सूतजी कहते हैं- परम विशुद्ध हृदयवाले तपस्वी ऋषियो! आप सब लोग इस उत्तम कथाको जो पापकी विनाशिनी और पुण्यको उत्पन्न करनेवाली है, सुनिये ! एक बार भगवान् सनत्कुमारने रुद्रके ही समान पराक्रमी तथा गणेश्वरोंके स्वामी दिव्य नन्दिकेश्वरसे पूछा- 'जो सभी जीवोंकि परमात्मा महेश्वर तथा देवताओं एवं दानवद्वारा दुष्प्राप्य हैं, वे महात्मा शंकर घोर स्वरूपको धारण कर सृष्टिसे प्रलयपर्यन्त स्थाणुरूपमें जहाँ नित्य अवस्थित रहते हैं, उस गोपनीय (स्थान) को आप रहस्यपूर्वक हमलोगोंको बतलाइये ' ॥ 1-4 ॥
नन्दिकेश्वरने कहा— पूर्वकालमें महादेवने पुण्य प्रदान करनेवाले जिस श्रेष्ठ पुराणका वर्णन किया था, वह सब मैं महेश्वरको नमस्कार कर वर्णन कर रहा हूँ। किसी समय उमाको प्रसन्न करनेकी इच्छासे प्रसन्नमना महादेवने जिस स्थानपर वे सदा स्वयं विराजमान रहते हैं, उस विश्वविख्यात स्थानका वर्णन किया था। एक बार सुमेरुके शिखरपर रुद्रके आधे आसनपर विराजमान यशस्विनी देवी उमाने विनयभावसे महादेवजीसे प्रश्न किया ll 5-7 ॥
देवीने पूछा- अर्धचन्द्रसे सुशोभित मस्तकवाले देवदेवेश्वर भगवन्! भूतलपर वर्तमान ऊर्ध्वरेता प्राणियोंक धर्मको विस्तारसे बतलाइये। साथ ही यह भी बतलाइये कि जप, दान, हवन, यज्ञ, तपस्या, शुभ कर्म, ध्यान और अध्ययन आदि किस प्रकार अक्षयभावको प्राप्त होते हैं? शंकर! हजारों पूर्वजन्मोंमें जो पाप सञ्चित हुए हैं, वे किस प्रकार नष्ट होते हैं? यह आप मुझे स्पष्ट बतलाइये। महेश्वर! जिस स्थानपर स्थित होकर आप भक्तिसे प्रसन्न होते हैं तथा व्रत, नियम, आचार और धर्म जहाँ सभी सिद्धियोंके प्रदाता बन जाते हैं एवं अनश्वर गति प्रदान करते हैं, ये सभी बातें आप बतलाइये, क्योंकि इसे जाननेके लिये | मेरे मनमें बड़ी ही उत्कण्ठा है ॥ 8- 12 ॥महेश्वरने कहा-देखि सुनो, मैं तुम्हें गुस गुप्त उत्तम विषय बतला रहा हूँ। सभी क्षेत्रोंमें प्रसिद्ध अविमुरुक्षेत्र (वाराणसी) मुझे परम प्रिय है। पहले मैं अड़सठ श्रेष्ठ स्थानोंका वर्णन कर चुका हूँ, जहाँ गजचर्म धारण कर मैं साक्षात् रुद्रस्वरूपसे विराजमान रहता हूँ, परंतु अविमुक्तक्षेत्र (काशी) में मैं नित्य-निरन्तर निवास करता हूँ। उस क्षेत्रको मैं कभी नहीं छोड़ता, इसीलिये इसे अविमुक्त कहा जाता है। उस अविमुक्त क्षेत्रमें परा सिद्धि और परमगति प्राप्त होती है। वहाँ किया गया जप, दान, हवन, यज्ञ, तप, शुभ कर्म, ध्यान, अध्ययन, दान | आदि सभी अक्षय हो जाते हैं। अविमुक्त क्षेत्रमें प्रवेश करनेवाले व्यक्तिके हजारों पूर्व जन्मोंमें जो पाप संचित होते हैं वे सभी नष्ट हो जाते हैं। वे अविमुक्तरूपी अग्निमें उसी प्रकार जल जाते हैं जैसे अग्निमें समर्पित की हुई रूई प्रिये यदि अविमुक्त क्षेत्रमें ब्राह्मण, क्षत्रिय 1 वैश्य, शूद्र, वर्णसंकर, कृमि, म्लेच्छ एवं अन्य निम्नस्तरके पापयोनिवाले कीट, चीटें, पशु, पक्षी आदि कालके वशीभूत हो मृत्युको प्राप्त होते हैं, तो उनकी क्या गति होती है, उसे सुनो। देवि! वे सभी मानव शरीर धारणकर मस्तकपर अर्धचन्द्रसे सुशोभित, ललाटमें तृतीय नेत्रसे युक्त शिवस्वरूप होकर मेरे शिवपुरमें जन्म लेते हैं। चाहे सकाम हो या निष्काम अथवा तिर्यग्योनिगत ही क्यों न हो, यदि वह अविमुक्त क्षेत्रमें प्राणोंका त्याग करता है तो मेरे लोकमें पूजित होता है। देवि! यदि मनुष्य कालक्रमानुसार कभी अविमुक्त क्षेत्रमें पहुँच जाय तो वहाँ पत्थरसे अपने चरणोंको तोड़कर स्थित रहे और पुनः अविमुक्त क्षेत्रसे बाहर न जाय, वहीं मृत्युको प्राप्त हो जाय तो वह भी मेरे पदको प्राप्त होता है। इसमें विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है ॥ 1324 ॥
प्रिये वस्त्रापथ (जूनागढ़, गिरिनार), रुद्रकोटि सिद्धेश्वर, महालय, गोकर्ण, रुद्रकर्ण तथा सुवर्णाक्ष, अमरकण्टक, महाकाल (उज्जैनी) और कायावरोहण | (कारावार, गुजरात) - ये सभी स्थान प्रातः और संध्याकालमें मेरी सोनिधिसे पवित्र माने जाते हैं। इसी प्रकार कालिंजरवन शङ्कुकर्ण और स्थलेश्वर (थानेश्वर) ये भी मेरी संनिधिके कारण ही पवित्र हैं। वरारोहे अविमुक क्षेत्रों में तीनों संध्याओंमें स्थित रहता हूँ इसमें संदेह नहीं है। प्रिये हरिचन्द्र अम्रातकेश्वर, जालेश्वर, श्रीपर्वत,महालय तथा शुभदायक कृमिचण्डेश्वर, केदार और महाभैरव-ये आठ स्थान परम गुह्य हैं और मेरी संनिधिसे पवित्र माने जाते हैं। किंतु सुन्दरि अविमुक्तक्षेत्रमें मैं तीनों - संध्याओं में निवास करता हूँ इसमें संदेह नहीं है। सुव्रते ! तीनों लोकोंमें जो भी पवित्र स्थान सुने जाते हैं, वे सभी अविमुक्त क्षेत्रके चरणोंमें सदा उपस्थित रहते हैं। शोभने ! अविमुक्त क्षेत्रकी इसके बादकी दिव्य कथा और माहात्म्य स्कन्द आत्मद्रष्टा ऋषियोंसे कहेंगे ।। 25- 32 ॥