ऋषियोंने पूछा- सूतजी भगवान् नारायणके माहात्म्यको क्रमशः सुनकर हमलोगोंकी तृप्ति नहीं हो रही है, अतः उसे पुनः बतलाइये। प्राचीनकालमें चतुर देवतालोग तपस्या या कर्मसे अथवा किस देवताको कृपासे किस प्रकार अमरत्वको प्राप्त हुए थे ? ॥ 1-2 ॥ सूतजी कहते हैं – ऋषियो! जहाँ भगवान् विष्णु और शूलधारी शंकरजी वर्तमान हैं, वहाँ वे ही दोनों सभी देवताओंकी अमरत्व प्राप्तिमें सहायक माने गये है प्राचीनकालमें देवासुर संग्राममें देवताओं द्वारा मारे गये सैकड़ों राक्षसोंको भृगुनन्दन शुक्राचार्य संजीवनी विद्याका प्रयोग करके जीवित कर देते थे। तब वे दैत्येन्द्र फिर सोकर उठे हुएकी तरह उठकर लड़ने लगते थे। परम कान्तिमती मृत संजीवनी विद्या | शुक्राचार्यको उनपर प्रसन्न हुए भगवान् शंकरने दी थी।| महेश्वरके मुखसे निकली हुई माहेश्वरी विद्याको शुक्राचार्यमें संस्थित देखकर दानवगण अतिशय प्रमुदित थे। इस विद्या प्रभाव से बुद्धिमान् शुक्राचार्यने राक्षसोंको अमर कर दिया था। जो विद्या न तो सम्पूर्ण लोकों, देवों, यक्षों और राक्षसोंमें थी न नागों और ऋषियोंमें तथा न ब्रह्मा इन्द्र और विष्णुमें थी, उसे शंकरजीसे प्राप्तकर शुक्र परम संतुष्ट थे। इसके बाद देवताओं और राक्षसोंमें महान् भीषण युद्ध छिड़ गया। उसमें देवताओंद्वारा मारे गये दैत्येन्द्रोंको परम निपुण आचार्य शुक्र अपनी विद्याके बलसे देखते-ही-देखते तुरंत जीवित कर देते थे। इस प्रकार सैकड़ों-हजारों देवताओंको मारा जाता हुआ देखकर इन्द्र, उदारहृदय बृहस्पति तथा सभी देवताओंके मुख सूख गये और उनकी इन्द्रियों विकल हो गयीं। इस | प्रकार उनके चिन्तित होनेपर कमलोद्भव जगत्पति भगवान् ब्रह्माने सुमेरु पर्वतपर अवस्थित देवताओंसे इस प्रकार कहा॥3- 12 ॥
ब्रह्माजी बोले- देवगण! आपलोग मेरी बात सुनिये और उसके अनुसार काम कीजिये। इस कार्यमें आप | लोग दानवोंके साथ मित्रता कर लें और अमृत-प्राप्तिके लिये उपाय करें। इसके लिये चक्रपाणि भगवान् विष्णुको उद्बोधित कीजिये और वरुणको सहायक तथा शेषनागरूपी रस्सीसे परिवेष्टित मन्दराचलको मथानी बनाकर क्षीरसमुद्रका मन्थन कीजिये। थोड़े समयके लिये दानवेन्द्र बलिको अध्यक्षरूपमें नियुक्त कर दीजिये। पातालमें स्थित कूर्मरूप अव्यय भगवान् विष्णुकी और मन्दराचलकी प्रार्थना कीजिये। तत्पश्चात् समुद्र मन्थनका कार्य प्रारम्भ कीजिये। उस कथनको सुनकर देवगण दानवराजके महलमें पहुंचे और कहने लगे 'बले अब विरोध बंद कीजिये, हमलोग तो आपके भृत्य हैं। आप अमृत-प्राप्तिके लिये उद्योग करें और शेषनागको रस्सीके रूपमें वरण करें। दैत्य ! अमृतमन्धनरूप कार्यमें आपके द्वारा अमृतके उत्पन्न हो जानेपर आपकी कृपासे हम सभी लोग निःसंदेह अमर हो जायेंगे।' देवताओंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर दानवराज बलि उस समय प्रसन्न हो गया और कहने लगा 'देवगण जैसा आपलोग कह रहे हैं, मुझे इस समय |वैसा ही करना चाहिये। मैं तो अकेला ही क्षीरसागरकामन्थन करनेमें समर्थ हूँ। इस समय मैं आपलोगोंकी अमरताके निमित्त दिव्य अमृत ले आऊँगा। जो सुदूरसे आश्रयके लिये आये हुए शरणागत वैरियोंको भक्तिपूर्वक सम्मानित नहीं करता, उसका यह लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। इस समय मैं आप सभी लोगोंकी स्नेहपूर्वक रक्षा करूंगा।' ऐसा कहकर दैत्येन्द्र बलि देवताओंके साथ तुरंत चल पड़ा और सहायताके लिये मन्दराचलसे प्रार्थना करते हुए बोला- 'मन्दर! चूँकि इस समय हम सभी देवताओं और असुरोंका यह महान् कार्य उपस्थित हो गया है, अतः इस अमृत-मन्थनके कार्यमें तुम मथानी बन जाओ।' मन्दराचलने कहा- 'यदि मुझे कोई आधार मिले तो मुझे स्वीकार है जिसपर स्थित होकर मैं भ्रमण करूँगा और वरुणालयको मथ डालूँगा। साथ ही मेरे भ्रमण करते समय जो समर्थ हो सके, ऐसा किसीको नेतीके कार्यके लिये चुनिये।' तदनन्तर महावली कूर्म और शेषनाग— दोनों देवता पातालसे ऊपर आये। ये दोनों भगवान् विष्णुके चतुर्थांश भाग हैं और पृथ्वीको धारण करनेके लिये नियुक्त हैं। तब शेष और कच्छप गर्वपूर्ण वचन बोले ॥ 13 – 27 ll
कूर्मने कहा- मुझे तो इस त्रिलोकीको धारण करनेपर भी थकावट नहीं होती तो भला इस कार्यमें गुटिकाके समान क्षुद्र मन्दरको धारण करनेकी क्या बात है ? ।। 28 ।।
शेषनागने कहा- जब समस्त ब्रह्माण्डका वेष्टन बनने तथा उसका मन्थन करनेसे मेरे शरीरमें शिथिलता नहीं आती तो मन्दरके घुमानेसे कौन-सा कष्ट होगा ? ऐसा कहकर नागने लीलापूर्वक उसी क्षण उस मन्दराचलको उखाड़कर क्षीरसागरमें डाल दिया। उस समय कूर्म उसके नीचे स्थित हुए। किंतु क्षीरसमुद्रका मन्थन आरम्भ होनेपर जब देवता और दानव उस आधारशून्य मन्दराचलको घुमानेमें समर्थ न हो सके, तब वे बलिको साथ लेकर भगवान् नारायणके निवासस्थानपर गये, जहाँ देवाधिदेव भगवान् जनार्दन विराजमान थे। वहाँ उन्होंने श्वेत कमलके समान कान्तियुक्त एवं कल्याणकारी भगवान् अच्युतको देखा, जिनके शरीरपर पीताम्बर झलक रहा था, जो योगनिद्रामें निमग्न थे, जिनका शरीर हार और केयूरसे विभूषित था, जो शेषनागकी शय्यापर शयन कर रहे थे और अपने चरणकमलसे लक्ष्मीके नाभिमण्डलका स्पर्शकर रहे थे, गरुड़ अपने डैनेरूपी पंखसे जिनपर हवा कर रहे थे, चारों ओरसे सिद्ध, चारण और किन्नर जिनकी स्तुतिमें तन्मय थे, मूर्तिमान् वेद चारों ओरसे जिनकी स्तुति कर रहे थे तथा जो अपनी बायाँ भुजाको तकिया बनाये हुए थे। तब वे सभी देव-दानव सब ओरसे हाथ जोड़कर प्रणाम करके उन भगवान्की स्तुति करने लगे । ll 29-36 ॥
देवताओं और दैत्योंने कहा— त्रिलोकीनाथ! आप अपने तेजसे सूर्यको पराजित करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। विष्णुको प्रणाम है। जिष्णुको अभिवादन है। आप कैटभका वध करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। सृष्टि कर्म करनेवालेको प्रणाम है। आप जगत्के पालनकर्ता है, आपको अभिवादन है। आप रुद्ररूपसे संहार करनेवाले हैं, आप शर्वको नमस्कार है। त्रिशूलरूप आयुधसे धर्षित न होनेवाले आपको प्रणाम है। दानवोंका वध करनेवाले आपको अभिवादन है। आप तीन पगसे त्रिलोकीको आक्रान्त कर लेनेवाले और अजन्मा हैं, आपको नमस्कार है। आप प्रचण्ड दैत्येन्द्रोंके कुलके लिये कालरूप महान् अग्नि हैं, आपको प्रणाम है। महाबल! आपके नाभि-कुण्डसे पद्मकी उत्पत्ति हुई है, आपको अभिवादन है। आप पद्मको उत्पन्न करनेवाले, महाभूत, जगत्के कर्ता, हर्ता और प्रिय, सभीके जनक, सभी लोकोंके स्वामी, कार्य और कारण— दोनोंका निर्माण. करनेवाले, अमरोके शत्रुओंका विनाश करनेके लिये महान् समर करनेवाले, लक्ष्मीके मुखकमलके मधुप और यशमें निवास करनेवाले हैं, आपको नमस्कार है। आप हमलोगोंकी अमरत्व प्राप्तिके लिये सभी पर्वतोंमें विशाल मन्दराचलको जो अयुतायुत योजन विस्तृत है, अवश्य धारण कीजिये। देव! आप अपनी अनन्त बलशालिनी भुजाओं द्वारा पर्वतको रोककर एक हाथसे स्वाहा स्वधाके अभिलाषी देवताओंके उपकारार्थ अमृतका मन्थन कीजिये। तदनन्तर भगवान् मधुसूदन उस स्तुतिपूर्ण वचनको सुनकर उस योगनिद्राका परित्याग कर इस प्रकार बोले ।। 37-45 ।।
श्रीभगवान्ने कहा- देवगण! आप सब लोगोंका स्वागत है आपलोगों के यहाँ आगमनका क्या उद्देश्य है? आपलोग जिस कार्यके लिये यहाँ आये हैं। उसे निश्चिन्त होकर बतलाइये नारायणके ऐसा कहनेपर देवताओंने कहा-'देवेश! हमलोग अमरत्व प्राप्ति के लियेसमुद्रका मन्थन करना चाहते हैं। भगवान् माधव! हमें जिस उपायसे अमरत्वकी प्राप्ति हो सके, आप वैसा करें। कैटभशत्रो आपके बिना हमलोग उस अमृतको प्राप्त नहीं कर सकते, अतः सर्वव्यापी नाथ! आप हमलोगों के अग्रणी बनें।' उनके ऐसा कहनेपर शत्रुनाशक अजेय भगवान् विष्णु देवताओंके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ मन्दराचल था। उस समय यह मन्दराचल शेषनागके फणोंसे लिपटा हुआ था तथा देवता और दानवगण उसे पकड़े हुए थे। उस समय विपके भयसे डरकर देवगण तो नागकी की और और राहुको अगुआ बनाकर दैत्यगण मुखकी ओर स्थित थे। बलि शेषनागके हजार मुखवाले सिरको बायें हाथसे तथा देहको दाहिने हाथसे पकड़कर खींच रहा था। भगवान् नारायणने सुन्दर कन्दराओंसे सुशोभित अमृतके मन्थन दण्डस्वरूप मन्दराचलको अपनी दोनों भुजाओंसे पकड़ा। इस प्रकार सभी देवताओं तथा दैत्योंने मिलकर जय जयकार करते हुए सौ दिव्य वर्षोंसे भी अधिक कालतक क्षीरसागरका मन्थन करते रहे, तब दैत्योंसहित वे सभी देवता थक गये। उन लोगोंके थक जानेपर देवराज इन्द्र मेवरूप धारणकर उनके ऊपर अमृतके समान जलकणोंकी वृष्टि करने लगे और शीतल वायु बहने लगी ।। 46-553 ॥ उस समय प्रायः सभी देवताओंके शिथिल एवं शान्त हो जानेपर ब्रह्मा पुनः पुनः इस प्रकार कहने लगे 'अरे! समुद्रका मन्थन करते चलो। उद्योगी पुरुषोंको सदा अपार लक्ष्मी अवश्य प्राप्त होती है। ब्रह्माद्वारा इस प्रकार उत्साहित किये जानेपर देवासुरगण पुनः समुद्रका मन्यन करने लगे। इसके बाद दस हजार योजन विस्तृत शिखरवाले मन्दराचलके घुमाये जानेपर (उसके शिखरोंपरसे) हाथियोंक समूह, शूकर, अष्टापद शरभ करोड़ों हिंसक पशु आदि तथा पुष्पों और फलोंसे लदे हुए वृक्ष समुद्रमें गिरने लगे। उन गिरे हुए फलोंके सारभाग तथा पुष्पों और ओषधियोंके | रससे क्षीरसागरका जल दहीके रूपमें परिवर्तित हो गया। तदनन्तर उन सभी जीवोंके हजारों प्रकारसे चूर्ण हो जानेपर उनकी मज्जा और जलके संयोगसे वारुणी उत्पन्न हुई। उस वारुणीकी गन्धको सँघकर देवता और दानव परम प्रसन्न हुए और उसके आस्वादनसे वे बलवान् हो गये।तब असुरोंने अत्यन्त वेगपूर्वक मथानी और शेषनागको चारों ओरसे पुन: पकड़ा। उस समय सुमेरु पर्वत मधानीका डंडा बना। भगवान् विष्णुने अग्रसर होकर अपनी भुजासे मन्दराचलको बाँध लिया। उस समय वासुकिके फणोंपर रखा हुआ उनका साँवला हाथ ऐसा शोभायमान हो रहा था मानो नीले कमलोंसे युक्त अत्यन्त विशाल ब्रह्मदण्ड हो। तत्पश्चात् समुद्रसे हजारों मेचकी सी गर्जना उद्भूत हुई । ll 56-65 ॥
शेषनागके दूसरे भागमें इन्द्र, उसके बाद आदित्य, उसके बाद महान् उत्साही रुद्रगण, वसुगण तथा गुह्यक आदि थे। आगेकी ओर विप्रचित्ति, नमुचि, वृत्र, शम्बर, द्विमूर्धा, वज्रदंष्ट, राहु तथा बलि थे। ये तथा इनके ि अन्य बहुत से राक्षस मुखभागमें उपस्थित थे। बल और तेजसे विभूषित एवं गर्वसे भरे हुए वे सभी समुद्रका मन्धन कर रहे थे। देवताओं और दानवोंद्वारा मन्दराचलकी मथानीसे मन्थन किये जाते हुए समुद्रसे मेघगर्जनके समान भीषण ध्वनि निकलने लगी। वहाँ उस महान् मन्दराचलमे पिसे हुए नाना प्रकारके सैकड़ों-हजारों जलचर नष्ट हो गये। उस पर्वतने वरुणलोकके पाताललोकवासी अनेकों प्रकारके प्राणियोंको विनाशके पथपर पहुंचा दिया। उस पर्वतके घुमाये जाते समय उस मन्दराचलके ऊपर उगे हुए विशाल वृक्ष पक्षियोंसहित परस्परके संघर्षणसे टूट टूटकर गिर रहे थे। उनके संघर्षणसे उत्पन्न हुई अग्निने बारंबार प्रज्वलित होकर अपनी लपटोंसे मन्दराचलको उसी प्रकार आच्छादित कर लिया, जैसे बिजलियाँ नीले मेमको ढक लेती हैं। उस अग्निने पर्वतसे निकले हुए सिंहों और हाथियोंको तथा अनेकों प्रकारके प्राणरहित सभी जीवोंको भस्म कर दिया ।। 66 - 74 ॥
तब देवश्रेष्ठ इन्द्रने इधर-उधर जलाती हुई उस अग्निको बादलके जलसे चारों ओरसे शान्त कर दिया। तदनन्तर उस समुद्रके जलमें नाना प्रकारके रस, विशाल वृक्षोंके रस और औषधियोंके रस अधिक मात्रामें टपकने लगे। उन अमृतके समान गुणकारी रखोंसे युक्त जलसे सुवर्णकी भाँति देदीप्यमान देवगण अमरताको प्राप्त हो गये। समुद्रका जल दुग्धके रूपमें परिणत हो गया था, पुनः अनेक प्रकारके रसोंके मिश्रणसे वह दुग्धसे घृतकेरूपमें परिवर्तित हो गया। तब वहाँ बैठे हुए ब्रह्मासे देवताओंने | इस प्रकार कहा— 'ब्रह्मन् ! हमलोग बहुत थक गये हैं, किंतु जो अभीतक अमृत नहीं निकला, इसका कारण यह है कि भगवान् विष्णुको छोड़कर हम सभी देवगण तथा दैत्यगण समुद्रको मथनेमें देरी कर रहे हैं।' तब ब्रह्माने भगवान् विष्णुसे इस प्रकार कहा— 'विष्णो! इन सबको बल प्रदान कीजिये; क्योंकि आप ही इनके शरणदाता हैं' ।। 75–81 ॥
भगवान् विष्णु बोले- इस मन्थन-कार्यमें जितने लोग सम्मिलित हैं, उन सबको मैं बल प्रदान करता हूँ। अब सभी लोग मिलकर क्रमशः मन्दर पर्वतको घुमायें | और सागरको क्षुब्ध करें ॥ 82 ॥