ईश्वरने कहा - पितामह! अब भविष्य में घटित होनेवाले एक अन्य व्रतके वृत्तान्तको सुनो, जो सुन्दरता और सम्पत्ति प्रदान करनेवाला है। उसी द्वापरयुगके अन्तमें युधिष्ठिर आदिके साथ महर्षि पिप्पलादका संवाद होगा। उस समय तपस्वी महामुनि पिप्पलादके नैमिषारण्य में निवास करते समय धर्मपुत्र धर्मात्मा युधिष्ठिर उनके निकट जाकर एक प्रश्न करेंगे ॥ 1-2 ll
युधिष्ठिर पूछेंगे- नीरोगता, ऐश्वर्य, धर्ममें बुद्धि तथा गति, अव्यङ्गता (शरीरके सभी अङ्गौकी पूर्णता) तथा शिव एवं विष्णुमें अनुपम भक्ति कैसे प्राप्त हो सकती है ? ॥ 3 ॥
ईश्वरने कहा— ब्रह्मन् ! (इस विषय में) उन बुद्धिमान् पिप्पलादका वह उत्तर सुनो, जो वे धर्मपुत्र धर्मात्मा युधिष्ठिरसे कहेंगे ॥ 4 ॥
पिप्पलाद कहेंगे-भद्र! आपने बड़ी उत्तम बात पूछी है, अब मैं आपको इस अङ्गारक- व्रतको बतला रहा हूँ। यों कहकर वे मुनि राजा युधिष्ठिरसे इस व्रतका (इस प्रकार ) वर्णन करेंगे। महाराज युधिष्ठिर ! इस विषयमें एक पुरातन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है, जो विरोचन और बुद्धिमान् शुक्राचार्य संवाद (रूप) में है। एक बार प्रह्लादके पोडशवर्षीय पुत्र विरोचनको देखकर, जो अनुपम सौन्दर्यशाली और कान्तिमान् था, भृगुनन्दन शुक्राचार्य हँस पड़े और उससे बोले-'महाबाहु विरोचन। तुम धन्य हो, तुम्हारा कल्याण हो उन्हें उस प्रकार देखकर विरोचननेउनसे पूछा- 'ब्रह्मन् ! आपने किस प्रयोजनसे यह आकस्मिक हास्य किया है और मुझे 'साधु-साधु' (तुम धन्य हो) ऐसा कहा है? इसका कारण मुझे बतलाइये।' इस प्रकार | पूछने पर विरोचनसे वक्ताओंमें श्रेष्ठ शुक्राचार्यने कहा 'व्रतके माहात्म्यसे आश्चर्यचकित होकर मैंने यह हास्य किया है। (उस प्रसङ्गको सुनो) पूर्वकालमें दक्ष यज्ञका विनाश करनेके लिये जब भयंकर मुखवाले त्रिशूलधारी भगवान् शंकर कुपित हो उठे, तब उनके ललाटसे पसीनेकी एक बूँद टपक पड़ी। यह स्वेदविन्दु अनेकों मुखों, नेत्रों और दस सहस्र हाथ-पैरोंसे युक्त एक पुरुषाकारमें परिणत हो गया। वह प्रज्वलित अग्रिके समान भयंकर पुरुष वीरभद्रके नामसे विख्यात हुआ। उसने सातों पातालोंका भेदन कर सातों सागरोंको भस्म कर दिया। पुनः दक्ष यज्ञका विध्वंस कर वह भूतलपर आ धमका और त्रिलोकीको जला डालनेके लिये उद्यत हुआ। यह देखकर शिवजीने उसे रोक दिया ।। 5- 13 ॥
फिर उन्होंने उसे मना करते हुए कहा- 'वीरभद्र ! तुमने दक्ष यज्ञका विनाश तो कर ही दिया, अब तुम अपने इस लोक दहनरूप क्रूर कर्मको बंद कर दो। मेरे वरदानसे तुम सभी ग्रहोंके लिये शान्ति प्रदायक बनो और सर्वप्रथम स्थान ग्रहण करो। लोग तुम्हारा दर्शन और पूजन करेंगे। पृथ्वीनन्दन! तुम अङ्गारक नामसे ख्याति प्राप्त करोगे और देवलोकमें तुम्हारा अनुपम रूप होगा। जो मनुष्य तुम्हारा जन्मदिन चतुर्थी तिथि आनेपर तुम्हारी पूजा करेंगे उन्हें अनन्त सौन्दर्य, नीरोगता और ऐश्वर्यकी प्राप्ति होगी।' शिवजीद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर इच्छानुसार रूप धारण करनेवाला वीरभद्र तुरंत शान्त हो गया। राजन्! पुनः उसी क्षण (पृथ्वीसे) उत्पन्न होकर उसने ग्रहका स्थान प्राप्त कर लिया। असुरकुलोद्वह! किसी समय शूद्रद्वारा व्यवस्थितरूपसे की जाती हुई उसकी अर्घ्य आदिसे सम्पन्न श्रेष्ठ पूजाको तुमने देख लिया था, इसी कारण तुम सुन्दररूपसे युक्त होकर पैदा हुए हो और तुम्हारी रुचि प्रतिभा विभिन्न प्रकारके ज्ञानोंवाली और दूरगामिनी है। इसी कारण देवता और दानव तुम्हें विरोचन नामसे पुकारते हैं। शूद्रद्वारा किये जाते | हुए व्रतके दर्शनसे प्राप्त हुई तुम्हारी इस प्रकारकी रूपसम्पत्तिको देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। इसी कारण मैंने 'साधु-साधु' (तुम धन्य हो) ऐसा कहा है। अहो ! यह कैसा उत्तम माहात्म्य हैं कि जब देखनेवालेको भी ऐसी सुन्दरता और ऐश्वर्यकी प्राप्ति हो जाती है, तब करनेवालेकी तो बात हो क्या है दितिवंशज तुमने पृथ्वीपुत्र वीरभद्रके व्रतमें भक्तिपूर्वक दिये जाते हुए गो दान आदि दानोंको अवहेलनापूर्वक देखा था, इसीलिये तुम्हारी उत्पत्ति राक्षस योनिमें हुई है ।। 14-23 ll
ईश्वरने कहा- ब्रह्मन् महात्मा शुक्राचार्यके उस वचनको सुनकर प्रह्लाद नन्दन विरोचनने विस्मय विमुग्ध हो पुनः प्रश्न किया ll 24 ll
विरोचनने पूछा भगवन्! जन्मान्तरमें मैंने जिसके दिये जाते हुए दानको देखा था, उस व्रतको भलीभांति अनुपूर्वी सुनना चाहता हूँ। आप मुझे उसके विधान और माहात्म्यको यथार्थ रूपसे बतलाइये। इस प्रकार विरोचनकी बात सुनकर शुक्राचार्यने विस्तारपूर्वक कहना प्रारम्भ किया ।। 25-26 ll
शुक्र बोले- दानव। जब मंगलवारको चतुर्थी तिथि पड़ जाय तो उस दिन शरीरमें मिट्टी लगाकर स्नान करे और पद्मरागमणिकी अंगूठी आदि धारण करके उत्तराभिमुख बैठकर 'अग्निर्मूर्धा दिवः ककुत्-' इस मन्त्रका जप करता रहे। यदि व्रती शूद्र हो तो उसे भोगसे दूर रहकर चुपचाप मंगलका स्मरण करते हुए दिन बिताना चाहिये फिर सूर्यास्त हो जानेपर आँगनको गोबरसे लीपकर सर्वाङ्गसुन्दर पुष्पमाला आदिसे चारों और पूजा कर दे। आँगनके मध्य में कुङ्कुमसे अष्टदल कमलकी रचना करे। कुङ्कुमका अभाव हो तो लाल चन्दनसे काम चलाना चाहिये। फिर आँगनके चारों कोनोंमें चार करवा स्थापित करे, जिन्हें लाल अगहनीके चावलसे भरकर उनके ऊपर पद्मरागमणि रख दे। वे भक्ष्यभोज्य पदार्थोंसे भी संयुक्त रहें। उनके निकट नाना प्रकारके ऋतुफल, चन्दन, पुष्पमाला आदि सभी पूजन सामग्री भी प्रस्तुत कर दे। तत्पश्चात् बछड़ेसहित एक कपिला गौका पूजन करे, जिसके सींग सोनेसे और खुर चाँदीसे मढ़े गये हों तथा उसके निकट काँसेकी दोहनी रखी हो। इसी प्रकार लाल खुरोंसे युक्त सौम्य स्वभाववाले हृष्ट-पुष्ट एक वृषभकी भी पूजा करे और उसके निकटसात वस्त्रोंसे युक्त धान्यराशि भी प्रस्तुत कर दे। फिर अँगूठे के बराबर लम्बाई-चौड़ाईवाली एक पुरुषाकार मूर्ति बनवाये, जो चार बड़ी भुजाओंसे संयुक्त हो। उसे गुड़के ऊपर रखे हुए स्वर्णमय पात्रमें स्थापित कर दे और उसके निकट घी भी प्रस्तुत कर दे। तत्पश्चात् मूर्तिसहित ये सारी वस्तुएँ ऐसे सुपात्र ब्राह्मणको दान करनी चाहिये, जो सामवेदके स्वर एवं अर्थका ज्ञाता, जितेन्द्रिय, सुशील, कुलीन और विशाल कुटुम्बवाला हो। दाम्भिकको कभी दान नहीं देना चाहिये। उस समय भक्तिपूर्वक हाथ जोड़कर वक्ष्यमाण मन्त्रका उच्चारण करते हुए ऐसे द्विजवरको सारा सामान समर्पित कर दे। (उस मन्त्रका भाव इस प्रकार है-) 'महातेजस्वी भूमिपुत्र! आप पिनाकधारी भगवान् शिवके स्वेदविन्दुसे उद्धत हुए हैं। मैं सौन्दर्यका अभिलाषी होकर आपकी उद्भूत शरणमें आया हूँ। आपको मेरा नमस्कार है। आप मेरे द्वारा दिया हुआ अर्घ्य ग्रहण कीजिये।' इस मन्त्रके उच्चारणपूर्वक लाल चन्दनमिश्रित जलसे अर्ध्य देनेके पश्चात् लाल पुष्पोंकी माला और लाल रंगके वस्त्र आदि उपकरणोंसे उन द्विजवरकी अर्चना करे और इसी मन्त्रको पढ़कर गौ एवं वृषभसहित मंगलकी स्वर्णमयी मूर्तिको उन्हें दान कर दे। उस समय अपनी शक्तिके अनुसार समस्त उपकरणोंसे युक्त शय्याका भी दान करना चाहिये। साथ ही दाताको लोकमें जो-जो वस्तुएँ अधिक इष्ट हों तथा अपने घरमें भी जो अधिक प्रिय हों, उन सबको अक्षयरूपमें प्राप्त करनेकी अभिलाषासे 1-को गुणवान् (ब्राह्मण) को देना चाहिये। तदनन्तर उन द्विजश्रेष्ठकी प्रदक्षिणा करके उन्हें विदा कर दे तथा स्वयं रातमें एक बार क्षारनमकरहित एवं घृतयुक्त अन्नका भोजन करे। इस प्रकार जो मनुष्य भक्तिपूर्वक पुनः इस अङ्गारक- व्रतका आठ अथवा चार बार अनुष्ठान करता है, उसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वह मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। वह मनुष्य प्रत्येक जन्ममें सुन्दरता और सौभाग्यसे सम्पन्न होकर विष्णु अथवा शिवको भक्तिमें लीन होता है और सातों द्वीपोंका अधीश्वर हो जाता है तथा सात हजार कल्पोंतक स्ट्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है। इसलिये दैत्येन्द्र तुम भी इस व्रतका अनुष्ठान करो ।। 27-43 ।। पिप्पलादने कहा- राजन् ! इस प्रकार व्रतका विधान बतलाकर शुक्राचार्य चले गये। तत्पश्चात् दैत्य विरोचनने पूरी विधिके साथ उस व्रतका अनुष्ठान किया।इसलिये आप भी इन सारे विधानोंके साथ इस व्रतका अनुष्ठान कीजिये; क्योंकि वेदवेत्तालोग इसका फल | अक्षय बतलाते हैं ॥ 44 ॥
ईश्वरने कहा – ब्रह्मन् ! तब अद्भुत पराक्रमपूर्ण | कर्मोंको करनेवाले युधिष्ठिरने 'तथेति—ऐसा ही करूँगा' कहकर महर्षि पिप्पलादकी विधिवत् पूजा की और उनके वचनोंका पालन किया। जो मनुष्य अनन्यचित्तसे इस व्रत विधानका श्रवण करता है, भगवान् उसकी सिद्धिका भी विधान करते हैं ॥ 45 ॥