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पद्म पुराण (पद्मपुराण)

Padma Purana,Padama Purana ()

खण्ड 4, अध्याय 119 - Khand 4, Adhyaya 119

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हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण

शेषजी कहते हैं—मुने! हनुमानजीने वीरसिंहके पास जाकर कहा-'वीरवर! ठहरो, कहाँ जाते हो? मैं एक ही क्षणमें तुम्हें परास्त करूंगा।' वानरके मुखसे ऐसी बढ़ी चढ़ी बात सुनकर वीरसिंह क्रोधमें भर गये और मेघके समान गम्भीर ध्वनि करनेवाले धनुषको खींचकर तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा करने लगे। उस समय रणभूमिमें उनकी ऐसी शोभा हो रही थी मानो आषाड़के महीनेमें धारावाहिक वृष्टि करनेवाला मनोहर मेघ शोभा पा रहा हो। उन तीखे बाणोंको अपने शरीरपर लगते देख हनुमानजीने वज्रके समान मुक्का वीरसिंहकी छाती में मारा। मुष्टिका प्रहार होते ही वे मूर्च्छित होकर धरतीपर गिर पड़े। अपने चाचाको मूच्छित देख राजकुमार शुभांगद वहाँ आ पहुँचा। रुक्मांगदकी भी मूर्च्छा दूर हो चुकी थी; अतः वह भी युद्ध क्षेत्रमें आ धमका। वे दोनों भाई भयंकर संग्राम करते हुए हनुमान्जीके पास गये। उन दोनों वीरोंको समरभूमिमें आया देख हनुमानजीने उन्हें रथ और धनुषसहित अपनी पूँछमें लपेट लिया और पृथ्वीपर बड़े वेगसे पटका। इससे वे दोनों राजकुमार तत्काल मूर्च्छित हो गये। इसी प्रकार वलमित्र भी सुमदके साथ बहुत देरतक युद्ध करके अन्तमें मूच्छाको प्राप्त हुए। तदनन्तर अपने आत्मीय जनोंको मूर्च्छित देख भक्तोंको पीड़ा दूर करनेवाले भगवान् महेश्वर स्वयं होउस विशाल सेनामें शत्रुघ्नके सैनिकोंके साथ युद्ध करनेके लिये गये। उनका उद्देश्य था भक्तोंकी रक्षा करना। वे पूर्वकालमें जैसे त्रिपुरसे युद्ध करनेके लिये गये थे, उसी प्रकार वहाँ भी अपने पार्षदों और प्रमथ गणसहित पृथ्वीतलको कँपाते हुए जा पहुँचे। महाबली शत्रुघ्नने जब देखा कि सर्वदेवशिरोमणि साक्षात् महेश्वर पधारे हैं, तब वे भी उनका सामना करनेके लिये रणभूमिमें गये। शत्रुघ्नको आया देख पिनाकधारी रुद्रने वीरभद्रसे कहा- 'तुम मेरे भक्तको पीड़ा देनेवाले पुष्कलसे युद्ध करो।' फिर नन्दीको उन्होंने महाबली हनुमान्से लड़नेके लिये भेजा । तदनन्तर कुशध्वजके पास प्रचण्डको, सुबाहुके पास भृंगीको और सुमदके पास चण्ड नामक अपने गणको भेजकर युद्धके लिये आदेश दिया। महारुद्रके प्रधान गण वीरभद्रको आया देख पुष्कल अत्यन्त उत्साहपूर्वक उनसे युद्ध करनेको आगे बढ़े। उन्होंने पाँच बाणोंसे वीरभद्रको घायल किया। उनके बाणोंसे क्षत-विक्षत होकर वीरभद्रने त्रिशूल हाथमें लिया; किन्तु महाबली पुष्कलने एक ही क्षणमें उस त्रिशूलको काटकर विकट गर्जना की। अपने त्रिशूलको कटा देख रुद्रके अनुगामी महाबली वीरभद्रको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने महारथी पुष्कलके रथको तोड़ डाला। वीरभद्रके वेगसे चकनाचूर हुए रथको त्याग कर महाबली पुष्कल पैदल हो गयेऔर वीरभदको मुक्केसे मारने लगे। फिर दोनोंने एक दूसरेपर मुष्टिकाप्रहार आरम्भ किया। दोनों ही परस्पर विजयके अभिलाषी और एक-दूसरेके प्राण लेनेको उतारू थे। इस प्रकार रात-दिन लगातार युद्ध करते उन्हें चार दिन व्यतीत हो गये। पाँचवें दिन पुष्कलको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने वीरभद्रका गला पकड़कर उन्हें पृथ्वीपर दे मारा। उनके प्रहारसे महाबली वीरभद्रको बड़ी पीड़ा हुई। फिर उन्होंने भी पुष्कलके पैर पकड़कर उन्हें बारम्बार घुमाया और पृथ्वीपर पछाड़कर मार डाला। महाबली वीरभद्रने पुष्कलके मस्तकको, जिसमें कुण्डल जगमगा रहे थे, त्रिशूलसे काट दिया। इसके बाद वे जोर-जोरसे गर्जना करने लगे। यह देखकर सभी लोग थर्रा उठे। रणभूमिमें जो युद्ध कुशल वीर थे, उन्होंने वीरभद्रके द्वारा पुष्कलके मारे जानेका समाचार शत्रुघ्नसे कहा ।

पुष्कलके का वृत्तान्त सुनकर महावीर शत्रुघ्नको बड़ा दुःख हुआ। वे शोकसे काँप उठे। उन्हें दुःखी जानकर भगवान् शंकरने कहा- 'रे शत्रुघ्न ! तू युद्धमें शोक न कर वीर पुष्कल धन्य है, जिसने महाप्रलयकारी वीरभद्रके साथ पाँच दिनोंतक युद्ध किया। ये वीरभद्र वे ही हैं, जिन्होंने मेरे अपमान करनेवाले दशको क्षणभर में मार डाला था; अतः महाबलवान् राजेन्द्र ! तू शोक त्याग दे और युद्ध कर। शत्रुघ्नने शोक छोड़ दिया। उन्हें शंकरके प्रति बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने चढ़ाये हुए धनुषको हाथमें लेकर महेश्वरपर बाणोंका प्रहार आरम्भ किया। उधरसे शंकरने भी बाण छोड़े। दोनोंके बाण आकाशमें छा गये बाग- युद्धमें दोनोंकी क्षमता देखकर सब लोगोंको यह विश्वास हो गया कि अब सबको मोहमें डालनेवाला लोक-संहारकारी प्रलयकाल आ पहुँचा। दर्शक कहने लगे-'ये तीनों लोकोंकी उत्पत्ति और प्रलय करनेवाले रुद्र हैं, तो वे भी महाराज श्रीरामचन्द्रके छोटे भाई हैं। न जाने क्या होगा। इस भूतलपर किसकी विजय होगी ?'

इस प्रकार शत्रुघ्न और शिवमें ग्यारह दिनोंतक परस्पर बुद्ध होता रहा। बारहवें दिन राजा शत्रुघ्नने क्रोधमें भरकर महादेवजीका वध करनेके लिये ब्रह्मास्त्रका प्रयोगकिया, किन्तु महादेवजी उस महान् अस्त्रको हँसते हम भी गये। इससे शत्रुघ्नको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे सोचने लगे—'अब क्या करना चाहिये?" वे इस प्रकार विचार कर ही रहे थे कि देवाधिदेवोंके शिरोमणि भगवान् शिवने शत्रुघ्नकी छाती में एक अग्नि के समान तेजस्वी बाण भोंक दिया। उससे मूच्छित होकर शत्रुघ्न रणभूमिमें गिर पड़े। उस समय योद्धाओंसे भरी हुई उनकी सारी सेनामें हाहाकार मच गया। शत्रुघ्नको बाणोंसे पीड़ित एवं मूर्च्छित होकर गिरा देख हनुमानजीने पुष्कलके शरीरको रथपर सुला दिया और सेवकोंको उनको रक्षामें तैनात करके वे स्वयं संहारकारी शिवसे युद्ध करनेके लिये आये हनुमानजी श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करके अपने पक्षके योद्धाओंका हर्ष बढ़ाते हुए रोषके मारे अपनी पूँछको जोर-जोरसे हिला रहे थे। युद्धके मुहानेपर रुद्रके समीप पहुँचकर महावीर हनुमानजी देवाधिदेव महादेवजीका वध करनेकी इच्छासे बोले- 'रुद्र ! तुम राम भक्तका वध करनेके लिये उद्यत होकर धर्मके प्रतिकूल आचरण कर रहे हो इसलिये मैं तुम्हें दण्ड देना चाहता हूँ। मैंने पूर्वकालमें वैदिक ऋषियोंके मुँहसे अनेकों बार सुना है कि पिनाकधारी रुद्र सदा ही श्रीरघुनाथजीके चरणोंका स्मरण करते रहते हैं; किन्तु वे सभी बातें आज झूठी साबित हुईं। क्योंकि तुमने राम भक्त शत्रुघ्न के साथ युद्ध किया है।' हनुमान्जीके ऐसा कहनेपर महेश्वर बोले-'कपिश्रेष्ठ! तुम वीरोंमें प्रधान और धन्य हो। तुमने जो कुछ कहा है, वह सत्य है। देव-दानववन्दित ये भगवान् श्रीरामचन्द्रजी वास्तवमें मेरे स्वामी हैं। किन्तु मेरा भक्त वीरमणि उनके अश्वको ले आया है और उस अश्वके रक्षक शत्रुघ्न, जो शत्रुवीरोंका दमन करनेवाले हैं, इसके ऊपर चढ़ आये हैं। इस अवस्थामें में वीरमणिको भक्तिके वशीभूत होकर उसकी रक्षाके लिये आया हूँ क्योंकि भक्त अपना ही स्वरूप होता है। अतः जिस किसी तरह भी सम्भव हो, उसको रक्षा करनी चाहिये यही मर्यादा है।"

चण्डीपति भगवान् शंकरके ऐसा कहनेपर हनुमानजी बहुत कुपित हुए और उन्होंने एक बड़ी शिलालेकर उसे उनके रथपर दे मारा। शिलाका आघात पाकर महादेवजीका रथ घोड़े सारथि ध्वजा और पताकासहित चूर-चूर हो गया। शिवजीको रथहीन देखकर नन्दी दौड़े हुए आये और बोले—' भगवन्! मेरी पीठपर सवार हो जाइये।' भूतनाथको वृषभपर आरूढ़ देख हनुमान्जीका क्रोध और भी बढ़ गया। उन्होंने शालका वृक्ष उखाड़कर बड़े वेगसे उनकी छातीपर प्रहार किया। उसकी चोट खाकर भगवान् भूतनाथने एक तीखा शूल हाथमें लिया, जिसकी तीन शिखाएँ थीं तथा जो अग्निको ज्यालाकी भाँति जाज्वल्यमान हो रहा था। अग्नितुल्य तेजस्वी उस महान् शूलको अपनी ओर आते देख हनुमानजीने वेगपूर्वक हाथसे पकड़ लिया और उसे क्षणभर में तिल-तिल करके तोड़ डाला। कपिश्रेष्ठ हनुमान्ने जब वेगके साथ त्रिशूलके टुकड़े-टुकड़े कर डाले, तब भगवान् शिवने तुरंत ही शक्ति हाथमें ली, जो सब की सब लोहेकी बनी हुई थी। शिवजीकी चलायी हुई वह शक्ति बुद्धिमान् हनुमान्जीकी छातीमें आ लगी। इससे वे कपिश्रेष्ठ क्षणभर बड़े विकल रहे। फिर एक ही क्षणमें उस पीड़ाको सहकर उन्होंने एक भयंकर वृक्ष उखाड़ लिया और बड़े-बड़े नागसे विभूषित महादेवजीकी छातीमें प्रहार किया। वीरवर हनुमान्जीकी मार खाकर शिवजीके शरीरमें लिपटे हुए नाग थर्रा उठे और वे उन्हें छोड़कर इधर-उधर होते हुए बड़े वेग से पातालमें घुस गये। इसके बाद शिवजीने उनके ऊपर मूसल चलाया, किन्तु वे उसका वार बचा गये। उस समय रामसेवक हनुमानजीको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने हाथपर पर्वत लेकर उसे शिवजीकी छातीपर दे मारा। तदनन्तर, उनके ऊपर दूसरी-दूसरी शिलाओं, वृक्षों और पर्वतोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी। वे भगवान् भूतनाथको अपनी पूँछमें लपेटकर मारने लगे। इससे नन्दीको बड़ा भय हुआ। उन्होंने एक-एक क्षणमें प्रहार करके शिवजीको अत्यन्त व्याकुल कर दिया। तब वे वानरराज हनुमानजी से बोले- 'रघुनाथजीकी सेवामें रहनेवाले भक्तप्रवर तुम धन्य हो आज तुमने महान् पराक्रम कर दिखाया।इससे मुझे बड़ा सन्तोष हुआ है। महान् वेगशाली वीर। मैं दान यज्ञ या थोड़ी-सी तपस्यासे सुलभ नहीं है। अतः मुझसे कोई वर मांगो।'

भगवान् शिव सन्तुष्ट होकर जब ऐसी बात कहने लगे, तब हनुमानजीने हँसकर निर्भय वाणीमें कहा 'महेश्वर! श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे मुझे सब कुछ प्राप्त है; तथापि आप मेरे युद्धसे सन्तुष्ट हैं, इसलिये मैं आपसे यह वर माँगता हूँ। हमारे पक्षके ये वीर पुष्कल युद्धमें मारे जाकर पृथ्वीपर पड़े हैं, श्रीरामचन्द्रजीके छोटे भाई शत्रुघ्न भी रणमें मूच्छित हो गये हैं तथा दूसरे भी बहुत से बोर बाणोंकी भारसे क्षत-विक्षत एवं मूर्च्छित होकर धरतीपर गिरे हुए हैं। इन सबकी आप अपने गणों के साथ रहकर रक्षा करें। इनके शरीरका खण्ड-खण्ड न हो, इस बातकी चेष्टा करें। मैं अभी द्रोणगिरिको लाने जा रहा हूँ, उसपर मरे हुए प्राणियोंको जिलानेवाली ओषधियाँ रहती हैं।' यह सुनकर शंकरजीने कहा 'बहुत अच्छा, जाओ।' उनकी स्वीकृति पाकर हनुमान्जी सम्पूर्ण द्वीपोंको लाँघते हुए क्षीरसागरके तटपर गये । इधर भगवान् शिव अपने गणोंके साथ रहकर पुष्कल आदिकी रक्षा करने लगे हनुमानजी द्रोण नामक महान् पर्वतपर पहुँचकर जब उसे लानेको उद्यत हुए, तब वह काँपने लगा। उस पर्वतको काँपते देख उसकी रक्षा करनेवाले देवताओंने कहा- 'छोड़ दो इसे, किसलिये यहाँ आये हो? क्यों इसे ले जाना चाहते हो ?' उनकी बात सुनकर महायशस्वी हनुमानजी बोले-'देवताओ। राजा वीरमणिके नगरमें जो संग्राम हो रहा है, उसमें रुद्रके द्वारा हमारे पक्षके बहुत से योद्धा मारे गये हैं। उन्हींको जीवित करनेके लिये मैं यह द्रोण पर्वत ले जाऊँगा जो लोग अपने बल और पराक्रमके घमंड में आकर इसे रोकेंगे, उन्हें एक ही क्षणमै मैं यमराजके घर भेज दूंगा। अतः तुमलोग मुझे समूचा द्रोण पर्वत अथवा वह औषध दे दो, जिससे मैं रणभूमिमें मरे हुए वीरोंको जीवन दान कर सकूँ।' पवनकुमारके ये वचन सुनकर सबने उन्हें प्रणाम किया और संजीवनी नामक औषधि उन्हें दे दी। हनुमान्जी औषध लेकर युद्धक्षेत्रमें आयेउन्हें आया देख समस्त वैरी भी साधु-साधु कहकर उनकी प्रशंसा करने लगे तथा सबने उन्हें एक अद्भुत शक्तिशाली वीर माना हनुमानजी बड़ी प्रसन्नताके साथ मरे हुए वीर पुष्कलके पास आये और महापुरुषोंके भी आदरणीय मन्त्रिवर सुमतिको बुलाकर बोले-'आज मैं बुद्धमें मरे हुए सम्पूर्ण वीरोंको जिलाऊँगा।'

ऐसा कहकर उन्होंने पुष्कलके विशाल वक्षःस्थल पर औषध रखा और उनके सिरको धड़से जोड़कर यह कल्याणमय वचन कहा- 'यदि मैं मन, वाणी और क्रियाके द्वारा श्रीरघुनाथजीको ही अपना स्वामी समझता हूँ तो इस दवासे पुष्कल शीघ्र ही जीवित हो जायें।' इस बातको ज्यों ही उन्होंने मुँहसे निकाला त्यों ही बीरशिरोमणि पुष्कल उठकर खड़े हो गये और रणभूमिमें रोषके मारे दाँत कटकटाने लगे। वे बोले 'मुझे युद्धमें मूर्च्छित करके वीरभद्र कहाँ चले गये? मैं अभी उन्हें मार गिराता हूँ कहाँ है मेरा उत्तम धनुष !' उन्हें ऐसा कहते देख कपिराज हनुमानजीने कहा

'वीरवर! तुम्हें वीरभद्रने मार डाला था। श्रीरघुनाथजीके प्रसादसे पुनः नया जीवन प्राप्त हुआ है। शत्रुघ्न भी मूर्च्छित हो गये हैं। चलो, उनके पास चलें।' यौ कहकर वे युद्धके मुहानेपर पहुँचे, जहाँ भगवान् श्रीशिवके बाणोंसे पीड़ित होकर शत्रुघ्नजी केवल साँस ले रहे थे। साँस आनेपर हनुमान्जीने उनकी छातीपर दवा रख दी और कहा भैया शत्रुघ्न तुम तो महाबलवान् और पराक्रमी हो, रणभूमिमें मूच्छित होकर कैसे पड़े हो ? यदि मैंने प्रयत्नपूर्वक आजन्म ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया है तो वीर शत्रुघ्न क्षणभरमें जीवित हो उठे।' इतना कहते ही वे क्षणमात्रमें जीवित हो बोल उठे-'शिव कहाँ हैं, शिव कहाँ हैं? वे रणभूमि छोड़कर कहाँ चले गये ?'

पिनाकधारी रुदने युद्धमें अनेकों वीरोंका सफाया कर डाला था, किन्तु महात्मा हनुमान्जीने उन सबको जीवित कर दिया। तब वे सभी वीर कवच आदिसे सुसज्जित हो अपने-अपने रथपर बैठकर रोषपूर्ण हृदयसे शत्रुओंकी ओर चले। अबकी बार राजा वीरमणि स्वयं ही शत्रुघ्नका सामना करनेके लिये गये। उन्हें देखकरशत्रुघ्नको बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने राजाके ऊपर आग्नेयास्त्रका प्रयोग किया, जिससे उनकी सेना दग्ध होने लगी। शत्रुके छोड़े हुए उस महान् दाहक अस्त्रको देखकर राजाके क्रोधकी सीमा न रही। उन्होंने वारुणास्त्रका प्रयोग किया। वारुणास्त्रद्वारा अपनी सेनाको शीतके कष्टसे पीड़ित देख महाबली शत्रुघ्नने उसपर वायव्यास्त्रका प्रहार किया। इससे बड़े जोरोंकी हवा चलने लगी। वायुके वेगसे मेघोंकी घिरी हुई घटा छिन्न-भिन्न हो गयी। वे चारों ओर फैलकर विलीन हो गये। अब शत्रुघ्नके सैनिक सुखी दिखायी देने लगे। उधर महाराज वीरमणिने जब देखा कि मेरी सेना आँधीसे कष्ट पा रही है, तब उन्होंने अपने धनुषपर शत्रुओंका संहार करनेवाले पर्वतास्त्रका प्रयोग किया। पर्वतोंके द्वारा वायुकी गति रुक गयी। अब वह युद्धक्षेत्रमें फैल नहीं पाती थी। यह देख शत्रुघ्नने वज्रास्त्रका सन्धान किया। वज्रास्त्रकी मार पड़नेपर समस्त पर्वत तिल तिल करके चूर्ण हो गये। शत्रुवीरोंके अंग विदीर्ण होने लगे। खून से लथपथ होनेके कारण उनकी बड़ी शोभा हो रही थी। उस समय युद्धका अद्भुत दृश्य था। राजा वीरमणिका क्रोध सीमाको पार कर गया। उन्होंने अपने धनुषपर ब्रह्मास्त्रका सन्धान किया, जो वैरियोंको दग्ध करनेवाला अद्भुत अस्त्र था। ब्रह्मास्त्र उनके हाथसे छूटकर शत्रुकी ओर चला। तबतक शत्रुघ्नने भी मोहनास्त्र छोड़ा। मोहनास्त्रने एक ही क्षणमें ब्रह्मास्त्र के दो टुकड़े कर डाले तथा राजाकी छातीमें चोट करके उन्हें तुरंत मूच्छित कर दिया। तब शिवजीको बड़ा क्रोध हुआ और वे रथपर बैठकर राजाके पास आये। उस समय शत्रुघ्न सहसा उनसे युद्धके लिये आगे बढ़ आये और अपने धनुषपर प्रत्यंचा चढ़ाकर युद्ध करने लगे। उन दोनोंमें बड़ा भयंकर संग्राम छिड़ा, जो वैरियोंको विदीर्ण करनेवाला था। । नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रोंका प्रयोग होनेके कारण । सारी दिशाएँ उद्दीप्त हो उठी थीं। शिवके साथ युद्ध करते-करते शत्रुघ्न अत्यन्त व्याकुल हो गये । । तब हनुमान्जीके उपदेशसे उन्होंने अपने स्वामी र श्रीरघुनाथजीका स्मरण किया-'हा नाथ! हा भाई! येअत्यन्त भयंकर शिव धनुष उठाकर मेरे प्राण लेनेपर उतारू हो गये हैं; आप युद्धमें मेरी रक्षा कीजिये। राम! आपका नाम लेकर अनेकों दुःखी जीव दुःख सागरके ‍ पार हो चुके हैं। कृपानिधे! मुझ दुखियाको भी ह उबारिये ।' शत्रुघ्नने ज्यों ही उपर्युक्त बात मुँहसे निकाली, त्यों ही नीलकमल दलके समान श्यामसुन्दर कमलनयन भगवान् श्रीराम मृगका श्रृंग हाथमें लिये उ यज्ञदीक्षित पुरुषके वेषमें वहाँ आ पहुँचे समरभूमिमें उन्हें देखकर शत्रुघ्नको बड़ा विस्मय हुआ ।

प्रणतजनोंका क्लेश दूर करनेवाले अपने भाई श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन पाकर शत्रुघ्न सभी दुःखोंसे मुक्त हो गये। हनुमानजी भी श्रीरघुनाथजीको देखकर सहसा उनके चरणोंमें गिर पड़े। उस समय उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और वे भक्तकी रक्षाके लिये आये हुए भगवान्से बोले-'स्वामिन्! अपने भक्तोंका सब प्रकार से पालन करना आपके लिये सर्वथा योग्य ही है। हम धन्य हैं, जो इस समय श्रीचरणोंका दर्शन पा रहे हैं। श्रीरघुनन्दन ! अब आपकी कृपासे हमलोग क्षणभरमें ही शत्रुओंपर विजय पा जायँगे।' इसी समय योगियोंकेध्यानगोचर श्रीरामचन्द्रजीको आया जान श्रीमहादेवजी भी आगे बढ़े और उनके चरणोंमें प्रणाम करके शरणागतभयहारी प्रभुसे बोले-"भगवन्! एकमात्र आप ही साक्षात् अन्तर्यामी पुरुष हैं, आप ही प्रकृतिसे पर परब्रह्म कहलाते हैं। जो अपनी अंश- कलासे इस विश्वकी सृष्टि, रक्षा और संहार करते हैं, वे परमात्मा आप ही हैं। आप सृष्टिके समय विधाता, पालनके समय स्वयंप्रकाश राम और प्रलयके समय शर्व नामसे प्रसिद्ध साक्षात् मेरे स्वरूप हैं। मैंने अपने भक्तका उपकार करनेके लिये आपके कार्यमें बाधा डालनेवाला आयोजन किया है। कृपालो! मेरे इस अपराधको क्षमा कीजिये। क्या करूँ, मैंने अपने सत्यकी रक्षाके लिये ही यह सब कुछ किया है। आपके प्रभावको जानकर भी भक्तकी रक्षाके लिये यहाँ आया हूँ। पूर्वकालकी बात है, इस राजाने क्षिप्रा नदीमें स्नान करके उज्जयिनीके महाकाल मन्दिरमें बड़ी अद्भुत तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर मैंने कहा—'महाराज! वर माँगो।' इसने अद्भुत राज्य माँगा।' मैंने कहा- 'देवपुरमें तुम्हारा राज्य होगा और जबतक वहाँ श्रीरामचन्द्रजीके यज्ञसम्बन्धी अश्वका आगमन होगा, तबतक मैं भी तुम्हारी रक्षाके लिये उस स्थानपर निवास करूँगा।' इस प्रकार मैंने इसे वरदान दे दिया था। उसी सत्यसे मैं इस समय बँधा हूँ। अब यह राजा अपने पुत्र, पशु और बान्धवसहित यज्ञका घोड़ा आपको समर्पित करके आपके ही चरणोंकी सेवा करेगा।"

श्रीरामने कहा- भगवन्! देवताओंका तो यह धर्म ही है कि वे अपने भक्तोंका पालन करें। आपने जो इस समय अपने भक्तकी रक्षा की है, यह आपके द्वारा बहुत उत्तम कार्य हुआ है। मेरे हृदयमें शिव हैं और शिवके हृदयमें मैं हूँ। हम दोनोंमें भेद नहीं है। जो मूर्ख हैं, जिनकी बुद्धि दूषित है; वे ही भेददृष्टि रखते हैं। हम दोनों एकरूप हैं। जो हमलोगोंमें भेदबुद्धि करते हैं, वे मनुष्य हजार कल्पतक कुम्भीपाकमें पकाये जाते हैं। महादेवजी! जो सदा आपके भक्त रहे हैं, वे धर्मात्मा पुरुष मेरे भी भक्त हैं तथा जो मेरे भक्त हैं, वे भी बड़ीभक्तिसे आपके चरणोंमें मस्तक झुकाते हैं। * शेषजी कहते हैं— श्रीरघुनाथजीका ऐसा वचन सुनकर भगवान् शिवने मूर्च्छित पड़े हुए राजा वीरमणिको अपने हाथके स्पर्श आदिसे जीवित किया । इसी प्रकार उनके दूसरे पुत्रोंको भी, जो बाणोंसे पीड़ित होकर अचेत अवस्थामें पड़े थे, जिलाया। भगवान् भूतनाथने राजाको तैयार करके पुत्र-पौत्रोंसहित उन्हें श्रीरघुनाथजीके चरणों में गिराया । वात्स्यायनजी ! धन्य हैं राजा वीरमणि, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीका दर्शन किया। जो लाखों योगियोंके लिये उनकी योगनिष्ठाके द्वारा भी दुर्लभ हैं, उन्हीं भगवान् श्रीरामको प्रणाम करके समस्त राज-परिवारके लोग कृतार्थ हो गये - उनका शरीर धारण करना सफल हो गया। इतना ही नहीं, वे ब्रह्मादि देवताओंके भी पूजनीय बन गये। शत्रुघ्न, हनुमान् और पुष्कल आदि उद्भट योद्धा जिनकी स्तुति करते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजीको राजा वीरमणिने शिवजीकी प्रेरणासे वह उत्तम अश्व दे दिया;साथ ही पुत्र, पशु और बान्धवोंसहित अपना सारा राज्य भी समर्पण कर दिया। तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजी समस्त शत्रुओं तथा सेवकोंसे अभिवन्दित होकर मणिमय रथपर बैठे-बैठे ही अन्तर्धान हो गये। मुने! विश्ववन्दित श्रीरामको तुम मनुष्य न समझो। जलमें, थलमें, सब जगह तथा सबके भीतर सदा वे ही स्थित रहते हैं। भगवान् शंकरने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी करके सेवक राजासे विदा ली और कहा - 'राजन्! श्रीरामचन्द्रजीका आश्रय ही संसारमें सबसे दुर्लभ वस्तु है, अत: तुम श्रीरघुनाथजीकी ही शरणमें रहो।' यों कहकर प्रलय और उत्पत्तिके कर्ता-धर्ता भगवान् शिव स्वयं भी अदृश्य हो समस्त पार्षदोंके साथ कैलासको चले गये। इसके बाद राजा वीरमणि श्रीरामके चरणकमलोंका ध्यान करते हुए स्वयं भी अपनी सेना लेकर महाबली शत्रुघ्नके साथ-साथ गये। जो श्रेष्ठ मनुष्य श्रीरामचन्द्रजीके इस चरित्रका श्रवण करेंगे, उन्हें कभी सांसारिक दुःख नहीं होगा।

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पद्म पुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ग्रन्थका उपक्रम तथा इसके स्वरूपका परिचय
  2. [अध्याय 2] भीष्म और पुलस्त्यका संवाद-सृष्टिक्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
  3. [अध्याय 3] ब्रह्माजीकी आयु तथा युग आदिका कालमान, भगवान् वराहद्वारा पृथ्वीका रसातलसे उद्धार और ब्रह्माजीके द्वारा रचे हुए विविध सर्गोंका वर्णन
  4. [अध्याय 4] यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान-परम्पराका वर्णन
  5. [अध्याय 5] लक्ष्मीजीके प्रादुर्भावकी कथा, समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति
  6. [अध्याय 6] सतीका देहत्याग और दक्ष यज्ञ विध्वंस
  7. [अध्याय 7] देवता, दानव, गन्धर्व, नाग और राक्षसोंकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] मरुद्गणोंकी उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदायके राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरोंका वर्णन
  9. [अध्याय 9] पृथुके चरित्र तथा सूर्यवंशका वर्णन
  10. [अध्याय 10] पितरों तथा श्रद्धके विभिन्न अंगका वर्णन
  11. [अध्याय 11] एकोद्दिष्ट आदि श्राद्धोंकी विधि तथा श्राद्धोपयोगी तीर्थोंका वर्णन
  12. [अध्याय 12] चन्द्रमाकी उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुनके प्रभावका वर्णन
  13. [अध्याय 13] यदुवंशके अन्तर्गत क्रोष्टु आदिके वंश तथा श्रीकृष्णावतारका वर्णन
  14. [अध्याय 14] पुष्कर तीर्थकी महिमा, वहाँ वास करनेवाले लोगोंके लिये नियम तथा आश्रम धर्मका निरूपण
  15. [अध्याय 15] पुष्कर क्षेत्रमें ब्रह्माजीका यज्ञ और सरस्वतीका प्राकट्य
  16. [अध्याय 16] सरस्वतीके नन्दा नाम पड़नेका इतिहास और उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] पुष्करका माहात्य, अगस्त्याश्रम तथा महर्षि अगस्त्य के प्रभावका वर्णन
  18. [अध्याय 18] सप्तर्षि आश्रमके प्रसंगमें सप्तर्षियोंके अलोभका वर्णन तथा ऋषियोंके मुखसे अन्नदान एवं दम आदि धर्मोकी प्रशंसा
  19. [अध्याय 19] नाना प्रकारके व्रत, स्नान और तर्पणकी विधि तथा अन्नादि पर्वतोंके दानकी प्रशंसामें राजा धर्ममूर्तिकी कथा
  20. [अध्याय 20] भीमद्वादशी व्रतका विधान
  21. [अध्याय 21] आदित्य शयन और रोहिणी-चन्द्र-शयन व्रत, तडागकी प्रतिष्ठा, वृक्षारोपणकी विधि तथा सौभाग्य-शयन व्रतका वर्णन
  22. [अध्याय 22] तीर्थमहिमाके प्रसंगमें वामन अवतारकी कथा, भगवान्‌का बाष्कलि दैत्यसे त्रिलोकीके राज्यका अपहरण
  23. [अध्याय 23] सत्संगके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 24] मार्कण्डेयजीके दीर्घायु होनेकी कथा और श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मण और सीताके साथ पुष्करमें जाकर पिताका श्राद्ध करना तथा अजगन्ध शिवकी स्तुति करके लौटना
  25. [अध्याय 25] ब्रह्माजीके यज्ञके ऋत्विजोंका वर्णन, सब देवताओंको ब्रह्माद्वारा वरदानकी प्राप्ति, श्रीविष्णु और श्रीशिवद्वारा ब्रह्माजीकी स्तुति तथा ब्रह्माजीके द्वारा भिन्न-भिन्न तीर्थोंमें अपने नामों और पुष्करकी महिमाका वर्णन
  26. [अध्याय 26] श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध और मरे हुए ब्राह्मण बालकको जीवनकी प्राप्ति
  27. [अध्याय 27] महर्षि अगस्त्यद्वारा राजा श्वेतके उद्धारकी कथा
  28. [अध्याय 28] दण्डकारण्यकी उत्पत्तिका वर्णन
  29. [अध्याय 29] श्रीरामका लंका, रामेश्वर, पुष्कर एवं मथुरा होते हुए गंगातटपर जाकर भगवान् श्रीवामनकी स्थापना करना
  30. [अध्याय 30] भगवान् श्रीनारायणकी महिमा, युगोंका परिचय, प्रलयके जलमें मार्कण्डेयजीको भगवान् के दर्शन तथा भगवान्‌की नाभिसे कमलकी उत्पत्ति
  31. [अध्याय 31] मधु-कैटभका वध तथा सृष्टि-परम्पराका वर्णन
  32. [अध्याय 32] तारकासुरके जन्मकी कथा, तारककी तपस्या, उसके द्वारा देवताओंकी पराजय और ब्रह्माजीका देवताओंको सान्त्वना देना
  33. [अध्याय 33] पार्वतीका जन्म, मदन दहन, पार्वतीकी तपस्या और उनका भगवान शिवके साथ विवाह
  34. [अध्याय 34] गणेश और कार्तिकेयका जन्म तथा कार्तिकेयद्वारा तारकासुरका वध
  35. [अध्याय 35] उत्तम ब्राह्मण और गायत्री मन्त्रकी महिमा
  36. [अध्याय 36] अधम ब्राह्मणोंका वर्णन, पतित विप्रकी कथा और गरुड़जीका चरित्र
  37. [अध्याय 37] ब्राह्मणों के जीविकोपयोगी कर्म और उनका महत्त्व तथा गौओंकी महिमा और गोदानका फल
  38. [अध्याय 38] द्विजोचित आचार, तर्पण तथा शिष्टाचारका वर्णन
  39. [अध्याय 39] पितृभक्ति, पातिव्रत्य, समता, अद्रोह और विष्णुभक्तिरूप पाँच महायज्ञोंके विषयमें ब्राह्मण नरोत्तमकी कथा
  40. [अध्याय 40] पतिव्रता ब्राह्मणीका उपाख्यान, कुलटा स्त्रियोंके सम्बन्धमें उमा-नारद-संवाद, पतिव्रताकी महिमा और कन्यादानका फल
  41. [अध्याय 41] तुलाधारके सत्य और समताकी प्रशंसा, सत्यभाषणकी महिमा, लोभ-त्यागके विषय में एक शूद्रकी कथा और मूक चाण्डाल आदिका परमधामगमन
  42. [अध्याय 42] पोखरे खुदाने, वृक्ष लगाने, पीपलकी पूजा करने, पाँसले (प्याऊ) चलाने, गोचरभूमि छोड़ने, देवालय बनवाने और देवताओंकी पूजा करनेका माहात्म्य
  43. [अध्याय 43] रुद्राक्षकी उत्पत्ति और महिमा तथा आँखलेके फलकी महिमामें प्रेतोंकी कथा और तुलसीदलका माहात्म्य
  44. [अध्याय 44] तुलसी स्तोत्रका वर्णन
  45. [अध्याय 45] श्रीगंगाजीकी महिमा और उनकी उत्पत्ति
  46. [अध्याय 46] गणेशजीकी महिमा और उनकी स्तुति एवं पूजाका फल
  47. [अध्याय 47] संजय व्यास - संवाद - मनुष्ययोनिमें उत्पन्न हुए दैत्य और देवताओंके लक्षण
  48. [अध्याय 48] भगवान् सूर्यका तथा संक्रान्तिमें दानका माहात्म्य
  49. [अध्याय 49] भगवान् सूर्यकी उपासना और उसका फल – भद्रेश्वरकी कथा
  1. [अध्याय 50] शिवशमांक चार पुत्रोंका पितृ-भक्तिके प्रभावसे श्रीविष्णुधामको प्राप्त होना
  2. [अध्याय 51] सोमशर्माकी पितृ-भक्ति
  3. [अध्याय 52] सुव्रतकी उत्पत्तिके प्रसंगमें सुमना और शिवशर्माका संवाद - विविध प्रकारके पुत्रोंका वर्णन तथा दुर्वासाद्वारा धर्मको शाप
  4. [अध्याय 53] सुमनाके द्वारा ब्रह्मचर्य, सांगोपांग धर्म तथा धर्मात्मा और पापियोंकी मृत्युका वर्णन
  5. [अध्याय 54] वसिष्ठजीके द्वारा सोमशमकि पूर्वजन्म-सम्बन्धी शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन तथा उन्हें भगवान्‌के भजनका उपदेश
  6. [अध्याय 55] सोमशर्माके द्वारा भगवान् श्रीविष्णुकी आराधना, भगवान्‌का उन्हें दर्शन देना तथा सोमशर्माका उनकी स्तुति करना
  7. [अध्याय 56] श्रीभगवान्‌के वरदानसे सोमशर्माको सुव्रत नामक पुत्रकी प्राप्ति तथा सुव्रतका तपस्यासे माता-पितासहित वैकुण्ठलोकमें जाना
  8. [अध्याय 57] राजा पृथुके जन्म और चरित्रका वर्णन
  9. [अध्याय 58] मृत्युकन्या सुनीथाको गन्धर्वकुमारका शाप, अंगकी तपस्या और भगवान्से वर प्राप्ति
  10. [अध्याय 59] सुनीथाका तपस्याके लिये वनमें जाना, रम्भा आदि सखियोंका वहाँ पहुँचकर उसे मोहिनी विद्या सिखाना, अंगके साथ उसका गान्धर्वविवाह, वेनका जन्म और उसे राज्यकी प्राप्ति
  11. [अध्याय 60] छदावेषधारी पुरुषके द्वारा जैन-धर्मका वर्णन, उसके बहकावे में आकर बेनकी पापमें प्रवृत्ति और सप्तर्षियोंद्वारा उसकी भुजाओंका मन्थन
  12. [अध्याय 61] वेनकी तपस्या और भगवान् श्रीविष्णुके द्वारा उसे दान तीर्थ आदिका उपदेश
  13. [अध्याय 62] श्रीविष्णुद्वारा नैमित्तिक और आभ्युदयिक आदि दोनोंका वर्णन और पत्नीतीर्थके प्रसंग सती सुकलाकी कथा
  14. [अध्याय 63] सुकलाका रानी सुदेवाकी महिमा बताते हुए एक शूकर और शूकरीका उपाख्यान सुनाना, शूकरीद्वारा अपने पतिके पूर्वजन्मका वर्णन
  15. [अध्याय 64] शूकरीद्वारा अपने पूर्वजन्मके वृत्तान्तका वर्णन तथा रानी सुदेवाके दिये हुए पुण्यसे उसका उद्धार
  16. [अध्याय 65] सुकलाका सतीत्व नष्ट करनेके लिये इन्द्र और काम आदिकी कुचेष्टा तथा उनका असफल होकर लौट आना
  17. [अध्याय 66] सुकलाके स्वामीका तीर्थयात्रासे लौटना और धर्मकी आज्ञासे सुकलाके साथ श्राद्धादि करके देवताओंसे वरदान प्राप्त करना
  18. [अध्याय 67] पितृतीर्थके प्रसंग पिप्पलकी तपस्या और सुकर्माकी पितृभक्तिका वर्णन; सारसके कहनेसे पिप्पलका सुकर्माके पास जाना और सुकर्माका उन्हें माता-पिताकी सेवाका महत्त्व बताना
  19. [अध्याय 68] सुकर्माद्वारा ययाति और मातलिके संवादका उल्लेख- मातलिके द्वारा देहकी उत्पत्ति, उसकी अपवित्रता, जन्म- मरण और जीवनके कष्ट तथा संसारकी दुःखरूपताका वर्णन
  20. [अध्याय 69] पापों और पुण्योंके फलोंका वर्णन
  21. [अध्याय 70] मातलिके द्वारा भगवान् शिव और श्रीविष्णुकी महिमाका वर्णन, मातलिको विदा करके राजा ययातिका वैष्णवधर्मके प्रचारद्वारा भूलोकको वैकुण्ठ तुल्य बनाना तथा ययातिके दरबारमें काम आदिका नाटक खेलना
  22. [अध्याय 71] ययातिके शरीरमें जरावस्थाका प्रवेश, कामकन्यासे भेंट, पूरुका यौवन-दान, ययातिका कामकन्याके साथ प्रजावर्गसहित वैकुण्ठधाम गमन
  23. [अध्याय 72] गुरुतीर्थके प्रसंग में महर्षि च्यवनकी कथा-कुंजल पक्षीका अपने पुत्र उज्वलको ज्ञान, व्रत और स्तोत्रका उपदेश
  24. [अध्याय 73] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको उपदेश महर्षि जैमिनिका सुबाहुसे दानकी महिमा कहना तथा नरक और स्वर्गमें जानेवाले परुषोंका वर्णन
  25. [अध्याय 74] कुंजलका अपने पुत्र विन्चलको श्रीवासुदेवाभिधानस्तोत्र सुनाना
  26. [अध्याय 75] कुंजल पक्षी और उसके पुत्र कपिंजलका संवाद - कामोदाकी कथा और विण्ड दैत्यका वध
  27. [अध्याय 76] कुंजलका च्यवनको अपने पूर्व-जीवनका वृत्तान्त बताकर सिद्ध पुरुषके कहे हुए ज्ञानका उपदेश करना, राजा वेनका यज्ञ आदि करके विष्णुधाममें जाना तथा पद्मपुराण और भूमिखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 77] आदि सृष्टिके क्रमका वर्णन
  2. [अध्याय 78] भारतवर्षका वर्णन और वसिष्ठजीके द्वारा पुष्कर तीर्थकी महिमाका बखान
  3. [अध्याय 79] जम्बूमार्ग आदि तीर्थ, नर्मदा नदी, अमरकण्टक पर्वत तथा कावेरी संगमकी महिमा
  4. [अध्याय 80] नर्मदाके तटवर्ती तीर्थोंका वर्णन
  5. [अध्याय 81] विविध तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  6. [अध्याय 82] धर्मतीर्थ आदिकी महिमा, यमुना स्नानका माहात्म्य – हेमकुण्डल वैश्य और उसके पुत्रोंकी कथा एवं स्वर्ग तथा नरकमें ले जानेवाले शुभाशुभ कर्मोंका वर्णन
  7. [अध्याय 83] सुगन्ध आदि तीर्थोंकी महिमा तथा काशीपुरीका माहात्म्य
  8. [अध्याय 84] पिशाचमोचन कुण्ड एवं कपीश्वरका माहात्म्य-पिशाच तथा शंकुकर्ण मुनिके मुक्त होनेकी कथा और गया आदि तीर्थोकी महिमा
  9. [अध्याय 85] ब्रह्मस्थूणा आदि तीर्थो तथा प्रयागकी महिमा; इस प्रसंगके पाठका माहात्म्य
  10. [अध्याय 86] मार्कण्डेयजी तथा श्रीकृष्णका युधिष्ठिरको प्रयागकी महिमा सुनाना
  11. [अध्याय 87] भगवान्के भजन एवं नाम-कीर्तनकी महिमा
  12. [अध्याय 88] ब्रह्मचारीके पालन करनेयोग्य नियम
  13. [अध्याय 89] ब्रह्मचारी शिष्यके धर्म
  14. [अध्याय 90] स्नातक और गृहस्थके धर्मोंका वर्णन
  15. [अध्याय 91] व्यावहारिक शिष्टाचारका वर्णन
  16. [अध्याय 92] गृहस्थधर्ममें भक्ष्याभक्ष्यका विचार तथा दान धर्मका वर्णन
  17. [अध्याय 93] वानप्रस्थ आश्रमके धर्मका वर्णन
  18. [अध्याय 94] संन्यास आश्रमके धर्मका वर्णन
  19. [अध्याय 95] संन्यासीके नियम
  20. [अध्याय 96] भगवद्भक्तिकी प्रशंसा, स्त्री-संगकी निन्दा, भजनकी महिमा, ब्राह्मण, पुराण और गंगाकी महत्ता, जन्म आदिके दुःख तथा हरिभजनकी आवश्यकता
  21. [अध्याय 97] श्रीहरिके पुराणमय स्वरूपका वर्णन तथा पद्मपुराण और स्वर्गखण्डका माहात्म्य
  1. [अध्याय 98] शेषजीका वात्स्यायन मुनिसे रामाश्वमेधकी कथा आरम्भ करना, श्रीरामचन्द्रजीका लंकासे अयोध्या के लिये विदा होना
  2. [अध्याय 99] भरतसे मिलकर भगवान् श्रीरामका अयोध्याके निकट आगमन
  3. [अध्याय 100] श्रीरामका नगर प्रवेश, माताओंसे मिलना, राज्य ग्रहण करना तथा रामराज्यकी सुव्यवस्था
  4. [अध्याय 101] देवताओंद्वारा श्रीरामकी स्तुति, श्रीरामका उन्हें वरदान देना तथा रामराज्यका वर्णन
  5. [अध्याय 102] श्रीरामके दरबार में अगस्त्यजीका आगमन, उनके द्वारा रावण आदिके जन्म तथा तपस्याका वर्णन और देवताओं की प्रार्थनासे भगवान्का अवतार लेना
  6. [अध्याय 103] अगस्त्यका अश्वमेधयज्ञकी सलाह देकर अश्वकी परीक्षा करना तथा यज्ञके लिये आये हुए ऋषियोंद्वारा धर्मकी चर्चा
  7. [अध्याय 104] यज्ञ सम्बन्धी अश्वका छोड़ा जाना और श्रीरामका उसकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नको उपदेश करना
  8. [अध्याय 105] शत्रुघ्न और पुष्कल आदिका सबसे मिलकर सेनासहित घोड़े के साथ जाना, राजा सुमदकी कथा तथा सुमदके द्वारा शत्रुघ्नका सत्कार
  9. [अध्याय 106] शत्रुघ्नका राजा सुमदको साथ लेकर आगे जाना और च्यवन मुनिके आश्रमपर पहुँचकर सुमतिके मुखसे उनकी कथा सुनना- च्यवनका सुकन्यासे ब्याह
  10. [अध्याय 107] सुकन्याके द्वारा पतिकी सेवा, च्यवनको यौवन-प्राप्ति, उनके द्वारा अश्विनीकुमारोंको यज्ञभाग- अर्पण तथा च्यवनका अयोध्या-गमन
  11. [अध्याय 108] सुमतिका शत्रुघ्नसे नीलाचलनिवासी भगवान् पुरुषोत्तमकी महिमाका वर्णन करते हुए एक इतिहास सुनाना
  12. [अध्याय 109] तीर्थयात्राकी विधि, राजा रत्नग्रीवकी यात्रा तथा गण्डकी नदी एवं शालग्रामशिलाकी महिमाके प्रसंगमें एक पुल्कसकी कथा
  13. [अध्याय 110] राजा रत्नग्रीवका नीलपर्वतपर भगवान्‌का दर्शन करके रानी आदिके साथ वैकुण्ठको जाना तथा शत्रुघ्नका नीलपर्वतपर पहुंचना
  14. [अध्याय 111] चक्रांका नगरीके राजकुमार दमनद्वारा घोड़ेका पकड़ा जाना तथा राजकुमारका प्रतापायको युद्धमें परास्त करके स्वयं पुष्कलके द्वारा पराजित होना
  15. [अध्याय 112] राजा सुबाहुका भाई और पुत्रसहित युद्धमें आना तथा सेनाका क्रौंच व्यूहनिर्माण
  16. [अध्याय 113] राजा सुबाहुकी प्रशंसा तथा लक्ष्मीनिधि और सुकेतुका द्वन्द्वयुद्ध
  17. [अध्याय 114] पुष्कलके द्वारा चित्रांगका वध, हनुमान्जीके चरण-प्रहारसे सुबाहुका शापोद्धार तथा उनका आत्मसमर्पण
  18. [अध्याय 115] तेजः पुरके राजा सत्यवान्‌की जन्मकथा - सत्यवान्‌का शत्रुघ्नको सर्वस्व समर्पण
  19. [अध्याय 116] शत्रुघ्नके द्वारा विद्युन्माली और आदंष्ट्रका वध तथा उसके द्वारा चुराये हुए अश्वकी प्राप्ति
  20. [अध्याय 117] शत्रुघ्न आदिका घोड़ेसहित आरण्यक मुनिके आश्रमपर जाना, मुनिकी आत्मकथामें रामायणका वर्णन और अयोध्यामें जाकर उनका श्रीरघुनाथजीके स्वरूपमें मिल जाना
  21. [अध्याय 118] देवपुरके राजकुमार रुक्मांगदद्वारा अश्वका अपहरण, दोनों ओरकी सेनाओंमें युद्ध और पुष्कलके बाणसे राजा वीरमणिका मूच्छित होना
  22. [अध्याय 119] हनुमान्जीके द्वारा वीरसिंहकी पराजय, वीरभद्रके हाथसे पुष्कलका वध, शंकरजीके द्वारा शत्रुघ्नका मूर्च्छित होना, हनुमान्के पराक्रमसे शिवका संतोष, हनुमानजीके उद्योगसे मरे हुए वीरोंका जीवित होना, श्रीरामका प्रादुर्भाव और वीरमणिका आत्मसमर्पण
  23. [अध्याय 120] अश्वका गात्र-स्तम्भ, श्रीरामचरित्र कीर्तनसे एक स्वर्गवासी ब्राह्मणका राक्षसयोनिसे उद्धार तथा अश्वके गात्र स्तम्भकी निवृत्ति
  24. [अध्याय 121] राजा सुरथके द्वारा अश्वका पकड़ा जाना, राजाकी भक्ति और उनके प्रभावका वर्णन, अंगदका दूत बनकर राजाके यहाँ जाना और राजाका युद्धके लिये तैयार होना
  25. [अध्याय 122] युद्धमें चम्पकके द्वारा पुष्कलका बाँधा जाना, हनुमानजीका चम्पकको मूर्च्छित करके पुष्कलको छुड़ाना, सुरथका हनुमान् और शत्रुघ्न आदिको जीतकर अपने नगरमें ले जाना तथा श्रीरामके आनेसे सबका छुटकारा होना
  26. [अध्याय 123] वाल्मीकिके आश्रमपर लवद्वारा घोड़ेका बँधना और अश्वरक्षकोंकी भुजाओंका काटा जाना
  27. [अध्याय 124] गुप्तचरोंसे अपवादकी बात सुनकर श्रीरामका भरतके प्रति सीताको वनमें छोड़ आनेका आदेश और भरतकी मूर्च्छा
  28. [अध्याय 125] सीताका अपवाद करनेवाले धोबीके पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  29. [अध्याय 126] सीताजीके त्यागकी बातसे शत्रुघ्नकी भी मूर्च्छा, लक्ष्मणका दुःखित चित्तसे सीताको जंगलमें छोड़ना और वाल्मीकिके आश्रमपर लव-कुशका जन्म एवं अध्ययन
  30. [अध्याय 127] युद्धमें लवके द्वारा सेनाका संहार, कालजित‌का वध तथा पुष्कल और हनुमान्जीका मूच्छित होना
  31. [अध्याय 128] शत्रुघ्नके बाणसे लवकी मूर्च्छा, कुशका रणक्षेत्रमें आना, कुश और लवकी विजय तथा सीताके प्रभावसे शत्रुघ्न आदि एवं उनके सैनिकोंकी जीवन-रक्षा
  32. [अध्याय 129] शत्रुघ्न आदिका अयोध्यामें जाकर श्रीरघुनाथजीसे मिलना तथा मन्त्री सुमतिका उन्हें यात्राका समाचार बतलाना
  33. [अध्याय 130] वाल्मीकिजी के द्वारा सीताकी शुद्धता और अपने पुत्रोंका परिचय पाकर श्रीरामका सीताको लानेके लिये लक्ष्मणको भेजना, लक्ष्मण और सीताकी बातचीत, सीताका अपने पुत्रोंको भेजकर स्वयं न आना, श्रीरामकी प्रेरणासे पुनः लक्ष्मणका उन्हें बुलानेको जाना तथा शेषजीका वात्स्यायनको रामायणका परिचय देना
  34. [अध्याय 131] सीताका आगमन, यज्ञका आरम्भ, अश्वकी मुक्ति, उसके पूर्वजन्मकी कथा, यज्ञका उपसंहार और रामभक्ति तथा अश्वमेध-कथा-श्रवणकी महिमा
  35. [अध्याय 132] वृन्दावन और श्रीकृष्णका माहात्म्य
  36. [अध्याय 133] श्रीराधा-कृष्ण और उनके पार्षदोंका वर्णन तथा नारदजीके द्वारा व्रजमें अवतीर्ण श्रीकृष्ण और राधाके दर्शन
  37. [अध्याय 134] भगवान्‌के परात्पर स्वरूप- श्रीकृष्णकी महिमा तथा मथुराके माहात्म्यका वर्णन
  38. [अध्याय 135] भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा व्रज तथा द्वारकामें निवास करनेवालोंकी मुक्ति, वैष्णवोंकी द्वादश शुद्धि, पाँच प्रकारकी पूजा, शालग्रामके स्वरूप और महिमाका वर्णन, तिलककी विधि, अपराध और उनसे छूटनेके उपाय, हविष्यान्न और तुलसीकी महिमा
  39. [अध्याय 136] नाम-कीर्तनकी महिमा, भगवान्‌के चरण-चिह्नोंका परिचय तथा प्रत्येक मासमें भगवान्‌की विशेष आराधनाका वर्णन
  40. [अध्याय 137] मन्त्र-चिन्तामणिका उपदेश तथा उसके ध्यान आदिका वर्णन
  41. [अध्याय 138] दीक्षाकी विधि तथा श्रीकृष्णके द्वारा रुद्रको युगल मन्त्रकी प्राप्ति
  42. [अध्याय 139] अम्बरीष नारद-संवाद तथा नारदजीके द्वारा निर्गुण एवं सगुण ध्यानका वर्ण
  43. [अध्याय 140] भगवद्भक्तिके लक्षण तथा वैशाख स्नानकी महिमा
  44. [अध्याय 141] वैशाख माहात्म्य
  45. [अध्याय 142] वैशाख स्नानसे पाँच प्रेतोंका उद्धार तथा पाप प्रशमन' नामक स्तोत्रका वर्णन
  46. [अध्याय 143] वैशाख मासमें स्नान, तर्पण और श्रीमाधव-पूजनकी विधि एवं महिमा
  47. [अध्याय 144] यम- ब्राह्मण संवाद - नरक तथा स्वर्गमें ले जानेवाले कर्मोंका वर्णन
  48. [अध्याय 145] तुलसीदल और अश्वत्थकी महिमा तथा वैशाख माहात्म्यके सम्बन्धमें तीन प्रेतोंके उद्धारकी कथा
  49. [अध्याय 146] वैशाख माहात्म्यके प्रसंगमें राजा महीरथकी कथा और यम ब्राह्मण-संवादका उपसंहार
  50. [अध्याय 147] भगवान् श्रीकृष्णका ध्यान
  1. [अध्याय 148] नारद-महादेव-संवाद- बदरिकाश्रम तथा नारायणकी महिमा
  2. [अध्याय 149] गंगावतरणकी संक्षिप्त कथा और हरिद्वारका माहात्म्य
  3. [अध्याय 150] गंगाकी महिमा, श्रीविष्णु, यमुना, गंगा, प्रयाग, काशी, गया एवं गदाधरकी स्तुति
  4. [अध्याय 151] तुलसी, शालग्राम तथा प्रयागतीर्थका माहात्म्य
  5. [अध्याय 152] त्रिरात्र तुलसीव्रतकी विधि और महिमा
  6. [अध्याय 153] अन्नदान, जलदान, तडाग निर्माण, वृक्षारोपण तथा सत्यभाषण आदिकी महिमा
  7. [अध्याय 154] मन्दिरमें पुराणकी कथा कराने और सुपात्रको दान देनेसे होनेवाली सद्गतिके विषयमें एक आख्यान तथा गोपीचन्दनके तिलककी महिमा
  8. [अध्याय 155] संवत्सरदीप व्रतकी विधि और महिमा
  9. [अध्याय 156] जयन्ती संज्ञावाली जन्माष्टमीके व्रत तथा विविध प्रकारके दान आदिकी महिमा
  10. [अध्याय 157] महाराज दशरथका शनिको संतुष्ट करके लोकका कल्याण करना
  11. [अध्याय 158] त्रिस्पृशाव्रतकी विधि और महिमा
  12. [अध्याय 159] पक्षवर्धिनी एकादशी तथा जागरणका माहात्म्य
  13. [अध्याय 160] एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, एकादशीकी विधि, उत्पत्ति कथा और महिमाका वर्णन
  14. [अध्याय 161] मार्गशीर्ष शुक्लपक्षकी 'मोक्षा' एकादशीका माहात्म्य
  15. [अध्याय 162] पौष मासकी 'सफला' और 'पुत्रदा' नामक एकादशीका माहात्म्य
  16. [अध्याय 163] माघ मासकी पतिला' और 'जया' एकादशीका माहात्म्य
  17. [अध्याय 164] फाल्गुन मासकी 'विजया' तथा 'आमलकी एकादशीका माहात्म्य
  18. [अध्याय 165] चैत्र मासकी 'पापमोचनी' तथा 'कामदा एकादशीका माहात्म्य
  19. [अध्याय 166] वैशाख मासकी 'वरूथिनी' और 'मोहिनी' एकादशीका माहात्म्य
  20. [अध्याय 167] ज्येष्ठ मासकी' अपरा' तथा 'निर्जला' एकादशीका माहात्म्य
  21. [अध्याय 168] आषाढ़ मासकी 'योगिनी' और 'शयनी एकादशीका माहात्म्य
  22. [अध्याय 169] श्रावणमासकी 'कामिका' और 'पुत्रदा एकादशीका माहात्म्य
  23. [अध्याय 170] भाद्रपद मासकी 'अजा' और 'पद्मा' एकादशीका माहात्म्य
  24. [अध्याय 171] आश्विन मासकी 'इन्दिरा' और 'पापांकुशा एकादशीका माहात्म्य
  25. [अध्याय 172] कार्तिक मासकी 'रमा' और 'प्रबोधिनी' एकादशीका माहात्म्य
  26. [अध्याय 173] पुरुषोत्तम मासकी 'कमला' और 'कामदा एकादशीका माहात्य
  27. [अध्याय 174] चातुर्मास्य व्रतकी विधि और उद्यापन
  28. [अध्याय 175] यमराजकी आराधना और गोपीचन्दनका माहात्म्य
  29. [अध्याय 176] वैष्णवोंके लक्षण और महिमा तथा श्रवणद्वादशी व्रतकी विधि और माहात्म्य-कथा
  30. [अध्याय 177] नाम-कीर्तनकी महिमा तथा श्रीविष्णुसहस्त्रनामस्तोत्रका वर्णन
  31. [अध्याय 178] गृहस्थ आश्रमकी प्रशंसा तथा दान धर्मकी महिमा
  32. [अध्याय 179] गण्डकी नदीका माहात्म्य तथा अभ्युदय एवं और्ध्वदेहिक नामक स्तोत्रका वर्णन
  33. [अध्याय 180] ऋषिपंचमी - व्रतकी कथा, विधि और महिमा
  34. [अध्याय 181] न्याससहित अपामार्जन नामक स्तोत्र और उसकी महिमा
  35. [अध्याय 182] श्रीविष्णुकी महिमा - भक्तप्रवर पुण्डरीककी कथा
  36. [अध्याय 183] श्रीगंगाजीकी महिमा, वैष्णव पुरुषोंके लक्षण तथा श्रीविष्णु प्रतिमाके पूजनका माहात्म्य
  37. [अध्याय 184] चैत्र और वैशाख मासके विशेष उत्सवका वर्णन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़में जलस्थ श्रीहरिके पूजनका महत्त्व
  38. [अध्याय 185] पवित्रारोपणकी विधि, महिमा तथा भिन्न-भिन्न मासमें श्रीहरिकी पूजामें काम आनेवाले विविध पुष्पोंका वर्णन
  39. [अध्याय 186] कार्तिक-व्रतका माहात्म्य - गुणवतीको कार्तिक व्रतके पुण्यसे भगवान्‌की प्राप्ति
  40. [अध्याय 187] कार्तिककी श्रेष्ठताके प्रसंग शंखासुरके वध, वेदोंके उद्धार तथा 'तीर्थराज' के उत्कर्षकी कथा
  41. [अध्याय 188] कार्तिक मासमें स्नान और पूजनकी विधि
  42. [अध्याय 189] कार्तिक व्रतके नियम और उद्यापनकी विधि
  43. [अध्याय 190] कार्तिक- व्रतके पुण्य-दानसे एक राक्षसीका उद्धार
  44. [अध्याय 191] कार्तिक-माहात्म्यके प्रसंगमें राजा चोल और विष्णुदास की कथा
  45. [अध्याय 192] पुण्यात्माओंके संसर्गसे पुण्यकी प्राप्तिके प्रसंगमें धनेश्वर ब्राह्मणकी कथा
  46. [अध्याय 193] अशक्तावस्थामें कार्तिक व्रतके निर्वाहका उपाय
  47. [अध्याय 194] कार्तिक मासका माहात्म्य और उसमें पालन करनेयोग्य नियम
  48. [अध्याय 195] प्रसंगतः माघस्नानकी महिमा, शूकरक्षेत्रका माहात्म्य तथा मासोपवास- व्रतकी विधिका वर्णन
  49. [अध्याय 196] शालग्रामशिलाके पूजनका माहात्म्य
  50. [अध्याय 197] भगवत्पूजन, दीपदान, यमतर्पण, दीपावली कृत्य, गोवर्धन पूजा और यमद्वितीयाके दिन करनेयोग्य कृत्योंका वर्णन
  51. [अध्याय 198] प्रबोधिनी एकादशी और उसके जागरणका महत्त्व तथा भीष्मपंचक व्रतकी विधि एवं महिमा
  52. [अध्याय 199] भक्तिका स्वरूप, शालग्रामशिलाकी महिमा तथा वैष्णवपुरुषोंका माहात्म्य
  53. [अध्याय 200] भगवत्स्मरणका प्रकार, भक्तिकी महत्ता, भगवत्तत्त्वका ज्ञान, प्रारब्धकर्मकी प्रबलता तथा भक्तियोगका उत्कर्ष
  54. [अध्याय 201] पुष्कर आदि तीर्थोका वर्णन
  55. [अध्याय 202] वेत्रवती और साभ्रमती (साबरमती) नदीका माहात्म्य
  56. [अध्याय 203] साभ्रमती नदीके अवान्तर तीर्थोका वर्णन
  57. [अध्याय 204] अग्नितीर्थ, हिरण्यासंगमतीर्थ, धर्मतीर्थ आदिकी महिमा
  58. [अध्याय 205] माभ्रमती-तटके कपीश्वर, एकधार, सप्तधार और ब्रह्मवल्ली आदि तीर्थोकी महिमाका वर्णन
  59. [अध्याय 206] साभ्रमती-तटके बालार्क, दुर्धर्षेश्वर तथा खड्गधार आदि तीर्थोंकी महिमाका वर्णन
  60. [अध्याय 207] वार्त्रघ्नी आदि तीर्थोकी महिमा
  61. [अध्याय 208] श्रीनृसिंहचतुर्दशी के व्रत तथा श्रीनृसिंहतीर्थकी महिमा
  62. [अध्याय 209] श्रीमद्भगवद्गीताके पहले अध्यायका माहात्म्य
  63. [अध्याय 210] श्रीमद्भगवद्गीताके दूसरे अध्यायका माहात्म्य
  64. [अध्याय 211] श्रीमद्भगवद्गीताके तीसरे अध्यायका माहात्म्य
  65. [अध्याय 212] श्रीमद्भगवद्गीताके चौथे अध्यायका माहात्म्य
  66. [अध्याय 213] श्रीमद्भगवद्गीताके पाँचवें अध्यायका माहात्म्य
  67. [अध्याय 214] श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायका माहात्म्य
  68. [अध्याय 215] श्रीमद्भगवद्गीताके सातवें तथा आठवें अध्यायोंका माहात्म्य
  69. [अध्याय 216] श्रीमद्भगवद्गीताके नवें और दसवें अध्यायोंका माहात्म्य
  70. [अध्याय 217] श्रीमद्भगवद्गीताके ग्यारहवें अध्यायका माहात्म्य
  71. [अध्याय 218] श्रीमद्भगवद्गीताके बारहवें अध्यायका माहात्म्य
  72. [अध्याय 219] श्रीमद्भगवद्गीताके तेरहवें और चौदहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  73. [अध्याय 220] श्रीमद्भगवद्गीताके पंद्रहवें तथा सोलहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  74. [अध्याय 221] श्रीमद्भगवद्गीताके सत्रहवें और अठारहवें अध्यायोंका माहात्म्य
  75. [अध्याय 222] देवर्षि नारदकी सनकादिसे भेंट तथा नारदजीके द्वारा भक्ति, ज्ञान और वैराग्यके वृत्तान्तका वर्णन
  76. [अध्याय 223] भक्तिका कष्ट दूर करनेके लिये नारदजीका उद्योग और सनकादिके द्वारा उन्हें साधनकी प्राप्ति
  77. [अध्याय 224] सनकादिद्वारा श्रीमद्भागवतकी महिमाका वर्णन तथा कथा-रससे पुष्ट होकर भक्ति, ज्ञान और वैराग्यका प्रकट होना
  78. [अध्याय 225] कथामें भगवान्का प्रादुर्भाव, आत्मदेव ब्राह्मणकी कथा - धुन्धुकारी और गोकर्णकी उत्पत्ति तथा आत्मदेवका वनगमन
  79. [अध्याय 226] गोकर्णजीकी भागवत कथासे धुन्धुकारीका प्रेतयोनिसे उद्धार तथा समस्त श्रोताओंको परमधामकी प्राप्ति
  80. [अध्याय 227] श्रीमद्भागवतके सप्ताहपारायणकी विधि तथा भागवत माहात्म्यका उपसंहार
  81. [अध्याय 228] यमुनातटवर्ती 'इन्द्रप्रस्थ' नामक तीर्थकी माहात्म्य कथा
  82. [अध्याय 229] निगमोद्बोध नामक तीर्थकी महिमा - शिवशर्मा के पूर्वजन्मकी कथा
  83. [अध्याय 230] देवल मुनिका शरभको राजा दिलीपकी कथा सुनाना - राजाको नन्दिनीकी सेवासे पुत्रकी प्राप्ति
  84. [अध्याय 231] शरभको देवीकी आराधनासे पुत्रकी प्राप्ति; शिवशमांके पूर्वजन्मकी कथाका और निगमोद्बोधकतीर्थकी महिमाका उपसंहार
  85. [अध्याय 232] इन्द्रप्रस्थके द्वारका, कोसला, मधुवन, बदरी, हरिद्वार, पुष्कर, प्रयाग, काशी, कांची और गोकर्ण आदि तीर्थोका माहात्य
  86. [अध्याय 233] वसिष्ठजीका दिलीपसे तथा भृगुजीका विद्याधरसे माघस्नानकी महिमा बताना तथा माघस्नानसे विद्याधरकी कुरूपताका दूर होना
  87. [अध्याय 234] मृगशृंग मुनिका भगवान्से वरदान प्राप्त करके अपने घर लौटना
  88. [अध्याय 235] मृगशृंग मुनिके द्वारा माघके पुण्यसे एक हाथीका उद्धार तथा मरी हुई कन्याओंका जीवित होना
  89. [अध्याय 236] यमलोकसे लौटी हुई कन्याओंके द्वारा वहाँकी अनुभूत बातोंका वर्णन
  90. [अध्याय 237] महात्मा पुष्करके द्वारा नरकमें पड़े हुए जीवोंका उद्धार
  91. [अध्याय 238] मृगशृंगका विवाह, विवाहके भेद तथा गृहस्थ आश्रमका धर्म
  92. [अध्याय 239] पतिव्रता स्त्रियोंके लक्षण एवं सदाचारका वर्णन
  93. [अध्याय 240] मृगशृंगके पुत्र मृकण्डु मुनिकी काशी यात्रा, काशी- माहात्म्य तथा माताओंकी मुक्ति
  94. [अध्याय 241] मार्कण्डेयजीका जन्म, भगवान् शिवकी आराधनासे अमरत्व प्राप्ति तथा मृत्युंजय - स्तोत्रका वर्णन
  95. [अध्याय 242] माघस्नानके लिये मुख्य-मुख्य तीर्थ और नियम
  96. [अध्याय 243] माघ मासके स्नानसे सुव्रतको दिव्यलोककी प्राप्ति
  97. [अध्याय 244] सनातन मोक्षमार्ग और मन्त्रदीक्षाका वर्णन
  98. [अध्याय 245] भगवान् विष्णुकी महिमा, उनकी भक्तिके भेद तथा अष्टाक्षर मन्त्रके स्वरूप एवं अर्थका निरूपण
  99. [अध्याय 246] श्रीविष्णु और लक्ष्मीके स्वरूप, गुण, धाम एवं विभूतियोंका वर्णन
  100. [अध्याय 247] वैकुण्ठधाममें भगवान् की स्थितिका वर्णन, योगमायाद्वारा भगवान्‌की स्तुति तथा भगवान्‌के द्वारा सृष्टि रचना
  101. [अध्याय 248] देवसर्ग तथा भगवान्‌के चतुर्व्यूहका वर्णन
  102. [अध्याय 249] मत्स्य और कूर्म अवतारोंकी कथा-समुद्र-मन्धनसे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव और एकादशी - द्वादशीका माहात्म्य
  103. [अध्याय 250] नृसिंहावतार एवं प्रह्लादजीकी कथा
  104. [अध्याय 251] वामन अवतारके वैभवका वर्णन
  105. [अध्याय 252] परशुरामावतारकी कथा
  106. [अध्याय 253] श्रीरामावतारकी कथा - जन्मका प्रसंग
  107. [अध्याय 254] श्रीरामका जातकर्म, नामकरण, भरत आदिका जन्म, सीताकी उत्पत्ति, विश्वामित्रकी यज्ञरक्षा तथा राम आदिका विवाह
  108. [अध्याय 255] श्रीरामके वनवाससे लेकर पुनः अयोध्या में आनेतकका प्रसंग
  109. [अध्याय 256] श्रीरामके राज्याभिषेकसे परमधामगमनतकका प्रसंग
  110. [अध्याय 257] श्रीकृष्णावतारकी कथा-व्रजकी लीलाओंका प्रसंग
  111. [अध्याय 258] भगवान् श्रीकृष्णकी मथुरा-यात्रा, कंसवध और उग्रसेनका राज्याभिषेक
  112. [अध्याय 259] जरासन्धकी पराजय द्वारका-दुर्गकी रचना, कालयवनका वध और मुचुकुन्दकी मुक्ति
  113. [अध्याय 260] सुधर्मा - सभाकी प्राप्ति, रुक्मिणी हरण तथा रुक्मिणी और श्रीकृष्णका विवाह
  114. [अध्याय 261] भगवान् के अन्यान्य विवाह, स्यमन्तकमणिकी कथा, नरकासुरका वध तथा पारिजातहरण
  115. [अध्याय 262] अनिरुद्धका ऊषाके साथ विवाह
  116. [अध्याय 263] पौण्ड्रक, जरासन्ध, शिशुपाल और दन्तवक्त्रका वध, व्रजवासियोंकी मुक्ति, सुदामाको ऐश्वर्य प्रदान तथा यदुकुलका उपसंहार
  117. [अध्याय 264] श्रीविष्णु पूजनकी विधि तथा वैष्णवोचित आचारका वर्णन
  118. [अध्याय 265] श्रीराम नामकी महिमा तथा श्रीरामके १०८ नामका माहात्म्य
  119. [अध्याय 266] त्रिदेवोंमें श्रीविष्णुकी श्रेष्ठता तथा ग्रन्थका उपसंहार