मार्कण्डेयजीने कहा- राजेन्द्र ! मैंने ब्रह्माके मुखसे प्रादुर्भूत हुए पुराणोंमें ब्रह्माद्वारा कहे जाते हुए सुना है कि तीथौको संख्या कहीं सौ. कहीं हजार और कहीं लात बतलायी गयी है। ये सभी पुण्यप्रद एवं परम पवित्र हैं। (इनमें खान करनेसे) परम गतिकी प्राप्ति बतलायी गयी है। इन्हीं तीथोंमें सोमतीर्थ महान् पुण्यप्रद एवं महापातकोंका विनाशक है। वहाँ केवल स्नान करनेसे वह स्नानकर्ताक सौ पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है, अतः सभी उपायोंद्वारा वहाँ स्नान अवश्य करना चाहिये ॥ 1-2 ॥
युधिष्ठिरने पूछा- महामुने! भूतलपर नैमिषारण्य और अन्तरिक्षमें पुष्कर पुण्यप्रद माने गये हैं तथा तीनों लोकोंमें कुरुक्षेत्रको विशेषता बतलायी जाती है, परंतु आप इन सबको छोड़कर एक प्रयागकी ही प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? साथ ही वहाँ जानेसे परम दिव्य गति और अभीष्ट मनोरथोंकी प्राप्ति भी बतला रहे हैं, आपका यह कथन मुझे प्रमाणरहित, अश्रद्धेय और अनुचित प्रतीत हो रहा है। आप थोड़े-से परिश्रमसे बहुत बड़े धर्मको प्राप्तिकी प्रशंसा किसलिये कर रहे हैं? अतः इस विषय में आपने जैसा देखा अथवा सुना हो, उसके अनुसार कहकर मेरे इस संशयको दूर कीजिये ॥ 3-5 ll
मार्कण्डेयजीने कहा- राजन्। जो श्रद्धाहीन है तथा जिसके चित्तपर पापने अपना स्वत्व जमा लिया है, ऐसे मनुष्यकी आँखोंके सामने जो बात घटित हो रहीहै, उसे 'अश्रद्धेय' तो नहीं कहना चाहिये। अश्रद्धालु, अपवित्र, दुर्बुद्धि और माङ्गलिक कार्योंसे विमुख ये सभी पापी कहलाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मानों तुम्हारे सिरपर भी कोई पाप सवार है) जिसके कारण तुमने ऐसी बात कही है। अब प्रयागका माहात्म्य जैसा मैंने देखा अथवा सुना है, उसे बतला रहा हूँ, सुनो। जगत्में जो बात प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूपमें देखी अथवा सुनी गयी हो, उसे शास्त्रोंद्वारा प्रमाणित कर अपने कल्याण कार्यमें लगाना चाहिये। जो ऐसा नहीं करता, वह कष्टभागी होता है और उसे योगकी प्राप्ति नहीं होती। यह योग हजारों युगों या जन्मोंमें किन्हीं मनुष्योंको सुलभ होता या नहीं भी होता है। जो मनुष्य सभी प्रकारके रत ब्राह्मणोंको दान करता है, परंतु उस दानके प्रभावसे भी उसे उस योगकी प्राप्ति नहीं होती। किंतु प्रयागमें मरनेवालेको वह सब कुछ सुलभ हो जाता है, उसमें कुछ भी विपरीतता नहीं होती। भारत मैं इसका प्रधान कारण बतला रहा हूँ, उसे श्रद्धापूर्वक सुनो ॥6- 12 ॥
जैसे ब्रह्म सभी प्राणियोंमें सर्वत्र विद्यमान रहता है, और ब्राह्मणमें उसका कुछ विशेष अंश रहता है, जिसके कारण वह सब ब्राह्म कहे जाते हैं। जिस प्रकार सभी प्राणियों में सर्वत्र ब्रह्मकी सत्ता मानकर उनकी पूजा होती है (परंतु ब्राह्मण विशेषरूपसे पूजित होता है, उसी प्रकार विद्वान् लोग सभी तीर्थोंमें प्रयागको विशेष मान्यता देते हैं। युधिष्ठिर! सचमुच तीर्थराज पूजनीय है। ब्रह्मा भी इस उत्तम प्रयागतीर्थका नित्य स्मरण करते हैं। ऐसे तीर्थराजको | पाकर मनुष्यको किसी अन्य वस्तुको प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं रह जाती। भला कौन ऐसा मनुष्य होगा जो देवत्वको पाकर मनुष्य बननेकी इच्छा करेगा। युधिष्ठिर। इसी उपमानसे तुम समझ जाओगे (कि प्रयागका इतना महत्त्व क्यों है)। जिस प्रकार प्रयाग सभी तीर्थों में विशेष पुण्यप्रद है, वैसा मैंने तुम्हें बतला दिया ॥ 13-17 ॥
बुधिष्ठिरने पूछा- महर्षे मैंने आपके द्वारा कहा गया प्रयाग माहात्म्य तो सुना, किंतु इस योगरूप कर्मसे वैसे महान् फलकी प्राप्ति कैसे होती है तथा स्वर्गमें निवास कैसे मिलता है, इस विषयको सोचकर मैं बारंबार विस्मयविमुग्ध हो रहा हूँ;अतः जिन कर्मोंके फलस्वरूप दाताको ऐहलौकिक भोग और पृथ्वीकी प्राप्ति होती है तथा जन्मान्तरमें जिन कर्मोंके प्रभावसे पुनः पृथ्वीपर अधिकार प्राप्त होता है, उन्हीं कर्मोंको मैं जानना चाहता हूँ, अतः उन्हें बतलानेकी कृपा करें। ।। 18-19 ॥
मार्कण्डेयजीने कहा – महाबाहु राजन्! मैंने जैसा करनेके लिये कहा है, उस विषयमें पुनः सुनो। जो नीच मनुष्य पृथ्वी, अग्नि, ब्राह्मण, शास्त्र, काचन, जल, स्त्री, माता और पिताकी निन्दा करते हैं, उनकी ऊर्ध्वगति नहीं होती—ऐसा प्रजापति ब्रह्माने कहा है। अतः इस प्रकारके कर्मोंद्वारा योगकी प्राप्तिका स्थान परम दुर्लभ है; क्योंकि जो मनुष्य पापकर्ममें निरत रहते हैं, वे बोर नरकमें जाते हैं। जो मनुष्य परोक्षमें दूसरेकी हाथी, घोड़ा, गौ, बैल, मणि, मुक्ता और सुवर्ण आदि वस्तुओंको चुरा लेता है और पीछे उसे दान कर देता है, ऐसे लोग उस स्वर्गलोकमें नहीं जाते, जहाँ (अपनी वस्तु दान करनेवाले) दाता सुख भोगते हैं, अपितु वे अनेकों पाप कर्मोंसे युक्त होकर पुन: नरकमें कष्ट भोगते हैं। युधिष्ठिर! इस प्रकार योग, धर्म, दाता, सत्य, असत्य, अस्ति, नास्तिका जो फल कहा गया है तथा स्वयं सूर्यने जैसा बतलाया है, वही मैं तुमसे वर्णन कर रहा हूँ ॥ 20 - 25 ॥