नारदजीने पूछा— त्रिपुरविनाशक महेश्वर। भूतक, भुवालक, स्वालक, महलोंक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक- ये सात देवलोक बतलाये गये हैं। इन सबपर क्रमशः आधिपत्य कैसे प्राप्त किया जा सकता है ? तथा नाथ! इस लोकमें सुन्दर रूप, दीर्घायु, सौभाग्य और विपुल लक्ष्मीकी प्राप्ति कैसे हो सकती है? (कृपया इसे बतलाइये ॥ 1-2 ॥
भगवान् महेश्वरने कहा—तपोधन। पूर्वकालकी बात है, एक बार इन्द्र भूतलपर देवद्रोही असुरोंका विनाश करनेके लिये वायुके साथ अग्रिको आज्ञा दी। तब अग्रिद्वारा हजारों दानवोंको जलाकर भस्म कर दिये। जानेपर तारक, कमलाक्ष, कालदंष्ट्र, परावसु और विरोचन आदि प्रधान दानव रणभूमिसे भाग खड़े हुए और समुद्रके जलमें प्रविष्ट होकर (वहाँ छिपकर) निवासस्थानः बनाकर रहने लगे। उस समय अग्रि और वायुने भी 'अब ये सर्वथा अशक्त, निर्जीव हो गये हैं- ऐसा समझकर उनकी उपेक्षा कर दी। तबसे वे दानव जलसे निकलकर देवताओं, नागों (सामान्य) मनुष्यों और समस्त मुनियोंको बुरी तरह पीड़ित कर पुनः जलमें प्रविष्ट हो जाते थे। ब्रह्मन्! इस प्रकार वे पाँच-सात हो दानववोर हजारों वर्षोंसे अपने जलदुर्गके बलपर त्रिलोकीको पीड़ा पहुंचा रहे थे तब यह सब देखकर देवेश्वर इन्द्रने अदि और वायुको आज्ञा दी कि आपलोग इस समुद्रको सुखा डालें।चूंकि यह वरुणका निवासस्थान समुद्र हमारे शत्रुओंका आश्रयस्थान बना हुआ है, इसलिये आपलोग आज ही इसे नष्ट कर दें।' तब वे दोनों (अग्नि और वायु) शम्बरासुरका | विनाश करनेवाले इन्द्रसे बोले-'देवेन्द्र समुद्रका विनाश कर देना- यह महान् अधर्म होगा। पुरंदर ऐसा करनेसे बहुत बड़े जीव-समुदायका विनाश हो जायगा, इसलिये हमलोग आज यह पाप नहीं करना चाहते। सुरश्रेष्ठ! इस समुद्रके एक योजन (चार मील) के विस्तारमें ही सैकड़ों करोड़ जीव निवास करते हैं, भला, उनका विनाश कैसे किया जा सकता है!' ॥ 3-12 ॥
उनके ऐसा कहनेपर क्रोधके कारण सुरेन्द्रके नेत्र लाल हो गये। तब वे अपनी क्रोधाग्निसे अग्निको जलाते हुएकी तरह यह वचन बोले- 'विभावसो! देवताओंपर कहीं भी धर्म और अधर्मका प्रभाव नहीं पड़ता। आपमें तो यह महत्त्व विशेषरूपसे वर्तमान है। चूँकि आपने वायुके साथ मेरी आज्ञाका उल्लङ्घन किया है और अहिंसा आदि मुनि व्रत धारण कर धर्म, अर्थ और | शास्त्रसे विहीन शत्रुके प्रति उपेक्षा की है, इसलिये मानवलोकमें वायुके साथ आपका एक शरीरसे मुनिरूपमें जन्म होगा। अग्रे! मानव-योनिमें उत्पन्न होनेपर भी जब आपद्वारा अगस्त्यरूपसे समुद्र सोख लिया जायगा, तब पुनः आपको देवत्वकी प्राप्ति होगी।' तपोधन। इस प्रकार इन्द्रके शापसे वे दोनों (अग्रि और वायु) उसी क्षण पृथ्वीतलपर गिर पड़े और एक ही शरोरसे (दोनोंने) घड़ेसे जन्म धारण किया। वे मित्रावरुणके वीर्यसे उत्पन्न होकर वसिष्ठके अनुज हुए। आगे चलकर वे दोनों संयुक्त उग्रतपस्वी अगस्त्य मुनिके नामसे विख्यात हुए ।। 13–19 ॥
नारदजीने पूछा- त्रिपुरसूदन! वे मुनि जन्म धारण करनेके पश्चात् वसिष्ठके भ्राता कैसे हो गये ? वे दोनों मित्रावरुण इनके पिता कैसे कहलाये ? तथा अगस्त्य मुनिका घड़ेसे जन्म कैसे हुआ? (यह सब हम जानना चाहते हैं।) ॥ 20 ॥
ईश्वरने कहा-नारद। पूर्वकालमें पुराणपुरुष भगवान् विष्णु किसी समय धर्मके पुत्ररूपमें उत्पन्न होकर गन्धमादन पर्वतपुर महान् तपस्यामें संलग्न थे।उनकी भयभीत हुए इन्द्रने उसमें विघ्न डालनेके लिये अप्सराओंके साथ वसन्त ऋतु और कामदेव-दोनोंको भेजा। उस समय श्रीहरि न तो उनके गाने, बजाने अथवा अङ्गराग आदिसे ही प्रभावित हुए, न वसन्त और कामदेवद्वारा उपस्थित किये गये विषय भोगोंके प्रति ही उनका मन क्षुब्ध हुआ। यह देखकर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंका समूह विषादमें डूब गया। तत्पश्चात् नरके अग्रज नारायणने उन्हें विशेषरूपसे क्षुब्ध करनेके हेतु अपने ऊरुप्रदेशसे एक ऐसी नारीको उत्पन्न किया, जो त्रिलोकीके मनुष्योंको मोहित करनेवाली थी उस स्त्रीने समस्त देवताओं तथा उन दोनों देव श्रेष्ठको भोत कर दिया। उस समय श्रीहरिने अप्सराओके सामने ही देवताओंसे कहा-'देवगण! यह एक अप्सरा है। यह लोकमें उर्वशी नामसे प्रसिद्ध होगी' ॥ 21-29 ॥
तदनन्तर एक घड़ेसे मित्र और वरुणके अंशसे दो मुनिश्रेष्ठ उत्पन्न हुए। प्राचीनकालकी बात है, एक बार जब महाराज निमि स्त्रियोंके साथ जुआ खेल रहे थे, उसी समय ब्रह्मपुत्र महर्षि वसिष्ठ उनके पास आये, किंतु राजाने उनका स्वागत सत्कार नहीं किया। तब वसिष्ठ मुनिने राजाको शाप दे दिया- 'तुम विदेह देहरहित हो जाओ।" तब राजाने भी मुनिको वही शाप दे | दिया। इस प्रकार एक-दूसरेके शापवश दोनोंकी चेतना सुप्त सी हो गयी तब वे दोनों शापसे छुटकारा पानेके लिये जगत्पति ब्रह्माके पास गये। वहाँ ब्रह्माके आदेशसे राज निर्मिका प्राणियोंके नेत्रोंमें निवास हुआ। नारद। उन्होंको विश्राम देनेके लिये लोगोंके निमेष (पलकोंका गिरना और खुलना) होते रहते हैं। वसिष्ठ भी पहलेकी तरह उसी जलकुम्भसे प्रकट हुए। तदुपरान्त उसी जलकुम्भसे ऋषिश्रेष्ठ अगस्त्य उत्पन्न हुए, जो अत्यन्त शान्त स्वभाववाले थे। उनका गौर वर्ण था, उनके चार भुजाएँ थीं तथा वे अक्षसूत्र (यज्ञोपवीत) और कमण्डलु धारण किये हुए थे। विप्रोंसे घिरे हुए अगस्त्यने अपनी पत्नीके साथरहकर मलयपर्वतके एक प्रदेशमें वैखानस-विधिके अनुसार अत्यन्त कठोर तप किया था। चिरकालके पश्चात् तारकासुरद्वारा जगत्को अत्यन्त पीड़ित देखकर वे कुपित हो गये और समुद्रको पी गये। यह देखकर शंकर आदि सभी देवता उन्हें वर देनेके लिये उत्सुक हो उठे। उसी समय ब्रह्मा और भगवान् विष्णु वर प्रदान करनेके निमित्त उनके निकट गये और बोले- 'मुने। आपका कल्याण हो! आपको जो अभीष्ट हो, वह वर माँग लीजिये ॥30-39 ॥
अगस्त्य बोले- देव में एक सहस्र ब्रह्माओंके पचीस करोड़ वर्षोंतक दक्षिणाचलके मार्गमें विमानपर स्थित होकर निवास करूँ। उस समय मेरे विमानके उदय होनेपर जो कोई मनुष्य मेरा पूजन करे, वह क्रमशः सातों लोकोंका अधिपति हो जाय ।। 40-41 ।।
ईश्वरने कहा - नारद । तब वे देवगण भी 'एवमस्तु ऐसा ही हो' यों कहकर जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। इसलिये विद्वानोंको अगस्त्यके लिये सदा अर्ध्य प्रदान करते रहना चाहिये ॥ 42 ॥
नारदजीने पूछा- विभो ! अगस्त्य के लिये किस विधिसे अर्घ्य प्रदान करना चाहिये? तथा उनके पूजनका क्या विधान है? यह मुझे बतलाइये ? ।। 43 ।।
ईश्वरने कहा- नारद! विद्वान् गृहस्थको चाहिये कि वह अगस्त्यके उदयसे संयुक्त रात्रिमें प्रातःकाल श्वेत तिलमिश्रित जलसे स्नान करे। उसी प्रकार श्वेत वस्त्र और श्वेत पुष्पोंकी माला धारण करे। तत्पश्चात् एक छिद्ररहित कलश स्थापित करे और उसे पुष्पमाला तथा वस्त्रसे विभूषित कर दे। उसके भीतर पञ्चरल डाल दे और पार्श्वभागमें घीसे भरा हुआ एक पात्र रख दे। साथ ही काँसेका पात्र चावल भरकर उसके ऊपर सीप अथवा शङ्ख रखकर प्रस्तुत करे। फिर अँगूठेके बराबर लम्बी सोनेकी एक ऐसी पुरुषाकार प्रतिमा बनवाये, जिसमें चार मुख दीख पड़ते हों और जिसकी भुजाएँ लम्बी हो, उसे कलशके मुखमें स्थापित कर दे। उसके निकट पृथक् पृथक् सात वस्त्रोंमें बंधी हुई धान्य राशि भी रखे तदनन्तर अनन्य चित्तसे दक्षिणाभिमुख हो लम्बे उदर और लम्बी भुजाओंवाली अगस्त्यमुनिकी उस प्रतिमाको (पड़ेसे) निकालकर हाथमें लेकर मन्त्रोच्चारणपूर्वक | सारी सामग्रियों सहित सुपात्र ब्राह्मणको दान कर दे।साथ ही यदि धनसम्पत्तिरूपी शक्ति हो तो गृहस्थ पुरुष मुख और | एक श्वेत वर्णकी बछड़ेवाली दुधारू गौको सोनेके चाँदीके खुरोंसे संयुक्त करे तथा उसे माला, वस्त्र और घंटीसे | विभूषित करके नमस्कारपूर्वक ब्राह्मणको दान कर दे। इस प्रकार गृहस्थ पुरुषको अगस्त्योदयसे सात रात्रियोंतक इन सभी वस्तुओंका दान करना चाहिये। इस विधानको सात अथवा दस वर्षोंतक करना चाहिये। कुछ लोग इससे आगे भी इसकी अवधि बतलाते हैं ।। 44-49 ।।
तदनन्तर यों प्रार्थना करते हुए अर्घ्य प्रदान करे 'कुम्भसे उत्पन्न होनेवाले अगस्त्यजी! आपके शरीरका रंग | कासके पुष्पके सदृश उज्वल है, आपकी उत्पत्ति अग्नि और वायुसे हुई है और आप मित्रावरुणके पुत्र हैं, आपको नमस्कार है।' इस प्रकार फलत्यागपूर्वक प्रतिवर्ष अर्घ्य | प्रदान करनेवाला पुरुष कष्टभागी नहीं होता। तत्पश्चात् हवन करके कार्य समाप्त करे। उस समय मनुष्यको फलकी अभिलाषा नहीं करनी चाहिये। जो पुरुष इस विधिके | अनुसार अगस्त्यको अर्घ्य निवेदित करता है, वह सुन्दर रूप और नीरोगतासे युक्त होकर इस मृत्युलोकमें पुनः जन्म धारण करता है। इसी प्रकार वह दूसरे अर्घ्यसे भुवर्लोकको और तीसरेसे उससे भी श्रेष्ठ स्वर्लोकको जाता है। इसी तरह जो मनुष्य उन (सात) दिनोंमें अर्घ्य देता है, वह क्रमश: सातों लोकोंको प्राप्त होता है तथा जो आयुपर्यन्त इसका अनुष्ठान करता है, वह परब्रह्मको प्राप्त हो जाता है । ll 50 - 53 ॥
जो मनुष्य इस मर्त्यलोकमें इन दोनों (वसिष्ठ और अगस्त्य) मुनियोंकी उत्पत्ति और अगस्त्य मुनिके अर्घ्यप्रदान' के वृत्तान्तको पढ़ता अथवा सुनता है या ऐसा करनेकी सलाह देता है, वह विष्णुलोकमें जाकर देवगणोंद्वारा पूजित होता है ॥ 54 ॥