अर्जुनने पूछा- विप्रवर! पुराणोंमें संतोंद्वारा अपरिमित तेजस्वी भगवान् विष्णुके अवतारोंके वर्णनमें हमने वाराह अवतारकी बात सुनी है, किंतु मैं उन बुद्धिमान् भगवान्के चरित्र विस्तार, कर्म, गुण और आराधनाविधिको नहीं जानता। वे वाराह भगवान् किस प्रकारके हैं? उनका स्वरूप कैसा है? उनकी देवशक्ति कैसी है? उनका क्या प्रमाण और कितना प्रभाव है? प्राचीनकालमें उन्होंने क्या कार्य किये हैं?इसलिये पुराणोंमें कही हुई वाराह अवतारकी ये सारी बातें मुझे तथा विशेषकर यहाँ आये हुए इन ब्राह्मणोंको तत्त्वपूर्वक बतलाइये ll 1-4 ll शौनकजी बोले- अर्जुन। मैं तुमसे अद्भुतकर्मा भगवान् श्रीकृष्णके महावाराह अवतारके चरित्रको जो पुराणों में वर्णित तथा ब्रह्मसम्मित है, कह रहा हूँ। राजन्। जिस प्रकार शत्रुसंहारक भगवान् विष्णुने वराह रूप धारणकर समुद्र स्थित पृथ्वीका दादोंपर रखकर उद्धार किया था तथा जिस प्रकार उदार श्रुतियोंने वैदिक वाणीद्वारा उनका अभिनन्दन किया था, यह सब इस समय मनको प्रसन्न करके सुनो। अर्जुन! यह पुराण परम पुण्यमय, वेदोंद्वारा अनुमोदित तथा अनेकों श्रुतियोंसे सम्पन्न है, इसे नास्तिक व्यक्तिसे नहीं कहना चाहिये। जो सभी पुराणों, वेदों, सांख्य और योगको पूरी विधिके साथ जानता है, उसीसे इसकी कथा कहनी चाहिये; क्योंकि वही इसके अर्थको जान सकेगा। विश्वेदेवगण, साध्यगण, रुद्रगण, आदित्यगण, अश्विनीकुमार प्रजापतिगण, सातों महर्षि, ब्रह्माके मानसिक संकल्पसे सर्वप्रथम उत्पन्न हुए सनकादि ब्रह्मर्षि, वसुगण, मरुद्गण, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिशाच, नाग, विविध प्रकारके जीव, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, म्लेच्छ आदि जितनी जातियाँ पृथ्वीपर हैं, सभी चौपाये, सैकड़ों तिर्यग्योनियाँ, जङ्गम प्राणी तथा अन्य जो जीव नामधारी हैं- इन सभीको एक हजार युग बीतनेके पश्चात् ब्रह्माका दिन आनेपर जब सभी प्रकारके उत्पात होने लगते हैं और सभी प्राणियों का विनाश हो जाता है, तब हिरण्यरेता भगवान् जो वृषाकपि नामसे विख्यात हैं, तीन अग्निशिखाओंसे युक्त होकर अपनी उग्र ज्वालाओं द्वारा सभी लोकोंका विनाश करते हुए अग्निके प्रभावसे दग्ध कर देते हैं । ll 5- 15 ॥
उस दिनके प्राप्त होनेपर निकलती हुई तेजोराशिसे जिनके शरीर जल गये थे तथा झुलसे हुए मुखोंसे जिनका रंग बदल गया था, वे छहों अङ्गसहित वेद, उपनिषद्, इतिहास, सभी विद्याएँ, सम्पूर्ण धार्मिक क्रियाएँ और तैंतीस करोड़ सभी देवगण सम्पूर्ण विश्वके उत्पत्तिस्थानरूप ब्रह्माको आगे करकेहंसस्वरूप उन भगवान् विष्णुमें, जो सर्वोत्कृष्ट, अविनाशी, महान् आत्मबलसे सम्पन्न और जलशायी हैं, प्रविष्ट हो जाते हैं। उनका पुनः प्रकट होना उसी प्रकार जन्म-मृत्यु कहा जाता है, जैसे इस लोकमें सूर्यका निरन्तर उदय और अस्त होता रहता है। एक हजार युग पूर्ण होनेपर कल्पकी समाप्ति कही जाती है, जिसमें सभी जीवोंके कार्य भी समाप्त हो जाते हैं। उस समय अकेले जगदगुरु भगवान् विष्णु देवता, असुर और मानवसहित सभी लोकोंका संहारकर और उन्हें अपनेमें समाविष्ट कर विद्यमान रहते हैं। यह सारा जगत् जिनका अंशरूप है, वे सनातन अविनाशी भगवान् प्रत्येक कल्पकी समाप्तिपर बारंबार सभी जीवोंकी सृष्टि करते हैं। जब लोकमें सूर्यकी किरणें नष्ट हो जाती हैं, चन्द्रमा और ग्रह लुप्त हो जाते हैं, धूम, अग्नि और पवन दूर हो जाते हैं, यज्ञोंमें वषट्कारकी ध्वनि अस्त हो जाती है, पक्षिगणोंका उड़ना बंद हो जाता है, मार्गमें सभी प्राणियोंका अपहरण होने लगता है, भीषणता मर्यादाकी सीमाके बाहर पहुँच जाती है, चारों ओर निविड़ अन्धकार छा जाता है, सारा लोक अदृश्य हो जाता है, सभी कर्मोंका अभाव हो जाता है, सारी उत्पत्ति प्रशान्त हो जाती है, वैरभाव नष्ट हो जाता है और सब कुछ नारायणरूपी लोकमें विलीन हो जाता है, उस समय इन्द्रियोंके स्वामी परमेष्ठी शयनके लिये उद्यत होते हैं॥ 16-27 ll
उस समय महाबाहु भगवान् पीताम्बरधारी, लाल नेत्रोंसे युक्त, काले मेघकी-सी कान्तिसे सम्पन्न, हजारों शिखाओंसे युक्त जटाभारको वहन करनेवाले, श्रीवत्सके चिह्नसे सुशोभित एवं लाल चन्दनसे विभूषित वक्षःस्थलको धारण करते हुए बिजलीसहित मेघकी भाँति शोभायमान होते हैं हजारों कमल-पुष्पोंकी बनी हुई सुन्दर माला उनकी शोभा बढ़ाती है। उनकी पत्नी स्वयं लक्ष्मी उनके शरीरको आच्छादित | करके विद्यमान रहती हैं। तत्पश्चात् शान्तात्मा, सभी लोकोंके कल्याणकारी और परम योगी भगवान् कुछ योगनिद्राका आश्रय लेकर शयन करते हैं। फिर एक हजार युग व्यतीत होनेपर देवेश्वर भगवान् पुरुषोत्तम सर्वव्यापी होकर अपने-आप ही जागते हैं। तदनन्तर लोककर्ता भगवान् ब्रह्माके कर्मद्वारा मनुष्यों और | देवताओंकी सृष्टिके विषयमें पुनः विचार करते हैं।तत्पश्चात् सत्पुरुषोंके आश्रयरूप एवं रणविजयी भगवान् देवताओंके विषयमें कार्यकी चिन्तना करते हुए सारे लोककी सृष्टि करते हैं। वे ही परमात्मा इस समस्त सृष्टिके कर्ता, विकर्ता, संहर्ता और प्रजापति हैं। नारायण ही परम सत्य नारायण ही परम पद, नारायण ही परम यज्ञ और नारायण ही परमगति हैं। उन्हें ही स्वयम्भू, सभी भुवनोंका अधीश्वर और स्रष्टा जानना चाहिये। उन्हींको सर्वरूप समझना चाहिये। ये यज्ञस्वरूप और प्रजापति हैं। देवताओंद्वारा जो जाननेयोग्य है, वह ये ही कहे जाते हैं॥ 28-37 ॥
भगवान्का जो स्वरूप जाननेयोग्य है, उसे देवगण भी नहीं जानते। सभी प्रजापति, देवतागण और ऋषिगण खोजते रहते हैं, किंतु इनका अन्त नहीं पाते- ऐसी श्रुति है। इस परमात्माका जो परम स्वरूप है, उसे देवतालोग भी नहीं देख पाते। उनके प्रादुर्भावकालमें जिस स्वरूपके दर्शन होते हैं, देवगण उसीकी पूजा करते हैं। यदि उन्होंने स्वयं ही अपने रूपको दिखा दिया तो देवगण उसे देख पाते हैं। वे जिस रूपका दर्शन नहीं कराते, उसकी खोज करनेके लिये कौन तत्पर हो सकता है? जो सभी जीवोंके नायक, अग्नि और वायुकी गति, तेज, तपस्या और अमृतके निधान, चारों आश्रमधर्मोके स्वामी, चातुर्होत्र यज्ञके फलका भक्षण करनेवाले, चारों समुद्रोंतक व्याप्त और चारों युगोंकी निवृत्ति करनेवाले हैं, वे ही महायोगी भगवान् इस जगत्का संहारकर अपने उदरमें रख लेते हैं और हजार वर्षोंतक धारण करनेके पश्चात् उस अण्डको उत्पन्न कर देते हैं। तत्पश्चात् प्रजापति भगवान् अपने शरीरसे सुर, असुर, द्विज, सर्प, अप्सराओंके समूह, समस्त वृक्ष, ओषधि, पर्वत, यक्ष, गुह्य और श्रुतियोंसे युक्त इस जगत्की सृष्टि करते हैं ॥ 38-44 ॥