस प्रकार रात-दिन लगातार युद्ध करते उन्हें चार दिन व्यतीत हो गये। पाँचवें दिन पुष्कलको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने वीरभद्रका गला पकड़कर उन्हें पृथ्वीपर दे मारा। उनके प्रहारसे महाबली वीरभद्रको बड़ी पीड़ा हुई। फिर उन्होंने भी पुष्कलके पैर पकड़कर उन्हें बारम्बार घुमाया और पृथ्वीपर पछाड़कर मार डाला। महाबली वीरभद्रने पुष्कलके मस्तकको, जिसमें कुण्डल जगमगा रहे थे, त्रिशूलसे काट दिया। इसके बाद वे जोर-जोरसे गर्जना करने लगे। यह देखकर सभी लोग थर्रा उठे। रणभूमिमें जो युद्ध कुशल वीर थे, उन्होंने वीरभद्रके द्वारा पुष्कलके मारे जानेका समाचार शत्रुघ्नसे कहा ।
पुष्कलके का वृत्तान्त सुनकर महावीर शत्रुघ्नको बड़ा दुःख हुआ। वे शोकसे काँप उठे। उन्हें दुःखी जानकर भगवान् शंकरने कहा- 'रे शत्रुघ्न ! तू युद्धमें शोक न कर वीर पुष्कल धन्य है, जिसने महाप्रलयकारी वीरभद्रके साथ पाँच दिनोंतक युद्ध किया। ये वीरभद्र वे ही हैं, जिन्होंने मेरे अपमान करनेवाले दशको क्षणभर में मार डाला था; अतः महाबलवान् राजेन्द्र ! तू शोक त्याग दे और युद्ध कर। शत्रुघ्नने शोक छोड़ दिया। उन्हें शंकरके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने चढ़ाये हुए धनुषको हाथमें लेकर महेश्वरपर बाणोंका प्रहार आरम्भ किया। उधरसे शंकरने भी बाण छोड़े। दोनोंके बाण आकाशमें छा गये बाग- युद्धमें दोनोंकी क्षमता देखकर सब लोगोंको यह विश्वास हो गया कि अब सबको मोहमें डालनेवाला लोक-संहारकारी प्रलयकाल आ पहुँचा। दर्शक कहने लगे-'ये तीनों लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलय करनेवाले रुद्र हैं, तो वे भी महाराज श्रीरामचन्द्रके छोटे भाई हैं। न जाने क्या होगा। इस भूतलपर किसकी विजय होगी ?'
इस प्रकार शत्रुघ्न और शिवमें ग्यारह दिनोंतक परस्पर बुद्ध होता रहा। बारहवें दिन राजा शत्रुघ्नने क्रोधमें भरकर महादेवजीका वध करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोगकिया, किन्तु महादेवजी उस महान् अस्त्रको हँसते हम भी गये। इससे शत्रुघ्नको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे—'अब क्या करना चाहिये?" वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि देवाधिदेवोंके शिरोमणि भगवान् शिवने शत्रुघ्नकी छाती में एक अग्नि के समान तेजस्वी बाण भोंक दिया। उससे मूच्छित होकर शत्रुघ्न रणभूमिमें गिर पड़े। उस समय योद्धाओंसे भरी हुई उनकी सारी सेनामें हाहाकार मच गया। शत्रुघ्नको बाणोंसे पीड़ित एवं मूर्च्छित होकर गिरा देख हनुमानजीने पुष्कलके शरीरको रथपर सुला दिया और सेवकोंको उनको रक्षामें तैनात करके वे स्वयं संहारकारी शिवसे युद्ध करनेके लिये आये हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके अपने पक्षके योद्धाओंका हर्ष बढ़ाते हुए रोषके मारे अपनी पूँछको जोर-जोरसे हिला रहे थे। युद्धके मुहानेपर रुद्रके समीप पहुँचकर महावीर हनुमानजी देवाधिदेव महादेवजीका वध करनेकी इच्छासे बोले- 'रुद्र ! तुम राम भक्तका वध करनेके लिये उद्यत होकर धर्मके प्रतिकूल आचरण कर रहे हो इसलिये मैं तुम्हें दण्ड देना चाहता हूँ। मैंने पूर्वकालमें वैदिक ऋषियोंके मुँहसे अनेकों बार सुना है कि पिनाकधारी रुद्र सदा ही श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण करते रहते हैं; किन्तु वे सभी बातें आज झूठी साबित हुईं। क्योंकि तुमने राम भक्त शत्रुघ्न के साथ युद्ध किया है।' हनुमान्जीके ऐसा कहनेपर महेश्वर बोले-'कपिश्रेष्ठ! तुम वीरोंमें प्रधान और धन्य हो। तुमने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। देव-दानववन्दित ये भगवान् श्रीरामचन्द्रजी वास्तवमें मेरे स्वामी हैं। किन्तु मेरा भक्त वीरमणि उनके अश्वको ले आया है और उस अश्वके रक्षक शत्रुघ्न, जो शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले हैं, इसके ऊपर चढ़ आये हैं। इस अवस्थामें में वीरमणिको भक्तिके वशीभूत होकर उसकी रक्षाके लिये आया हूँ क्योंकि भक्त अपना ही स्वरूप होता है। अतः जिस किसी तरह भी सम्भव हो, उसको रक्षा करनी चाहिये यही मर्यादा है।"
चण्डीपति भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर हनुमानजी बहुत कुपित हुए और उन्होंने एक बड़ी शिलालेकर उसे उनके रथपर दे मारा। शिलाका आघात पाकर महादेवजीका रथ घोड़े सारथि ध्वजा और पताकासहित चूर-चूर हो गया। शिवजीको रथहीन देखकर नन्दी दौड़े हुए आये और बोले—' भगवन्! मेरी पीठपर सवार हो जाइये।' भूतनाथको वृषभपर आरूढ़ देख हनुमान्जीका क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने शालका वृक्ष उखाड़कर बड़े वेगसे उनकी छातीपर प्रहार किया। उसकी चोट खाकर भगवान् भूतनाथने एक तीखा शूल हाथमें लिया, जिसकी तीन शिखाएँ थीं तथा जो अग्निको ज्यालाकी भाँति जाज्वल्यमान हो रहा था। अग्नितुल्य तेजस्वी उस महान् शूलको अपनी ओर आते देख हनुमानजीने वेगपूर्वक हाथसे पकड़ लिया और उसे क्षणभर में तिल-तिल करके तोड़ डाला। कपिश्रेष्ठ हनुमान्ने जब वेगके साथ त्रिशूलके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, तब भगवान् शिवने तुरंत ही शक्ति हाथमें ली, जो सब की सब लोहेकी बनी हुई थी। शिवजीकी चलायी हुई वह शक्ति बुद्धिमान् हनुमान्जीकी छातीमें आ लगी। इससे वे कपिश्रेष्ठ क्षणभर बड़े विकल रहे। फिर एक ही क्षणमें उस पीड़ाको सहकर उन्होंने एक भयंकर वृक्ष उखाड़ लिया और बड़े-बड़े नागसे विभूषित महादेवजीकी छातीमें प्रहार किया। वीरवर हनुमान्जीकी मार खाकर शिवजीके शरीरमें लिपटे हुए नाग थर्रा उठे और वे उन्हें छोड़कर इधर-उधर होते हुए बड़े वेग से पातालमें घुस गये। इसके बाद शिवजीने उनके ऊपर मूसल चलाया, किन्तु वे उसका वार बचा गये। उस समय रामसेवक हनुमानजीको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने हाथपर पर्वत लेकर उसे शिवजीकी छातीपर दे मारा। तदनन्तर, उनके ऊपर दूसरी-दूसरी शिलाओं, वृक्षों और पर्वतोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी। वे भगवान् भूतनाथको अपनी पूँछमें लपेटकर मारने लगे। इससे नन्दीको बड़ा भय हुआ। उन्होंने एक-एक क्षणमें प्रहार करके शिवजीको अत्यन्त व्याकुल कर दिया। तब वे वानरराज हनुमानजी से बोले- 'रघुनाथजीकी सेवामें रहनेवाले भक्तप्रवर तुम धन्य हो आज तुमने महान् पराक्रम कर दिखाया।इससे मुझे बड़ा सन्तोष हुआ है। महान् वेगशाली वीर। मैं दान यज्ञ या थोड़ी-सी तपस्यासे सुलभ नहीं है। अतः मुझसे कोई वर मांगो।'
भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर जब ऐसी बात कहने लगे, तब हनुमानजीने हँसकर निर्भय वाणीमें कहा 'महेश्वर! श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे मुझे सब कुछ प्राप्त है; तथापि आप मेरे युद्धसे सन्तुष्ट हैं, इसलिये मैं आपसे यह वर माँगता हूँ। हमारे पक्षके ये वीर पुष्कल युद्धमें मारे जाकर पृथ्वीपर पड़े हैं, श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई शत्रुघ्न भी रणमें मूच्छित हो गये हैं तथा दूसरे भी बहुत से बोर बाणोंकी भारसे क्षत-विक्षत एवं मूर्च्छित होकर धरतीपर गिरे हुए हैं। इन सबकी आप अपने गणों के साथ रहकर रक्षा करें। इनके शरीरका खण्ड-खण्ड न हो, इस बातकी चेष्टा करें। मैं अभी द्रोणगिरिको लाने जा रहा हूँ, उसपर मरे हुए प्राणियोंको जिलानेवाली ओषधियाँ रहती हैं।' यह सुनकर शंकरजीने कहा 'बहुत अच्छा, जाओ।' उनकी स्वीकृति पाकर हनुमान्जी सम्पूर्ण द्वीपोंको लाँघते हुए क्षीरसागरके तटपर गये । इधर भगवान् शिव अपने गणोंके साथ रहकर पुष्कल आदिकी रक्षा करने लगे हनुमानजी द्रोण नामक महान् पर्वतपर पहुँचकर जब उसे लानेको उद्यत हुए, तब वह काँपने लगा। उस पर्वतको काँपते देख उसकी रक्षा करनेवाले देवताओंने कहा- 'छोड़ दो इसे, किसलिये यहाँ आये हो? क्यों इसे ले जाना चाहते हो ?' उनकी बात सुनकर महायशस्वी हनुमानजी बोले-'देवताओ। राजा वीरमणिके नगरमें जो संग्राम हो रहा है, उसमें रुद्रके द्वारा हमारे पक्षके बहुत से योद्धा मारे गये हैं। उन्हींको जीवित करनेके लिये मैं यह द्रोण पर्वत ले जाऊँगा जो लोग अपने बल और पराक्रमके घमंड में आकर इसे रोकेंगे, उन्हें एक ही क्षणमै मैं यमराजके घर भेज दूंगा। अतः तुमलोग मुझे समूचा द्रोण पर्वत अथवा वह औषध दे दो, जिससे मैं रणभूमिमें मरे हुए वीरोंको जीवन दान कर सकूँ।' पवनकुमारके ये वचन सुनकर सबने उन्हें प्रणाम किया और संजीवनी नामक औषधि उन्हें दे दी। हनुमान्जी औषध लेकर युद्धक्षेत्रमें आयेउन्हें आया देख समस्त वैरी भी साधु-साधु कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे तथा सबने उन्हें एक अद्भुत शक्तिशाली वीर माना हनुमानजी बड़ी प्रसन्नताके साथ मरे हुए वीर पुष्कलके पास आये और महापुरुषोंके भी आदरणीय मन्त्रिवर सुमतिको बुलाकर बोले-'आज मैं बुद्धमें मरे हुए सम्पूर्ण वीरोंको जिलाऊँगा।'
ऐसा कहकर उन्होंने पुष्कलके विशाल वक्षःस्थल पर औषध रखा और उनके सिरको धड़से जोड़कर यह कल्याणमय वचन कहा- 'यदि मैं मन, वाणी और क्रियाके द्वारा श्रीरघुनाथजीको ही अपना स्वामी समझता हूँ तो इस दवासे पुष्कल शीघ्र ही जीवित हो जायें।' इस बातको ज्यों ही उन्होंने मुँहसे निकाला त्यों ही बीरशिरोमणि पुष्कल उठकर खड़े हो गये और रणभूमिमें रोषके मारे दाँत कटकटाने लगे। वे बोले 'मुझे युद्धमें मूर्च्छित करके वीरभद्र कहाँ चले गये? मैं अभी उन्हें मार गिराता हूँ कहाँ है मेरा उत्तम धनुष !' उन्हें ऐसा कहते देख कपिराज हनुमानजीने कहा
'वीरवर! तुम्हें वीरभद्रने मार डाला था। श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे पुनः नया जीवन प्राप्त हुआ है। शत्रुघ्न भी मूर्च्छित हो गये हैं। चलो, उनके पास चलें।' यौ कहकर वे युद्धके मुहानेपर पहुँचे, जहाँ भगवान् श्रीशिवके बाणोंसे पीड़ित होकर शत्रुघ्नजी केवल साँस ले रहे थे। साँस आनेपर हनुमान्जीने उनकी छातीपर दवा रख दी और कहा भैया शत्रुघ्न तुम तो महाबलवान् और पराक्रमी हो, रणभूमिमें मूच्छित होकर कैसे पड़े हो ? यदि मैंने प्रयत्नपूर्वक आजन्म ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया है तो वीर शत्रुघ्न क्षणभरमें जीवित हो उठे।' इतना कहते ही वे क्षणमात्रमें जीवित हो बोल उठे-'शिव कहाँ हैं, शिव कहाँ हैं? वे रणभूमि छोड़कर कहाँ चले गये ?'
पिनाकधारी रुदने युद्धमें अनेकों वीरोंका सफाया कर डाला था, किन्तु महात्मा हनुमान्जीने उन सबको जीवित कर दिया। तब वे सभी वीर कवच आदिसे सुसज्जित हो अपने-अपने रथपर बैठकर रोषपूर्ण हृदयसे शत्रुओंकी ओर चले। अबकी बार राजा वीरमणि स्वयं ही शत्रुघ्नका सामना करनेके लिये गये। उन्हें देखकरशत्रुघ्नको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने राजाके ऊपर आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया, जिससे उनकी सेना दग्ध होने लगी। शत्रुके छोड़े हुए उस महान् दाहक अस्त्रको देखकर राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने वारुणास्त्रका प्रयोग किया। वारुणास्त्रद्वारा अपनी सेनाको शीतके कष्टसे पीड़ित देख महाबली शत्रुघ्नने उसपर वायव्यास्त्रका प्रहार किया। इससे बड़े जोरोंकी हवा चलने लगी। वायुके वेगसे मेघोंकी घिरी हुई घटा छिन्न-भिन्न हो गयी। वे चारों ओर फैलकर विलीन हो गये। अब शत्रुघ्नके सैनिक सुखी दिखायी देने लगे। उधर महाराज वीरमणिने जब देखा कि मेरी सेना आँधीसे कष्ट पा रही है, तब उन्होंने अपने धनुषपर शत्रुओंका संहार करनेवाले पर्वतास्त्रका प्रयोग किया। पर्वतोंके द्वारा वायुकी गति रुक गयी। अब वह युद्धक्षेत्रमें फैल नहीं पाती थी। यह देख शत्रुघ्नने वज्रास्त्रका सन्धान किया। वज्रास्त्रकी मार पड़नेपर समस्त पर्वत तिल तिल करके चूर्ण हो गये। शत्रुवीरोंके अंग विदीर्ण होने लगे। खून से लथपथ होनेके कारण उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उस समय युद्धका अद्भुत दृश्य था। राजा वीरमणिका क्रोध सीमाको पार कर गया। उन्होंने अपने धनुषपर ब्रह्मास्त्रका सन्धान किया, जो वैरियोंको दग्ध करनेवाला अद्भुत अस्त्र था। ब्रह्मास्त्र उनके हाथसे छूटकर शत्रुकी ओर चला। तबतक शत्रुघ्नने भी मोहनास्त्र छोड़ा। मोहनास्त्रने एक ही क्षणमें ब्रह्मास्त्र के दो टुकड़े कर डाले तथा राजाकी छातीमें चोट करके उन्हें तुरंत मूच्छित कर दिया। तब शिवजीको बड़ा क्रोध हुआ और वे रथपर बैठकर राजाके पास आये। उस समय शत्रुघ्न सहसा उनसे युद्धके लिये आगे बढ़ आये और अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर युद्ध करने लगे। उन दोनोंमें बड़ा भयंकर संग्राम छिड़ा, जो वैरियोंको विदीर्ण करनेवाला था। । नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग होनेके कारण । सारी दिशाएँ उद्दीप्त हो उठी थीं। शिवके साथ युद्ध करते-करते शत्रुघ्न अत्यन्त व्याकुल हो गये । । तब हनुमान्जीके उपदेशसे उन्होंने अपने स्वामी र श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया-'हा नाथ! हा भाई! येअत्यन्त भयंकर शिव धनुष उठाकर मेरे प्राण लेनेपर उतारू हो गये हैं; आप युद्धमें मेरी रक्षा कीजिये। राम! आपका नाम लेकर अनेकों दुःखी जीव दुःख सागरके पार हो चुके हैं। कृपानिधे! मुझ दुखियाको भी ह उबारिये ।' शत्रुघ्नने ज्यों ही उपर्युक्त बात मुँहसे निकाली, त्यों ही नीलकमल दलके समान श्यामसुन्दर कमलनयन भगवान् श्रीराम मृगका श्रृंग हाथमें लिये उ यज्ञदीक्षित पुरुषके वेषमें वहाँ आ पहुँचे समरभूमिमें उन्हें देखकर शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ ।
प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले अपने भाई श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर शत्रुघ्न सभी दुःखोंसे मुक्त हो गये। हनुमानजी भी श्रीरघुनाथजीको देखकर सहसा उनके चरणोंमें गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे भक्तकी रक्षाके लिये आये हुए भगवान्से बोले-'स्वामिन्! अपने भक्तोंका सब प्रकार से पालन करना आपके लिये सर्वथा योग्य ही है। हम धन्य हैं, जो इस समय श्रीचरणोंका दर्शन पा रहे हैं। श्रीरघुनन्दन ! अब आपकी कृपासे हमलोग क्षणभरमें ही शत्रुओंपर विजय पा जायँगे।' इसी समय योगियोंकेध्यानगोचर श्रीरामचन्द्रजीको आया जान श्रीमहादेवजी भी आगे बढ़े और उनके चरणोंमें प्रणाम करके शरणागतभयहारी प्रभुसे बोले-"भगवन्! एकमात्र आप ही साक्षात् अन्तर्यामी पुरुष हैं, आप ही प्रकृतिसे पर परब्रह्म कहलाते हैं। जो अपनी अंश- कलासे इस विश्वकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं, वे परमात्मा आप ही हैं। आप सृष्टिके समय विधाता, पालनके समय स्वयंप्रकाश राम और प्रलयके समय शर्व नामसे प्रसिद्ध साक्षात् मेरे स्वरूप हैं। मैंने अपने भक्तका उपकार करनेके लिये आपके कार्यमें बाधा डालनेवाला आयोजन किया है। कृपालो! मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये। क्या करूँ, मैंने अपने सत्यकी रक्षाके लिये ही यह सब कुछ किया है। आपके प्रभावको जानकर भी भक्तकी रक्षाके लिये यहाँ आया हूँ। पूर्वकालकी बात है, इस राजाने क्षिप्रा नदीमें स्नान करके उज्जयिनीके महाकाल मन्दिरमें बड़ी अद्भुत तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर मैंने कहा—'महाराज! वर माँगो।' इसने अद्भुत राज्य माँगा।' मैंने कहा- 'देवपुरमें तुम्हारा राज्य होगा और जबतक वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञसम्बन्धी अश्वका आगमन होगा, तबतक मैं भी तुम्हारी रक्षाके लिये उस स्थानपर निवास करूँगा।' इस प्रकार मैंने इसे वरदान दे दिया था। उसी सत्यसे मैं इस समय बँधा हूँ। अब यह राजा अपने पुत्र, पशु और बान्धवसहित यज्ञका घोड़ा आपको समर्पित करके आपके ही चरणोंकी सेवा करेगा।"
श्रीरामने कहा- भगवन्! देवताओंका तो यह धर्म ही है कि वे अपने भक्तोंका पालन करें। आपने जो इस समय अपने भक्तकी रक्षा की है, यह आपके द्वारा बहुत उत्तम कार्य हुआ है। मेरे हृदयमें शिव हैं और शिवके हृदयमें मैं हूँ। हम दोनोंमें भेद नहीं है। जो मूर्ख हैं, जिनकी बुद्धि दूषित है; वे ही भेददृष्टि रखते हैं। हम दोनों एकरूप हैं। जो हमलोगोंमें भेदबुद्धि करते हैं, वे मनुष्य हजार कल्पतक कुम्भीपाकमें पकाये जाते हैं। महादेवजी! जो सदा आपके भक्त रहे हैं, वे धर्मात्मा पुरुष मेरे भी भक्त हैं तथा जो मेरे भक्त हैं, वे भी बड़ीभक्तिसे आपके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। * शेषजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीका ऐसा वचन सुनकर भगवान् शिवने मूर्च्छित पड़े हुए राजा वीरमणिको अपने हाथके स्पर्श आदिसे जीवित किया । इसी प्रकार उनके दूसरे पुत्रोंको भी, जो बाणोंसे पीड़ित होकर अचेत अवस्थामें पड़े थे, जिलाया। भगवान् भूतनाथने राजाको तैयार करके पुत्र-पौत्रोंसहित उन्हें श्रीरघुनाथजीके चरणों में गिराया । वात्स्यायनजी ! धन्य हैं राजा वीरमणि, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन किया। जो लाखों योगियोंके लिये उनकी योगनिष्ठाके द्वारा भी दुर्लभ हैं, उन्हीं भगवान् श्रीरामको प्रणाम करके समस्त राज-परिवारके लोग कृतार्थ हो गये - उनका शरीर धारण करना सफल हो गया। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मादि देवताओंके भी पूजनीय बन गये। शत्रुघ्न, हनुमान् और पुष्कल आदि उद्भट योद्धा जिनकी स्तुति करते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजीको राजा वीरमणिने शिवजीकी प्रेरणासे वह उत्तम अश्व दे दिया;साथ ही पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित अपना सारा राज्य भी समर्पण कर दिया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी समस्त शत्रुओं तथा सेवकोंसे अभिवन्दित होकर मणिमय रथपर बैठे-बैठे ही अन्तर्धान हो गये। मुने! विश्ववन्दित श्रीरामको तुम मनुष्य न समझो। जलमें, थलमें, सब जगह तथा सबके भीतर सदा वे ही स्थित रहते हैं। भगवान् शंकरने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके सेवक राजासे विदा ली और कहा - 'राजन्! श्रीरामचन्द्रजीका आश्रय ही संसारमें सबसे दुर्लभ वस्तु है, अत: तुम श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें रहो।' यों कहकर प्रलय और उत्पत्तिके कर्ता-धर्ता भगवान् शिव स्वयं भी अदृश्य हो समस्त पार्षदोंके साथ कैलासको चले गये। इसके बाद राजा वीरमणि श्रीरामके चरणकमलोंका ध्यान करते हुए स्वयं भी अपनी सेना लेकर महाबली शत्रुघ्नके साथ-साथ गये। जो श्रेष्ठ मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके इस चरित्रका श्रवण करेंगे, उन्हें कभी सांसारिक दुःख नहीं होगा।