ऋषियोंने पूछा- सूतजी! जो अग्नि द्विजातियोंके लिये सदा परम पूज्य माने गये हैं, अब उनका तथा उनके वंशका आनुपूर्वी वर्णन कीजिये 1॥ सूतजी कहते हैं-थियो। स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जो ये अग्निके अभिमानी देवता कहे गये हैं, वे ब्रह्माके मानस पुत्र हैं। स्वाहाने उनके संयोगसे पावक (दक्षिणाग्नि), पवमान (गार्हपत्य) और शुचि (आहवनीय) नामक तीन पुत्रोंको जन्म दिया, जो अग्नि भी कहलाते हैं। उनमेंसे पावकको वैद्युत (जलबिजलीसे उत्पन्न), पवमानको निर्मथ्य (निर्मन्थन करनेपर उत्पन्न) और शुचिको सौर (सूर्यके 'सम्बन्धसे उत्पन्न) अग्नि कहा जाता है। ये सभी अग्नि स्थावर (स्थिर स्वभाववाले) माने गये हैं। पवमानके पुत्र जो अग्नि हुए, उन्हें कव्यवाहन कहा जाता है। पावकके पुत्र सहरक्ष और शुचिके पुत्र हव्यवाहन हुए। देवताओंके अग्नि हव्यवाह हैं, जो ब्रह्माके प्रथम पुत्र हैं। सहरक्ष - असुरोंके अग्नि हैं तथा पितरोंके अग्नि कव्यवाहन हैं। इस प्रकार ये तीनों देव असुर- पितर- इन तीनोंके पृथक् पृथक् अग्नि हैं। इनके पुत्र-पौत्रोंकी संख्या उनचास हैं।उनको मैं विभागपूर्वक पृथक् पृथक् नामनिर्देशानुसार बतला रहा हूँ। सर्वप्रथम पावन नामक लौकिक अग्निदेव हुए, जो ब्रह्माके पुत्र हैं। उनके पुत्र ब्रह्मौदनाग्नि हुए. जो भरत नामसे भी विख्यात हैं। वैश्वानर नामक अग्नि सौ वर्षोंतक हव्यको वहन करते रहे। पुष्कर (या आकाश ) - का मन्थन करनेपर अथर्वाके पुत्ररूपमें जो अग्नि उत्पन्न हुए, वे दध्याथर्वणके नामसे प्रसिद्ध हुए। उन्हींको दक्षिणाग्नि भी कहा जाता है। भृगुसे अथर्वाकी और अथर्वासे अङ्गिराकी उत्पत्ति बतलायी जाती है। उनसे अलौकिक अग्निकी उत्पत्ति हुई, जिसे दक्षिणाग्नि भी कहते हैं ॥ 2-10 ॥
हम पहले कह चुके हैं कि जो पवमान अग्नि हैं, वे ही निर्मथ्य नामसे भी कहे जाते हैं। वे ही ब्रह्माके प्रथम पुत्र गार्हपत्य* अग्नि हैं। फिर संशतिसे सभ्य और आवसथ्य- इन दो पुत्रोंकी उत्पत्ति हुई। तदनन्तर आहवनीय नामक अग्निने जिन्हें ब्राह्मणोंने अग्निके अभिमानी देवता नामसे अभिहित किया है, अपनेको सोलह भागों में विभक्त कर कावेरी, कृष्णवेणा, नर्मदा, यमुना, गोदावरी, वितस्ता (झेलम), चन्द्रभागा, इरावती, विपाशा, कौशिकी (कोसी), शतद्रु (सतलज), सरयू, सीता, मनस्विनी, ह्रादिनी तथा पावना-इन सोलह नदियोंके साथ पृथक् पृथक् विहार किया। उनके साथ विहार करते समय अग्निको स्थान प्राप्तिकी इच्छा उत्पन्न हो गयी थी, इसलिये उन नदियोंके गर्भसे उत्पन्न हुए पुत्र उस इच्छाके अनुसार धिष्णु (या धिष्ण्य) कहलाये। चूँकि वे यज्ञिय अग्निके स्थापनयोग्य स्थानपर पैदा हुए थे, इसलिये धिष्णु नामसे कहे जाने लगे। इस प्रकार ये सभी नदीपुत्र धिष्ण्य (यज्ञिय अग्निके स्थापनयोग्य स्थान) में उत्पन्न हुए थे। अब इनके विहार | एवं उपासनायोग्य स्थानका वर्णन कर रहा हूँ, उन्हें सुनिये। यज्ञादि पुण्य अवसरके उपस्थित होनेपर विभु, प्रवाहण, अग्नीध्र आदि अन्यान्य धिष्णु वहाँ उपस्थित होकर यथास्थान विचरते रहते हैं। अब अनिर्देश्य और अनिवार्य अग्नियोंके क्रमको सुनिये। वासव नामक अग्नि, जिसे कृशानु भी कहते हैं, यज्ञकी दूसरी वेदीके उत्तर भागमें स्थित होते हैं। उन्हीं अग्निका एक नाम सम्राट् भी है। इन अग्निके आठ पुत्र हैं, जिनकी विप्रगण उपासना करते हैं।पवमान नामक जो द्वितीय अग्नि हैं, वे पर्जन्यके रूपमें देखे जाते हैं और उत्तर दिशामें स्थित पावक नामक अग्निको समूह अग्नि कहा जाता है। असम्मृज्य हव्यसूद अग्निको शामित्र कहा जाता है। शतधामा अग्नि सुधाज्योति हैं, इन्हें रौद्रैश्वर्य नामसे अभिहित किया जाता है। ब्रह्मज्योति अग्निको वसुधाम और ब्रहस्थानीय भी कहते हैं। अजैकपाद उपसनीय अग्नि हैं इन्हें शालामुख भी कहा जाता है अहिर्बुध्न्य अनिर्देश्य अग्नि है ये वेदोकी दक्षिण दिशमें परिधिके अन्तमें स्थित होते हैं। वासव नामक अग्निके ये आठों पुत्र ब्राह्मणोंद्वारा उपासनीय बतलाये गये हैं । ll 11-23 ॥
अब मैं उन आठ विहरणीय अग्रिपुत्रोंका वर्णन कर रहा हूँ। बर्हिष् नामक होत्रिय अग्रिके पुत्र हव्यवाहन अग्नि हैं। इसके पश्चात् प्रचेता नामक प्रशंसनीय अग्निकी उत्पत्ति हुई, जिनका दूसरा नाम संसहायक है पुनः अग्रिपुत्र विश्ववेदा हुए, जिन्हें ब्राह्मणाच्छंसि' भी कहा जाता है। जलसे उत्पन्न होनेवाले प्रसिद्ध स्वाम्भ अनि सेतु नामसे भी अभिहित होते हैं इन धिष्ण्यसंज्ञक अनियोंका हमें यथास्थान आवाहन होता है और ब्राह्मणलोग सोम-रसद्वारा इनकी पूजा करते हैं। तत्पश्चात् जो पावक नामक अग्नि हैं, जिन्हें सत्पुरुषगण योग नामसे पुकारते हैं, उन्हींको अवध अग्रि समझना चाहिये। उनकी वरुणके साथ पूजा होती है। हृदय नामक अग्रिके पुत्र मन्युमान् हैं, जिन्हें जठराग्रि भी कहते हैं ये मनुष्योंके उदरमें स्थित रहकर भक्षित | पदार्थोंको पचाते हैं। परस्परके संघर्षसे उत्पन्न हुए प्रभावशाली अग्रिको, जो जगत्में निरन्तर प्राणियों को जलाते रहते हैं, विद्धानि कहते हैं। मन्युमान् अग्निके पुत्र संवर्तक हैं जो अत्यन्त भयंकर बताये जाते हैं। वे समुद्रमें बडवामुखद्वारा निरन्तर जलपान करते हुए निवास करते हैं। समुद्रवासी संवर्तक अग्रिके पुत्र सहरक्ष बतलाये जाते हैं। सहरक्ष मनुष्योंके घरोंमें निवास करते हैं और उनकी सभी कामनाओंको सम्पन्न करते रहते हैं। सहरक्षके पुत्र क्रव्यादि हैं, जो मरे हुए पुरुषोंका भक्षण करते हैं। इस प्रकार ये सभी ब्राह्मणोंद्वारा पावक नामक अग्निके पुत्र बतलाये गये हैं। इनके अतिरिक्त जो अन्य पुत्र हैं, उन्हें सौवीर्यसे गन्धर्वो और असुरोंने हरण कर लिया था। अरणीमें मन्थन करनेसे जो अनि उत्पन होता है, वह तो इन्धनके आश्रित रहता है। पृथु-योनिके लिये जिन अग्रिकी नियुक्ति हुई है, उन ऐश्वर्यशाली अग्रिका नाम आयु है। आयुके पुत्र महिमान् और उनके पुत्र दहन हैं, जो पाकयज्ञोंके अभिमानी देवता हैं। वे ही उन यज्ञोंमें हवन किये गये हविको खाते हैं।दहनके पुत्र अद्भुत नामक अग्रि हैं, जो समस्त देवलोकॉमें दिये गये हव्य एवं कव्यका भक्षण करते हैं। वे महान् यशस्वी और जनताके हितकारी हैं। ये प्रायश्चित्तनिमित्तक योंकि अभिमानी देवता है, इसी कारण उन यज्ञोंमें हवन किये गये हव्यको खाते हैं। अद्भुतके पुत्र वीर नामक अग्नि हैं, जो देवांशसे उद्धृत और महान् कहे जाते हैं। उनके पुत्र विविधानि हैं और विविधानिके पुत्र महाकवि हैं। विविधानिके दूसरे पुत्र अर्कसे आठ अग्नि-पुत्रोंकी उत्पत्ति बतलायी जाती है॥ 24-37॥
कामना पूर्तिके निमित्त किये जानेवाले यज्ञोंके जो अभिमानी देवता है, उनका नाम रक्षोहा अग्नि है। उनका दूसरा नाम यतिकृत भी है। इनके अतिरिक्त सुरभि, वसुरत्न, नाद, हर्यश्व, रुक्मवान्, प्रवर्ग्य और क्षेमवान्ये आठ अग्नि कहे गये हैं। ये सभी शुचि नामक अग्रिकी संतान हैं। इन सबकी संख्या चौदह है। इस प्रकार मैंने उन सभी अग्रियोंका वर्णन कर दिया, जिनका यज्ञ कार्यमें प्रयोग किया जाता है। प्रलयकालमें ये सभी अग्निपुत्र याम नामक श्रेष्ठ देवताओंके साथ स्वायम्भुव मन्वन्तरमें सभी चेतन एवं अचेतन विहरणीय पदार्थोंके अभिमानी देवता थे इस पूर्व मन्वन्तरके समाप्त हो जानेपर पुनः प्रथम मन्वन्तरमें ये सभी अग्रिगण शुक्र एवं याम नामक देवगणोंके साथ स्थानाभिमानी देवता बनकर अग्नीध्र नामक अनिके साथ हव्य-वहनका कार्य करते थे और काम्य एवं नैमित्तिक आदि जो यज्ञ किये जाते थे, उन कर्मोंमें अवस्थित रहते थे। इस प्रकार मैंने अग्नियोंकी स्थाननाम्नी योनियाँका वर्णन कर दिया। उन्हें स्वारोचिषु मन्वन्तरसे लेकर सावर्णि मन्वन्तरतकके सातों लोकोंमें वर्तमान जानना चाहिये। ऋषियोंने वर्तमान एवं भविष्यमें आनेवाली सभी मन्वन्तरोंमें इसी प्रकार अग्रियोंके लक्षणका वर्णन किया है। ये सभी अग्रि समस्त मन्वन्तरोंमें नाना प्रकारके रूप और प्रयोजनसे समन्वित हो वर्तमानकालीन याम नामक देवताओंकि साथ वर्तमान थे और इस समय भी हैं तथा भविष्यमें भी उत्पन्न होकर इन नये उत्पन्न होनेवाले देवग साथ निवास करेंगे। इस प्रकार में अधिक-समूह क्रमशः विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर चुका। अब आपलोग और क्या सुनना चाहते हैं? ll 38-47॥