मनुने पूछा- जनार्दनदेव! जो इस लोकमें सौभाग्य और नीरोगतारूप फल देनेवाला तथा भोग और मोक्षका प्रदाता एवं शत्रुनाशक हो, वह व्रत मुझे बतलाइये ॥ 1 ॥ | मत्स्यभगवान् ने कहा- राजन्। पूर्वकालमें कैलास पर्वतके शिखर पर बैठे हुए त्रिपुरविनाशक महादेवजीने सुन्दर धार्मिक कथाओंके प्रसङ्गमें उमादेवीद्वारा पूछे जानेपर उनसे जिस व्रतका वर्णन किया था, वही इस समय मैं बतला रहा हूँ, यह भोग और मोक्षरूप फल देनेवाला है । ll 2-3 ॥
ईश्वरने कहा- देवि! मैं पुरुषों तथा स्त्रियोंके लिये एक सर्वश्रेष्ठ व्रत बतला रहा हूँ, जो अनन्त पुण्यदायक है। तुम सावधानीपूर्वक उसे सुनो। इस व्रतका व्रती भाद्रपद, वैशाख, पौष अथवा मार्गशीर्ष मासके शुक्लपक्ष में तृतीया तिथिको पीली सरसोंसे युक्त जलसे भलीभाँति स्नान करे। फिर गोरोचन, गोमूत्र, मुश्ता, गोबर, दही और चन्दनको मिलाकर ललाटमें तिलक लगावे; क्योंकि यह तिलक सौभाग्य और आरोग्यका प्रदायक तथा ललितादेवीको परम प्रिय है। प्रत्येक शुक्लपक्षको तृतीया तिथिको पुरुषको पीला वस्त्र, यदि सधवा स्त्री व्रतनिष्ठ होती है तो उसे लाल वस्त्र, विधवाको गेरू आदि धातुओंसे रंगा हुआ वस्त्र और कुमारी कन्याको श्वेत वस्त्र धारण करना चाहिये। उस समय देवीकी मूर्तिको पञ्चगव्यसे स्नान करानेके पश्चात् केवल दूधसे नहलाना चाहिये। उसी प्रकार मधु और पुष्प-चन्दनमिश्रित जलसे भी खान करावे। फिर श्वेत पुष्प, अनेक प्रकारके फल, धनिया, श्वेत जीरा, नमक, गुड़, दूध और घृतसे देवीकी पूजा करे। श्वेत अक्षत और तिलसे तो ललितादेवीकी सदा पूजा करनी चाहिये। प्रत्येक शुक्लपक्षमें तृतीया तिथिको देवीकी मूर्तिके चरणसे लेकर मस्तकपर्यन्त संक्षेपसे पूजनका विधान है।'वरदायै नमः' से दोनों चरणोंका, 'श्रियै नमः' से दोनों गुल्फोंका, 'अशोकायै नमः' से दोनों जाँघोंका, 'पार्वत्यै नमः' से दोनों जानुओंका 'मङ्गलकारिण्यै नमः' से दोनों करुओंका, 'वामदेव्यै नमः' से कटिप्रदेशका 'पद्मोदरायै नमः' से उदरका तथा 'कामश्रियै नमः' से वक्षःस्थलका अर्चन करे; फिर "सौभाग्यदायिन्यै नमः' से दोनों हाथोंका, 'श्रियै नमः' से बाहु, उदर और मुखका, 'दर्पणवासिन्यै नमः' से दाँतोंका, 'स्मरदायै नमः' से मुसकानका गौ नमः' से नासिकाका, 'उत्पलायै नमः ' से नेत्रोंका, 'तु नमः' से ललाटका, 'कात्यायन्यै नमः' से सिर और बालोंका पूजन करना चाहिये। तदुपरान्त 'गौयँ नमः', 'धिष्ण्यै नमः', 'कान्त्यै नमः', 'श्रियै नमः', 'रम्भायै नमः', 'ललितायै नमः' और 'वासुदेव्यै नमः' कहकर देवीके चरणोंमें प्रणिपात करना चाहिये। ll 4-15 ll
इस प्रकार विधिपूर्वक पूजा करके मूर्तिके आगे कुङ्कुमसे बारह पत्तोंसे युक्त कर्णिकासहित कमल बनाये। उसके पूर्वभागमें गौरी, उसके बाद अपर्णा, दक्षिणभागमें भवानी और नैर्ऋत्य कोणमें स्ट्राणीको स्थापित करे। पुनः पश्चिममें सदा सौम्य स्वभावसे रहनेवाली मदनवासिनी, वायव्यकोणमें पाटला और उत्तरमें पुष्पमें निवास करनेवाली उमाको स्थापना करे मध्यभागमें लक्ष्मी, स्वाहा स्वधा, तुष्टि, मङ्गला, कुमुदा और सतीको स्थित करे। कमलके मध्यमें रुकी स्थापना करके कर्णिकाके ऊपर ललितादेवीको स्थित करे। तत्पश्चात् गीत और माङ्गलिक बाजाका आयोजन कराकर पुष्प, चेत अक्षत और जलसे देवीकी अर्चना करके उन्हें नमस्कार करे। फिर लाल वस्त्र, लाल पुष्पोंकी माला और लाल अङ्गरागसे सुहागिनी स्त्रियोंका पूजन करे तथा उनके सिर (माँग) में सिन्दूर और कुङ्कुम लगावे क्योंकि सिन्दूर और कुङ्कुम सती देवोको सदा अभीष्ट हैं। तदनन्तर उपदेश करनेवाले गुरु अर्थात् आचार्यकी यत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये; क्योंकि जहाँ आचार्यकी पूजा नहीं होती, वहाँ सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं। गौरीदेवीकी पूजा सदा भाद्रपदमासमें नीले कमलसे, आश्विनमें बन्धुजीव (गुलदुपहरिया) - के फूलोंसे, कार्तिकमें शतपत्रक (कमल) के पुष्पोंसे,मार्गशीर्षमें जातो (मालती) के पुष्पोंसे पौषमें पीले कुरण्टक (कटसरैया) के पुष्पोंसे, माघ कुन्द और कुमके पुष्पोंसे करनी चाहिये। इसी प्रकार फाल्गुनमें सिन्दुवार अथवा मालतीके पुण्से उमाकी अर्चना करे चैत्रमें मल्लिका और अशोकके पुष्पोंसे, वैशाखमें गन्धपाटलके फूलोंसे, ज्येष्ठमें कमल और मन्दारके कुसुमसे, आषाढ़में चम्पा एवं कमल पुष्पोंसे और श्रावणमें कदम्ब तथा मालतीके फूलोंसे पार्वतीको पूजा करनी चाहिये। इसी तरह भाद्रपदसे आरम्भ कर आश्विन आदि बारह महीनोंमें क्रमशः गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी, कुशोदक, बिल्व पत्र, मदारका पुष्प, गोशृङ्गोदक, पञ्चगव्य और बेलका नैवेद्य अर्पण करनेका विधान है। क्रमशः भाद्रपदसे लेकर श्रावणतक प्रत्येक मासके लिये ये नैवेद्य बतलाये गये हैं ।। 16-26 ।।
वरानने! प्रत्येक शुक्लपक्षकी तृतीया तिथिको एक ब्राह्मण-दम्पतिको उनमें शिव-पार्वतीको कल्पना कर भोजन कराकर उनकी वस्त्र, पुष्पमाला और चन्दनसे भक्तिपूर्वक अर्चना करे तथा पुरुषको दो पीताम्बर और | स्त्रीको दो पीली साड़ियाँ प्रदान करे। फिर ब्राह्मणी-स्त्रीको निष्पाव (बड़ी मटर या सेम), जीरा, नमक, ईख, गुड़, | फल और फूल आदि सौभाग्याष्टक देकर और पुरुषको सुवर्णनिर्मित कमल देकर यो प्रार्थना करे—'देवि! जिस प्रकार देवाधिदेव भगवान् महादेव आपको छोड़कर नहीं जाते, उसी प्रकार मेरे भी पतिदेव मुझे छोड़कर अन्यत्र न जायें।' पुनः कुमुदा, विमला, अनन्ता, भवानी, सुधा, शिवा, ललिता, कमला, गौरी, सती, रम्भा और पार्वतीदेवीके इन नामोंका उच्चारण करके प्रार्थना करे कि आप क्रमशः भाद्रपद आदि मासोंमें प्रसन्न हों। व्रतकी समाप्तिमें सुवर्ण निर्मित कमलसहित शय्या दान करे और चौबीस अथवा बारह द्विज-दम्पतियोंकी पूजा करे। पुनः प्रतिमास आठ या छ दम्पतियोंका पूजन करते रहने का विधान है। विद्वान् व्रती सर्वप्रथम गुरुको दान देकर तत्पक्षात् दूसरे ब्राह्मणोंकी अर्चना करे। देवि! इस प्रकार मैंने इस अनन्त तृतीयाका वर्णन कर दिया, जो सदा अनन्त फलकी प्रदायिका है॥ 27-34 ॥
देवि! यह अनन्ततृतीया समस्त पापोंकी विनाशिका तथा सौभाग्य और नीरोगताको वृद्धि करनेवाली है, इसका कृपणता वश कभी भी उल्लङ्घन नहीं करना चाहिये क्योंकि चाहे पुरुष हो या स्वी- कोई भी कृपणताके वशीभूत होकर यदि इसका उल्लङ्घन करता है तो उसका अधःपतन हो जाता है।गर्भिणी एवं सूतिका (सौरीमें पड़ी हुई) स्त्री नक्तव्रत (रातमें भोजन) करे। कुमारी और रोगिणी अथवा अशुद्ध स्त्री स्वयं नियमपूर्वक रहकर दूसरेके द्वारा व्रतका अनुष्ठान कराये। जो मानव अनन्त फल प्रदान करनेवाली इस तृतीयाके व्रतका अनुष्ठान करता है, वह सौ करोड़ कल्पोंसे भी अधिक समयतक शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है। निर्धन पुरुष भी यदि तीन वर्षोंतक उपवास करके पुष्प और मन्त्र आदिके द्वारा इस व्रतका अनुष्ठान करता है तो उसे भी उस फलकी प्राप्ति होती है। सधवा स्त्री, कुमारी अथवा विधवा- जो कोई भी इस व्रतका पालन करती है, वह भी गौरीकी कृपासे लालित होकर उस फलको प्राप्त कर लेती है। इस प्रकार जो मनुष्य गिरीश नन्दिनी पार्वतीके इस व्रतको पढ़ता अथवा सुनता है, वह इन्द्रलोकमें वास करता है तथा जो इसका अनुष्ठान करनेके लिये सम्मति देता है, वह भी देवताओं, देवाङ्गनाओं और किन्नरोंद्वारा पूजनीय हो जाता है ll 35-40 ॥