सूतजी कहते हैं— ऋषियो ! भगवान् विष्णुकी बात सुनकर वे बलवान् सम्मिलित होकर उस महासमुद्र में उसकी जलराशिको अत्यन्त क्षुभित करने लगे। इसके बाद समुद्रसे सौ सूर्योकी भाँति दीप्तिशाली शीतरश्मि उज्ज्वल चन्द्रमा उत्पन्न हुए। तत्पश्चात् समुद्रके जलसे * पीले वस्त्रोंसे शोभित लक्ष्मी उत्पन्न हुई, फिर सुरादेवी तथा पीले रंगका घोड़ा उत्पन्न हुआ। तदनन्तर नारायणके वक्षःस्थलपर शोभित होनेवाली किरणोंसे व्याप्त, शोभा सम्पन्न तथा अमृतसे उत्पन्न होनेवाली दिव्य कौस्तुभमणि उत्पन्न हुई। पुनः अनेक खिले हुए पुष्पोंके गुच्छोंसे व्याप्त पारिजात प्रकट हुआ तदुपरान्त देवताओं और दैत्योंने आकाशके समान नीले रंगके धुएँको निकलते हुए देखा, जो सभी दिशाओंमें परिव्याप्त और सभी प्राणियोंके लिये दुःसह था उसे सूंघकर देवगण मूच्छितहोकर गिरने लगे और हाथ सिरको पकड़कर समुद्र तटपर बैठ गये। तदनन्तर क्रमश: वह दुसह ऑन दिखायी पड़ी। उसका आकार ज्वालाओंसे व्याप्त था तथा चारों ओर फैली हुई लपटों यह भीषण लग रही थी। उस अग्निसे प्राय: सभी देवता और दानवगण विक्षिप्त हो उठे और कुछ जले तथा कुछ अधजले हुए सभी दिशाओंमें घूमने लगे। इस प्रकार सभी प्रधान देव तथा दैत्यगण उस अग्निसे भयभीत हो गये। कुछ देरके बाद उस अग्निसे दुन्दुभ जातिके सर्प उत्पन्न हुए। उसी प्रकार काले, विशाल दादोंवाले, लाल, वायु पीकर रहनेवाले, शेत, पीले तथा अन्य गोनस जातिवाले सर्प तथा मशक, भ्रमर, हँसा विष, पतंगे, कर्णशल्य, गिरगिट आदि अनेकों जीव उत्पन्न होकर इधर-उधर घूमने लगे। इनके अतिरिक्त अति भीषण दावाले बहुत-से जीव तथा विपकी अनेकों जातियाँ उत्पन्न हुई जैसे शाई, हालाहल, मुस्त, वत्स, अगुरु, भरमग और नील पत्र आदि इसी प्रकार अन्य सैकड़ों भेदोपभेदवाले विष उत्पन्न हुए, जिनकी गन्धसे पर्वतकि शिखर भी तुरंत ही जलने लगे ॥ 1-13॥
तदनन्तर देवताओं और दानवोंने सागरके मध्यमें स्थित एक ऐसा स्वरूप देखा, जिसकी शरीर-कान्ति नीलरस, भ्रमर और घिसे हुए अञ्जनके समान काली थी, जो विषमरूपसे श्वास ले रहा था और शरीरसे लोकान्तरको व्याप्त कर लिया था, जिसके केश जलती हुई अग्निके समान दिखायी पड़ रहे थे, जिसका शरीर सुवर्ण और मोतियोंसे विभूषित था, जो किरीट धारण किये हुए था, जिसके शरीरपर पीताम्बर सुशोभित था और देहकी कान्ति नीले कमलके समान थी, जो पुष्पोंद्वारा अलंकृत और मेघकी तरह अत्यन्त भयंकर रूपसे गर्जना कर रहा था तथा प्राणियोंके लिये शरीरधारी भयका आश्रयस्थान था। उस भीषण एवं उग्र नेत्रवाले स्वरूपको देखकर सभी प्राणी भयभीत हो उठे। कितने तो देखते ही चल बसे, कितने मूर्छित हो गये, कुछ मुखसे फेन उगलने लगे और कुछ लोग विषम अवस्थाको प्राप्त हो गये। उसको वाससे विष्णु इन्द्र और दानव सभी जलने लगे। थोड़ी देर पहले जो दिव्य रूपवाले थे, वे जले हुए अंगारके समान हो गये। तब भगवान् विष्णुने भयभीत होकर उस सुरात्मकसे इस प्रकार प्रश्न किया ।। 14- 18 ॥श्रीभगवान्ने पूछा- यमराजके समान आप कौन है? क्या चाहते हैं? और कहाँसे आ रहे हैं? क्या करनेसे आपको कामना पूर्ण होगी? ये सभी बातें मुझे बताइये भगवान् विष्णुकी वह बात सुनकर कालाग्नि के समान भयंकर एवं फटी हुई दुन्दुभिके समान बोलनेवाला कालकूट बोला ॥19-20 ।।
कालकूटने कहा-विष्णो! मैं समुद्रसे उत्पन्न हुआ कालकूट नामक विष हूँ। जब परस्पर एक-दूसरेके | वधके अभिलाषी देवता तथा दैत्योंद्वारा उम्र वेगसे अद्भुत क्षीरसागर मथा गया, तब मैं उन सभी देवताओं और | दानवोंका संहार करनेके लिये उत्पन्न हुआ हूँ। मैं क्षणभरमें ही सभी शरीरधारियोंका संहार कर सकता हूँ। अतः ये सभी लोग या तो मुझे निगल जायँ अथवा शंकरकी शरणमें जायें। कालकूटकी वह बात सुनकर देवता और असुर भयभीत हो गये, तब वे ब्रह्मा और विष्णुको आगे करके शंकरजीके पास जानेके लिये प्रस्थित हुए। वहाँ पहुँचनेपर द्वारपाल गणेश्वरोंने जाकर शिवजीसे देवताओं और दैत्योंके आगमनको सूचना दी तब शंकरजीसे आज्ञा पाकर वे लोग शिवजीके निकट मन्दराचलकी उस सुवर्णमयी गुफामें गये, जो मुक्तामणियोंसे विभूषित थी, जिसमें स्वच्छ मणिजटित सीढ़ियाँ लगी थीं और जो वैदूर्य मणिके स्तम्भसे शोभायमान थी वहाँ ब्रह्माजीको आगे कर सभी देवताओं और असुरोंने पृथिवीपर घुटने टेककर शिवजीको (पञ्चाङ्ग) नमस्कार किया और फिर वे इस स्तोत्रका पाठ करने लगे ।। 21-27 ll
देवताओं और दानवोंने कहा- विरूपाक्ष ! आपको नमस्कार है। दिव्य नेत्रधारी आपको प्रणाम है। आप अपने हाथोंमें पिनाक, वज्र और धनुष धारण करनेवाले हैं, आपको अभिवादन है हाथमें त्रिशूल और दण्ड धारण करनेवाले जटाधारीको नमस्कार है। आप त्रिलोकीनाथ और प्राणिसमूहके शरीररूप हैं, आपको प्रणाम है। देव शत्रुओंका संहार करनेवाले तथा चन्द्रमा, अग्नि और सूर्यरूप नेत्र धारण करनेवालेको अभिवादन है। ब्रह्मा, विष्णु और स्ट्ररूप आपको नमस्कार है। आप ब्रह्मस्वरूप, वेदस्वरूप और देवरूप हैं, आपको प्रणाम है। आप सांख्ययोगस्वरूप और प्राणियोंका कल्याण करनेवाले हैं, आपको अभिवादन है। कामदेवके शरीरके विनाशक और कालके क्षयकर्ता आपको नमस्कार है। आप वेगशाली, देवाधिदेव और वसुरेता हैं, आपको प्रणाम है। सर्वश्रेष्ठवीर, सर्वस्वरूप और पीले रंगकी जटा धारण करनेवालेको अभिवादन है। उमाके पति तथा यज्ञ एवं त्रिपुरका विनाश करनेवाले आपको नमस्कार है। आप शुद्ध ज्ञानसे परिपूर्ण, मुक्त कैवल्यरूप, तीनों लोकोंके विधाता, वरुण, इन्द्र और अग्निके स्वरूप, ऋक्, यजुः और सामवेदरूप, पुरुषोत्तम, परमेश्वर, सर्वश्रेष्ठ, भयंकर, ब्राह्मणस्वरूप, श्रुतिरूप नेत्रवाले, सत्त्व, रज, तमस्— तीनों गुणोंसे युक्त अन्धकारस्वरूप, अनित्य और नित्य भावसे सम्पन्न तथा नित्यचरात्मा हैं। आपको प्रणाम है। आप व्यक्त, अव्यक्त और व्यक्ताव्यक्त हैं, आपको अभिवादन है। आप भक्तोंकी पीड़ाके विनाशक, नारायणके मित्र, उमाके प्रियतम, संहारकर्ता, नन्दीके मुखसे सुशोभित, मन्वन्तर कल्प ऋतु-मास पक्ष दिनरूप, अनेक रूपधारी, मुण्डित सिरवाले, स्थूल दण्ड और कवच धारण करनेवाले, खप्परधारी, दिगम्बर चूद्याधारी, धनुषधारी, महारथी, संन्यासी और ब्रह्मचारी हैं, आपको नमस्कार है। इस प्रकारके | अनेकों चरित्रोंसे स्तुत होनेवाले आपको बारंबार प्रणाम है। इस प्रकार देवासुरोंद्वारा स्तवन किये जानेपर शंकरजी प्रसन्न हो गये। तब वे उन भयभीत देवासुरोंसे मुसकराते हुए सुन्दर अक्षरोंसे युक्त वचन बोले ll 28-41 ॥
भगवान् श्रीशंकरने कहा— देवता एवं दानवो ! तुम्हारे मुखकमल भयके कारण मलिन दोख रहे हैं, बतलाओ तुमलोग यहाँ किसलिये आये हो? मैं आज तुमलोगोंको कौन-सी अभीष्ट वस्तु है, यह निर्भय होकर बतलाओ, देर मत करो। भगवान् शंकरद्वारा ऐसा कहे जानेपर देवासुरोंने उनसे इस प्रकार कहा ॥ 42 ॥
देवासुर बोले- महादेव! अमृतके लिये महासागरको | मचते समय अद्भुत विष उत्पन्न हुआ है, जो सभी लोकोंका विनाश करनेवाला है। सभी देवताओंको भयभीत करनेवाले उस विषने स्वयं कहा है कि 'मैं तुम सभीको खा जाऊँगा, अन्यथा तुमलोग मुझे पी जाओ।' ऐसी दशामें हमलोग उस विषको पान करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं, किंतु वह महाबली विष हमलोगोंको खा सकता है। उसने अपने निःश्वासमात्र से सैकड़ों चन्द्रमाके समान कान्तिमान् भगवान् विष्णुको कृष्णवर्ण तथा यमराजको विक्षिप्त कर दिया है। | कुछ लोग मूर्छित हो गये हैं और कुछ नष्ट हो गये।भगवन्! जिस प्रकार अभागोंके अर्थ भी अनर्थके कारण बन जाते हैं तथा आपत्तिकालमें दुर्बलोंके संकल्प विपरीत फल देनेवाले हो जाते हैं, उसी प्रकार अमृतको अभिलाषासे युक्त हमलोगोंके लिये यह विष उत्पन्न हुआ है। अतः | आप इस भयसे हमलोगोंको मुक्त कीजिये, आप ही एकमात्र हम सबके शरणदाता हैं। आप भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाले, मनके भावोंके ज्ञाता, सभी भुवनोंके ईश्वर सर्वव्यापक, यज्ञोंमें सर्वप्रथम भाग ग्रहण करनेवाले, सकल हवनीय द्रव्यस्वरूप, सौम्य, उमाके साथ स्थित और कामदेवके विनाशक हैं। देवताओंका कल्याण करनेवाले देव! एकमात्र आप ही हमलोगोंके शरणदाता हैं। विरूपाक्ष! (सबको) खा लेनेके विचारवाले इस विषके कष्टसे हमलोगोंकी रक्षा कीजिये। यह सुनकर भगदेवताके नेत्रोंका विनाश करनेवाले भगवान् शंकरने कहा ll 43-51 ll
देवाधिदेव बोले- देवासुरगण! मैं उस कालकूट नामक महान् भयंकर विषको तो पी ही जाऊँगा, इसके अतिरिक्त तुमलोगोंका जो कोई अन्य भी कष्टसाध्य कार्य होगा, उसे भी सिद्ध कर दूंगा, तुम लोग चिन्तारहित हो जाओ। इस प्रकार कहे जानेपर ब्रह्मा आदि सभी देवताओंका मन प्रसन्न हो गया, वे भलीभाँति आश्वस्त हो गये, उनके शरीर रोमाञ्चित हो उठे, कण्ठ आँसुओंसे गद्गद हो गये, नेत्रोंमें आनन्दाश्रु छलक आये और वे उस समय अपनेको सनाथ मानने लगे। तदनन्तर जगत्पति भगवान् शंकर वेगशाली नन्दिकेश्वरपर आरूढ़ होकर वायुके समान वेगसे आकाशमार्गसे उस ओर चले। उस समय असुरों तथा सुरोंके अधिपतिगण अपने-अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो चमर बुलाते हुए उनके आगे-आगे दौड़ रहे थे। इस प्रकार अग्निको ज्वालासे भूरे रंगवाली जरासे युक्त इन्द्रियजयी भगवान् शिव मङ्गलके आधारस्वरूप उन देवताओंके साथ शोभायमान हो रहे थे। तदनन्तर वे जहाँसे कालकूट विष उत्पन्न हुआ था, उस क्षीरसागरपर पहुँचे। तत्पश्चात् भगवान् महादेवने उस विषम विषको देखकर एक छायायुत स्थानमें बैठकर अपने बायें हाथसे उसे पी लिया। उस विपके पी लिये जानेपर इन्द्रादि देव तथा हिरण्याक्ष प्रभृति । असुर हर्षपूर्वक नाचने-गाने और भयंकर सिंहनादकरने लगे तथा देवेशकी स्तुति करते हुए प्रसन्न हो गये। उस समय विषके भगवान् शंकरके गलेमें पहुँचनेपर ब्रह्मादि देवता और बलि आदि असुरोंने उनसे इस प्रकार कहा- 'देव! कुन्दकी-सी उज्ज्वल कान्तिवाले आपके शरीरमें कण्ठकी विचित्र शोभा रही है। अब यह भृङ्गावलीकी भाँति काला विष यहीं आपके कण्ठमें स्थित रहे।' इस प्रकार कहे जानेपर त्रिपुरविनाशक भगवान् शंकरने 'तथास्तु- वैसा ही हो' यों कहकर उसे स्वीकार कर लिया। इस प्रकार विषपान कर लेनेके बाद शंकरजी देवताओंको वहीं छोड़ पुनः मन्दराचलको चले गये। उनके चले जानेपर देवगण पुनः उस समुद्रको विविध प्रकारसे मथने लगे ॥ 52 - 61 ॥