सूतजी कहते हैं-ऋषियो। पुनः उस समुद्रके मधे जानेपर आयुर्वेदके प्रजापति भगवान् धन्वन्तरि दौख पड़े। पुनः लोगोंके चित्तको उन्मत्त कर देनेवाली एवं बड़ी आँखोंवाली मदिरा उत्पन्न हुई। तदनन्तर अमृत प्रकट हुआ, फिर सभी प्राणियोंके भयको दूर करनेवाली कामधेनु उत्पन्न हुई। उस समय भगवान् विष्णुने लक्ष्मी और महामणि कौस्तुभको तथा हजार नेत्रोंवाले इन्द्रने गजराज ऐरावतको ग्रहण किया। सूर्यने अश्वरत्न उच्चैः त्रवा और लोकमें आरोग्यके प्रवर्तक धन्वन्तरिको स्वीकार किया। वरुणने छत्रको और शचीपति इन्द्रने दोनों कुण्डलोंको ग्रहण किया। वायुदेवने बड़ी प्रसन्नतासे पारिजात वृक्षको ग्रहण किया। इसके बाद शरीरधारी धन्वन्तरि उठकर खड़े हुए। वे एक श्वेतवर्णका कमण्डलु धारण किए हुए थे, जिसमें अमृत भरा था। उस अत्यन्त अद्भुत पात्रको देखकर अमृतके लिये 'यह मेरा है, यह मेरा है' ऐसा बकनेवाले दानवोंके दलमें महान् कोलाहल मच गया। तब भगवान् विष्णुने मोहिनी मायाका आश्रय लिया। वे स्त्रीका अनुपम रूप धारण कर दानवोंके समीप उपस्थित हुए। तब उन मुग्ध चित्तवाले दैत्योंने उस अमृतको उस स्त्रीके हाथोंमें समर्पित कर दिया क्योंकि उन सभीदैत्यों और दानवोंका मन उसपर मोहित हो गया था। तदनन्तर वे सभी दैत्य-दानव संगठित होकर मुख्य मुख्य महान् शस्त्रास्त्रोंको लेकर देवताओंपर टूट पड़े। इस समय नरके साथ-साथ पराक्रमी एवं सामर्थ्यशाली भगवान् विष्णुने उस अमृतको दानवेन्द्रोंसे छीन लिया ॥ 1-10॥
तदनन्तर सभी देवता उस तुमुल युद्धके बीच ही विष्णु भगवान्से उस अमृतको लेकर पान करने लगे। उस अभिलषित अमृतको पीते समय देवताओंके मध्य में देवरूपधारी राहु नामक दानव भी अमृतका पान करने लगा। वह अमृत उसके कण्ठदेशतक ही पहुँच पाया था कि देवताओंकी कल्याण भावनासे प्रेरित होकर चन्द्रमा और सूर्यने उसके भेदको प्रकट कर दिया। तब अमृत पीते हुए उस दानवके अलंकृत सिरको भगवानने अपने पराक्रमसे चक्रद्वारा काट दिया। फिर तो उस दानवका चक्रसे कटा हुआ पर्वतशिखरकी भाँति विशाल मस्तक वसुधातलको कँपाता हुआ भूतलपर गिर पड़ा। तभी से राहुके उस मुखने चन्द्रमा और सूर्यके साथ अटूट र निश्चित कर दिया, जो आज भी उन्हें पीड़ा पहुँचाता है। तत्पश्चात् विष्णु भी उस अनुपम स्त्रीरूपको त्यागकर विविध प्रकारके भयंकर शस्त्रास्त्रोंद्वारा दानवोंको प्रकम्पित करने लगे। उस समय विशाल और तीखी धारवाले हजारों भाले दानवोंपर गिरने लगे। भगवान के चक्र से छिन्न-भिन्न अङ्गोंवाले राक्षसगण अत्यधिक रक्त वमन करते हुए तलवार और गदाके प्रहारसे घायल होकर पृथ्वीतलपर गिरने लगे। उस समय उस युद्धमें तपाये हुए स्वर्णकी मालाओंसे सुशोभित असुरोंके सिर भीषण पट्टिशोंके प्रहारसे विदीर्ण होकर निरन्तर गिर रहे थे। वहाँ रक्तसे लथपथ हुए अङ्गोंवाले मारे गये महान् असुर गेरूसे रंगे हुए पर्वतोंके शिखरोंकी भाँति सो रहे थे। तदनन्तर सूर्यके लाल हो जानेपर परस्पर एक-दूसरेको | शस्त्रोंद्वारा काटनेवालोंका महान् कोलाहल चारों ओर गूँज उठा। उस समरमें लोहनिर्मित परिघों और मुष्टियोंके प्रहारसे एक-दूसरेको मारनेवालोंका शब्द आकाश मण्डलका स्पर्श-सा कर रहा था। उस समय वहाँ चारों ओर 'काट डालो, विदीर्ण कर दो, दौड़ो, गिरा दो आगे बढ़ो - इस प्रकारके महान् भयंकर शब्द सुनायी पड़ रहे थे।इस प्रकार महान् भयकारक घमासान युद्धके चलते समय भगवान् नर-नारायण युद्धस्थलमें उपस्थित हुए। वहाँ नरके दिव्य धनुषको देखकर दैत्यसूदन भगवान् नारायणने भी अपने सुदर्शन चक्रका स्मरण किया ।। 11-25 ॥
तदनन्तर स्मरण करते ही वह असा प्रभावशाली, अत्यन्त कान्तिमान् शत्रुनाशक, सूर्यके समान तेजस्वी, विस्तृत मण्डलोंवाला भयंकर सुदर्शन चक्र आकाशमार्ग से नीचे उतरा। तब हाथोकी शुण्डके समान बाहुवाले उग्र वेगशाली भगवान् विष्णुने प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी दानवकुलसंहारक धधकती हुई अग्निके सदृश शरीरवाले परम कान्तिशाली भयंकर चक्रको आया हुआ देखकर उसे दैत्यसेनापर चला दिया। फिर तो रिपुके नगरोंका विध्वंस करनेवाला, संवर्तक नामक प्रलयाग्निके समान तेजस्वी, अनुपम कान्तिमान् वह सुदर्शन चक्र बारंबार वेगपूर्वक शत्रुओंऑपर प्रहार करने लगा। युद्धभूमिमें पुरुषोत्तमके हाथसे छोड़े गये उस चक्रने हजारों दैत्योंको विदीर्ण कर दिया। उसने वायुसे प्रेरित अग्निकी भाँति कहाँ सेनाओंको भस्म कर दिया तो कहीं उन असुरोंको बलपूर्वक काट डाला। रणभूमिमें भगवान् के हाथसे प्रेरित वह सुदर्शन चक्र बारंबार आकाशमें तथा पृथ्वीतलपर पिशाचके समान रक्तपान करने लगा। इसके बाद निर्भय चित्तवाले असुर पर्वतोंद्वारा बारंबार देवताओंको सेनाको नष्ट करने लगे हजारों महाबलवान् असुर जलरहित मेघोंके समान आकाशमण्डलसे नीचे गिर रहे थे, जिससे वे अतिशय भयंकर हो गये थे। उनके द्वारा फेंके गये वृक्ष मेघोंके समान दिखायी पड़ते थे। विशाल पर्वत, जिनकी चोटियाँ छिन्न-भिन्न हो गयी थीं, शब्द करते हुए एक-दूसरेसे टकरा रहे थे। उन पर्वतोंके गिरनेसे अभिहत हुई पर्वत वनसहित सारी पृथ्वी कम्पायमान हो गयी। इस प्रकार जब युद्धस्थलमें एक-दूसरेपर भीषण गर्जन करते हुए बारंबार घात-प्रतिघात होने लगा और दानवोंने देव सेनाओंको आतंकित कर दिया, तब नरने सुन्दर सुवर्णजटित अग्रभागवाले अपने विशाल बाणोंसे वायुमार्गको अवरुद्धकर दिया और बाणोंके प्रहारसे पर्वत-शिखरोंको विदीर्ण कर दिया। इस प्रकार देवताओं द्वारा ताड़ित किये गये बड़े-बड़े असुर योद्धा पाताल एवं खारे समुद्रमें प्रविष्ट हो गये। जलती हुई अग्निके समान कान्तिमान् एवं अतिशय कोपमें भरे हुए सुदर्शन चक्रको आकाशमें गया हुआ सुनकर देवगण विजयी हुए। तदनन्तर मन्दराचलको आदरपूर्वक अपने स्थानपर स्थापित कर दिया गया और | सभी दिशाओं तथा आकाशमें फैले हुए बादलसमूह भी जैसे आये थे वैसे ही चले गये तत्पश्चात् देवगण परम हर्षपूर्वक अमृतको सुरक्षित कर लिये और उसकी संचित निधिको बलवान् देवताओंके साथ किरीटधारी भगवान्को सुरक्षाके लिये सौंप दिया गया ॥ 26-36॥